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त्रिशूर पूरम: केरल का सबसे भव्य मंदिर उत्सव और इसका इतिहास

केरल में आयोजित होने वाला त्रिशूर पूरम पर्व लाखों लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र होता है। आइए जानते हैं इस पर्व से जुड़ी खास बातें।

Image of Thrissur Pooram

त्रिशूर पूरम उत्सव, केरल(Photo Credit: Wikimedia Commons)

भारत विविध संस्कृतियों और त्योहारों का देश है और दक्षिण भारत में स्थित केरल राज्य अपने भव्य और रंग-बिरंगे उत्सवों के लिए जाना जाता है। ऐसा ही एक अद्भुत पर्व है- त्रिशूर पूरम, जिसे केरल का सबसे भव्य और विशाल मंदिर उत्सव माना जाता है। यह उत्सव हर वर्ष त्रिशूर जिले के प्रसिद्ध वदक्कुनाथन मंदिर में मनाया जाता है, जो भगवान शिव को समर्पित है।

इस पर्व की शुरुआत कैसे हुई?

त्रिशूर पूरम की शुरुआत 18वीं सदी के अंत में कोच्चि के राजा सक्थान थम्पुरन (शासनकाल: 1790–1805) ने की थी। उस समय, क्षेत्र के विभिन्न मंदिरों से आने वाले देवताओं की शोभा यात्रा एक साथ आयोजित नहीं की जाती थी, जिससे एकता की कमी महसूस होती थी। राजा ने इसे दूर करने के लिए सभी प्रमुख मंदिरों को एकत्र कर एक सामूहिक उत्सव की परंपरा शुरू की, जो आज त्रिशूर पूरम के रूप में प्रसिद्ध है।

 

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किस देवता की होती है पूजा?

इस पर्व का मुख्य केंद्र भगवान वदक्कुनाथन हैं, जो भगवान शिव का रूप हैं। हालांकि, इस उत्सव में दो मुख्य मंदिर भाग लेते हैं-

परामेक्कावु देवी मंदिर

थीम्पूयूर श्रीकृष्ण मंदिर (थिरुवम्बाडी)

इन दोनों मंदिरों से देवताओं की मूर्तियों को शोभायात्रा  के रूप में वदक्कुनाथन मंदिर के प्रांगण में लाया जाता है और यह दृश्य अत्यंत भव्य होता है। ऐसा माना जाता है कि यह कार्यक्रम देवताओं का आपसी मिलन होता है।

हाथियों का महत्व और प्रतीक

त्रिशूर पूरम की सबसे प्रसिद्ध विशेषता है सजे-धजे हाथियों की लंबी कतार। इन हाथियों को खासतौर पर पारंपरिक आभूषणों, सोने की जालियों (नेट्टिपट्टम), छत्रों और घंटियों से सजाया जाता है। प्रत्येक मंदिर की ओर से 15 सजे हुए हाथियों की झांकी निकाली जाती है।

 

हाथी, इस उत्सव में देवदूत और वाहन का कार्य करते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार, देवता स्वयं इन सजे हुए हाथियों पर विराजमान होकर यात्रा करते हैं। ये हाथी शक्ति, समर्पण और भव्यता के प्रतीक माने जाते हैं।

उत्सव की प्रमुख झलकियां

कुडमट्टम: यह सबसे लोकप्रिय दृश्य होता है, जिसमें दोनों मंदिरों के प्रतिनिधि हाथियों की कतार में एक-एक कर छत्र (छाते) बदले जाते हैं। यह दृश्य रंगों, संगीत और तालियों की गूंज के साथ बहुत ही मनोहारी होता है।

 

पंचवाद्यम और मेलम: यह पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुन होती है, जिसमें चेंडा, इडक्का, इलाथलम और कोम्बू जैसे वाद्य बजते हैं। इनकी ताल पर पूरी भीड़ झूमती है।

 

आतिशबाजी: रात को होने वाली आतिशबाजी त्रिशूर पूरम का एक बड़ा आकर्षण होती है, जो कई किलोमीटर दूर से भी दिखाई देती है। इसका आयोजन बड़े पैमाने पर होता है।

 

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इस पर्व से जुड़ी मान्यता और संदेश

त्रिशूर पूरम केवल एक धार्मिक पर्व नहीं है, बल्कि यह सांप्रदायिक एकता और सामाजिक समरसता का प्रतीक भी है। इस उत्सव में हिंदू ही नहीं, बल्कि सभी धर्मों के लोग शामिल होते हैं। यह पर्व बताता है कि परंपरा और आधुनिकता का मेल कैसे समाज को जोड़ सकता है।

सुरक्षा और पर्यावरण

हाल के वर्षों में, पर्यावरणीय चिंताओं के कारण आयोजकों ने हाथियों की देखभाल, प्लास्टिक मुक्त आयोजन और ध्वनि प्रदूषण को कम करने जैसे उपाय भी अपनाए हैं।

 

Disclaimer- यहां दी गई सभी जानकारी सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं पर आधारित हैं।

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