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बड़ी कंपनियों के पर्यावरण को बचाने के दावे कितने खोखले, कैसे होता है खेल?

अक्सर भ्रामक तरीके से रणनीति बनाकर प्रोडक्ट्स या कंपनी के नियमों को ईको-फ्रेंडली, कार्बन न्यूट्रल या सस्टेनेबल बताया जाता है।

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प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo Credit: AI Generated

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'हर चीज़ जो हरी दिखे, जरूरी नहीं कि वह पर्यावरण के लिए भी अच्छी हो ही।' यह बात आज के कॉरपोरेट दौर में और भी सटीक बैठती है। जैसे-जैसे पर्यावरणीय जागरूकता बढ़ रही है, वैसे-वैसे कंपनियां खुद को 'ग्रीन' यानी पर्यावरण हितैषी दिखाने की होड़ में लग गई हैं। वे अपने उत्पादों और नीतियों को 'ईको-फ्रेंडली', 'कार्बन-न्यूट्रल', या 'सस्टेनेबल' बताकर ग्राहकों को अपनी ओर खींचने की कोशिश करती हैं। लेकिन क्या ये दावे सच होते हैं? अक्सर नहीं। इस भ्रामक रणनीति को 'ग्रीनवॉशिंग' (Greenwashing) कहा जाता है।

 

ग्रीनवॉशिंग का मतलब होता है ऐसे झूठे या भ्रामक दावे करना जिनसे यह लगे कि कंपनी पर्यावरण के प्रति ज़िम्मेदार है, जबकि हकीकत में उनके कार्यकलाप पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे होते हैं। खबरगांव का यह लेख इसी ग्रीनवॉशिंग पर आधारित है। इसमें हम इस बात पर विचार करेंगे कि ग्रीनवॉशिंग क्या है, क्यों होता है, कैसे उपभोक्ताओं को प्रभावित करता है, किन कंपनियों पर आरोप लगे हैं और भारत व वैश्विक स्तर पर इसे रोकने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं।

 

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ग्रीन पॉलिसी होती क्या है?

ग्रीन पॉलिसी उन सरकारी नीतियों और नियामक ढांचों को कहा जाता है, जिनका उद्देश्य पर्यावरणीय क्षरण रोकना, कार्बन उत्सर्जन घटाना और अर्थव्यवस्था को टिकाऊ दिशा में ले जाना होता है। आमतौर पर ये नीतियां तीन रूपों में सामने आती हैं।


पहली: टारगेट आधारित ग्रीन पॉलिसी

इसमें सरकारें या कंपनियां भविष्य के लिए बड़े लक्ष्य तय करती हैं, जैसे 'नेट ज़ीरो' या 'कार्बन न्यूट्रल' होना। भारत ने COP26 में घोषणा की कि वह 2070 तक नेट ज़ीरो बनेगा। साथ ही 2030 तक उत्सर्जन तीव्रता में 45% कमी, बिजली उत्पादन का 50% नॉन-फॉसिल सोर्स से और 500 गीगावाट नॉन-फॉसिल ऊर्जा क्षमता का लक्ष्य रखा गया है।

 

सरकार का इरादा साफ़ दिखता है कि ग्रीन एनर्जी की दिशा में काम करना है लेकिन समस्या यह है कि ये लक्ष्य लंबे समय के हैं, जबकि आज के उत्सर्जन पर सख़्त बाध्यता कम है।


दूसरी: तकनीक आधारित ग्रीन पॉलिसी

इसमें सोलर, विंड, इलेक्ट्रिक व्हीकल, ग्रीन हाइड्रोजन और ऊर्जा दक्षता जैसी तकनीकों को बढ़ावा दिया जाता है। भारत की EV पॉलिसी, सोलर सब्सिडी और ग्रीन हाइड्रोजन मिशन इसके उदाहरण हैं। मकसद है- प्रदूषणकारी तकनीक से स्वच्छ तकनीक की ओर शिफ्ट।


तीसरी: डिस्क्लोज़र और ESG आधारित ग्रीन पॉलिसी

कंपनियों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने पर्यावरणीय प्रभाव की रिपोर्ट दें। भारत में इसके लिए BRSR (Business Responsibility and Sustainability Reporting) लागू किया गया है। उद्देश्य है पारदर्शिता, लेकिन डेटा अक्सर कंपनियां खुद देती हैं और स्वतंत्र ऑडिट हर जगह अनिवार्य नहीं है। यहीं से ग्रीन वॉशिंग की ज़मीन तैयार होती है।

ग्रीनवॉशिंग क्या है?

ग्रीनवॉशिंग शब्द सबसे पहले 1986 में पर्यावरणविद् जे वेस्टरवेल्ड ने इस्तेमाल किया था। तब से यह एक सामान्य कॉरपोरेट रणनीति बन गया है। ग्रीनवॉशिंग वह प्रक्रिया है जिसमें कंपनियां अपने उत्पादों या सेवाओं को पर्यावरण-अनुकूल दिखाने की कोशिश करती हैं, जबकि वे वास्तव में ऐसे नहीं होते। उदाहरण के लिए, किसी कंपनी द्वारा प्लास्टिक की बोतल पर '100% recyclable' लिखना, लेकिन उस बोतल को रिसायकल कभी किया ही नहीं जाता क्योंकि उस क्षेत्र में उसकी रिसायक्लिंग की सुविधा नहीं है।


ASCI (Advertising Standards Council of India) की 2024 की 79% पर्यावरणीय दावे भ्रामक या बढ़ा-चढ़ाकर किए जाने वाले वाले पाए गए हैं। इस तरह के दावों से उपभोक्ता सोचता है कि वह ज़िम्मेदार विकल्प चुन रहा है, जबकि वह अनजाने में प्रदूषण को बढ़ावा दे रहा होता है।

कैसे होती है ग्रीनवॉशिंग?

InfluenceMap के अनुसार, दुनिया के 57 प्रोड्यूसर तेल-गैस व सीमेंट उत्सर्जन के 80 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार हैं। हालांकि, बड़ी बड़ी कंपनियां ग्रीन ट्रांजिशन की बात करती हैं जिससे वे मौजूदा जवाबदेही से बच जाती है।

 

फिर अगर किसी कंपनी के कुल ऊर्जा उत्पादन का 70–80% कोयले से आता है और 5–10% सोलर से, तो प्रचार सोलर का होता है, कोयले का नहीं। भारत में आज भी कुल बिजली उत्पादन में कोयले की हिस्सेदारी लगभग 70% है। इसके बावजूद कई कंपनियां खुद को 'ग्रीन एनर्जी लीडर' बताती हैं, क्योंकि उन्होंने कुछ सोलर प्रोजेक्ट लगा लिए हैं।

 

'इको-फ्रेंडली', 'सस्टेनेबल', 'ग्रीन प्रोडक्ट' जैसे शब्दों की अक्सर कोई कानूनी परिभाषा नहीं होती। यूरोपीय संघ की 2023 की एक स्टडी के मुताबिक, 53% ग्रीन क्लेम्स या तो अस्पष्ट थे या भ्रामक, और 40% मामलों में कोई ठोस डेटा सपोर्ट मौजूद नहीं था।

 

इसके अलावा कई कंपनियां कहती हैं कि वे प्रदूषण जारी रखेंगी, लेकिन पेड़ लगाकर या कार्बन क्रेडिट खरीदकर 'ऑफसेट' कर देंगी। Nature Climate Change में प्रकाशित रिसर्च बताती है कि स्वैच्छिक कार्बन ऑफसेट प्रोजेक्ट्स का 60–80% वास्तविक उत्सर्जन कटौती साबित नहीं कर पाता।

क्लीन कोल, ग्रीन कॉरिडोर? 

भारत जैसे विकासशील देश में ऊर्जा, इंफ्रास्ट्रक्चर और रोज़गार की ज़रूरतें बहुत बड़ी हैं। इसी दबाव में कोयला परियोजनाओं को 'क्लीन कोल' कहा जाता है, बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स को 'ग्रीन कॉरिडोर' बताया जाता है और रियल एस्टेट में मामूली ऊर्जा दक्षता को 'ग्रीन बिल्डिंग' का टैग दे दिया जाता है। इससे नीति का उद्देश्य कमजोर पड़ता है और जनता का भरोसा टूटता है।

क्या हैं असली नुकसान

ग्रीन वॉशिंग सिर्फ़ नैतिक समस्या नहीं, बल्कि आर्थिक और पर्यावरणीय संकट है। असली सस्टेनेबल कंपनियों को निवेश कम मिलता है, नीति-निर्माताओं को गलत संकेत जाते हैं, उपभोक्ता 'ग्रीन' शब्द से ही अविश्वास करने लगते हैं और जलवायु संकट से निपटने में देरी होती है।


विश्व बैंक के अनुसार, अगर जलवायु परिवर्तन पर प्रभावी कार्रवाई नहीं हुई, तो 2030 तक 10 करोड़ से अधिक लोग दोबारा गरीबी में धकेले जा सकते हैं। ग्रीन वॉशिंग इस जोखिम को और बढ़ाती है।

 

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तो फिर करें क्या?

ग्रीन पॉलिसी को ठीक से लागू करने के लिए 'ग्रीन', 'सस्टेनेबल' जैसे शब्दों की परिभाषा स्पष्ट रूप से तय होनी चाहिए, पर्यावरणीय दावों का अनिवार्य स्वतंत्र ऑडिट होना चाहिए, भ्रामक ग्रीन क्लेम्स पर सख़्त जुर्माना, वर्तमान उत्सर्जन में कटौती को प्राथमिकता देने की जरूरत है न कि सिर्फ़ भविष्य के लक्ष्यों पर ध्यान दें। इस तरह से ग्रीन पॉलिसी अगर जमीनी स्तर पर ठीक से लागू की जाए तो ग्रीन वॉशिंग से बचा जा सकता है नहीं तो ग्रीन पॉलिसी सिर्फ एक मजाक बनकर ही रह जाएगी।

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