क्या एक नाजायज औलाद को अपने जैविक पिता के बारे में जानने का अधिकार है? या फिर ये मामला निजता का अधिकार होगा? इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला सुनाया है। करीब दो दशक पुराने ऐसे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को फैसला सुनाया।
मामला 23 साल के एक युवक से जुड़ा था। युवक ने अपनी मां के एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर्स का हवाला देते हुए अपने जैविक पिता से DNA टेस्ट की मांग की थी। हालांकि, कोर्ट ने उसकी मांग को इस आधार पर खारिज कर दिया कि दूसरे व्यक्ति का भी निजता का अधिकार है। कोर्ट ने कहा कि असली माता-पिता को जानने और निजता के अधिकार के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है।
क्या है मामला?
23 साल के लड़के ने याचिका में बताया था कि उसकी मां की शादी 1989 में हुई थी। 1991 में उन्हें एक बेटी हुई। 2001 में उसका जन्म हुआ। 2003 में उसकी मां पति से अलग हो गई और 2006 में दोनों में तलाक हो गया। महिला ने बर्थ रिकॉर्ड में अपने बेटे के पिता का नाम बदलवाने की कोशिश की लेकिन नगर निगम ने कहा कि अदालत के आदेश के बिना ऐसा नहीं किया जा सकता।
2007 में स्थानीय अदालत ने कथित जैविक पिता का DNA टेस्ट कराने का आदेश दिया। व्यक्ति ने इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी। 2018 में हाईकोर्ट ने बेटे को राहत देते हुए कहा कि बच्चे को अपने जैविक पिता से गुजारा-भत्ता और भरण-पोषण पाने का अधिकार है। बेटे ने दलील दी थी कि वो और उसकी मां कई बीमारियों से जूझ रहे हैं और उनके कानूनी पिता से उन्हें खर्च नहीं मिल रहा है, इसलिए जैविक पिता उन्हें खर्चा दें। इसके बाद कथित जैविक पिता ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्जल भुइंया की बेंच ने बेटे की कथित जैविक पिता से DNA टेस्ट की मांग को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि ऐसा करना व्यक्ति के निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा। कोर्ट ने कहा कि 'जबरन DNA टेस्ट करवाने से व्यक्ति के निजी जीवन पर बाहरी दुनिया की नजर पड़ सकती है। व्यक्ति की प्रतिष्ठा नष्ट हो सकती है। इसके साथ ही उसके सामाजिक और पेशेवर जीवन पर भी असर पड़ सकता है।'
इसके साथ ही कोर्ट ने दो दशकों से चले आ रहे इस केस को बंद कर दिया। कोर्ट ने युवक के जैविक पिता के दावे को खारिज कर दिया और उसे अपनी मां के पूर्व पति की ही संतान माना।