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वीरभद्र, दक्ष और सती की कहानी क्या है?

वीरभद्र। वह योद्धा जिसने देवों की पूरी सभा के बीच दक्ष का सिर काटकर अलग कर दिया था। जिसके डर से प्रजापति दक्ष की सेनाएं कांप गई हैं। कौन था ये योद्धा, पढ़ें कहानी।

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भगवान शिव और वीरभद्र। (प्रतीकात्मक तस्वीर- AI, Canva)

दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियां थी। सभी पुत्रियां गुणवती थीं लेकिन दक्ष के मन में फिर भी शांति नहीं थी। वे चाहते थे कि उनके घर ऐसी पुत्री का जन्म हो जो सर्वगुण संपन्न हो। दक्ष ऐसी पुत्री के लिए तपस्या करने लगे। तपस्या करते-करते बहुत दिन बीत गए तो भगवती आद्या ने प्रकट होकर कहा कि मैं स्वयं पुत्री रूप में तुम्हारे यहां जन्म लूंगी। मेरा नाम सती होगा। मैं सती के रूप में जन्म लेकर अपनी लीलाएं करूंगी। इसके बाद भगवती आद्या ने  सती रूप में दक्ष प्रजापति के यहां जन्म लिया। सती दक्ष की सभी पुत्रियों से अलग और अलौकिक थीं।

जब सती विवाह योग्य हो गईं तो दक्ष को उनके लिए वर की चिंता हुई। उन्होंने भगवान ब्रह्मा से सलाह ली तो ब्रह्मा जी ने कहा कि सती आद्या का अवतार हैं। भगवती आद्या आदिशक्ति और शिव आदि पुरुष हैं। सती के विवाह के लिए शिव ही योग्य और उचित वर हैं। दक्ष ने ब्रह्मा की बात मानकर सती का विवाह भगवान शिव के साथ कर दिया। सती कैलाश में जाकर भगवान शिव के साथ रहने लगीं। भगवान शिव के दक्ष के जमाई थे, किंतु एक ऐसी घटना घटी जिसके कारण दक्ष के हृदय में भगवान शिव के प्रति नफरत पैदा हो गई।

क्यों दक्ष को भगवान शिव से थी नफरत?
एक बार ब्रह्मा ने धर्म की व्याख्या के लिए एक सभा का आयोजन किया था। सभी बड़े-बड़े देवता सभा में इकट्ठे हुए थे। भगवान शिव भी एक ओर बैठे थे। सभा मण्डल में दक्ष का स्वागत हुआ। दक्ष के स्वागत पर सभी देवता उठकर खड़े हो गए, पर भगवान शिव खड़े नहीं हुए। उन्होंने दक्ष को प्रणाम भी नहीं किया। केवल यही नहीं, उनके हृदय में भगवान शिव के प्रति नफरत की आग जल उठी। वे उनसे बदला लेने के लिए समय और अवसर का इंतजार करने लगे। भगवान शिव को किसी के मान और किसी के अपमान से कोई मतलब नहीं हैं। वे तो सर्वव्यापी हैं। उन्हें तो चारों ओर अमृत दिखाई पड़ता है। 

जब सती ने ली राम की परीक्षा
भगवान शिव कैलाश में दिन-रात राम-राम कहा करते थे। सती के मन में उत्सुकता हुई। उन्होंने मौका मिलते ही भगवान शिव से प्रश्न किया, 'आप राम-राम क्यों कहते हैं? राम कौन हैं?' भगवान शिव ने उत्तर दिया, 'राम आदि पुरुष हैं, स्वयंभू हैं, मेरे आराध्य हैं। सगुण भी हैं, निर्गुण भी हैं।'  सती का मन फिर भी शांत नहीं हुआ। वे सोचने लगीं, अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र राम आदि पुरुष के अवतार कैसे हो सकते हैं? वे तो आजकल अपनी पत्नी सीता के वियोग में दुख जता रहे हैं। वृक्ष और लताओं से सीता का पता पूछते फिर रहे हैं। यदि वे आदि पुरुष के अवतार होते, तो क्या इस प्रकार वंचित होते फिरते? 

सती के मन में राम की परीक्षा लेने का विचार पैदा हुआ। सीता का रूप बदलकर सती  दंडक वन में जा पहुंची और राम के सामने प्रकट हुईं। भगवान राम ने सती को सीता के रूप में देखकर कहा, 'माता, आप अकेली यहां वन में कहां घूम रही हैं? भगवान शिव कहां हैं?' राम का प्रश्न सुनकर सती कुछ उत्तर नहीं दे पाईं। वह हैरान हो गई और मन ही मन में सोचने लगीं कि उन्होंने बेकार में ही राम पर शक किया। 

राम सचमुच आदि पुरुष के अवतार हैं। सती जब लौटकर कैलाश गईं तो भगवान शिव ने उन्हें आते देख कहा,'सती, तुमने सीता के रूप में राम की परीक्षा लेकर अच्छा नहीं किया। सीता मेरी आराध्य हैं। अब तुम मेरी अर्धांगिनी कैसे रह सकती हो। इस जन्म में हम और तुम पति और पत्नी के रूप में नहीं मिल सकते।' शिव जी की यह बात सुनकर सती बहुत दुखी हुईं और सोचा कि अब क्या हो सकता था। शिव जी के मुख से निकली हुई बात असत्य कैसे हो सकती थी? शिव जी समाधिस्थ हो गए। 

दक्ष का यज्ञ और सती का अपमान
उन्हीं दिनों सती के पिता दक्ष कनखल में बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे थे। उन्होंने यज्ञ में सभी देवताओं,ऋषियों और मुनियों को आमन्त्रित किया था, लेकिन शिव जी को आमन्त्रित नहीं किया। उनके मन में शिव जी के प्रति नफरत थी। सती को जब यह पता चला कि उसके पिता ने बहुत बड़ा यज्ञ कराया है। सती के मन में भी अपने पिता के यज्ञ समारोह में जाने के लिए मन बेचैन हो गया। शिव समाधि में थे। वे शिव से अनुमति लिए बिना ही वीरभद्र के साथ अपने पिता के घर चली गईं।

भगवान शकंर ने सती को उत्तर दिया, 'आपके पिता ने यज्ञ का आयोजन किया है। देवता, ऋषि और मुनी इन विमानों में बैठकर उसी यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए जा रहे हैं।' सती ने शिव से प्रश्न किया, 'क्या मेरे पिता ने आपको यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए नहीं बुलाया? 'भगवान शंकर ने उत्तर दिया, 'आपके पिता मुझसे नफरत करते हैं, फिर वे मुझे क्यों बुलाने लगे?' सती मन ही मन सोचने लगीं और बोलीं, यदि आपकी अनुमति हो, तो मैं भी अपने पिता के घर जाना चाहती हूं।

सती का आत्मदाह
भगवान शिव ने कहा कि इस समय वहां जाना उचित नहीं होगा। आपके पिता मुझसे नफरत करते हैं। बिना बुलाए किसी के घर जाना उचित नहीं होता। विवाहिता लड़की को बिना बुलाए पिता के घर नहीं जाना चाहिए, क्योंकि विवाह हो जाने पर लड़की अपने पति की हो जाती है। किंतु सती पिता के यज्ञ में जाने के लिए जिद करती रहीं। उनकी इच्छा देखकर भगवान शिव ने  जाने की अनुमति दे दी। 

जब सती अपने पिता के घर गईं, किंतु उनसे किसी ने भी प्रेमपूर्वक बातचीत नहीं किया। दक्ष ने उन्हें देखकर कहा, 'तुम क्या यहां मेरा अपमान कराने आई हो? तुम्हारा पति श्मशानवासी और भूतों का नायक है।' दक्ष के बातें सुनकर सती को बहुत दुख हुआ। वे सोचने लगीं, ‘उन्होंने यहां आकर अच्छा नहीं किया। भगवान ठीक ही कह रहे थे, बिना बुलाए पिता के घर भी नहीं जाना चाहिए। पर अब क्या हो सकता है? अब तो आ ही गई हूं।'

पिता के कटु और अपमानजनक शब्द सुनकर भी सती मौन रहीं। वे उस यज्ञमंडल में गईं जहां सभी देवता और ॠषि-मुनि बैठे थे और यज्ञकुण्ड में जलती हुई अग्नि में आहुतियां डाली जा रहीं थीं। सती ने यज्ञमंडप में  देखा कि उनके पिता ने भगवान शिव को छोड़कर बाकी सभी देवताओं को बुलाया है। अपने पति को यज्ञ में न देखकर  सती को बहुत दुख हुआ। सती ने दक्ष से कहा कि आपने मेरे पति को छोड़कर बाकी सभी को इस यज्ञ में बुलाया हैं।' 

दक्ष उत्तर दिया, 'मैं तुम्हारे पति कैलाश को देवता नहीं समझता। वह तो भूतों का स्वामी, नग्न रहने वाला और हड्डियों की माला धारण करने वाला है। वह देवताओं की पंक्ति में बैठने योग्य नहीं हैं।' यह बात सुनकर सती की आंखें लाल हो गई। उन्होंने  अपने पति का अपमान सुनकर कहा, 'ओह! मैं इन शब्दों को कैसे सुन रहीं हूं, मुझे धिक्कार है। देवताओं, तुम्हें भी धिक्कार है! तुम भी उन कैलाशपति के लिए इन शब्दों को कैसे सुन रहे हो, जो मंगल के प्रतीक हैं और जो क्षण मात्र में संपूर्ण सृष्टि को नष्ट करने की शक्ति रखते हैं। वे मेरे स्वामी हैं। नारी के लिए उसका पति ही स्वर्ग होता है। पृथ्वी सुनो, आकाश सुनो और देवताओं, तुम भी सुनो! मेरे पिता ने मेरे स्वामी का अपमान किया है। मैं अब एक क्षण भी जीवित रहना नहीं चाहती।'  सती यह बोलतें-बोलतें  यज्ञ के कुण्ड में कूद पड़ीं। जलती हुई आहुतियों के साथ उनका शरीर भी जलने लगा। यज्ञमंडप में हाहाकार मच गया। देवता उठकर खड़े हो गए। 

और ऐसे जन्मे भगवान वीरभद्र
जब इस  घटना के बारे में  भगवान शिव को पता लगा तो वे अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं रख पाए। उनके क्रोध से पूरी सृष्टि कांपने लगी, अपने इसी क्रोध की ज्वाला से उन्होंने वीरभद्र की उत्पत्ति की। उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। सती के प्राण त्यागने से दु:खी भगवान शिव ने उग्र रूप धारण कर क्रोध में अपने होंठ चबाते हुए अपनी एक जटा उखाड़ ली, जो बिजली और आग की लपट के समान दीप्त हो रही थी। इसी से महाभयंकर वीरभद्र प्रकट हुए। शिव ने उन्हें दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करने और विद्रोहियों का नाश करने की आज्ञा देते हुए आदेश दिया कि वह प्रजापति दक्ष और उसकी सेना का विनाश कर दे। वीरभद्र क्रोध से कांप उटे। वीरभद्र ने महादेव के आदेश का पालन करना शुरू कर दिया। वे प्रचंड आंधी की भांति कनखल जा पहुंचे। 

वीरभद्र के सामने नहीं टिक पाए भगवान विष्णु
यज्ञ स्थल की रक्षा का काम स्वयं भगवान विष्णु कर रहे थे। वीरभद्र ने विष्णु से भी संग्राम किया। विष्णु को जब इस बात का पता चला कि वीरभद्र का तेज प्रबल है तो वे अंतर्ध्यान हो गए। ब्रह्मपुत्र दक्ष भी डर के मारे छिप गए थे। वीरभद्र ने दक्ष की सेना पर आक्रमण कर दिया। इसके अलावा जो भी उसके मार्ग में आया उसने उसका सर्वनाश कर दिया। वे उछ्ल-उछलकर यज्ञ का विध्वंस करने लगे। यज्ञमंडप में भगदड़ मच गई। देवता और ॠषि-मुनि भाग खड़े हुए।  वीरभद्र ने दक्ष की छाती पर पैर रख दोनों हाथों ने गर्दन मरोड़कर उसे शरीर से अलग कर अग्निकुंड में डाल दिया था। सती के प्रेम और उनकी भक्ति ने शंकर के मन को व्याकुल कर दिया। 

भगवान ने ऐसे दिया दक्ष को जीवनदान
जब सती के सारे अंग कट कर गिर गए तो भगवान शिव अपने आप में आए तब ब्रह्माजी और विष्णु ने सोचा कि यज्ञ को बीच में छोड़ देना शुभ नहीं है। जिसने यज्ञ का आयोजन किया था और उसकी तो मृत्यु हो चुकी थी। ब्रह्मा और विष्णु कैलाश पर्वत पर गए और उन्होंने महादेव को समझाने की कोशिश की।

दोनों ने प्रार्थना की राजा दक्ष को जीवन देकर यज्ञ को संपन्न करने की कृपा करें। बहुत समझाने पर भगवान शिव ने उनकी बात मान ली और दक्ष के धड़ से भेड़ का सिर जोकर उसे जीवनदान दिया, जिसके बाद यह यज्ञ पूरा हुआ। सृष्टि के सारे कार्य चलने लगे।

जहां-जहां गिरे सती के अंग, वहां है शक्ति पीठ
धरती पर जिन स्थानों में सती के अंग कट-कटकर गिरे थे वे ही स्थान आज शक्ति के पीठ स्थान माने जाते हैं। आज भी उन स्थानों में सती का पूजन होता हैं, उपासना होती है। धन्य था शिव और सती का प्रेम। शिव और सती के प्रेम ने उन्हें अमर बना दिया है।

डिस्क्लेमर: यह आलेख, शिव पुराण और दूसरे हिंदू ग्रंथों के आधार पर लिखा गया है। खबरगांव इसकी पुष्टि नहीं करता है।

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