अक्षय तृतीया हिन्दू और जैन धर्म के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण दिन है। जहां एक तरफ हिन्दू धर्म में इस दिन को पूजा-पाठ के लिए जाना जाता है, वहीं दूसरी ओर जैन धर्म में भी इस दिन का विशेष महत्व है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसे भगवान ऋषभदेव के प्रथम पारण (अर्थात उपवास समाप्ति) के दिन के रूप में मनाया जाता है।
अक्षय तृतीया और जैन धर्म का संबंध
जैन ग्रंथों के अनुसार, आदिनाथ ऋषभदेव, जो पहले तीर्थंकर माने जाते हैं, ने संसारिक जीवन छोड़ने के बाद कठिन तपस्या आरंभ की। वे दीक्षा लेने के बाद बिना अन्न-जल के निरंतर तप करते रहे। उन्होंने संकल्प लिया कि वे केवल उस समय आहार ग्रहण करेंगे जब कोई श्रावक (गृहस्थ भक्त) श्रद्धापूर्वक उचित विधि से आहार अर्पित करेगा। हालांकि उस समय तक कोई भी आहार देने की परंपरा नहीं थी, क्योंकि वह प्रथम तीर्थंकर थे और लोगों को दान देने का ज्ञान नहीं था। इस कारण ऋषभदेवजी को लगातार एक वर्ष तक निराहार तप करना पड़ा।
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भगवान ऋषभदेव ने किया तप का पारण
एक वर्ष पूर्ण होने पर, भगवान ऋषभदेव ने अयोध्या नगरी में राजा श्रेयांस के घर जाकर आहार ग्रहण किया। श्रेयांस ने स्वप्न में सीखा कि तपस्वी को किस प्रकार आहार अर्पित करना चाहिए। उन्होंने विधिपूर्वक भगवान को गन्ने के रस (इक्षु रस) का पात्रीय आहार प्रदान किया। इस प्रकार ऋषभदेवजी का एक वर्ष का तप पूर्ण हुआ और पहला पारण संपन्न हुआ।
यह घटना वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को हुई थी, जिसे आज 'अक्षय तृतीया' के नाम से जाना जाता है। जैन धर्मावलंबी इस दिन विशेष उपवास करते हैं और अनेक श्रद्धालु इस दिन वर्षीतप (एक वर्ष तक एक दिन उपवास और एक दिन भोजन करना) का पारण करते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस दिन किया गया दान, व्रत और तप कभी नष्ट नहीं होता और इसका पुण्य अक्षय बना रहता है।
जैन समुदाय के लोग इस दिन विशेष रूप से गन्ने के रस, जल या साधारण आहार से व्रत का पारण करते हैं। कुछ स्थानों पर सामूहिक पारण आयोजन भी होते हैं, जहां तपस्वियों को विधिपूर्वक आहार प्रदान किया जाता है। अक्षय तृतीया न केवल तप और व्रत का महत्त्व दर्शाती है बल्कि आहारदान की परंपरा की शुरुआत का भी प्रतीक है। यही कारण है कि यह दिन जैन धर्म में विशेष श्रद्धा और सम्मान के साथ मनाया जाता है।