logo

ट्रेंडिंग:

21 दिन की पैदल यात्रा, पंढरपुर वारी की अनूठी परंपरा

हर साल महाराष्ट्र में होने वाली पंढरपुर यात्रा का अपना एक खास स्थान है। आइए जानते हैं क्या है पंढरपुर वारी और इससे जुड़ी मान्यताएं।

Image of Bhagwan Vitthal

भगवान विट्ठल(Photo Credit: Wikimedia Commons)

भारत में जब भी भक्ति परंपरा की बात होती है, तो महाराष्ट्र के पंढरपुर की यात्रा का विशेष स्थान होता है। भगवान विट्ठल (या विटोबा) के लाखों भक्त हर साल पैदल चलकर पंढरपुर पहुंचते हैं और फिर पूजा करते करते हैं। यह यात्रा मुख्य रूप से आषाढ़ और कार्तिक महीनों में होती है और इसे 'पंढरपुर वारी' कहा जाता है।

 

इस साल पंढरपुर यात्रा 19 जून से शुरू हो चुकी है और 06 जुलाई को पंढरपुर पहुंचने पर भगवान विट्ठल और रुक्मिणी के दर्शन के बाद संपन्न होती है। बता दें कि आमतौर पर यह यात्रा 18 से 21 दिनों तक चलती है।

पंढरपुर कहां स्थित है?

पंढरपुर महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में भीमा नदी (जिसे स्थानीय भाषा में 'चंद्रभागा' कहा जाता है) के किनारे बसा हुआ एक प्राचीन तीर्थस्थान है। यही वह स्थान है जहां भगवान श्रीकृष्ण विट्ठल रूप में पूजे जाते हैं। यह मंदिर महाराष्ट्र के सबसे प्रसिद्ध और पवित्र मंदिरों में से एक माना जाता है।

 

यह भी पढ़ें: कामाख्या मंदिर: शक्ति पूजा और साधन का पर्व है अंबुबाची मेला

भगवान विट्ठल कौन हैं?

भगवान विट्ठल को भगवान श्रीकृष्ण का ही एक रूप माना जाता है, जो भक्तों की पुकार पर पंढरपुर आकर स्थायी रूप से वहीं विराजमान हो गए। विट्ठल यानी 'विठोबा' शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘विष्णु’ और ‘स्थल’ से मानी जाती है, जिसका अर्थ है- भगवान विष्णु का आवास। मराठी में इन्हें प्रेम से 'विठोबा', 'पांडुरंग', 'माउली' कहा जाता है।

पंढरपुर यात्रा का इतिहास

पंढरपुर यात्रा की परंपरा हजारों वर्षों पुरानी मानी जाती है। यह परंपरा 13वीं-14वीं शताब्दी में विशेष रूप से तब लोकप्रिय हुई जब संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, संत तुकाराम, संत एकनाथ जैसे संतों ने भक्ति आंदोलन को महाराष्ट्र में फैलाया।

 

 

इन संतों ने भक्ति को केवल कर्मकांड तक सीमित न रखकर जन-जन तक पहुंचाया। उनका संदेश था कि ईश्वर को पाने के लिए मंदिर या यज्ञ की आवश्यकता नहीं, बल्कि सच्चे मन से भक्ति चाहिए। इन संतों की स्मृति में ही 'वारी' नामक परंपरा शुरू हुई, जिसमें भक्त पैदल यात्रा कर पंढरपुर जाकर भगवान विट्ठल के दर्शन करते हैं।

पौराणिक कथा – पांडुरंग का पंढरपुर आगमन

एक पुरानी कथा के अनुसार, एक भक्त ‘पुंडलिक’ अपने माता-पिता की सेवा में इतना लीन था कि जब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं उससे मिलने आए तो वह माता-पिता की सेवा में व्यस्त था। उसने भगवान से क्षमा मांगते हुए कहा, 'मैं अभी सेवा में व्यस्त हूँ, कृपया प्रतीक्षा करें।' इसके बाद एक ईंट लाकर भगवान के सामने रख दी और उनसे खड़े होकर प्रतीक्षा करने के लिए कहा। भगवान श्रीकृष्ण पुंडलिक की सेवा भावना से इतने प्रभावित हुए कि वहीं ईंट पर खड़े हो गए और आज तक वहीं हैं और यही स्वरूप 'विट्ठल' कहलाता है।

 

यह भी पढ़ें: नंदिघोष: भगवान जगन्नाथ का भव्य रथ, निर्माण से मान्यताओं तक सब जानें

'वारी' की परंपरा

वारी का अर्थ है 'भक्तों का समूह जो पैदल भगवान के दर्शन के लिए जाता है।' यह यात्रा आमतौर पर 21 दिनों की होती है लेकिन कई लोग दो महीने पहले से ही यात्रा शुरू कर देते हैं। भक्त अपने साथ संतों की पालखी (पालनियों में प्रतीक मूर्ति या पादुका) लेकर चलते हैं। सबसे प्रसिद्ध पालखी संत तुकाराम और संत ज्ञानेश्वर की मानी जाती है।

 

वारी में भाग लेने वाले भक्तों को ‘वारकरी’ कहा जाता है। वह पूरे रास्ते भजन गाते हैं, संतों की शिक्षाओं को दोहराते हैं और इस दौरान बहुत अनुशासन में रहते हैं।

भगवान विट्ठल की उपासना की विशेषता

विट्ठल की पूजा में न कोई बड़ा यज्ञ होता है और न ही कोई जटिल अनुष्ठान। केवल प्रेम, समर्पण और भक्ति ही उनकी आराधना का आधार है। भक्त उन्हें मित्र, पिता, माँ, सबकुछ मानते हैं। उन्हें नृत्य, कीर्तन, भजन अर्पित किए जाते हैं। 'हरिपाठ', 'अभींग' और 'नामजप' विट्ठल भक्ति की पहचान बन चुके हैं।

 

Disclaimer- यहां दी गई सभी जानकारी सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं पर आधारित हैं।

Related Topic:#Vrat Tyohar

शेयर करें

संबंधित खबरें

Reporter

और पढ़ें

design

हमारे बारे में

श्रेणियाँ

Copyright ©️ TIF MULTIMEDIA PRIVATE LIMITED | All Rights Reserved | Developed By TIF Technologies

CONTACT US | PRIVACY POLICY | TERMS OF USE | Sitemap