होली का त्योहार भारत में प्राचीन काल से मनाया जाता रहा है। यह केवल रंगों का त्योहार ही नहीं, बल्कि आनंद, प्रेम और उल्लास का पर्व भी है। आज होली में अबीर और गुलाल से खेला जाता है लेकिन क्या आप जानते हैं कि पुराने समय में इनका इस्तेमाल नहीं होता था? दरअसल, होली का इतिहास बहुत पुराना है और समय के साथ इसके रंग भी बदलते गए हैं।
प्राचीन समय में कैसे खेली जाती थी होली?
होली की उत्पत्ति धार्मिक मान्यताओं और लोककथाओं से जुड़ी हुई है। प्राचीन धर्म ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है। पहले के समय में होली अधिकतर प्राकृतिक रूप से मनाई जाती थी। लोग फूल, चंदन, हल्दी और प्राकृतिक चीजों का उपयोग करते थे। वसंत ऋतु में जब पेड़-पौधों पर नए फूल खिलते थे, तो इन फूलों से ही होली खेली जाती थी। खासकर टेसू (पलाश) के फूलों का बहुत इस्तेमाल किया जाता था। इन फूलों को सुखाकर और पानी में भिगोकर रंग बनाया जाता था, जिससे त्वचा को कोई नुकसान नहीं होता था।
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हिंदू धर्म में रंगों का विशेष महत्व है। रंग जीवन के विभिन्न भाव और अवस्थाओं का प्रतीक होते हैं। शास्त्रों में भी यह बताया गया है कि लाल रंग शक्ति और प्रेम का प्रतीक है, पीला रंग पवित्रता और ज्ञान का, हरा रंग समृद्धि और नए जीवन का, और नीला रंग ईश्वरत्व और शांति का प्रतीक माना जाता है। इसके साथ इन रंगों का संबंध देवी-देवताओं से भी जुड़ता है। प्राचीन समय में जब होली मनाई जाती थी, तो इसे प्राकृतिक रूप से खेलने का ही चलन था।
कब शुरू हुआ सूखे रंगों का चलन?
समय के साथ होली के रंगों में बदलाव आया। मध्यकाल तक आते-आते सूखे रंगों का इस्तेमाल होना शुरू हुआ। यह दौर भारतीय समाज में भक्ति आंदोलन का था, जब होली को भगवान कृष्ण और राधा की प्रेम लीला से जोड़ा जाने लगा। वृंदावन और बरसाना में कृष्ण और गोपियों की होली की कथाएं प्रसिद्ध हुईं। कहा जाता है कि भगवान कृष्ण अपनी सखियों के साथ गुलाल से होली खेलते थे।
'अबीर' एक प्रकार का सुगंधित पाउडर होता है। 'गुलाल' भी प्राकृतिक रंगों से तैयार किया जाता था, जिसमें फूलों, पत्तियों और मिट्टी से प्राप्त रंग शामिल थे। इनका उल्लेख भक्तिकाल की कविताओं और साहित्य में मिलता है, खासकर 15वीं-16वीं सदी के दौरान हुआ। उदाहरण के लिए, मथुरा, वृंदावन और बृज क्षेत्र में राधा-कृष्ण की होली की कथाएं प्रसिद्ध हैं, जहां अबीर और गुलाल का इस्तेमाल बड़े स्तर पर किया जाता।
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अबीर को बनाने के लिए पहले गुलाब, कनेर, गुड़हल और टेसू के फूलों का प्रयोग इस्तेमाल होता था। गुलाल भी इसी तरह हर्बल चीजों से तैयार किया जाता था, जो त्वचा और स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होते थे। हालांकि, जैसे-जैसे समय बदला और औद्योगीकरण बढ़ा, वैसे-वैसे होली में रासायनिक रंगों का इस्तेमाल शुरू हो गया।
हर्बल रंगों की ओर लौट रहे हैं लोग
आज फिर से लोग हर्बल गुलाल और प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं। होली में रंगों के इस्तेमाल का सांस्कृतिक और सामाजिक दोनों महत्व है। इस दिन लोग सभी एक-दूसरे को रंग लगाते हैं और प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं। पुराने समय में राजा-महाराजा भी होली के इस रंगोत्सव में भाग लेते थे।