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अमेरिका-ईरान परमाणु वार्ता की पूरी कहानी, रद्द होने का क्या होगा असर?

अमेरिका और ईरान के बीच परमाणु वार्ता कहां से और कैसे शुरू हुई? क्यों यह आज कर सफल नहीं हो पाई और और इसका क्या असर होने वाला है। जानें इस लेख में।

प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo Credit: AI Generated

प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo Credit: AI Generated

ईरान और अमेरिका के बीच चल रही परमाणु वार्ता सिर्फ दो देशों की आपसी बातचीत नहीं है, बल्कि यह वार्ता एक पूरे क्षेत्र की सुरक्षा, तेल व्यापार, आतंकवाद, और भूराजनैतिक संतुलन को प्रभावित करने वाली प्रक्रिया है। यह वार्ता वर्षों से बार-बार की विफलता और फिर से शुरू होने की प्रक्रिया के दौर से गुजरती रही है। जब 2015 में परमाणु समझौता (JCPOA) हुआ था, तो ऐसा लगा था कि पश्चिम एशिया की राजनीति में स्थिरता आ जाएगी। लेकिन ट्रंप के सत्ता में आने और 2018 में अमेरिका द्वारा उस समझौते को तोड़ने के बाद, स्थिति फिर एक गंभीर संकट में बदल गई।

 

हालांकि, इजरायल द्वारा ईरान किए गए हमले के बाद रविवार को होने वाली इस वार्ता को एक बार फिर से रद्द कर दिया गया है। ओमान ने इस बात की घोषणा की। ओमान ही इस वार्ता की मध्यस्थता कर रहा था। इसके बाद अमेरिका और ईरान के बीच होने वाली यह बातचीत फिर से अधर में लटक गई है। ऐसे में खबरगांव आपको यह बता रहा है कि यह विवाद शुरू कैसे हुआ, इस मामले में अब तक क्या हुआ है और आगे क्या की क्या संभावनाएं हैं?

 

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कहानी शुरू कहां से हुई?

ऐसा नहीं है कि परमाणु को लेकर ईरान की महत्वाकांक्षा कोई आज की बात है। इसकी शुरुआत 1950 के दशक में हुई, जब अमेरिका ने खुद ईरान को 'Atoms for Peace' कार्यक्रम के तहत परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण प्रयोग में मदद दी।

 

लेकिन 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद, अमेरिका और ईरान के संबंध बुरी तरह बिगड़ गए। तब से ही अमेरिका को यह शक रहा कि ईरान परमाणु ऊर्जा के बहाने परमाणु बम बना सकता है।

 

ईरान लगातार यह कहता रहा कि उसका कार्यक्रम पूरी तरह शांतिपूर्ण है और उसका मकसद सिर्फ बिजली उत्पादन और मेडिकल कार्यों के लिए उपयोग करना है। लेकिन जब 2000 के दशक में ईरान के परमाणु ठिकानों की सैटेलाइट तस्वीरें सामने आने लगीं और यूरेनियम संवर्धन (enrichment) की रिपोर्ट आई, तो दुनिया का शक गहराने लगा।

सिर्फ अमेरिका-ईरान का मामला नहीं

ईरान के परमाणु कार्यक्रम से जुड़ी सबसे बड़ी चिंता यह है कि अगर ईरान एक बार परमाणु हथियार बना लेता है, तो उसके बाद सऊदी अरब, तुर्की और मिस्र जैसे देश भी परमाणु होड़ में शामिल हो सकते हैं। इससे पूरा पश्चिम एशिया एक 'न्यूक्लियर टिंडरबॉक्स' बन सकता है।

 

इसके अलावा, ईरान के पास पहले से ही मिसाइल टेक्नॉलजी है, और वह हिज़्बुल्लाह जैसे आतंकवादी संगठनों को समर्थन देता रहा है। इसीलिए अमेरिका, यूरोपीय संघ, इजरायल और संयुक्त राष्ट्र को यह डर है कि ईरान परमाणु बम बनाकर उसे गलत हाथों में न दे दे।

2015 में शुरू हुई वार्ता

Joint Comprehensive Plan of Action (JCPOA), जिसे आम तौर पर 'ईरान न्यूक्लियर डील' कहा जाता है, 14 जुलाई 2015 को साइन किया गया था। इसमें ईरान और  P5+1 (अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, ब्रिटेन + जर्मनी) के देश और यूरोपीय संघ शामिल था।

 

इसका मुख्य उद्देश्य ईरान के परमाणु कार्यक्रम को सीमित करना और यह सुनिश्चित करना था कि ईरान परमाणु हथियार विकसित न करे, बदले में उस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों को हटाया जाए।

 

इस समझौते के तहत ईरान ने यह शर्त मानी थी कि वह  यूरेनियम संवर्धन 3.67% तक सीमित रखेगा,  अपने फोर्डो और नतांज जैसे गुप्त परमाणु ठिकानों को निरीक्षण के लिए खोलेगा, भंडारित यूरेनियम को सीमित करेगा और अंतरराष्ट्रीय परमाणु एजेंसी (IAEA) को नियमित निरीक्षण की अनुमति देगा।

 

इसके बदले में अमेरिका और यूरोप ने ईरान पर से आर्थिक प्रतिबंध (sanctions) हटा लिए थे, जिससे उसकी तेल बिक्री और विदेशी निवेश फिर से चालू हुआ।

ट्रंप का आना और डील का अंत

2016 में डोनाल्ड ट्रंप ने पहली बार अमेरिका का राष्ट्रपति पद संभाला और JCPOA को 'worst deal ever' बताया। उनका तर्क था कि डील स्थायी नहीं है (सिर्फ 15 साल के लिए है)। इसके बाद मई 2018 में ट्रंप ने अमेरिका को JCPOA से बाहर कर लिया, और ईरान पर फिर से कड़े आर्थिक प्रतिबंध लागू कर दिए। इसके जवाब में ईरान ने भी धीरे-धीरे डील की शर्तें तोड़नी शुरू कर दीं।

 

नतीजा यह हुआ कि ईरान ने यूरेनियम संवर्धन 60% तक बढ़ा दिया, IAEA के निरीक्षकों को रोक दिया और फोर्डो व नतांज साइट पर काम फिर से शुरू कर दिया। इससे एक बार फिर युद्ध की आशंका बढ़ गई।

बाइडेन की वापसी और बातचीत की कोशिशें

जो बाइडेन ने 2020 में चुनाव जीतने के बाद कहा कि वह JCPOA में वापस लौटना चाहते हैं। 2021 में वियना में बातचीत शुरू हुई, लेकिन कई दौर के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकला।

क्या रहीं अड़चनें?

ईरान की मांग थी कि पहले सभी प्रतिबंध हटाए जाएं जबकि अमेरिका की मांग थी कि ईरान पहले अपने परमाणु कार्यक्रम को नियंत्रित करे। इस बात को लेकर सहमति नहीं बन पाई। ईरान ने IAEA निरीक्षकों को रोक दिया। इस्राइल ने इस बीच ईरान के परमाणु ठिकानों पर साइबर हमले किए। 2022 में वार्ता लगभग टूट गई जब ईरान में महसा अमीनी की मौत के बाद देशव्यापी प्रदर्शन शुरू हुए और अमेरिका ने ईरानी सरकार पर मानवाधिकार उल्लंघन का आरोप लगाया।

बैक चैनल डिप्लोमेसी

2023 और 2024 में अमेरिका और ईरान के बीच कोई औपचारिक वार्ता नहीं हुई, लेकिन ओमान और कतर जैसे देशों के ज़रिए ‘Backchannel Diplomacy’ जारी रही। ईरान ने कुछ अमेरिकी कैदियों को रिहा किया, बदले में अमेरिका ने कुछ बैंकिंग छूट दीं।

 

2024 के अंत में एक अघोषित अस्थायी समझौता सामने आया जिसमें ईरान ने 60% यूरेनियम संवर्धन पर रोक लगाई, अमेरिका ने इराक़ और अफगानिस्तान में मौजूद कुछ प्रतिबंध हटाए और तेल बिक्री में थोड़ी छूट दी गई। हालांकि यह डील सिर्फ छह महीनों के लिए थी और इसका कोई स्थायी स्वरूप नहीं था।

अब क्या हालात हैं?

2025 की शुरुआत में बाइडेन प्रशासन फिर से वार्ता शुरू करना चाहता है, लेकिन अब हालात और कठिन हो गए हैं क्योंकि ऐसा माना जा रहा है कि ईरान परमाणु हथियार बनाने के लिए जरूरी संवर्द्धन की लगभग क्षमता पा चुका है,  वह रूस के साथ गहरे संबंध बना चुका है (ड्रोन डील, ऊर्जा सहयोग)। हालांकि, इस्राइल ने बार-बार चेतावनी दी है कि अगर ईरान परमाणु बम के करीब पहुंचा, तो वह सैन्य कार्रवाई करेगा।

 

इसके अलावा अमेरिका के अंदर भी विरोध बढ़ रहा है। रिपब्लिकन नेता JCPOA की वापसी का विरोध कर रहे हैं और कुछ डेमोक्रेट भी ऐसा मानते हैं कि ईरान मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है।

 

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क्या परमाणु युद्ध की आशंका है?

ईरान और अमेरिका के बीच की यह वार्ता एक राजनयिक दौड़ है। एक तरफ अमेरिका चाहता है कि परमाणु बम की आशंका खत्म हो, और दूसरी तरफ ईरान चाहता है कि उसे वैश्विक ताकत के रूप में स्वीकार किया जाए।

 

अगर वार्ता सफल होती है, तो दुनिया को एक और देश से परमाणु युद्धा का खतरा नहीं रह जाएगा, लेकिन अगर यह असफल होती है संभवतः इज़रायल सैन्य कार्रवाई कर सकता है। इसकी जवाबी कार्रवाई में ईरान खाड़ी में तेल टैंकरों को निशाना बना सकता है और अमेरिका फिर से पश्चिम एशिया में सैन्य दखल बढ़ा सकता है।

 

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