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शंकराचार्य: आदि से अंत तक क्या है वैदिक धर्म के इस उद्धारक की कहानी?

आदि शंकराचार्य के जीवनकाल में बौद्ध दर्शन का प्रचार-प्रसार अपने उभार पर था। वैदिक धर्म बंट गया था और लोगों की आस्था बंट रही थी। कैसे उन्होंने फिर से सनातन धर्म का एकीकरण किया, पढ़ें कहानी।

Adi Shankaracharya

ओंकारेश्वर में मांधाता पर्वत पर आदि शंकराचार्य की यह मूर्ति स्थापित है। (इमेज क्रेडिट- www.mptourism.com)

1200 साल पहले का भारत। 84 से ज्यादा संप्रदायों में बंटा सनातन धर्म। बौद्ध धर्म में वज्रयान संप्रदाय के विस्तार का युग। बौद्ध धर्म हीनयान-महायान नहीं, तांत्रिक प्रयोगों के दलदल में फंस गया था। वैदिक धर्म में अलग-अलग देवताओं के संप्रदाय। जिन्होंने शिव को माना वे शैव, जिन्होंने विष्णु को वे वैष्णव, जिन्होंने शक्ति को पूजा वे शाक्त, जिनके आराध्य गणपति बने वे गाणपत्य। इन संप्रदायों का खूनी संघर्ष। विद्रोहों, विभिन्नताओं के इस भंवर में वैदिक धर्म को जीवित करने एक बालक निकल पड़ा, जिसका नाम शंकर था।

केरल के एरनाकुलम जिले के कालटी गांव में एक बालक जन्मता है। निंबूदरीपाद ब्राह्मणों के इस गांव में शिवगुरु नाम के एक विद्वान रहते थे। वे भगवान शिव के उपासक थे। उन्हें जब पुत्र हुआ तो उनका नाम शंकर रख दिया। इतिहासकारों की मानें तो बालक शंकर का जन्म 788 ईस्वी में हुआ था। बालक शंकर ने 3 साल की उम्र में ही वेद पढ़ लिया था, वे धार्मिक प्रश्नों का उत्तर देने लगे। वे आध्यात्मिकता की गहरी पहेलियां समझने-बूझने लगे। मोह से मोक्ष तक के जटिल प्रश्नों का मर्म उन्हें पता चल गया था। आचार्यों के मन में जितने सवाल होते, शंकर के पास उनके असंख्य जवाब। कालचक्र बदला। 3 साल में ही उनके पिता का निधन हो गया।

7 साल की उम्र में कंठस्थ हो गए थे सारे वेद-पुराण
बालक शंकर का 5 साल की उम्र में उपनयन संस्कार कराया गया। जब वे 7 साल के हुए तो सारे वेद, पुराण और भाष्य कंठस्थ हो गए। अब उनके पास गुरुओं को सिखाने के लिए कुछ नहीं बचा। कहते हैं कि शंकर बाल्यकाल में थे, तभी एक ऋषि उनके आश्रम में आए। उन्होंने बालक शंकर का भविष्य देखकर कहा कि बालक शंकर अल्पायु होंगे। 32 वर्ष में उनका निधन हो जाएगा। पुत्र के बारे में ऐसी भविष्यवाणी सुनकर वे रो पड़ीं। वहीं शंकर जन्म और मृत्यु के बंधनों से मुक्त होने के लिए संन्यास के प्रति संकल्पित हो गए। उनकी मां गिड़गिड़ाती रहीं कि वे गृहस्थ बनें लेकिन उन्होंने एक न सुनी।

शंकर को जब घड़ियाल ने धर दबोचा
एक दिन वे नदी में नहाने गए। उन्हें घड़ियाल खींचने लगा। शंकर गहरे पानी में उतरते गए। उन्हें बचाने उनकी मां आईं, ग्रामीण आए। वे और गहरे पानी में उतरते गए। शंकर ने कहा कि अगर वे चाहती हैं कि घड़ियाल उन्हें छोड़ दे वे संन्यास की अनुमति दे दें। मां को कुछ नहीं सूझा, उन्होंने हां कह दिया। मां ने शंकर से एक वचन लिया कि वे उनके अंतिम क्षणों में साथ रहें। शंकर ने कहा कि जब उनकी मां उन्हें पुकारेंगी, वे चले आएंगे। 

जब शंकर को मिले पहले गुरु

शंकर, संन्यास से विरक्त हो चुके थे। उन्होंने अपनी मां से पहली भिक्षा मांगी और निकल पड़े गुरु की खोज में। वे कलाडी से निकले और ऋृंगेरी और गोकर्ण को पार करते हुए नर्मदा नदी के किनारे ओंकारेश्वर पहुंचे। वहां उनकी भेंट ऋषि गोविंदपाद से हुई। वे तप कर रहे थे। बालक शंकर ने उन्हें प्रणाम किया तो उन्होंने परिचय पूछा। उन्होंने परिचय में कहा कि वे मूलतत्व हैं। गुरु गोविंदपाद प्रभावित हो गए। 9 साल की उम्र में उन्होंने बालक शंकर को संन्यास की दिक्षा दी। गुरु गोविंदपाद ने शंकर से कहा कि वे प्रज्ञानं ब्रह्म, अहम् ब्रह्मास्मि,तत्त्वमसि और अयमात्मा ब्रह्म पर भाष्य लिखें।


12 साल की उम्र में बुजुर्गों से शास्त्रार्थ करते थे शंकर

श्रीगोविंदपाद ने शंकर का नाम शंकराचार्य कर दिया। गुरुगोविंदपाद ने इन्हीं चार वाक्यों की उन्हें दिक्षा दी तो उन्होंने अपनी प्रतिभा से सबको निरुत्तर कर दिया था। 12 साल की उम्र में उन्होंने देश के विद्वानों को नतमस्तक कर दिया था। शंकराचार्य की ख्याति देशभर में फैलने लगी थी। अब वे भ्रमण करते-करते काशी पहुंचे। काशी, विद्वानों की नगरी थी। शंकराचार्य को मान्यता तब मिलती जब वे यहां के विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित करते। वे काशी आए। उनके ज्ञान से प्रभावित होकर लोग उनके शिष्य बनने लगे। शंकराचार्य ने बौद्ध संन्यासियों को अपने ज्ञान से प्रभावित कर शिष्य बना लिया।

जब चांडाल ने शंकर को दिया ब्रह्मज्ञान

ऐसी जनश्रुति है कि आचार्य शंकर से चांडाल के भेष में भगवान शिव मिले और उन्हें दिव्यज्ञान दिया। उन्हें आत्मा-परमात्मा, भेदभाव और दर्शन से संबंधित ऐसा ज्ञान मिला कि उन्हें आभास हुआ कि जीव और परमसत्ता एक है। उन्होंने उस चंडाल का भी शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। उन्हें मूलसत्ता का आभास कर लिया। आचार्य शंकर, यहां से निकलकर बद्रीनाथ चले गए। वे अपने शिष्यों के साथ अलकनंदा के किनारे बद्रीनाथ में 4 तप किया। उन्होंने ही नदी से भगवान बद्रीनाथ की प्रतिमा निकालकर मंदिर में स्थापित किया। वे व्यास गुफा में रहते और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखते। आचार्य शंकर ने काशी में प्रस्थानत्रयी ग्रंथ की रचना की। यह ग्रंथ भगवत गीता, ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों का सार था। उन्होंने प्रकरण ग्रंथ लिखे, संस्कृत में कई प्रसिद्ध भजन लिखे।

आचार्य शंकर ने अपनी धर्म यात्रा में बड़े से बड़े विद्वानों को परास्त किया। अब उन्हें काशी परंपरा के सबसे बड़े विद्वान मंडन मिश्र से चुनौती मिल रही थी। 

बिहार के सहरसा जिले के महिषी गांव में मंडन मिश्र, अपनी पत्नी भारती के साथ रहते थे। उनकी पत्नी भी मंडन मिश्र की तरह ही विद्वान थीं। उनकी विद्वता ऐसी थी कि उनके घर के बाहर रहने वाले तोते भी संस्कृत के श्लोक बोलते थे। 

 

आचार्य शंकर, कुएं पर पानी भर रही कुछ महिलाओं से मंडन मिश्र का पता पूछते हैं। वे जवाब में कहती हैं, 'स्वत:प्रमाणं परत: प्रमाणं,
शुकांगना यत्र गिरो गिरन्ति। शिष्योपशिष्यै रूपीगीयमान:, भवेहि तन्मण्डन मिश्र धाम:।।'' अर्थ है 'वेद स्वतः प्रमाण है या परत: प्रमाण है, कर्म फल देता है या ईश्वर, जगत् नित्य है या अनित्य। जहां पिंजरों में बंद तोता-मैना शास्त्रार्थ करते हों, वही घर मंडन मिश्र का धाम है।'

 

मंडन मिश्र और शंकर का शास्त्रार्थ

शंकर घूमते-घूमते उनके घर पहुंचे। मंडन मिश्र, श्राद्धकर्म कर रहे थे। ऐसे कर्म में दंडी संन्यासियों का आना शुभ नहीं माना जाता। वे अपने आंगन में श्राद्ध कर रहे थे, तभी दरवाजा बंद देखकर सीधे शंकर वहीं पहुंच गए। मंडन मिश्र क्रोधित हुए। पौराणिक मान्यता है कि संन्यासियों को देखकर आह्वाहित पूर्वज लज्जित होते हैं। वे पितृलोक से आते हैं, संन्यासी मुक्त हो जाता है। वे बंधन से बंधे होते हैं, संन्यासी मुक्त होते हैं।

मंडन मिश्र क्रोधित होते हैं। वे कुछ कठिन प्रश्न पूछते हैं, शंकर उनका उत्तर देते हैं। उनका क्रोध भड़कता है तो वहां मौजूद दूसरे विद्वान उन्हें शांत कराते हैं। आचार्य शंकर उनसे शास्त्रार्थ की इच्छा करते हैं। मंडन मिश्र तैयार हो जाते हैं और उनकी पत्नी अभय भारती शास्त्रार्थ की निर्णायक बनती हैं। दोनों अपना-अपना मत प्रस्तुत करते हैं। शंकराचार्य अपने तर्क रखते हैं। 

शंकराचार्य कहते हैं- 
'ब्रह्मैक्यं परमार्थ सच्चिदमलं विश्वप्रपंचात्मना।
शुक्तिरूप्यपरमात्मनैव बहुला ज्ञानवृतं भासते।।
तज्ज्ञानन्निखिल प्रपंच विलयात्स्वात्मन्यवस्था परं।
निर्वाणं जनि मुक्तिमभ्युपगतं मानं श्रुतेर्मस्तकं।।'

अर्थ है कि परमार्थ की सत्ता में ब्रह्म निर्मल है, अज्ञान के अंधकार में जगत का विस्तार सीपी में मोती के समान दिखता है। अज्ञान से छूटकर व्यक्ति मुक्त होता है और भ्रम के जगत का लोप हो जाता है और जीव को निर्वाण पद मिल जाता है। श्रुति कहती है कि तीन भेदों से रहित ब्रह्म एक है। आत्मदर्शी शोक-मोह से परे होता है। उसका पुनर्जन्म नहीं होता। यह मेरी प्रतिज्ञा है। अगर मैं शास्त्रार्थ में हारा तो संन्यास छोड़कर गृहस्थ हो जाऊंगा।

आचार्य शंकर के इस श्लोक को सुनकर मंडन मिश्र कहते हैं कि वेदांत प्रमाण नहीं हैं। कर्मकांड प्रमाण हैं, वेद कर्मों से मुक्ति की बात कहता है, इसलिए कर्म पहले करने चाहिए, मुक्ति बाद में। मनुष्य को आजीवन कर्म करना चाहिए। यह मेरी प्रतिज्ञा है। अगर मैं हारा तो गृहस्थ धर्म छोड़कर संन्यास ले लूंगा। मींमांसा और वैदिक कर्मकांड के प्रकांड पंडित और आचार्य शंकर के दर्शन के बीच महीनों तक शास्त्रार्थ चला। आचार्य शंकर कहते हैं कि इंद्रीय और बुद्धि से ब्रह्म परे हैं। वे जीव में भी हैं, जीवन में हैं। आचार्य शंकर के तर्कों से मंडन मिश्र हार गए और पराजय स्वीकार कर ली।

जब मंडलन मिश्र की पत्नी उदय भारती के प्रश्नों पर चुप हो गए आदि शंकराचार्य

आचार्य मंडन, ब्रह्म तत्व पर शंकराचार्य का भाष्य मांग लेते हैं। तभी उभय भारती, निर्णायक के पद से उठ खड़ी होती हैं। वे कहती हैं कि वेदों में पत्नी को पति की आर्धांगिनि कहा गया है। ऐसे में पति पूर्ण नहीं हैं। उनका एक अंग मैं हूं, मैं शास्त्रार्थ करूंगी। यदि आप मुझे पराजित कर सकते हैं तभी मेरे पति आपके शिष्य बनेंगे। अगर आप मुझसे शास्त्रार्थ नहीं करते हैं तो अपनी पराजय स्वीकारिए। 


उभय भारती ने आचार्य शंकर को हतप्रभ कर दिया। आचार्य शंकर उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार होते हैं। पहले ही प्रश्न पर शंकराचार्य नि:शब्द हो जाते हैं। 17 दिनों तक यह शास्त्रार्थ चलता रहा। जब उभय भारती को लगा कि अब प्रश्न समाप्त हो रहे हैं तो उन्होंने ऐसा प्रश्न पूछ लिया कि आचार्य शंकर आवाक रह गए। प्रश्न स्त्री-पुरुष संबंधों से जुड़े थें। वे ब्रह्मचारी शंकर से कामशास्त्र पर कठिन प्रश्न कर डालती हैं। ये प्रश्न, अंतरंगता से जुड़े हुए थे। आचार्य शंकर इससे अनभिज्ञ होते हैं। 

आचार्य शंकर कहते हैं कि संन्यासी से ऐसे प्रश्न क्यों पूछे जा रहे हैं। मंडन मिश्र कहते हैं कि काम पर विचार करने से भी उनका संन्यास धर्म खंडित हो जाता है। आचार्य शंकर, उभय भारती से समय मांगकर तप करने चले जाते हैं। उन्होंने अध्ययन किया किया और कामशास्त्र में पारंगत हुए। कहते हैं कि कामरूप नाम के एक राजा के शरीर में जाकर उन्होंने अपनी आत्मा को योग बल से स्थापित कर लिया था। उन्होंने इसी दौरान काम शास्त्र सीख लिया और अपने पुराने शरीर में वापस आ गए। अब वे दोबारा मंडन मिश्र के आश्रम पहुंचते हैं और अपने शास्त्रार्थ को अंतिम रूप देते हैं।

एक जनश्रुति यह भी है कि आचार्य शंकर जब अध्ययन करने के बाद मंडन मिश्र के आश्रम आते हैं, तब उनकी पत्नी भारती कहती हैं कि अब शास्त्रार्थ की आवश्यकता नहीं है। पति की हार में पत्नी की भी हार होती है। यह दंपति हार स्वीकार कर लेता है। आचार्य शंकर का उद्देश्य किसी को हराना नहीं होता, वे बस सबको वेदांत दर्शन और वैदिक धर्म से जोड़ना चाहते थे। 

दिग्विजय यात्रा और मठ परंपरा की नींव
रामेश्वर से शुरू हुई आदि शंकराचार्य की यह धार्मिक यात्रा, सनातन धर्म की दिग्विजय यात्रा बन गई। आचार्य शंकर कश्मीर के शारदापीठ गए। पूरब में वे बंगाल और असम गए। पश्चिम में वे तक्षशिला में जाकर बौद्ध संतों से शास्त्रार्थ किया। वे 80 से ज्यादा संप्रदायों के धर्माचार्यों से मिले और उन्हें पराजित किया। उन्होंने जिन आचार्यों से शास्त्रार्थ किया, वे इनके शिष्य बन गए। वे अपने शिष्यों के साथ बद्रीनाथ चले गए। वहां से जोशीमठ पहुंचे। उन्होंने चारो दिशाओं में मठों की स्थापना की। पद्मपाद, सुरेश्वर, हस्तामलंग और टोटक उनके चार प्रमुख शिष्य महादिश बने, अन्य शिष्य, सहायक बने। आदि शंकराचार्य ने उत्तर दिशा में ज्योतिर्मठ, दक्षिण में ऋृंगेरमठ, पश्चिम द्वारका मठ और पूरब में गोवर्धन मठ की स्थापना की। इन मठों के लिए 4 शंकराचार्य बनाए गए। यह परंपरा आज भी चलती आ रही है।

शंकराचार्य ने इन चार मठों से 10 संप्रदायों को जोड़ा। दशनामी महामंडलाचार्यों की मदद से उन्होंने सनातन धर्म को नई दिशा। वे केदारनाथ चले गए थे। उम्र के 32वें पड़ाव पर वे समाधीस्थ रहने लगे थे। वे कहते कि ब्रह्म सत्य हैं और जगत मिथ्या है। जीव ही ब्रह्म है। जीव और ब्रह्म में भेद नहीं होता है। उनके दर्शन का विस्तार आज के हिंदू धर्म पर नजर आता है। जब उन्होंने अपना काम पूरा कर लिया तो वे ब्रह्मलीन हो गए थे। केदारनाथ में ही उनकी समाधि है। 

आदि शंकराचार्य के लिखे ग्रंथ कौन-कौन से हैं?

कहते हैं कि आदि शकंराचार्य ने 200 से ज्यादा ग्रंथ लिखे। ब्रह्मसूत्र, उपनिषद भाष्य, गीता भाष्य, विष्णु सहस्त्रनाम, सनत्सुजातीय भाष्य, हस्तमलक जैसी कई किताबें उनकी प्रसिद्ध हैं. उन्होंने हिंदू धर्म के कई मशहूर भजन भी लिखे। शंकराचार्य ने सभी धर्मों के आचार्यों को हराया था, इसलिए उनके पद को वैदिक धर्म में बहुत ऊंचा माना जाता है। वे सभी गुरुओं के आदि गुरु कहलाते हैं। अपनी दिग्विजय यात्रा के दौरान उन्होंने रामानंदाचार्य, वैष्णवाचार्य, रामानुजाचार्य, राघवाचार्य जैसे कई संप्रदायों के आचार्यों को पराजित किया था। उनकी देह शांत होने के बाद वे सनातन धर्म के सबसे बड़े धर्मगुरु बन गए थे।

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