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कौन हैं भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्र देवर्षि नारद? सब जानें

धर्म शास्त्रों में यह बताया गया है कि देवऋषी नारद भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्र कहे जाते हैं। आइए जानते हैं नारद मुनि की कथा।

Image of Bhagwan Vishnu and Narad

भगवान विष्णु और देवर्षि नारद(Photo Credit: AI Image)

हिंदू पुराणों के अनुसार, ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना के लिए कई मानस पुत्रों को जन्म दिया। इन्हीं में से एक थे नारद मुनि। 'मानस पुत्र' का अर्थ होता है विचार या ध्यान से उत्पन्न संतान। नारद जी का जन्म किसी स्त्री के गर्भ से नहीं, बल्कि ब्रह्मा जी की तपस्या और मन की शक्ति से हुआ।

 

नारद जी जन्म से ही अत्यंत जिज्ञासु, ज्ञान के प्यासे और विवेकी थे। वे संसार के रहस्यों को जानने और ईश्वर की सच्ची भक्ति का अर्थ समझने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। बचपन से ही वे साधु-संतों की संगति में रहते थे और उनसे भक्ति, योग, तप और ज्ञान के विषय में सीखते रहते थे।

 

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पूर्व जन्म की कथा और भक्ति मार्ग

भागवत पुराण में नारद मुनि के एक पूर्व जन्म की कथा मिलती है। उस जन्म में वे एक निर्धन ब्राह्मण की संतान थे और उनकी माता दासी का काम करती थीं। वे बचपन से ही संतों की सेवा में लगे रहते थे। एक बार कुछ साधु उनके घर ठहरे। बालक ने निस्वार्थ भाव से उनकी सेवा की। साधु इतने प्रसन्न हुए कि उसे आध्यात्मिक ज्ञान का उपदेश दिया और भगवान विष्णु के भजन का महत्व बताया।

 

कुछ समय बाद उसकी माता का निधन हो गया लेकिन वह बालक दुखी नहीं हुआ। उसने वन में जाकर तपस्या शुरू कर दी और भगवान विष्णु की भक्ति में लीन हो गया। भगवान विष्णु ने उस बालक को दर्शन दिए और आशीर्वाद दिया कि अगले जन्म में वह उनका परम भक्त बनेगा और संसार में उनकी महिमा का प्रचार करेगा। यही बालक अगले जन्म में नारद मुनि बना।

नारद: भगवान विष्णु के अनन्य भक्त

नारद मुनि को भगवान विष्णु का सबसे बड़ा भक्त माना जाता है। वे सदा 'नारायण-नारायण' का जाप करते रहते हैं। जहां भी वे जाते हैं, भगवान विष्णु के गुणगान और भक्ति का संदेश फैलाते हैं। उनका जीवन ही भक्ति का उदाहरण बन गया।

 

उनकी भक्ति केवल भावनात्मक नहीं थी, बल्कि वह गहरी आध्यात्मिक समझ और वेदों-शास्त्रों के ज्ञान से भरी हुई थी। वे हर युग, हर लोक में घूमते रहते हैं और जहां भी अधर्म या मोह बढ़ता है, वहां वे किसी न किसी रूप में सच्चे धर्म की ओर ले जाने वाले मार्ग दिखाते हैं।

संगीत, ज्ञान और संदेशवाहक की भूमिका

नारद जी को संगीत का जनक भी माना जाता है। उन्होंने भगवान शिव से वीणा वादन सीखा और उनका प्रिय वाद्ययंत्र 'महाती वीणा' है। वे भक्ति संगीत और कीर्तन के माध्यम से भगवान विष्णु की महिमा का प्रचार करते हैं। यही कारण है कि उन्हें 'ऋषियों में गायक' भी कहा गया है।

 

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नारद मुनि को देवताओं और असुरों के बीच संदेशवाहक या संवादक भी कहा जाता है। वे सदा नई जानकारी और ज्ञान फैलाने में अग्रणी रहते हैं। कभी-कभी वे अपने सवालों या बातों से द्वंद्व या कथा की शुरुआत कर देते हैं- जिससे धर्म और भक्ति की गहराई सामने आती है।

देवर्षि की उपाधि

नारद को 'देवर्षि' की उपाधि इसलिए प्राप्त हुई क्योंकि वे देवताओं के बीच ऋषियों के प्रतिनिधि हैं। 'देवर्षि' शब्द का अर्थ है वह ऋषि जो देवताओं की तरह दिव्य है और सभी लोकों में भ्रमण कर सकता है। वे तीनों लोकों – स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल – में स्वतंत्र रूप से आ-जा सकते हैं। उनकी यही विशेषता उन्हें साधारण ऋषि से अलग बनाती है।

 

Disclaimer- यहां दी गई सभी जानकारी सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं पर आधारित हैं।

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