इजरायल-फिलिस्तीन विवाद: जंग ही जंग, शांति क्यों नहीं? वजह समझिए
इजरायल और फिलिस्तीन विवाद के हल यही है कि दोनों देश, एक-दूसरे को देश माने। टू स्टेट सॉल्यूशन का सार यही है। अलग बात है कि अब इजरायल खुद नहीं चाहता है कि इसके जरिए विवाद सुलझे। वह फिलिस्तीन को मान्यता देने के सख्त खिलाफ है।

इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू। (AI Image, Photo Credit: Sora)
मिस्र का फिरौन साम्राज्य हो, बेबीलोन का कसदियन राजवंश हो, रोमन साम्राज्य हो या मध्ययुगीन यूरोप, अगर किसी एक समुदाय पर सबसे ज्यादा अत्याचार हुआ तो वह यहूदी समुदाय था। 20वीं सदी में तो नाजियों ने यहूदियों को गाजर-मूली की तरह काट डाला, भीषण यातनाएं दीं, जिन्हें याद कर आज भी लोग सिहर जाते हैं। साल 1933 से लेकर 1945 तक चले होलोकॉस्ट को कौन भूल सकता है, जब हिटलर के नाजियों ने 50 लाख यहूदियों का नरसंहार कर दिया।
19वीं से 20वीं सदी के दौरा में यहूदियों पर कहां-कहां अत्याचार नहीं हुए। पोग्रोम की क्रूर यातना कौन भूल सकता है, जब रूसी साम्राज्य और दूसरे देशों में यहूदियों को मारा गया। यहूदियों के इकलौते देश इजरायल को आज भी लगता है कि उसे मिटाने की कोशिश मिस्र, जॉर्डन, सीरिया, लेबनान, फलस्तीन और ईरान जैसे देश आज भी कर रहे हैं। इजरायल और फिलिस्तीन का यह संघर्ष, टू स्टेट सॉल्यूशन से हल हो सकता है लेकिन इजरायल को यह खटकता है।
टू स्टेट सॉल्यूशन से इजरायल को अब दिक्कत हो रही है। वजह पुरानी है। इतिहास में जाएंगे तो इजरायल और फिलिस्तीन के बीच का विवाद तब से है, जब दुनियाभर में ब्रिटिश उपनिवेश का सूरज डूबने लगा था और दुनिया 'स्वराज्य' के सिद्धांत पर आगे बढ़ रही थी। यह विवाद रोमन काल से होकर 19वीं सदी के अंत तक एक जैसा रहा है। यहूदी पूर्वी यूरोप में भीषण नरसंहार और हिंसा झेलने के बाद भाकर ऑटोमन साम्राज्य में आ गए थे। साम्राज्य का बड़ा हिस्सा, आज के फिलिस्तीन में पड़ता है।
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कब फिलिस्तीन आए यहूदी?
ऑटोमन साम्राज्य में अलग-अलग सुल्तानों की सल्तनत में यहूदी जमीन के इस हिस्से पर आते रहे। 15वीं शताब्दी में शुरुआत हुई, 1492 में स्पेन और पुर्तगाल से भगाए गए सेफारदी यहूदियों ने ऑटोमन साम्राज्य में शरण ली। इंस्ताबुल,सलोनिका और इजमिर जैसे शहरों में इन्हें ठिकाना मिला। ऑटोमन साम्राज्य के सुल्तान, यहूदियों के व्यापार को समझते थे। वे बेहतरीन व्यापारी थे, वे शिल्पकार थे। सेफारदी यहूदियों के अलावा अशकेनाजी यहूदियों ने भी यहां दस्तक दी। उन्हें कई अवसर मिले, व्यापार फला फूला लेकिन यह सब कुछ इतना आसान हमेशा नहीं रहा।
अशेकनाजी यहूदी, पूर्वी यूरोप से आए थे। सेफर्डिक यहूदियों के पूर्वज स्पेन और मध्य पूर्व से हैं। अमेरिका और इजरायल में ही यह समुदाय सुरक्षित है। यहूदियों को सबसे लंबे समय तक, हिंसा झेलनी पड़ी थी। 19वीं सदी के अंत में जब यहूदी पूर्वी यूरोप में हिंसा से बचने के लिए भागे तो उन्हें शरण ऑटोमन साम्राज्य में मिली। यह साम्राज्य आज का फिलिस्तीन और इजरायल है। साल 1917 में ब्रिटेन ने 'बोल्फोर घोषणा' की, जिसके जरिए फिलिस्तीन में एक 'नेशनल होम' का नारा बुलंद हुआ। अरबों के साथ तनाव बढ़ने की नींव यहीं से रखी गई।
बोल्फोर घोषणा: संघर्ष की नींव या विवाद का हल
2 नवंबर 1917 तक, प्रथम विश्व युद्ध खत्म नहीं हुआ था। ब्रिटिश सरकार ने 'बोल्फोर डिक्लियरेशन' जारी किया। घोषणापत्र में कहा गया कि फिलिस्तीन में यहूदियों के लिए एक 'नेशनल होम' होना चाहिए। एक जगह, एक राष्ट्रीय घर, व्यापक संदर्भ में एक देश। यह घोषणा ब्रिटेन के विदेश सचिव आर्थर जेम्स बाल्फोर ने की थी, उनके पत्र को ही 'बोल्फोर घोषणापत्र' कहा गया। यहीं से इजरायल के स्वतंत्रता की नींव भी पड़ी।
फिलिस्तीन, गिरते हुए ऑटोमन साम्राज्य का हिस्सा था। यहूदी वहां अल्पसंख्यक थे। इस घोषणापत्र में कहा गया था कि ब्रिटिश सरकार फिलिस्तीन में यहूदी नेशनल होम की स्थापना के समर्थन में है। यह भी कहा गया कि फिलिस्तीन में जहां दूसरे गैर यहूदी समुदाय हैं, उनके अधिकारों, हितों और मान्यताओं को हानि नहीं पहुंचाई गई। यहीं से 'यहूदी मातृभूमि' के आंदोलन ने जोर पकड़ा, क्षेत्रीय संघर्षों की नींव पड़ी।
अरबों को यह रास नहीं आया कि उनके बीच एक गैर मुस्लिम देश अस्तित्व में आए, वह भी यहूदी, जिन्हें दुनियाभर से भगाया गया। ब्रिटेन ने अरब उपनिवेशों से वादा भी किया था आपको स्वतंत्र किया जाएगा लेकिन यह स्वतंत्रा इजरायल की कीमत पर मिलने वाली थी, यह उन्हें रास नहीं आई। 1917 का यह विवाद, अब तक यथावत है, इजरायल के दुश्मन आज भी खाड़ी के कई देश हैं। मिस्र, जॉर्डन, सीरिया, लेबनान, फलस्तीन और ईरान सबसे असरदार हैं।
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1947, संयुक्त राष्ट्र और टू स्टेट सॉल्यूशन
साल 1947 में संयुक्त राष्ट्र ने ब्रिटिश शासित फिलिस्तीन को दो हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव था कि फिलिस्तीन का बंटवारा दो हिस्सों में हो जाए। एक यहूदी राज्य और एक अरब राज्य। फलस्तीनियों और पड़ोसी अरब देशों ने इसे स्वीकार नहीं किया। मई 1948 में इजरायल एलान किया कि अब वह स्वतंत्र देश है। यह एलान अरब देशों को रास नहीं आया। मिस्र, इराक, जॉर्डन और सीरिया की सेनाओं ने मिलकर संयुक्त रूप से हमला कर दिया। इजरायल को दो मायनों में जीत मिली। पहली कि संयुक्त रूप से इन देशों की सेनाएं इजरायल का कुछ नहीं बिगाड़ सकीं, करारी हार मिली। दूसरी कि साल 1949 में अरब देशों के साथ इजरायल की शांति वार्ता हुई, जिसमें संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव से भी ज्यादा जमीन इजरायल को हासिल हो गई।
नकबा: वह दर्द जो फिलिस्तीन और अरबों के लिए नासूर बन गया
1948 के बाद से फिलिस्तीन की गैर यहूदी आबादी भी उसी गुस्से का शिकार हुई, जिससे यहूदी समुदाय के लोग गुजरे थे। इजरायल के कब्जे वाले इलाके में रह रहे गैर यहूदी आबादी को विस्थापित होना पड़ा। यह विस्थापन, दो बंटे हुए देशों की सीमाओं की वजह से नहीं, नस्लीय आधार पर भी हुआ था। उन्हें जबरन भगाया गया। उनकी संस्कृति, पहचान और राजनीतिक अधिकारों का क्रूर दमन किया गया। तब, करीब 7 लाख फिलिस्तीनी इजरायल के कब्जे वाले इलाकों में रह रहे थे, उन्हें भगाया गया। कुछ भागे, कुछ जबरन बेदखल हुए। इसे फिलिस्तीन लोग 'नकबा' कहते हैं, जिसका मतलब तबाही होता है। वह इजरायल से भागे तो भी इजरायली सेना की निगरानी में रहे। उनकी जमीनें छीन ली गईं, समुदाय गरीब और दोयम दर्जे की जिंदगी जीती रही। ये लोग कभी अपने वतन नहीं लौट सके।
फिलिस्तीन देश बनने की छटपटाहट
साल 1964 तक यह सब होता रहा। फिलिस्तीन और इजरायल टकराते थे। इजरायल, मजबूत यहूदी देश के तौर पर उभर रहा था, फिलिस्तीन और अरब के देश मिलकर इजरायल का कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे थे। प्रॉक्सी वार का दौर भी इसी वक्त शुरू हुआ। साल 1965 में पहली बार यासर अराफात के नेतृत्व में फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन (PLO) की नींव पड़ी। यह संघठन, फिलिस्तीन की मुक्ति के लिए गठित हुआ था। मकसद था कि हिंसक सशस्त्र संघर्ष के जरिए यहूदियों के कब्जे में आए फिलिस्तीन को आजाद कराया जाए। यह संगठन, मजबूत संगठन था, जिसने इजरायल को हिला दिया था। यह संगठन छोटे-छोटे लेकिन गंभीर हमले करता। इजरायल की मुसीबतें इतनी बढ़ीं कि दुनियाभर का ध्यान गया।
6 दिनों की जंग और अरब को हासिल क्या हुआ?
साल 1967 तक फिलिस्तीन ने तगड़ी लामबंदी की। इजरायल के खिलाफ मिस्र, जॉर्डन और सीरिया जैसे मजबूत देश भड़क गए। नतीजतन इजरायल ने तीनों देशों के खिलाफ 6 दिवसीय जंग छेड़ दी। 5 जून 1967 से 10 जून 1967 तक चली इस जंग का असर यह है कि आज भी इजरायल के साथ इन देशों के संबंध सामान्य नहीं हो पाए हैं। मिस्र ने स्वेज नहर और 'तिरान स्ट्रेट' को इजरायल के लिए बंद कर दिया था। अरब देशों ने इजरायल पर हमला करने के लिए सैन्य तैयारियां पूरी कर ली थीं। इज़रायल ने पहले हमला किया, मिस्र के हवाई अड्डों को तबाह कर दिया।
युद्ध में इजरायल ने गाजा पट्टी, सिनाई प्रायद्वीप, वेस्ट बैंक, पूर्वी यरुशलम और गोलन हाइट्स पर कब्जा जमा लिया। यह ऐसी जंग थी, जिसमें मिडिल ईस्ट की 'जियो पॉलिटिक्स' बदल दी। वेस्ट बैंक में यहूदी बस्तियों का निर्माण शुरू हुआ। यह हिस्सा, इजरायल के कब्जे में है। यहां की फिलिस्तीनी आबादी, आज भी इजरायली सेना के शासन में रहती है।
इजरायल आज भी बताता है कि यह जंग, मजबूरी थी। अगर ऐसा नहीं होता तो इजरायल का अस्तित्व मिट जाता। कहां 3 मजबूत देशों का हमला, इजरायल झेल पाता। इजरायल के पक्ष में नतीजे आए और अरब को यह आभास हो गया कि इजरायल के साथ ही उन्हें रहना है, सारे देश मिलकर भी लड़ें तो भी इजरायल का कुछ नहीं बिगड़ने वाला है।
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साल 1987, गाजा में हमास का गठन और दशकों की अस्थिरता
1967 के बाद फिलिस्तीन में विद्रोही गुटों और पड़ोसी देशों से इजरायल निपटता रहा। छिटपुट संघर्ष होते रहे। साल 1987 में इजरायल को ऐसा दुश्मन मिला, जिसने कई गहरे घाव दिए। इजरायल की बौखलाहट के पीछे यह संगठन जड़ जमाकर बैठा है। यह साल था, जब शेख अहमद यासीन ने हमास की स्थापना की।
हमास को पाल पोस रहा था इजरायल!
हमास अपनी स्थापना के वक्त तक, एक इस्लामिक संगठन था, जिसका मकसद शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कार्यों से जुड़ा था। दिलचस्प बात यह है कि आज हमास के खात्मे का संकल्प लिए बैठे इजरायल ने ही हमास को पाला-पोसा था। कई इजरायली अधिकारी खुलकर कह चुके हैं कि अहमद यासीन के नेटवर्क को मजबूत करने के लिए शुरुआती तौर पर इजरायल ही आगे आया था। वे फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन के विकल्प के तौर पर हमास को देख रहे थे। 2010 के अंत और 2020 की शुरुआत में कुछ रिपोर्ट्स में दावा किया गया था कि इजरायली अधिकारियों चाहते थे कि कतर हमास को मदद दे। उन्होंने कतर को फंड देने के लिए प्रोत्साहित भी किया था।
पहला इंतिफादा: अंतहीन बगावत, संघर्ष और कत्ल-ए-आम
साल 1987 में फिलिस्तीनियों का पहला इंतिफादा शुरू हुआ। इसका अर्थ विद्रोह होता है। युवाओं ने इजरायल के खिलाफ पत्थरबाजी की, जिसका जवाब इजरायल ने बुरी तरह से दिया। फिलिस्तीनी की हुंकार भरने वाले युवाओं की फौज तैयार हुई। फिलिस्तीनी अपनी पहचान के लिए पूरी दुनिया में समर्थन पाने लगे। साल 1993 तक, ओस्लो समझौते के बाद फिलिस्तीन नेशनल अथॉरिटी बनी, जिसका शासनाधिकार वेस्ट बैंक और गाजा के कुछ हिस्सों तक रहा। यह एक तरह का सीमित स्वशासन था।
ओस्लो समझौते पर एक नजर
- 1993 में इजरायल और PLO के बीच शांति समझौता
- इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष को हल करने पर सहमति
- नार्वे की मध्यस्थता में फिलिस्तीन ने इजरायल को मान्या दी
- इजरायल ने PLO को फिलिस्तीनियों का प्रतिनिधि माना
- गाजा और वेस्ट बैंक के कुछ हिस्सों में फिलिस्तीन की स्वायत्तता
- स्थाई शांति वार्ता के लिए बेहतर रोड मैप तैयार
किन मुद्दों पर सहमति नहीं बनी
- यरुशलम: यरुशलम को लेकर इजराइल और फिलिस्तीनियों के बीच विवाद नहीं सुलझा। फिलिस्तीनी पूर्वी यरुशलम को अपनी होने वाली राजधानी मानते हैं। इजरायल, पूरे यरुशलम को अपनी राजधानी मानता है। एक इंच देने को तैयार नहीं है। समझौते में इस मुद्दे को अनसुलझा छोड़ दिया गया।
- शरणार्थी: 1948 के युद्ध के बाद विस्थापित फिलिस्तीनियों के वापसी के अधिकार पर कोई सहमति नहीं बनी। फिलिस्तीनी शरणार्थियों की वापसी चाहते हैं। इजरायल को यह खटकता है। इजरायल को लगता है कि अगर ऐसा हुआ तो डेमोग्राफी बदल जाएगी।
- इजरायली बस्तियों का विस्तार: वेस्ट बैंक और गाजा में इजरायली बस्तियों के निर्माण पर कोई स्पष्ट सहमति नहीं बन पाई है। इजरायल ने बस्तियों का विस्तार किया है, फिलिस्तीनी इसे अपनी जमीन पर अतिक्रमण मान बैठे हैं।
- सीमा विवाद: फिलिस्तीन की भौगोलिक सीमा क्या होगी, रूप-रेखा क्या होगी, इस पर कोई फैसला नहीं हो पाया। क्षेत्रीय विवाद की असली वजह यही है।
- सुरक्षा व्यवस्था: इजरायल चारो तरफ से दुश्मनों से घिरा है। अपनी सुरक्षा के लिए वह फिलिस्तीनी क्षेत्रों में भी कठोर नियंत्रण रखता है। फिलिस्तीनी इसे आजादी के खिलाफ मानते हैं।
दूसरा इंतिफादा: हिंसक संघर्ष, हासिल कुछ भी नहीं
1993 में शुरू हुई शांति वार्ता की कवायद 2000 के दशक में रुक गई। 2000 में दूसरी बार इंतिफादा की शुरुआत हुई। हमास सबसे भयावह रूप में सामने आया। आत्मघाती हमले का दौर शुरू हुआ। इजरायल पर भीषण हमले हुए। इजरायल ने बड़े पैमाने पर सैन्य कार्रवाई की। हजारों फलस्तीनी और सैकड़ों इजरायली मारे गए।
जब गाजा से इजरायल ने हटाई अपनी बस्तियां
साल 2005 में इज़राइल ने गाजा से अपनी सभी 20 से ज्यादा बस्तियों और 8,500 से ज्यादा नागरिकों को वापस बुलाया। यह इजरायल का 'डिसएंगेजमेंट प्लान' था। इजरायल पर सुरक्षा खतरा गाजा में हमेशा मंडरा रहा था, आर्थिक खर्च भी नियंत्रण की वजह से ज्यादा बढ़ रहा था। गाजा में सैन्य उपस्थिति और बस्तियों की सुरक्षा पर ज्यादा रकम खर्च हो रही थी। हमास के विद्रोह की वजह से सैनिक भी मारे जा रहे थे। इजरायल के तत्कालीन प्रधानमंत्री एरियल शेरोन का मानना था कि इस फैसले से शांति प्रक्रिया आगे बढ़ेगी, फिलिस्तीन के साथ एक सहमति बन सकेगी।
उनके इस फैसले से हमास का उभार और बढ़ गया। इजरायल ने हवाई और समुद्री सीमाओं पर अपना नियंत्रण बनाए रखा। साल 2006 में हमास ने गाजा में चुनाव जीता और 2007 में वहां की सत्ता अपने हाथ में ले ली। इसके बाद इजरायल ने गाजा की नाकाबंदी शुरू की। यह नाकाबंदी, गाजा के पिछड़ेपन की वजह बनी। वहां गरीबी, भुखमरी, बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति दशकों तक बरकरार रही।
तीसरी जंग और गाजा मिट गया
7 अक्तूबर 2023 को हमास ने इजरायल पर हमला किया। यह हमला येरुशलम पर हुआ था। इजरायल के 1200 से ज्यादा नागरिक मारे गए,सैकड़ों ड्रोन दागे गए। कई इजरायली नागरिकों को हमास ने बंधक बनाया। जवाबी कार्रवाई में इजरायल ने हमास पर हमला बोला और गाजा खत्म हो गया। गाजा और रफाह जैसे शहर अस्तित्व में ही नहीं रहे। ज्यादातर इमारतें खंडहर हो चुकी हैं। अस्पताल, घर, होटल, उद्योग, गाजा में कुछ भी नहीं बचा है। इजरायली तोपें, गाजा में घूम रही हैं। हमास के कई बड़े नेता मारे जा चुके हैं, यह संगठन आखिरी सांसें गिन रहा है। अब दुनिया चाहते तो भी गाजा को दोबारा खड़ा होने में दशकों लग सकते हैं। यह शहर, कंक्रीट के ढेर के अलावा कुछ भी नहीं बचा है। इस जंग में 60 हजार से ज्यादा फिलिस्तीनी मारे गए हैं, जिनमें बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग भी शामिल हैं। एक बड़ी आबादी भुखमरी से मर रही है, बुनियादी चीजों के लिए तरस रही है।
टू स्टेट सॉल्यूशन से दिक्कत किसे है?
इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को उस नीति से अब दिक्कत है, जिसकी कवायद संयुक्त राष्ट्र ने की थी। उन्हें टू स्टेट सॉल्यूशन नहीं चाहिए। वह अब फिलिस्तीन को मान्यता ही देना नहीं चाह रहे हैं। उनकी सरकार में शामिल कुछ दल वेस्ट बैंक के हिस्सों को इजरायल में मिलाने की वकालत करते हैं। मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि जिन इलाकों में इजरायल का कब्जा है, वहां फिलिस्तीनियों का दमन होता है, अत्याचार किया जाता है, भेदभावपूर्ण नीतियां अपनाई जाती हैं।
साल 1949 में हुए जेनेवा अधिवेशन में करीब 159 अनुच्छेद तैयार हुए, जो युद्ध और कब्जे से संबंधित थे। इनमें साफ तौर पर कहा गया कि कब्जे वाला देश, कब्जा किए हुए हिस्से के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार नहीं कर सकता। नागरिकों के भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा की जिम्मेदारी, कब्जे वाले देश की होती है।
दो-राष्ट्र समाधान की बात अब सिर्फ राजनीतिक कवायद रह गई है। फिलिस्तीन इजरायल को मान्यता नहीं देगा, इजरायल फिलिस्तीन को। वैश्विक लामबंदी भी खूब हो रही है। बेंजामिन नेतन्याहू साफ कह चुके हैं कि फिलिस्तीन को मान्यता देने वाले देश, आतंकवाद को मान्यता दे रहे हैं, जिसे इजरायल की आबादी झेल रही है। बेंजामिन नेतन्याहू ने साफ कहा है कि वह मान्यता देने वाले देशों को कभी नहीं भूलेंगे।
दुनिया चाहती है टू स्टेट सॉल्यूशन से सुलझे विवाद, बेंजामिन नेतन्याहू को है ऐतराज
ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और पुर्तगाल ने फिलिस्तीन को औपचारिक तौर पर एक स्वतंत्र देश की मान्यता संयुक्त राष्ट्र में दे दी है। अब तक करीब 150 देशों ने फिलिस्तीन को मान्यता दी है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर ने कहा कि दो राष्ट्र समाधान से ही मिडिल-ईस्ट में शांति आ सकती है। पुर्तगाल के विदेश मंत्री पाउलो रेंजेल ने भी यही कहा है कि फिलिस्तीन को मान्यता देना ही स्थायी शांति का इकलौता रास्ता है। फ्रांस और यूरोपीय यूनियन ने भी फिलिस्तीन को मान्यता देने की बात कही है। इजरायल गाजा में मानवाधिकारों के दमन और कथित युद्ध अपराधों के लिए दुनियाभर के निशाने पर है। बेंजामिन अब चाहते हैं कि दुनिया टू स्टेट सॉल्यूशन भूल जाए और असली हकीकत को पहचाने कि फिलिस्तीन को अगर मान्यता मिली तो इजरायल तबाह हो जाएगा।
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