प्रयागराज में चल रहे महाकुंभ का समापन 26 फरवरी 2025 पर हो जाएगी। हालांकि, इससे पहले ही अखाड़े अपने शिविर की और प्रस्थान कर जाएंगे। बता दें कि माघ अमावस्या के दिन कई अखाड़ों ने महाकुंभ 2025 का अंतिम अमृत किया और अब वह अपने-अपने आश्रमों में जाने की तैयारी में जुट गए हैं।
बता दें कि 12 फरवरी तक यानी माघ माह के अंतिम दिन पूर्णिमा तिथि तक कुंभ मेले से सभी अखाड़े कुंभ क्षेत्र से लौट जाएंगे। हालांकि, कई लोगों के मन में सवाल है कि क्या इसके बाद स्नान का महत्व अन्य स्नान की तरह रहेगा या नहीं। आइए आचार्य श्याम चंद्र मिश्र जी से जानते हैं क्या हैं इससे जुड़ी मान्यताएं।
अखाड़ों के जाने के बाद स्नान का महत्व
आचार्य मिश्र बताते हैं कि कुंभ स्नान केवल साधु-संत या अखाड़ों तक सीमित नहीं है। यह एक धार्मिक और आध्यात्मिक आयोजन है, जो आम श्रद्धालुओं के लिए भी उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितना साधु-संतों के लिए। कुंभ मेला खत्म होने के बाद भी यहां स्नान की परंपरा परस्पर चलती रहती है और इसका महत्व कभी कम नहीं होता है।
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स्नान का आध्यात्मिक महत्व
हिंदू धर्म में नदियों को पवित्र और मोक्षदायिनी माना गया है। शास्त्रों में यहां तक कहा गया है कि गंगा, यमुना, क्षिप्रा जैसी विभिन्न पवित्र नदियों में स्नान करने से आत्मा की शुद्धि होती है और पापों का नाश होता है। कुंभ समाप्त होने के बाद भी तीर्थयात्री इन नदियों में स्नान के लिए आते हैं, क्योंकि इनका धार्मिक महत्व अनंतकाल से बना हुआ है।
शास्त्रों में कहा गया है ‘गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वति। नर्मदे सिन्धु कावेरि जलस्मिन सन्निधिं कुरु।।’
इस मंत्र में सभी प्रमुख नदियों को पवित्र माना गया है और इनमें स्नान करने से आत्मिक शुद्धि की बात कही गई है। इसलिए कुंभ समाप्त होने के बाद भी स्नान का महत्व बना रहता है।
तीर्थराज प्रयाग का महत्व
पवित्र संगम में स्नान के साथ-साथ तीर्थ क्षेत्रों में देवी-देवताओं के दर्शन करना भी बहुत फलदाई होता है। बता दें कि प्रयागराज को तीर्थों का राजा कहा जाता है और यहां कई धार्मिक स्थल हैं, जिनका संबंध पौराणिक काल से जुड़ता है। साथ ही यहां संगम में स्नान करने की परंपरा हजारों वर्षों से चली आ रही है। कुंभ हो या न हो, यहां लोग पूरे वर्ष स्नान और पूजा के लिए आते हैं। माघ मेला, गंगा दशहरा और अन्य पर्वों पर संगम स्नान का महत्व उतना ही रहता है, जितना कुंभ के दौरान होता है।
अखाड़ों के विदाई की पूरी प्रक्रिया
जब कुंभ अपने अंतिम चरण में पहुंचता है, तब अखाड़ों के प्रमुख संत आपसी बैठक कर यह तय करते हैं कि प्रस्थान कब और कैसे होगा। यह निर्णय कई बातों पर निर्भर करता है, जिसमें मेला प्रशासन के साथ उनकी सहमति भी शामिल होती है।
विदाई की प्रक्रिया की शुरुआत कुंभ स्थल पर अंतिम धार्मिक अनुष्ठानों से होती है। संत अपने-अपने शिविर में हवन, पूजन और विशेष मंत्रोच्चार करते हैं। इसके बाद धीरे-धीरे अखाड़ों की टोलियां प्रस्थान करने लगती हैं। इससे पहले अखाड़ों का प्रतीक चिन्ह यानी धर्म ध्वजा को उतारा जाता है और भोग का आयोजन होता है।
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अखाड़ों के जाने की प्रक्रिया आमतौर पर चरणबद्ध तरीके से होती है। सबसे पहले छोटे संत-महंत और उनके अनुयायी अपना सामान समेटकर आगे बढ़ते हैं। इसके बाद बड़े संत और अखाड़ों के प्रमुख गुरु अपनी टोली के साथ विदा होते हैं।
जब अखाड़े कुंभ स्थल से निकलते हैं, तो श्रद्धालु उन्हें श्रद्धा और सम्मान के साथ विदाई देते हैं। इस दौरान संतों को फूल-मालाएं पहनाई जाती हैं और उन्हें विदा करने के लिए भक्त बड़ी संख्या में उपस्थित रहते हैं। हालांकि, इसके बाद भी कुंभ स्नान श्रद्धालुओं द्वारा किया जाता है। कुछ साधु-संत स्वेच्छा से भी कुंभ खत्म होने तक यहां रहते हैं।
कुंभ के बाद कहां जाएंगे अखाड़े
अखाड़ों के लिए शाही स्नान सबसे महत्वपूर्ण स्नानों में से एक है। आखिर भारतीय अखाडा परिषद के अध्यक्ष महंत रविंद्र पुरी ने बताया कि जूना अखाड़े का बसंत पंचमी के दिन अंतिम शाही स्नान था और अखाड़े के सभी साधु-संत इसके बाद वाराणसी में महाशिवरात्रि तक प्रवास करेंगे। महाशिवरात्रि पर बाबा विश्वनाथ के दर्शन के बाद सभी संत-सन्यासी अपने-अपने आश्रम और मठ में लौट जाएंगे। इसके साथ अन्य अखाड़ों के साधु-संत में भी धीरे-धीरे अपने मठ और आश्रमों में लौट जाएंगे। इसके बाद इनके दर्शन अगले कुंभ में या अन्य बड़े धार्मिक आयोजनों में एकसाथ होंगे।