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गंगोत्री से मुखबा आ जाती हैं देवी गंगा, यहां जानें इतिहास

उत्तराखंड में मुखबा मंदिर को विशेष मान्यता प्राप्त है। यह मंदिर देवी गंगा को समर्पित है और इस मंदिर को देवी गंगा का शीतकालीन निवास स्थान कहा जाता है।

Image of Mukhba Mandir

मुखबा मंदिर।(Photo Credit: @jyotirmathah/ X)

उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में मुखबा मंदिर स्थित है,  जिसे मुखीमठ मंदिर भी कहा जाता है। यह मंदिर देवी गंगा से जुड़ा हुआ है और विशेष रूप से सर्दियों के महीनों में इसका धार्मिक महत्व और भी बढ़ जाती है। बदरीनाथ और गंगोत्री धाम में जब भारी बर्फबारी होती है और इसके कारण मंदिर के कपाट बंद हो जाते हैं, तब देवी गंगा की प्रतिमा को मुखबा गांव में लाया जाता है और यहां उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। यही कारण है कि मुखबा को देवी गंगा का शीतकालीन निवास स्थान कहा जाता है।

मुखबा मंदिर का पौराणिक इतिहास

बद्रीनाथ धाम को भगवान विष्णु की तपोस्थली भी कहा जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार, जिस स्थान पर भगवान बद्रीनाथ का भव्य मंदिर है, वहीं भगवान विष्णु ने तपस्या की थी, वहीं गंगोत्री धाम को देवी गंगा का उद्गम स्थल कहा जाता है। आदि गुरु शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में बदरीनाथ धाम की पुनर्स्थापना की। उन्होंने मंदिर के विधि-विधान तय किए और यह सुनिश्चित किया कि देवी गंगा की मूर्ति को शीतकाल में सुरक्षित स्थान पर लाया जाए। यही परंपरा आज भी जारी है और इस कारण हर साल बदरीनाथ की शीतकालीन पूजा मुखबा में होती है।

 

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मुखबा मंदिर का पौराणिक उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। कहा जाता है कि जब पांडव स्वर्ग की ओर जा रहे थे, तब उन्होंने बदरीनाथ क्षेत्र में भगवान विष्णु की आराधना की थी। इस दौरान वे मुखबा क्षेत्र से भी गुजरे थे और यहां के निवासियों ने उनकी सेवा की थी।

मुखबा मंदिर का इतिहास और महत्व

मुखबा गांव बदरीनाथ मंदिर से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। जब गंगोत्री मंदिर के कपाट सर्दियों में बंद हो जाते हैं, तब देवी गंगा की उत्सव मूर्ति को पंडुकेश्वर और फिर मुखबा गांव लाया जाता है। यहां भगवान की पूजा नियमित रूप से की जाती है और पूरे गांव के लोग इस अनुष्ठान में भाग लेते हैं।

 

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मुखबा मंदिर की वास्तुकला पारंपरिक गढ़वाली शैली की है, जो पत्थर और लकड़ी से निर्मित है। यह मंदिर गढ़वाल क्षेत्र की संस्कृति और धार्मिक परंपराओं का प्रतीक है। देवी गंगा की मूर्ति को मुखबा ले जाने की परंपरा सदियों पुरानी है और यह पूरे गढ़वाल क्षेत्र में एक बड़े धार्मिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस दौरान विशेष भजन-कीर्तन, हवन और धार्मिक आयोजन किए जाते हैं।

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