दुनियाभर में चॉकलेट का संकट! क्या भारत के लिए आपदा में है अवसर?
दुनियाभर में चॉकलेट के लिए जरूरी कोको का उत्पादन घट रहा है। जिन देशों में कोको का सबसे ज्यादा उत्पादन होता है, वहां भी यह घट रहा है। ऐसे में भारत के पास इस आपदा में अवसर है।

प्रतीकात्मक तस्वीर। (AI Generated Image)
वैसे तो क्लाइमेट चेंज का असर बहुत सी चीजों पर पड़ रहा है और 'चॉकलेट' भी उनमें से एक है। दुनियाभर में चॉकलेट की मांग लगातार बढ़ रही है लेकिन दूसरी तरफ इसका उत्पादन घट रहा है। चॉकलेट के लिए जरूरी है 'कोको' और इसका 70% से ज्यादा उत्पादन पश्चिम अफ्रीका में होता है। कुछ सालों से यहां उत्पादन गिर रहा है। कोको की पैदावार में गिरावट आने की बड़ी वजह क्लाइमेट चेंज को माना जा रहा है।
दरअसल, कोको की खेती के लिए खास तरह का मौसम चाहिए। यह ऐसी जगह नहीं होती जहां बहुत ज्यादा सर्दी या गर्मी पड़ती है। कोको की खेती के लिए बारिश भी बहुत जरूरी है। मगर कुछ सालों में क्लाइमेट चेंज ने गर्मी बढ़ा दी है और बारिश भी कम कर दी है। इसने कोको की पैदावार पर असर डाला है। एक तरफ हर साल चॉकलेट की डिमांड 3 से 5% तक बढ़ रही है तो दूसरी तरफ इसका उत्पादन बहुत ज्यादा घट रहा है।
कोको की पैदावार में कितनी कमी
दुनिया में 70% कोको की खेती पश्चिम अफ्रीका में होती है। आंकड़ों के मुताबिक, कोको का सबसे ज्यादा उत्पादन आइवरी कोस्ट और घाना में होता है। ये दो देश हैं, जहां दुनिया का 60% उत्पादन होता है।
आंकड़े बताते हैं कि यहां कोको का उत्पादन लगातार गिर रहा है। 2023-24 में घाना में कोको का सिर्फ 5.31 लाख टन उत्पादन ही हुआ था। इससे पहले तक हर साल यहां औसतन 8 लाख टन कोको का उत्पादन होता है। इसी तरह आइवरी कोस्ट में भी उत्पादन 20 फीसदी तक घट गया था। 2023-24 में आइवरी कोस्ट में करीब 18 लाख टन कोको का उत्पादन हुआ था, जबकि इससे पहले हर साल औसतन यहां 22 लाख टन से ज्यादा पैदावार होती थी।
इंटरनेशनल कोकोआ ऑर्गनाइजेशन (ICO) के मुताबिक, 2023-24 में दुनियाभर में कोको की पैदावार में लगभग 13 फीसदी की गिरावट आई थी। 2023-24 में कोको का उत्पादन 43.68 लाख टन हुआ था, जबकि इसकी मांग 48.18 लाख टन रही थी। इस हिसाब से डिमांड और सप्लाई में 4.94 लाख टन का अंतर था।
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घट क्यों रहा है उत्पादन?
इसकी सबसे बड़ी वजह क्लाइमेट चेंज है। इस कारण बारिश हो नहीं रही है और गर्मी बढ़ रही है। कोको की खेती तब होती है, जब अधिकतम तापमान 31 से 32 डिग्री और न्यूनतम तापमान 18 से 21 डिग्री सेल्सियस होता है। अगर तापमान थोड़ा सा भी ज्यादा होता है तो खेती पर इसका उल्टा असर पड़ता है।
पश्चिमी अफ्रीका के आइवरी कोस्ट, घाना, नाइजीरिया और कैमरून में कोको का बहुत ज्यादा उत्पादन होता है। अब यहां पर तापमान 41 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है।
बढ़ती गर्मी के अलावा बारिश के बदलते पैटर्न ने भी इस पर असर डाला है। यहां कभी बहुत ज्यादा बारिश होती है तो कभी सूखा पड़ जाता है। मसलन, 2023 में अल-नीनो के कारण यहां इतनी जबरदस्त बारिश हुई, जो 30 साल के औसत की दोगुनी थी। इसके बाद 2024 में यहां सूखा पड़ गया।
ज्यादा बारिश और उसके बाद जबरदस्त गर्मी की वजह से नमी बढ़ जाती है, इस कारण भी फसलें नष्ट हो जाती हैं। जानकारों का मानना है कि नमी की वजह से 80% तक फसल खराब हो सकती है।
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क्या इस आपदा में भारत के लिए है अवसर!
दुनियाभर में कोको का प्रोडक्शन लगातार घट रहा है। जिन देशों में कोको का सबसे ज्यादा उत्पादन होता था, वहां अब कुछ साल से घट रहा है। कोको के उत्पादन में कमी से चॉकलेट का संकट खड़ा हो गया है।
ऐसे में क्या इस आपदा में भारत के लिए कुछ अवसर छिपा है? भारत के पास अब वैसा ही मौका है, जैसा 1980 के दशक में इंडोनेशिया के पास था। तब दुनियाभर में कोको का उत्पादन घट रहा था। ऐसे में इंडोनेशिया ने ग्लोबल मार्केट में अपनी जगह बनाई और आज कोको की खेती करने वाला दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश बन गया। इंडोनेशिया में आज औसतन 6.42 लाख टन कोको का उत्पादन होता है।
कुछ सालों में भारत में कोको का उत्पादन काफी बढ़ा है। फॉर्च्यून इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, 2019-20 में भारत में कोको का 25,783 मीट्रिक टन उत्पादन हुआ था। 2023-24 तक यह बढ़कर 29,792 मीट्रिक टन पहुंच गया। 2019-20 से 2023-24 तक भारत में कोको की खेती वाला एरिया 11,723 हेक्टेयर बढ़ गया है। अब भारत में 1.09 लाख हेक्टेयर से ज्यादा की जमीन पर कोको की खेती होती है।
एक ओर पश्चिम अफ्रीकी देशों में क्लाइमेट चेंज की वजह से कोको का उत्पादन घट रहा है तो दूसरी तरफ भारत में बढ़ रहा है। भारत में कोको का एक पेड़ सालाना 2.5 से 5 किलो तक कोको पैदा करता है। जबकि, वैश्विक औसतन 0.25 किलो है।
इतना ही नहीं, केरल एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी और यूके की यूनिवर्सिटी ऑफ रीड ने मिलकर 600 से ज़्यादा कोको की जर्म-प्लाज्म इकट्ठा किए हैं। इनसे ऐसी हाइब्रिड किस्में बनाई जा रही हैं जो गर्मी और कम तापमान, दोनों को झेल सकें। इसके अलावा, भारतीय वैज्ञानिक कोको की ऐसी किस्मों पर भी काम कर रहे हैं, जो मल्टी-क्रॉप सिस्टम के तहत 100 साल तक फल-फूल सकें, जबकि सामान्य कोको के पेड़ 25 साल में खत्म हो जाते हैं।
हालांकि, अवसर के साथ भारत के सामने चुनौतियां भी हैं। भारत में कोको का उत्पादन बढ़ तो रहा है लेकिन अभी ग्लोबल मार्केट में हिस्सेदारी बहुत कम है। इसे बढ़ाना सबसे बड़ी चुनौती है। इसके साथ ही प्रीमियम चॉकलेट के लिए क्वालिटी बहुत जरूरी है। भारत को अपनी बीन्स की क्वालिटी को लगातार बनाए रखना होगा।
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