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सावन के सोमवार पर इन कथाओं को सुनने से मिलेगा विशेष फल

सावन महीने में सोमवार का व्रत रखने के साथ-साथ अगर आप इन कथाओं को सुनते हैं, तो विशेष फल की प्राप्ति होती है।

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प्रतीकात्मक तस्वीर| Photo Credit: FreePik

सावन महीने में भगवान शिव पृथ्वी पर वास करते हैं। शास्त्रों के अनुसार, सावन में सोमवार का व्रत रखने वालों पर भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्त होती है। इस पवित्र मास में भगवान शिव की कथाएं और लीलाएं सुनने से अत्यंत पुण्य और फल प्राप्त होता है। सबसे श्रेष्ठ और फलदायक कथा की बात करें तो सावन में 'शिव-पार्वती विवाह कथा' और 'समुद्र मंथन और विषपान कथा' सुनने से सबसे अधिक फल मिलता है। इन कथाओं को श्रद्धा, ध्यान और नियम के साथ सुनने और पढ़ने से भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्त होती है और जीवन में शांति, प्रेम, बल और मोक्ष का मार्ग खुलता हैं।

 

शिव पर्वती विवाह कथा को हरतालिका कथा के नाम से भी जानते हैं। सावन महीने में इस कथा को सुनने और पढ़ने से कुंवारी कन्याओं को मनचाहा और श्रेष्ठ वर (पति) मिलता है। इस कथा को सुनने से विवाहित स्त्रियों को वैवाहिक सुख और पति की लंबी आयु का आशीर्वाद मिलता है। यह कथा भक्ति, समर्पण और प्रेम का प्रतीक भी मानी जाता है।

 

सावन महीने में 'समुद्र मंथन और शिव के विषपान' की कथा पढ़ने और सुनने से व्यक्ति को विपरीत परिस्थितियों में धैर्य और सहनशक्ति मिलती है। साथ ही जीवन में सुख और समृद्धि भी आती है। यह कथा त्याग, करुणा और लोक-कल्याण का प्रतीक भी मानी जाती है।

 

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शिव-पर्वती कथा की रोचक बातें

पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान शंकर ने सबसे पहले माता सती से विवाह किया था। यह विवाह आसान नहीं था क्योंकि सती के पिता राजा दक्ष इस रिश्ते के पक्ष में नहीं थे। वह भगवान शिव के रूप, रहन-सहन और उनके तपस्वी स्वभाव से प्रभावित नहीं थे लेकिन अपने पिता ब्रह्मा की सलाह पर उन्होंने सती का विवाह शिव से कर दिया। विवाह तो हो गया लेकिन राजा दक्ष के मन में शिव के प्रति सम्मान नहीं था। जब उन्होंने यज्ञ किया, तो शिवजी को आमंत्रित नहीं किया और यज्ञ में सार्वजनिक रूप से उनका अपमान किया। सती यह अपमान सहन नहीं कर सकीं और उन्होंने यज्ञ-कुंड में कूदकर अपनी जान दे दी।

 

इस दुखद घटना के बाद भगवान शिव अत्यंत दुखी हो गए और वह संसार से दूर होकर घोर तपस्या में लीन हो गए। इधर देवी सती का जन्म हिमालय के घर देवी पार्वती के रूप में हुआ। पार्वती जन्म से ही भगवान शिव को ही अपना पति मानती थीं। उन्होंने बचपन से ही शिवजी को पाने के लिए कठोर तपस्या शुरू कर दी।

 

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उसी समय असुर तारकासुर ने देवताओं पर कहर ढाना शुरू कर दिया था। उसे वरदान मिला था कि केवल शिवजी का पुत्र ही उसे मार सकता है लेकिन शिव तो संसार से दूर तपस्या में लीन थे। ऐसे में देवता चिंतित हो उठे। उन्होंने शिवजी की तपस्या भंग करने के लिए कामदेव को भेजा। कामदेव ने प्रयास किया और शिवजी की तपस्या भंग कर दी लेकिन शिवजी को इस पर बहुत क्रोध आया और उन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया।

 

इसके बाद भी माता पार्वती ने अपनी तपस्या नहीं छोड़ी। उन्होंने पूरी श्रद्धा और भक्ति से भगवान शिव की आराधना जारी रखी। अंत में भगवान शिव माता पार्वती की निष्ठा और भक्ति से प्रसन्न हुए और उन्होंने विवाह के लिए स्वीकृति दे दी। देवताओं को भी इस विवाह की प्रतीक्षा थी, क्योंकि इससे ही तारकासुर का अंत संभव था।

 

विवाह का दिन तय हुआ और भगवान शिव बारात लेकर पार्वती के घर पहुंचे लेकिन यह कोई साधारण बारात नहीं थी। शिवजी की बारात में सभी प्रकार के प्राणी शामिल थे जैसे देवता, गण, भूत-पिशाच, दैत्य, पशु-पक्षी यहां तक कि विचित्र रूप वाले जीव भी उस बारात का हिस्सा बने। क्योंकि भगवान शिव केवल देवों के ही नहीं, बल्कि समस्त प्राणियों के स्वामी हैं वह 'पशुपति' हैं।

 

शिवजी की यह विचित्र बारात देखकर पार्वती की मां भयभीत हो गईं। उन्हें लगा कि वे अपनी सुंदर और संस्कारी पुत्री का विवाह इस अजीब से वर के साथ नहीं कर सकतीं। जब स्थिति बिगड़ने लगी तो पार्वती जी ने शिवजी से निवेदन किया कि कृपया हमारे कुल की परंपरा के अनुसार तैयार होकर आएं। तब शिवजी को दैवीय जल से स्नान कराया गया, सुंदर वस्त्र पहनाए गए और पुष्पों से सजाया गया। फिर वे एक सुंदर, तेजस्वी और दिव्य रूप में विवाह मंडप में आए।

 

विवाह की सभी रस्में पूरी की जा रही थीं। जब वंशावली बताने की बारी आई तो पार्वती जी के कुल और वंश का खूब सम्मान के साथ बखान किया गया लेकिन जब शिवजी की वंशावली बताने की बारी आई तो सब मौन हो गए। शिवजी का कोई पारंपरिक वंश नहीं था क्योंकि वह स्वयंभू हैं। यह स्थिति थोड़ी बिगड़ गई। तब नारद मुनि ने परिस्थिति को संभाला और उन्होंने कहा कि शिव का वंश किसी कुल में सीमित नहीं है। वह तो आदि हैं, अनादि हैं, संपूर्ण ब्रह्मांड के अधिपति हैं। सबने नारद मुनि की बात को सहर्ष स्वीकार किया और विवाह संपन्न हुआ।

 

समुद्र मंथन और शिव के विषपान कथा की रोचक बातें

बहुत पुराने समय की बात है। देवताओं और असुरों के बीच जबरदस्त संघर्ष चल रहा था। एक समय ऐसा आया जब महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण देवताओं की सारी शक्तियां, वैभव और ऐश्वर्य छिन गए। वे दुर्बल और दुखी हो गए। असुरों की ताकत बढ़ती गई और देवता पराजित होते चले गए। चारों ओर संकट छा गया।

 

इस कठिन समय में देवता भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे। उन्होंने श्रीहरि से अपनी पीड़ा कही और सहायता मांगी। भगवान विष्णु ने सब सुनने के बाद उन्हें एक उपाय बताया। उन्होंने कहा कि अगर तुम समुद्र मंथन करोगे, तो उसमें से अमृत निकलेगा। वह अमृत पीने से तुम अमर हो जाओगे और अपनी शक्तियां फिर से प्राप्त कर लोगे।

 

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समुद्र मंथन अकेले देवता नहीं कर सकते थे, इसलिए विष्णु जी ने सलाह दी कि असुरों को भी इसमें शामिल किया जाए। देवताओं ने यह बात असुरों के राजा बलि को बताई। बलि तैयार हो गए क्योंकि उन्हें भी अमृत की इच्छा थी। इस तरह देवता और असुर मिलकर समुद्र मंथन करने के लिए राजी हो गए।

 

समुद्र मंथन के लिए एक बड़े पर्वत मंदाराचल को मथनी बनाया गया और वासुकी नाग को रस्सी की तरह इस्तेमाल किया गया। भगवान विष्णु ने इस प्रक्रिया को चलाने के लिए कछुए (कूर्म अवतार) का रूप लिया और समुद्र की गहराई में जाकर मंदाराचल को अपने पीठ पर संतुलित किया। इसके बाद समुद्र मंथन आरंभ हुआ।

 

मंथन के दौरान बहुत सारी अद्भुत और दिव्य वस्तुएं समुद्र से निकलीं। इन वस्तुओं को 'समुद्र मंथन के 14 रत्न' कहा जाता है। इन रत्नों में देवी लक्ष्मी, चंद्रमा, ऐरावत हाथी, कामधेनु, कौस्तुभ मणि, रंभा, मदिरा, पारिजात पुष्प, कल्पवृक्ष, पांचजन्य शंख, उच्चैश्रवा घोड़ा, धन्वंतरि, अमृत कलश, और एक बहुत ही खतरनाक वस्तु निकली विष (हलाहल)।

 

जब समुद्र से विष निकला तो वह इतना जहरीला था कि तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। वह विष इतना घातक था कि उसके प्रभाव से पूरी सृष्टि नष्ट हो सकती थी। न देवता उसे रोक सकते थे, न असुर। उस समय भगवान शिव ने आगे बढ़कर संपूर्ण लोकों की रक्षा के लिए उस विष को अपने कंठ में धारण कर लिया।

 

भगवान शिव ने पूरा विष पी तो लिया लेकिन उसे गले से नीचे नहीं उतारा, बल्कि वहीं कंठ में रोक लिया ताकि वह उनके शरीर में न फैले और सृष्टि को कोई हानि न पहुंचे। विष की तीव्रता के कारण शिवजी का गला नीला पड़ गया, और तभी से वे 'नीलकंठ' के नाम से प्रसिद्ध हो गए।

 

शिवजी का यह त्याग और बलिदान संपूर्ण जगत के लिए अमूल्य है। उन्होंने न केवल विष को धारण किया बल्कि अपने शरीर में उस जहर को रोक कर तीनों लोकों को बचाया। यह घटना भगवान शिव के असीम करुणा और त्याग का प्रतीक मानी जाती है। उनका यह रूप हमें सिखाता है कि एक सच्चा संरक्षक वह होता है जो स्वयं कष्ट सहकर दूसरों की रक्षा करता है।

 

आज भी भगवान शिव को नीलकंठ के नाम से याद किया जाता है और उनकी यह लीला उनके वैराग्य, करुणा और पूरे ब्रह्मांड के प्रति उत्तरदायित्व का प्रतीक मानी जाती है। यह कथा हमें न केवल आध्यात्मिक रूप से समृद्ध करती है बल्कि जीवन में आने वाले संकटों से न डरने और दूसरों की भलाई के लिए आगे बढ़ने की प्रेरणा भी देती है।

 

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