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समर्पण से शोषण के केंद्र तक, क्या है देवदासी प्रथा की कहानी?

भारत के अतीत में ऐसी कुप्रथाएं थीं, जिनका प्रचलन, देश के इतिहास में कलंक के काले टीके की तरह रहा। मंदिरों में देवदासी प्रथा का प्रचलन भी कुछ ऐसा ही है।

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दक्षिण भारतीय मंदिरों में आज भी देवदासी प्रथा प्रचलित है। (इमेज क्रेडिट- AI www.canva.com)

14 अक्टूबर 2022। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग केंद्र सरकार को नोटिस भेजता है। नोटिस में 6 राज्यों में चल रहे देवदासी प्रथा पर केंद्र से जवाब मांगा जाता है। नोटिस में साफ तौर पर कहा गया होता है कि देश के दक्षिणी राज्यों के मंदिरों में यह कुप्रथा चल रही है, केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से कई कठोर कानून इसे रोकने के लिए बनाए गए हैं लेकिन यह कुप्रथा अब भी जारी है, आखिर क्यों। यह सांस्कृतिक और संस्थानिक वेश्यावृत्ति थी, जिससे धार्मिक संरक्षण मिलता रहा। सुप्रीम कोर्ट तक लड़कियों के देवदासी बनाने पर रोक लगा चुका है, फिर भी देश के कुछ हिस्सों में यह प्रचलित है। ऐसे में आखिर इस प्रथा पर रोक क्यों नहीं लगी, आइए समझते हैं।

मानवाधिकार आयोग सरकार से पूछता है कि आखिर महिलाओं को यौनिक शोषण और वेश्यावृत्ति में धकेले देना, उनके जीवन की गरिमा से खिलवाड़ है, आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। मानवाधिकार आयोग ने यह भी चेताया कि देवदासी प्रथा में ज्यादातर गरीब, दलित और आदिवासी परिवारों से आने वाली लड़कियां हैं। यह पहली बार नहीं था जब मानवाधिकार आयोग ने ऐसा कहा था।

 

साल 2017 में मनवाधिकार आयोग ने कहा था कि छोटी बच्चियों को दुलहन की तरह सजाकर तैयार किया जाता है, उन्हें देवताओं को अर्पित किया जाता है और फिर उनके कपड़े हटाकर उन्हें नंगा कर दिया जाता है। मानवाधिकार आयोग ने तब कहा था कि इन लड़कियों को धर्म के नाम पर मंदिरों को दान कर दिया जाता है, जहां उनके साथ लोग सेक्स करते हैं, उन्हें वेश्यावृत्ति के लिए बाध्य होना पड़ता है। आयोग ने कहा था कि ये लड़कियां अपने घर तक नहीं जा पाती हैं, इन्हें मठम्मा मंदिरों में रहने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। यह कुप्रथा, क्या है, कैसे देश में फैली और अब तक, कानून ने इसे रोकने के लिए क्या किया है, आइए समझते हैं।

कौन हैं देवदासी?
देवदासी। अगर संधिविच्छेद करें तो इसका अर्थ होगा देवता की दासी। ऐसी महिला, जो किसी देवता की दासी हो। इन महिलाओं को देवताओं के नाम, इनके घरवाले अर्पित कर देते हैं। आमतौर पर बचपन में ही मां-बाप अपनी बच्चियों को मठों और मंदिरों को दान में दे दे थे। यह कुप्रथा, आदिकाल से चलती आई है। पुराणों में भी इस प्रथा का जिक्र है। विष्णु पुराण, पद्म पुराण और मतस्य पुराण में इस प्रथा का जिक्र मिलता है। नौवीं से 12वीं शताब्दी के बीच ओडिशा के कुछ हिस्सों में सोमवंशी राजाओं का शासन था।

 

तब देवदासियों को देवताओं की पत्नी माना जाता था और उन्हें भगवती लक्ष्मी जैसा सम्मान मिलता था। वे मंदिरों की रक्षा करतीं और पारंपरिक भारतीय नृत्य कला का प्रदर्शन, अपने देवता को खुश करने के लिए करतीं। तब मंदिरों के नियम 'आगम' के हिसाब से उनका मुख्य काम ही देवता को प्रसन्न रखना था। देवदासियों के कई स्थानीय नाम हैं, कर्नाटक के कुछ हिस्सों में इन्हें बासिवी कहते हैं, महाराष्ट्र में इन्हें मातंगी, गोवा और दमन में कलावंती कहते हैं। जोगिनी, वेंकटेशनी, नैली, मुरली और थेरादियान भी कहते हैं। 

देवदासियों के कब से शुरू हुए बुरे दिन?

 

मध्यकालीन भारत में देवदासियों की स्थिति बदल गई। 5वीं शताब्दी में जब महाकवि कालिदास ने मेघदूत लिखा, तब उन्होंने भी देवदासी प्रथा का जिक्र किया था। गुप्त और मौर्यकालीन भारत में देवदासियां रही हैं। 9वीं से 13वीं शताब्दी के बीच चोलकालीन भारत में स्मृद्ध मंदिरों की नींव पड़ीं। सैकड़ों की संख्या में देवदासियां मंदिरों में रहने लगीं। इस कालखंड के कुछ शिलालेखों में लिखा गया है कि तंजावुर मंदिर में 400 देवदासियां थीं।

 

गुजरात के सोमेश्वर मंदिर में भी इतनी ही देवदासियां थीं। उन्हें राजा, भूमि, संपत्ति और आभूषण देते थे। वे मंदिरों में नृत्य करती थीं। तमिल में देवदासियों को देव अदिगालार भी कहा गया। तब पुरुष और महिला, दोनों देवदासी होते थए।चोल साम्राज्य में ही संगीत, वादन और गायन की नींव मंदिरों में पड़ी। उन्हें सिखाने के लिए शिक्षक होते थे। तब मंदिरों को समृद्ध माना जाता था। तब तक, देवदासियां, भोग की वस्तु नहीं बनी थीं।

देवदासियों को किसने बनाया वेश्या?
16वीं शताब्दी के बाद देवदासियों की स्थिति बदलने लगी। विजयनगर साम्राज्य में आए एक पुर्तगाली यात्री डोमिंगो पाएस ने अपने संस्मरण में लिखा है कि देवदासियां, रानियों की तरह रहती थीं। उनके पास महंगे रत्नजड़ित आभूषण होते थे। उनके पास समाज का अभिजात्यवर्ग जा सकता था। वे रानियों से भी सीधे मिल सकती थीं। उनकी प्रतिष्ठा थी, समाज के बड़े तबके के लोग, उनके सात संबंध बना सकते थे। वे बड़े रईसों की रखैल जैसी हो गई थीं।' इससे पहले भी देवदासियों की स्थिति में बड़े बदलाव आ चुका था। वे देवदासी नहीं, पुजारियों और प्रभावशाली जातियों की यौन दासी बन गई थीं।

कैसे बिगड़ती चली गई स्थितियां?
16वीं शताब्दी के बाद कर्नाटक के नटावलोलु, नट्टुवरु, बोगम, भोगम, कलावंथुलु, आडापापा समुदायों के लोगों के लिए एक प्रथा बन गई कि वे अपनी बच्चियों को देवदासी बना देते थे। वे अपने परिवार की एक बच्ची को मंदिरों को अर्पित कर देते थे। इन्हें देवदासी के नाम से जाना जाता था। इन्हें अडापापा कहा जाता था। ये शादी नहीं कर सकती थीं, ये देवदासी थीं। 

पूर्वी राज्यों में ओडिशा में देवदासी प्रथा का प्रचलन था। जगन्नाथ मंदिर में इन्हें महरी कहा जाता था। इसका अर्थ है महान नारी।

 

ये महिलाएं, अपने पांचों इंद्रियों को भगवान को समर्पित करती थीं। चैतन्य महाप्रभु ने इन्हें सेबायता का नाम दिया, जो ईश्वर की आराधना संगीत और नृत्य से करती थीं। देवदासियों के भी कई प्रकार थे। दत्ता, हर्ता, विकृता, भृत्या, अलंकार, गोपिका और रुद्रगणिका। जिन देवदासियों को स्वेच्छा से उनके मां-पिता दान करते थे, उन्हें दत्ता, जिन्हें हरण किया जाता था उन्हें हर्ता, जो नारियां स्वेच्छा से मंदिर के लिए अर्पित होती थीं उन्हें भृत्या कहते हैं। जो भक्ति में स्वयं को अर्पित करती थीं उन्हें भक्त देवदासी की उपमा मिली। 

ओडिशा के मंदिरों में देवदासियों को दैहिक स्वतंत्रता थी। उनका यौन शोषण नहीं होता था। वे ब्रह्मचर्य का पालन करती थीं। कुछ देवदासियों के बच्चे और रिश्ते भी थे। 20वीं शताब्दी तक, वहां की देवदासी प्रथा का अंत होने लगा था। साल 1956 के ओडिशा गैजेट के मुताबिक वहां 9 देवदासियां और 11 संगीतकार बचे थे। 1980 तक, हरिप्रिया, कोकिलाप्रभा, पारसमणि और शशिमणि, चार देवदासियां जीवित बची थीं। शशिमणि की का निधन 19 मार्च 2015 को ही हो गया था। वे अंतिम देवदासी थीं। अलंकार देवदासियां, नृत्य और गायन करती थीं और उसके बदले में धन लेती थीं। देवदासी को कुछ लोग येलम्मा देवी की अनुयायी और ऋषि जमदाग्नि के एक श्राप से जोड़कर देखते हैं लेकिन यह पौराणिक रूप से प्रमाणिक नहीं है। 
 
कैसे बनती थीं देवदासी?
देवदासी बनने की प्रक्रिया, देशज नियमों पर निर्भर करती है। कुछ जगहों पर धार्मिक रीति से उन्हें बनाया जाता है। देवदासियों का पहले पूजन होता है, उन्हें ऋंगार करके पंक्ति में बैठाया जाता है। उन्हें देवदासियां ही दीक्षित करती हैं, पुजारी कुछ मंत्र पढ़ते हैं। देवदासियों की मांग भरी जाती है। इन्हीं देवदासियों को कुछ घरों में भिक्षा मांगना पड़ता है, उसके बाद वे देवदासी पद पर अधिकृत हो जाती हैं।

इस कुप्रथा को रोकने के लिए क्या उठाए गए हैं कदम?
भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 372 और 372 में वेश्यावृत्ति से संबंधित कुछ धाराएं हैं। इनका उद्देश्य, वेश्यावृत्ति को रोकना है। इन धाराओं के तहत 18 वर्ष के कम उम्र की महिलाओं को वेश्यावृत्ति में धकेलना, उनसे धंधा कराना अपराध है। देवदासी प्रथा, कुप्रथा में बदल गई, पुजारी ही वेश्यावृत्ति कराने लगे इसलिए इसे रोकने के लिए 1942 में भी यही कानूनी पहल हुई थी लेकिन इससे पहले एक अधिनियम, महाराष्ट्र में साल 1934 में बना था। 

अंग्रेजों ने देवदासी प्रथा को रोकने के लिए बॉम्बे देवदासी प्रोटेक्शन एक्ट 1934 बनाया। ब्रिटिश सरकार ने इस अधिनियम को पास किया। पहले यह कानून बॉम्बे में ही लागू था। बॉम्बे देवदासी प्रोटेक्शन एक्ट में साफ कहा गया कि किसी महिला को मंदिर को समर्पित करना, गैरकानूनी है। इसमें महिला भले ही अपनी सहमति दे, इसे गैरकानूनी समझा जाएगा। जो भी शख्स महिला को समर्पित करेगा, वह भी दोषी होगा, महिला नहीं दोषी मानी जाएगी। जो भी दोषी पाया जाएगा, उसे 1 साल की सजा मिलेगी, या जेल होगी।

मद्रास देवदासी (प्रिवेंशन ऑफ डेडिकेशन) एक्ट 1982 
मद्रास देवदासी (प्रिवेंशन ऑफ डेडिकेशन) एक्ट 1947 को मैसूर राज्य (अब कर्नाटक) में लागू किया गया था। कर्नाटक देवदासी (प्रोहिबिशन ऑफ डेडिकेशन) एक्ट 1982 में इस एक्ट में सजा का प्रावधान तय किया गया। इसके तहत दोषी को 3 साल की सजा तय की गई। अगर लड़की के घरवाले देवदासी बनवाते तो उन्हें और कठिन सजा मिलती, उनकी सजा 5 साल तय की गई। अर्थ दंड बढ़ाकर 5000 रुपये कर दिया गया। 

कर्नाटक देवदासी (प्रोहिबिशन ऑफ डेडिकेशन) एक्ट में देवदासियों की सुरक्षा के लिए कानून बनाए गए। उनके पुनर्वास का प्रावधान भी तय किया गया। साल 1913 में सरकार ने एक बिल महिलाओं की सुरक्षा के लिए पेश किया। युवा महिलाओं को देवदासी बनाकर दलदल में धकेलने की यह प्रथा, कर्नाटक में एक अरसे से जारी थी, जिसे रोकने के लिए शुरुआती दिनों में ही अहम कदम उठाए गए।

देवदासी उन्मूलन विधेयक 1947 
साल 1947 में देवदासी उन्मूलन विधेयक भी लाया गया। दिसंबर में आया यह कानून महिलाओं को देवदासी बनाने पर रोक लगाने से संबंधित था। यह कुप्रथा थी, जिसे रोकने की सरकार ने भरसक कोशिश की। भारतीय दंड संहिता की धारा 372 और 373 इसी से संबंधित थे।

और किन नामों से जानी जाती है देवदासी?
देवदासियों को कई नामों से जाना जाता है। कर्नाटक में राजादासी, जोगथी और देवदासी के नाम से इनकी ख्याति है। महाराष्ट्रम में इन्हें भाविन, तमिल संस्कृति में इन्हें चेन्नाविडू, कन्निगेयर, निथियाकल्याणी, रुद्रादासी, मणिटक्कर, आंध्र प्रदेश में इन्हें देवाली, भगम और कलावंथाला कहते हैं। केरल में इन्हें चक्यार और कुड्डियर भी कहते हैं। 

क्यों अब भी जारी है ये कुप्रथा?
दक्षिण भारत के कई मंदिरों में यह प्रथा, अब भी जारी है, इसकी सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है। देवदासी प्रथा को कब सांस्कृतिक और सामाजिक स्वीकृति मिल गई, किसी को कानों-कान खबर तक नहीं हुई। जिस आध्यात्मिक उद्देश्य के लिए इस प्रथा की शुरुआत हुई, वह कुप्रथा में बदल गई और महिलाओं के दैहिक शोषण की वजह बन गई। बच्चियों को वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर होना पड़ा। दुर्भाग्य ये है कि यह प्रथा, दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में आज भी जारी है, जिसके लिए आवाज उठाने की जरूरत है।

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