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ज्वाला देवी शक्तिपीठ: यहां बिना ईंधन के हमेशा जलती रहती है ज्वालाएं

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में स्थित ज्वाला देवी मंदिर का अपना एक पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व है। आइए जानते हैं इस शक्तिपीठ से जुड़ी खास बातें।

Image of Jwala Devi Mandir

ज्वाला देवी मंदिर, कांगड़ा(Photo Credit: Wikimedia Commons)

भारत को आस्था और शक्ति का केंद्र कहा जाता है, जहां अनेक तीर्थस्थल स्थित हैं। उन्हीं में से एक महत्वपूर्ण स्थान है ज्वाला देवी शक्तिपीठ, जो हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में स्थित है। यह देवी सती के 51 शक्तिपीठों में से एक है और यहां देवी की जीभ गिरी थी। इस स्थान को इसलिए विशेष माना जाता है क्योंकि यहां जलती हुई अखंड ज्वाला देवी का प्रतीक मानी जाती है, जो हजारों वर्षों से बिना किसी तेल या ईंधन के जल रही है। आइए विस्तार से जानते हैं इस स्थान की पौराणिक कथा, मंदिर का इतिहास और धार्मिक मान्यताओं के बारे में।

पौराणिक कथा: क्यों बना यह स्थान शक्तिपीठ?

शिव पुराण में वर्णित कथा के अनुसार, देवी सती भगवान शिव की अर्धांगिनी थीं। उनके पिता राजा दक्ष शिव जी को पसंद नहीं करते थे। उन्होंने एक विशाल यज्ञ (हवन) का आयोजन किया और जानबूझकर भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया। जब देवी सती को यह पता चला तो वे बिना बुलाए ही अपने पिता के घर पहुंच गईं। वहां उन्होंने देखा कि राजा दक्ष ने भगवान शिव का अपमान किया। यह देखकर देवी सती को अत्यंत दुख हुआ और उन्होंने क्रोध में आकर हवन कुंड में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए।

 

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भगवान शिव को जब इस घटना की जानकारी मिली तो वे अत्यंत क्रोधित हुए और प्रलयकारी तांडव करने लगे। उन्होंने देवी सती के शरीर को उठाकर ब्रह्मांड के चारों ओर घूमना शुरू कर दिया। इस कारण सृष्टि का संतुलन बिगड़ने लगा। तब भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से देवी सती के शरीर के टुकड़े कर दिए।

 

जहां-जहां देवी सती के अंग गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठों की स्थापना हुई। मान्यता है कि ज्वाला देवी शक्तिपीठ वह स्थान है जहां देवी की जीभ गिरी थी। यहां आज भी देवी की अखंड ज्वाला प्रज्वलित है, जो देवी की शक्ति का प्रमाण मानी जाती है।

मंदिर का इतिहास और निर्माण

यह मंदिर प्राचीन काल से पूजनीय है और इसका उल्लेख कई ग्रंथों में मिलता है। इस मंदिर के निर्माण के बारे में भी कई मान्यताएं हैं, जिनमें से एक लिए कहा जाता है कि महाभारत काल में जब पांडव वनवास पर थे, तब उन्होंने यहां तपस्या की और इस मंदिर का निर्माण करवाया था।

 

एक अन्य मान्यता के अनुसार, राजा भूमिचंद को देवी ने स्वप्न में दर्शन दिए और मंदिर के निर्माण का निर्देश दिया। उन्होंने इस स्थान को खोजकर यहां मंदिर बनवाया।

 

इतिहास में यह भी दर्ज है कि मुगल शासक अकबर ने इस स्थान की शक्ति को परखने के लिए मंदिर की ज्वालाओं को बुझाने की कोशिश की थी, लेकिन वह असफल हो गया था। कहा जाता है कि इसके बाद अकबर ने यहां सोने का छत्र चढ़ाया था लेकिन देवी की शक्ति के आगे वह झुक गया और उसका अहंकार समाप्त हो गया। इसके बाद 19वीं शताब्दी में महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसार चंद ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और इसे भव्य स्वरूप प्रदान किया।

 

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मंदिर की विशेषताएं और धार्मिक मान्यताएं

इस मंदिर में देवी की कोई मूर्ति नहीं है, बल्कि धरती से निकलती नौ प्राकृतिक ज्वालाएं देवी के प्रतीक रूप में पूजी जाती हैं। यह ज्वालाएं देवी के नौ रूपों का प्रतीक मानी जाती हैं: महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अंबिका और अंजना।

 

इसके साथ मंदिर के पास एक जलकुंड है, जिसके पानी का रंग समय-समय पर बदलता रहता है। इसे देवी का चमत्कार माना जाता है। नवरात्रि के दौरान यहां विशेष पूजन और भव्य आयोजन होते हैं। हजारों श्रद्धालु माता के दर्शन के लिए आते हैं। इस मंदिर में प्रसाद के रूप में विशेष रूप से मिठाई और लंगर चढ़ाया जाता है।

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