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जूता, टीशर्ट, मुफ्त की योजनाएं, आखिर किस ओर जा रही है राजनीति?

जनता के मुद्दे संसद सत्र तक से गायब होते जा रहे हैं। शोर-शराबे में मुद्दे दब गए हैं और नेताओं के जूते, टीशर्ट और मुफ्त के ऐलानों पर ही चर्चा हो रही है।

mps protesting in parliament

संसद में प्रदर्शन करते सांसद, Photo: Congress

हर पांच साल पर चुनाव होते हैं। देश की जनता इस उम्मीद से अपने नेता और सरकार चुनती है कि इस बार बदलाव हो जाएगा। मशीन पर बटन दबाती जनता को थोड़ा बहुत भरोसा होता है कि इस बार गांव की सड़क बन जाएगी, बीमार होने पर इलाज मिलने लगेगा और बिजली-पानी की समस्याएं दूर हो जाएंगी। कमोबेश ऐसे ही वादे करके ये नेता अपने क्षेत्र के विधायक और सांसद चुने जाते हैं। चुने जाते समय किए वादे दिल्ली पहुंचते-पहुंचते पीछे छूट जाते हैं। मुद्दे रास्तों में दम तोड़ देते हैं और संसद परिसर में पहुंचते-पहुंचते नेताओं की जुबान पर उनकी पार्टी के रटे-रटाए नारे और उनकी ओर से कही जाने वाली बातें ही रह जाती हैं। पार्टी हित को आगे रखने के चक्कर में वही नेता अपने लोगों की तकलीफें भूल जाता है। उसे याद रहता है तो सिर्फ विपक्षी नेता के टीशर्ट का ब्रांड, उसके जैकेट पर लिखा हुआ अक्षर या फिर कोई अन्य चीज जिसका जनहित से कोई लेना-देना ही नहीं।

 

हाल ही में राहुल गांधी के जूतों की कीमत को लेकर शुरू हुआ विवाद ऐसा ही है। भारतीय जनता पार्टी (BJP) के नेताओं ने नेता विपक्ष राहुल गांधी के जूतों की कथित कीमत को लेकर सवाल उठाए। उनका कहना था कि 3 लाख रुपये का जूता पहनने वाला जब गरीबों, दलितों और पिछड़ों की बात करता है तो लगता है कि वह उनको जूते मार रहा है। सवाल उठाने वाले राज्यसभा सांसद राधा मोहन दास अग्रवाल असिस्टेंट प्रोफेसर और डॉक्टर रहे हैं। हमने राज्यसभा की वेबसाइट पर खंगाला तो पता चला कि इस साल के शीतकालीन सत्र में राधा मोहन दास अग्रवाल ने कोई सवाल ही नहीं पूछा। यानी कि जनता के प्रतिनिधि की रुचि जनता के मुद्दों में कम राहुल गांधी के जूतों की कीमत में ज्यादा है।

 

ऐसे ही विवाद पहले राहुल गांधी की टीशर्ट, नरेंद्र मोदी की जैकेट, किसी नेता की महंगी गाड़ी और अन्य चीजों पर भी होते रहे हैं। इन सब पर सवाल होना चाहिए लेकिन सिर्फ इन पर सवाल नहीं होना चाहिए। संसद के इस सत्र के दौरान ही हमने देखा कि क्या-क्या हुआ। संसद का आधा समय हंगामे की वजह से बर्बाद हुआ। नीतिगत चर्चाओं के बजाय नेताओं ने अपनी-अपनी पार्टी के हिसाब से सही बैठने वाले मुद्दों की चर्चा की। चर्चा न हो पाने पर शोर किया और दर्जनों बिल संसद में लटके ही रह गए। गिनती के बिल पास हुए और बाकियों को अगले सत्र का इंतजार है। यह सब तब हो रहा है जब भारत देश अभी भी विकासशील देशों की लिस्ट में ही है और कई मानकों पर बहुत पीछे है।

क्या है भारत की स्थिति?

 

ऐसा नहीं है कि भारत ने खुद को हर मामले में अमीर, खुशहाल और विकसित देशों में शामिल कर लिया है। वर्ल्ड हैपीनेस इडेक्स में भारत 126वें नंबर पर है। हंगर इंडेक्स में 111वें नंबर पर, पीस इंडेक्स में 126वें नंबर पर, करप्शन परसेप्शन इंडेक्स में 93वें नंबर पर, प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 161वें नंबर पर है और एयर क्वालिटी के हिसाब से तीसरा सबसे प्रदूषित देश है। ये आंकड़े और रैंकिंग यह दर्शाती है कि भारत को अभी बहुत विकास करना है और मूलभूत सुविधाओं के लिए ही बहुत काम करना है। इतने मामलों में पिछड़ने के बावजूद नीतिगत मामलों पर चर्चा करने के बजाय भारत के नेताओं का मुद्दों से हटकर बहस करना चिंताजनक है।

मुद्दों पर हावी ऐलान

 

ऐसा ही हाल दिल्ली में है। दिल्ली में अगले साल की शुरुआत में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। दशकों से सत्ता से बाहर चल रही बीजेपी मुद्दे उठा तो रही है लेकिन ये मुद्दे अरविंद केजरीवाल की ओर से किए जा रहे ऐलान के सामने दबते जा रहे हैं। लोकलुभावनी योजनाएं कर रहे अरविंद केजरीवाल बड़ी चतुराई से अपने पांच साल के कार्यकाल के दौरान हुई गड़बड़ियों और अधूरे वादों के मुद्दे को दबाने में कामयाब हो रहे हैं। दूसरी तरफ मुद्दों से भटका विपक्ष उन समस्याओं को उजागर ही नहीं कर पा रहा है जो असल में जनता से जुड़ी हुई हैं।

बयानों पर सिमटी राजनीति

 

एक और ट्रेंड देखने को मिला है कि कोई नेता एक बयान दे देता है और बाकी के दल उसी के इर्द-गिर्द बयान देने में ही रह जाते हैं। हाल ही में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की ओर से संसद में दिया गया बयान कुछ ऐसा ही रहा। संसद में अमित शाह ने एक बयान दिया और इस बयान के जवाब में पूरा विपक्ष हंगामे पर उतर आया। अगले तीन से चार दिन इसी में निकल गए। कांग्रेस ने आरोप लगाए, बीजेपी ने जवाब दिया। खुद अमित शाह ने सफाई दी। हालांकि, भाषण और बयान प्रिय नेता सिर्फ जूतमपैजार में ही जुटे रहे। इसका नतीजा यह हुआ कि तीन से चार दिन संसद सत्र का समय बर्बाद हुआ और चर्चा ही नहीं हो पाई।

 

अगर इसी मुद्दे पर चर्चा करनी थी तो बेहतर यही होता कि संसद के अंदर आंबेडकर पर ही चर्चा होती। हालांकि, ऐसा न तो होना था और न ही हुआ। हर दिन अलग-अलग पार्टियों के नेताओं ने बयान के जवाब में बयान दिए, नारेबाजी के जवाब में नारेबाजी की और प्रदर्शन के जवाब में प्रदर्शन किया। दूसरी तरफ, इन प्रतिनिधियों को चुनकर संसद तक भेजने वाली जनता इंतजार करती रही कि आखिर उनके मुद्दों पर चर्चा कब होगी।

 

 

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