महाकुंभ का भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म में विशेष महत्व है। बता दें कि 12 वर्षों के अंतराल पर होने वाले महाकुंभ में लाखों की संख्या में श्रद्धालु, साधु-संत और विभिन्न मठों के पीठाधीश्वर व उनके अनुयायी गंगा नदी में पवित्र डुबकी लगाते हैं। इसका गहरा संबंध भगवान शिव और समुद्र मंथन की पौराणिक कथा से जुड़ा हुआ है।
समुद्र मंथन की कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, देवताओं और असुरों ने अमृत की प्राप्ति के लिए मिलकर समुद्र मंथन किया था। ऐसा इसलिए क्योंकि एक समय ऐसा आया जब देवता अपनी शक्ति और ऊर्जा खोने लगे। यह ऋषि दुर्वासा के श्राप कारण है था। दुर्वासा ऋषि ने एक बार इंद्र को एक दिव्य माला भेंट की, जिसका देवराज इंद्र ने अपमान किया। उन्होंने उस माला को अपने हाथी ऐरावत के गले में डाल दिया। इससे ऋषि अत्यंत क्रोधित हो गए और उन्होंने देवताओं को श्राप दिया कि वे अपनी शक्ति खो देंगे।
दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण देवता कमजोर हो गए और असुरों से पराजित होने लगे। देवताओं की स्थिति इतनी खराब हो गई कि वे भगवान विष्णु के पास मदद के लिए गए।
अमृत प्राप्ति की योजना
भगवान विष्णु ने देवताओं को सुझाव दिया कि वे समुद्र मंथन करें। इस मंथन से जो अमृत निकलेगा, वह देवताओं को अमरत्व प्रदान करेगा और उनकी शक्ति वापस आने लगेगी। अकेले देवताओं के लिए मंथन करना संभव नहीं था, इसलिए विष्णु ने देवताओं को असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने की सलाह दी। देवताओं ने उन्हें यह लालच दी कि समुद्र मंथन से निकलने वाले अमृत का हिस्सा असुरों को भी दिया जाएगा।
समुद्र मंथन की प्रक्रिया
इसके बाद मंदराचल पर्वत को मथनी के रूप में और वासुकी नाग को रस्सी के रूप में उपयोग किया गया। देवता और असुर दोनों ने मिलकर मंथन करना शुरू किया। भगवान विष्णु ने वासुकी को सहमत किया और मंदराचल पर्वत को समुद्र में स्थिर रखने के लिए स्वयं कच्छप (कछुए) का रूप धारण कर लिया।
मंथन के दौरान समुद्र से 14 रत्न निकले, जिन्हें देवता और असुरों में बांटा गया। इनमें प्रमुख थे: लक्ष्मी (धन और समृद्धि की देवी), चंद्रमा, कामधेनु गाय, कल्पवृक्ष (इच्छा पूर्ति का वृक्ष), अलकनंदा नदी, हलाहल विष और अमृत कलश।
हलाहल विष का त्याग
मंथन के दौरान निकले हलाहल विष के ताप को सहन करना किसी भी देवता या दैत्य के वश में नहीं था। साथ इसने सृष्टि को खतरे में डाल दिया। तब भगवान शिव ने इस विष को ग्रहण किया और इसे अपने कंठ में धारण कर लिया। इस घटना के कारण उनके कंठ का रंग नीला हो गया, और थी से वे नीलकंठ कहलाए।
अमृत कलश और कुंभ का संबंध
जब देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया, तो उसमें से अंत में अमृत कलश निकला। यह अमृत अमरत्व का प्रतीक था। जैसे ही अमृत कलश निकला, उसे लेकर देवताओं और असुरों के बीच संघर्ष शुरू हो गया। इस दौरान अमृत को सुरक्षित रखने और असुरों से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लिया और अमृत को देवताओं में बांट दिया। संघर्ष के दौरान, अमृत की कुछ बूंदें धरती पर चार स्थानों पर गिरीं। ये स्थान हैं: प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक।
यही कारण है कि हिंदू धर्म में इन स्थानों को अत्यंत पवित्र माना जाता है, और यहीं पर महाकुंभ का आयोजन होता है। यह विश्वास है कि अमृत की इन बूंदों ने इन स्थानों की नदियों के जल को पवित्र और मोक्ष प्रदान करने वाला बना दिया। महाकुंभ हर 12 साल में उन चार पवित्र स्थलों में से एक स्थान पर आयोजित होता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इन स्थानों पर स्नान करने से पापों का नाश होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसे धार्मिक आस्था और पुण्य का सबसे बड़ा पर्व माना जाता है।
महाकुंभ का ज्योतिषीय महत्व
महाकुंभ का आयोजन सूर्य, चंद्रमा, और देवगुरु बृहस्पति की विशेष स्थिति के आधार पर होता है। जब ये तीनों ग्रह एक विशेष राशि में प्रवेश करते हैं, तो महाकुंभ की तिथि और स्थान निर्धारित की जाती है। ऐसा माना जाता है कि इस समय स्नान करने से व्यक्ति को विशेष आध्यात्मिक ऊर्जा और पुण्य की प्राप्ती होती है।