संत वल्लभाचार्य भारतीय भक्ति आंदोलन के एक महान संत, विद्वान और दार्शनिक थे, जिन्होंने पुष्टिमार्ग नामक वैष्णव संप्रदाय की स्थापना की थी। उनका जीवन श्रीकृष्ण की भक्ति, ज्ञान और सेवा को समर्पित रहा। आइए उनके जीवन, कार्य और संप्रदाय की शुरुआत को सरल और विस्तार से समझते हैं।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
वल्लभाचार्य जी का जन्म 1479 ई. में आंध्र प्रदेश के चंपारण्य (वर्तमान में छत्तीसगढ़) में हुआ था। उनके पिता का नाम लक्ष्मण भट्ट और माता का नाम इलम्मा था। वह एक तेलुगु ब्राह्मण परिवार से थे जो कांचीपुरम से वाराणसी की ओर तीर्थ यात्रा पर निकले थे। यात्रा के दौरान कठिन परिस्थिति में जन्म होने के कारण वल्लभाचार्य को चमत्कारी बालक माना गया। कहते हैं कि वह गर्भ में 12 महीने तक रहे थे और जन्म के बाद मृत समझकर छोड़ दिया गया लेकिन वह जीवित मिले, जिससे लोग उन्हें 'दिव्य बालक' मानने लगे।
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शिक्षा और ज्ञान
वल्लभाचार्य जी बचपन से ही अत्यंत तेजस्वी और ज्ञान के भूख उनमें बहुत अधिक थे। उन्होंने बहुत कम उम्र में वेद, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र, और अन्य धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। वह बनारस (काशी) में शिक्षा प्राप्त कर अद्वैत वेदान्त के विद्वानों से शास्त्रार्थ करते थे। परंतु बाद में उन्होंने अद्वैत वेदांत की कुछ बातों को नकारते हुए 'शुद्धाद्वैत वेदांत' की स्थापना की।
संत वल्लभाचार्य ने कहा कि भगवान और जीव के बीच कोई भेद नहीं है लेकिन यह एकता शुद्ध और पूर्ण प्रेम के आधार पर होती है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि ब्रह्म यानी भगवान श्रीकृष्ण सर्वोच्च हैं और वह केवल निर्गुण नहीं, बल्कि सगुण और लीलामय भी हैं। उनका यह दर्शन 'शुद्धाद्वैत' कहलाता है। उन्होंने भक्ति को सबसे श्रेष्ठ मार्ग बताया, विशेषकर निष्काम और प्रेमयुक्त सेवा को।
पुष्टिमार्ग की स्थापना
वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्ग नामक भक्ति मार्ग की शुरुआत की, जिसका अर्थ होता है- 'ईश्वर की कृपा से पुष्ट हुआ मार्ग'। इस मार्ग में भगवान श्रीकृष्ण को एक बालक के रूप में मानते हुए उन्हें वात्सल्य और स्नेह से पूजा जाता है। पुष्टिमार्ग में भक्तों को श्रीकृष्ण की सेवा में तन्मय हो जाना होता है। इसमें कर्मकांड की जगह प्रेम और श्रद्धा से भक्ति को मुख्य माना गया है।
वल्लभाचार्य जी ने श्रीनाथजी (गोवर्धन पर्वत पर स्थित श्रीकृष्ण की मूर्ति) की सेवा की शुरुआत की और उसे पुष्टिमार्ग का प्रमुख केंद्र बनाया। उन्होंने अपने अनुयायियों को 84 वैश्णवों की एक श्रंखला में संगठित किया, जो इस मार्ग के प्रचार-प्रसार में जुटे।
वल्लभाचार्य की शिक्षाएं
वल्लभाचार्य ने लोगों को बताया कि भगवान को पाने के लिए कठोर तप या संयम की जरूरत नहीं, बल्कि प्रेम और सेवा ही पर्याप्त हैं। उनका मानना था कि भगवान अपने भक्त की भावना से प्रसन्न होते हैं, न कि केवल बाह्य आडंबर से।
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उन्होंने कई ग्रंथ भी लिखे, जिनमें 'श्री सुभोधिनी', 'टीका' और 'शोधिनी' प्रमुख हैं। उनके वचनों में संतुलित जीवन, गृहस्थ धर्म में रहते हुए भक्ति करना, और प्रभु श्रीकृष्ण को अपने परिवार का सदस्य मानकर सेवा करना सिखाया गया है।
वल्लभाचार्य का योगदान
वल्लभाचार्य ने भारत में भक्ति की एक नई धारा प्रवाहित की, जो लोगों को आत्मिक रूप से प्रभु से जोड़ती है। उन्होंने धर्म को आम जनमानस के लिए सुलभ बनाया। उनका पुष्टिमार्ग आज भी नाथद्वारा (राजस्थान), वाराणसी, गुजरात और मध्यप्रदेश समेत कई जगहों पर बड़ी श्रद्धा से अपनाया जाता है। वल्लभाचार्य जी ने 52 वर्ष की आयु में हरिद्वार के पास गंगा किनारे समाधि ली।