IKKIS फिल्म जिन पर बनी उन अरुण खेत्रपाल की कहानी क्या है?
बसंतर के युद्ध में 21 साल के एक युवा के सामने दुश्मन था लेकिन आदेश मिला की पीछे हटो। इस युवा ने जान की परवाह नहीं की और दुश्मन का टैंक तबाह कर दिया।

अरुण खेत्रपाल की कहानी, Photo Credit: Khabargaon
16 दिसंबर 1971 को भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध चल रहा था। दिल्ली के नारायणा इलाके में एक कमरे की दीवार पर एक नौजवान की तस्वीर टंगी थी। जो इंडियन आर्मी की वर्दी पहने मुस्कुरा रहा था। रेडियो सीलोन के प्रसारण से जानकारी मिली कि शकरगढ़ में भारत और पाकिस्तान के बीच एक बड़ा टैंक युद्ध हुआ है। यह सुनना था कि घर में सन्नाटा पसर गया क्योंकि जिस नौजवान की तस्वीर उस कमरे में लगी थी, उसकी रेजीमेंट भी शकरगढ़ इलाके में ही तैनात थी। परिवार में हर कोई उस नौजवान की सलामती की प्रार्थना कर रहा था।
किसी तरह रात बीती और फिर आई अगली सुबह। यानी 17 दिसंबर 1971। खबर आई कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सीजफायर की घोषणा की है। भारत-पाकिस्तान का युद्ध रुक गया। उस नौजवान के घरवालों ने राहत की सांस ली। मां ने जवान का कमरा साफ करवाया और इंतजार करने लगी कि उनका बेटा वापस आएगा और युद्ध के किस्से सुनाएगा लेकिन होनी को कुछ और ही मंज़ूर था।
19 दिसंबर 1971 की तारीख आई और सुबह-सुबह दरवाजे की घंटी बजी। जवान के पिता उस वक्त शेव कर रहे थे। उन्होंने घंटी की आवाज सुनी। उनकी पत्त्नी ने दरवाज़ा खोला और फिर… जोर से चीखने की आवाज गूंजी। सब भागते हुए दरवाजे पर पहुंचे। उनके हाथ में कागज का एक टुकड़ा था। जो इंडियन आर्मी की ओर से आया एक टेलीग्राम था। उस जवान के छोटे भाई ने टेलीग्राम उठाया, उसे पढ़ा और चुपचाप अपने पिता को थमा दिया। उस टेलीग्राम को पढ़ते ही उस परिवार का वक्त वहीं थम गया।
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टेलिग्राम में लिखा था- 'Deeply regret to inform, your son IC 25067 Second Lieutenant Arun Khetarpal reportedly killed in action on 16 December.'
बैटल ऑफ बसंतर में हुए शहीद
इस टेलीग्राम में लिखा था कि 16 दिसंबर को ‘बैटल ऑफ बसंतर’ के टैंक युद्ध में वह शहीद हो गए। पढ़िए उन्हीं सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल की कहानी जिन्होंने महज़ 21 साल की उम्र में अपना सर्वोच्च बलिदान देकर भी भारत की रक्षा की और पाकिस्तानी सेना को एक इंच भी आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया। एक ऐसा सैनिक जिसने अपने टैंक को ही अपना घर बना लिया और जंग के मैदान में जब उसके टैंक में आग लग गई तो पीछे हटने के अपने कमांडर के आदेश को मानने से इनकार कर दिया और कहा, 'No Sir, I will not abandon my tank'.
एक ऐसा फौजी जिसने अपनी जान की परवाह किए बगैर पाकिस्तान के 4 टैंकों को अकेले ही तबाह कर दिया एक ऐसा फौजी जिसने अपनी ही डाइनिंग सेरेमनी में पूरी रेजिमेंट के सामने अपने लिए टोस्ट कर दिया और कहा, 'इस रेजीमेंट का अगला परमवीर चक्र मैं लाऊंगा।'अपनी शहादत देकर भी उसने अपना वादा निभाया जब उसे महज़ 21 साल की उम्र में मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया लेकिन यह कहानी सिर्फ इतनी ही नहीं है यह कहानी उस पिता की भी है जिसने अपने बेटा खोया और 30 साल बाद वही पिता अपने बेटे के कातिल के सामने खड़ा था जिसने उनके सामने कबूल किया, 'Sir, I Killed your son'.
यह किस्सा है 'बैटल ऑफ बसंतर' के हीरो परमवीर चक्र विजेता सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल का, जो भारतीय सेना के साथ-साथ पाकिस्तानी सेना के लिए भी मिसाल बन गए।
अरुण खेत्रपाल की इसी अमर कहानी पर श्रीराम राघवन ने एक फिल्म बनाई है। नाम है- इक्कीस, वह उम्र जब सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल वीरगति को प्राप्त हुए। इस फिल्म में धर्मेंद्र और जयदीप अहलावत के अलावा अमिताभ बच्चन के नाती अगस्त्य नंदा लीड रोल में हैं। यह फिल्म 21 दिसंबर को रिलीज होगी लेकिन उससे पहले हम आपको अरुण खेत्रपाल की पूरी कहानी बता रहे हैं।
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'IIT नहीं, फौज में जाना है'
अरुण खेत्रपाल एक सैनिक परिवार से थे। उनके परदादा सिख रेजिमेंट में थे। 1848 में उन्होंने बैटल ऑफ चिलियांवाला में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। उनके दादा ने फर्स्ट वर्ल्ड वॉर के दौरान ब्रिटिश आर्मी में सर्व किया। अरुण के पिता ब्रिगेडियर ML खेत्रपाल अपनी रिटायरमेंट तक कॉर्प्स ऑफ इंजीनियर्स में थे। खेत्रपाल परिवार पाकिस्तान के सरगोधा का रहने वाला था। देश के बंटवारे के बाद उन्होंने भारत को चुना और शरणार्थी के तौर पर भारत आए।
अरुण खेत्रपाल का जन्म भारत में ही हुआ था। वह महाराष्ट्र के पुणे में 14 नवंबर 1950 को पैदा हुए। उनके पिता तब लेफ्टिनेंट कर्नल हुआ करते थे। वह कॉलेज ऑफ मिलिट्री इंजीनियरिंग में इंस्ट्रक्टर थे। अरुण के छोटे भाई मुकेश एक इंटरव्यू में बताते हैं कि उनके पिता ने तय किया था कि अरुण इंजीनियरिंग के पेशे में जाएंगे और मुकेश फौज में लेकिन हुआ इसका उल्टा।
अरुण बचपन से ही अपने पिता को सेना की वर्दी में देखते थे और तभी से उन में फौज में जाने का जुनून पैदा हो गया था। मुकेश बताते हैं कि बचपन में जब उनके पिता घर पर नहीं होते, तो अरुण उनकी वर्दी पहन लिया करते थे लेकिन पिता का आदेश था तो उन्होंने इंजीनियरिंग की ओर भी ध्यान दिया और IIT की परीक्षा पास की। उन्हें दाखिला मिल चुका था लेकिन एक रोज उन्होंने अपनी मां माहेश्वरी खेत्रपाल से डरते-डरते कहा कि वह IIT नहीं जाना चाहते। बात उनके पिता तक पहुंची। उन्होंने अरुण से इसका कारण पूछा। अरुण ने कहा, ‘पापा, मैं आपकी तरह फौज में जाना चाहता हूं।’
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अरुण बचपन से अपनी धुन के पक्के थे। जो ठान लेते थे, उसे करके ही रहते थे। इसलिए उनके पिता ने भी कहा, ‘बेटा, आपको जो ठीक लगे, वो करो।’ अरुण को वह मिल गया, जो वह चाहते थे।
'मैं लाउंगा अगला परम वीर चक्र'
1967 में उन्होंने नेशनल डिफेंस एकेडमी (NDA), खडकवासला, पुणे में प्रवेश लिया। उसके बाद इंडियन मिलिट्री एकेडमी (IMA), देहरादून में उनकी ट्रेनिंग हुई। 13 जून 1971 को अरुण खेत्रपाल को 17 पूना हॉर्स में कमीशन मिला।
यंग ऑफिसर्स जब अपनी यूनिट ज्वॉइन करते हैं तो उनके लिए डाइनिंग इन सेरेमनी रखी जाती है। यह सेना में उनके स्वागत का एक औपचारिक तरीका है। अरुण के साथ भी ऐसा ही हुआ। डाइनिंग इन सेरेमनी में उन्हें टोस्ट रेज करने को कहा गया। उनके भाई मुकेश खेत्रपाल BBC को बताते हैं कि अरुण ने लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर के नाम टोस्ट रेज किया। जो 1965 के युद्ध में शहीद हुए थे। मरणोपरांत उनको परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया था। इसके बाद सबने ड्रिंक ली लेकिन तभी फिर से अरुण की आवाज आई। उन्होंने कहा, ‘मैं एक दूसरा टोस्ट भी रेज करना चाहता हूं। सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल के नाम क्योंकि अगला परम वीर चक्र मैं लेकर आउंगा।’ उस वक्त सबने इसको एक यंग ऑफिसर का जोश और जज्बा समझा लेकिन यह महज़ एक टोस्ट नहीं था यह आगे चलकर सच साबित होने वाला था।
'लाहौर में गोल्फ खेलूंगा और खूब पार्टी होगी'
अरुण को फौज ज्वॉइन किए महज़ छह महीने हुए थे। 1971 का दिसंबर महीना चल रहा था। बांग्लादेश के मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ रहा था। अरुण अहमदनगर में यंग ऑफिसर्स कोर्स कर रहे थे। मुकेश खेत्रपाल दिल्ली में अपने घर में थे। एक दिन अचानक उनके घर की घंटी बजी। उन्होंने दरवाजा खोला तो सामने अरुण खेत्रपाल थे। अपने भाई को अचानक वहां देखकर वह चौंक गए। उन्होंने पूछा, ‘आप यहां कैसे आ गए।’
दरअसल, तब तक युद्ध के आसार तेज हो चुके थे। इसलिए यंग ऑफिसर्स कोर्स को स्थगित कर दिया गया था। सभी जवानों को वापस अपनी रेजीमेंट में रिपोर्ट करने को कहा गया। 17 पूना हॉर्स पठानकोट के पास तैनात थी। अरुण ट्रेन से दिल्ली पहुंचे। कुछ घंटों तक अपने परिवार के पास रुके। वापस जाते हुए उन्होंने अपना अधिकतर सामान घर पर ही छोड़ दिया लेकिन अपना गोल्फ बैग और ब्लू पेट्रोल अपने साथ रख लिया। ब्लू पेट्रोल एक तरह का औपचारिक ड्रेस होता है, जिसे सेना के जवान खास मौकों पर यानी पार्टी करते वक्त पहनते हैं लेकिन जाहिर तौर पर जंग के मैदान में इसका कोई काम नहीं था। ब्रिगेडियर ML खेत्रपाल ने अपने बेटे से पूछा कि यह क्यों ले जा रहे हो। अरुण, भारत की जीत को लेकर इतने निश्चिंत थे कि उन्होंने कहा, ‘लाहौर पहुंचकर गोल्फ खेलूंगा और वहां खूब पार्टी होगी।’
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जब वह लौट रहे थे। उनकी मां ने उनसे कहा, ‘शेरों जैसे लड़कर आना…’ अरुण मुस्कुराए और पठानकोट के लिए निकल पड़े।
इंदिरा गांधी का संबोधन
3 दिसंबर 1971 की तारीख थी। देश के नाम प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संदेश दिया, 'मैं एक खतरे के समय बोल रही हूं। शाम के करीब साढ़े पांच बजे पाकिस्तान ने हमारे ऊपर एक हमला किया। पाकिस्तानी हवाई जहाजों ने हमारे अमृतसर, पठानकोट, श्रीनगर, अवंतीपुर, उत्तरलाई, जोधपुर, अंबाला और आगरा के हवाई अड्डों पर बमबारी की।' बांग्लादेश तब पूर्वी पाकिस्तान कहलाता था। जिसे पश्चिमी पाकिस्तान कंट्रोल करता था। पूर्वी पाकिस्तान की ओर से आरोप लगाए गए कि पश्चिमी पाकिस्तान उनके साथ भेदभाव कर रहा है। भाषा से लेकर राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई इतनी बढ़ी कि पश्चिमी पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान में दमन शुरू कर दिया। भारत के साथ एक अच्छे पड़ोसी बनने की जिम्मेदारी थी लेकिन उससे भी बड़ी समस्या थी शरणार्थियों की। पाकिस्तानी सेना से त्रस्त होकर लाखों लोग पूर्वी पाकिस्तान से भारत आ रहे थे। पूर्वी पाकिस्तान में एक अलग देश- बांग्लादेश बनाने की मांग उठ रही थी। इसी को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच भी तनाव बढ़ा और अंत में 3 दिसंबर को पाकिस्तान ने अपनी पूरी ताकत से भारत पर हमला किया। हिंदुस्तान को पहले से इस हमले का अंदेशा था और भारतीय सेना इसके लिए पूरी तरह तैयार थी।
फामागुस्ता को बनाया घर
उधर अरुण अपनी रेजीमेंट में वापस लौट चुके थे। उस वक्त पूना हॉर्स (Pouna Horse) रेजिमेंट के कमांडेंट थे- लेफ्टिनेंट जनरल हनुत सिंह। हनुत सिंह ने अरुण को युद्ध में न शामिल होने का ऑर्डर दिया। अरुण इस ऑर्डर से निराश हुए उन्होंने अपने कमांडेंट से कहा कि युद्ध में शामिल होने का मौका ज़िंदगी में एक बार आता है, उन्हें इस मौके से दूर मत करिए। इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू में हनुत सिंह बताते हैं कि अरुण की बात सुनकर उन्होंने अरुण का एक टेस्ट लिया। वह देखना चाहते थे कि अरुण जंग के लिए पूरी तरह फिट है या नहीं। इस टेस्ट के बाद ही वह अपना फैसला लेते। लेफ्टिनेंट जनरल हनुत सिंह ने अरुण खेत्रपाल का टेस्ट लिया जिसे अरूण ने पास कर लिया इसके बाद ही उन्हें जंग में जाने की इजाज़त मिली।
अरुण को फामागुस्ता की जिम्मेदारी दी गई। यह एक सेंचुरियन टैंक था जिसका कोड नेम था फामागुस्ता। यह नाम साइप्रस के एक बंदरगाह के नाम पर रखा गया था। अरुण इतने डेडिकेटेड थे कि उन्होंने उस टैंक को ही अपना घर बना लिया। हर रोज सुबह-सुबह ही वह अपने टैंक में पहुंच जाते और उसकी सफाई में लग जाते। 10 दिसंबर को अरुण ने अपने फैमिली के नाम एक खत लिखा। जिसमें वह बताते हैं कि उनकी रेजिमेंट में सब ठीक चल रहा है लेकिन फिर आई 15 दिसंबर की तारीख।
बैटल ऑफ बसंतर
शकरगढ़ सेक्टर, पाकिस्तान की सीमा का एक 30 किलोमीटर लंबा क्षेत्र था। जो छुरी के आकार का था। यह भारतीय क्षेत्र की ओर निकलता था और इसके बीच से बसंतर नदी बह रही थी। यह इलाका पाकिस्तान के सियालकोट के बड़े सैन्य ठिकाने के पास था। इसलिए दोनों पक्षों के लिए इस पर कंट्रोल करना जरूरी था। पंजाब से जम्मू जाने वाली सड़क और रेल मार्ग इसी क्षेत्र से होकर गुजरते थे। अगर इस पर पाकिस्तान का कब्जा हो जाता, तो जम्मू-कश्मीर से संपर्क का एक जरूरी लिंक टूट जाता। इसके अलावा अमृतसर, पठानकोट और गुरदासपुर जैसे संवेदनशील क्षेत्र तक पाकिस्तानी आर्मी की पहुंच आसान हो जाती। इसलिए भारतीय सेना का इस क्षेत्र की रक्षा करना काफी ज़रूरी था।
इसी जरूरत को समझते हुए, 47 इंडियन इन्फैंट्री ब्रिगेड को बसंतर नदी के पार एक ब्रिजहेड (Bridge-head) बनाने का आदेश दिया गया। ब्रिजहेड का मतलब है दुश्मन के इलाके में घुसने का रास्ता सिक्योर कर लेना। आमतौर पर जब सेना किसी नदी या झील जैसी पानी की बाधा को पार करने की कोशिश करती है तो पानी के उस पार दुश्मन के क्षेत्र में एक छोटे, सुरक्षित क्षेत्र पर कब्जा कर लिया जाता है, ताकि सेना उसी रास्ते से होकर आगे बढ़े और हमला करे।
47th ब्रिगेड ने तेजी से अपना काम किया और 15 दिसंबर 1971 की रात को 9 बजे तक ब्रिजहेड तैयार कर लिया गया। इसके आगे दुश्मन का वह इलाका था, जहां बारूदी सुरंग थीं यानी कि माइनफील्ड। अब यह ब्रिगेड के इंजीनियर्स का काम था कि वे माइनफील्ड्स को सिक्योर करें ताकि 17 पूना हॉर्स के टैंक आगे बढ़ सकें। इंजीनियर्स अपना काम कर रहे थे। उन्होंने करीब आधा इलाका सिक्योर लिया था लेकिन तभी पाकिस्तानी तोपों की संदिग्ध और भारी गतिविधि का पता चला। ब्रिजहेड पर तैनात भारतीय जवानों ने मैसेज पास किया और तत्काल भारतीय टैंकों से सहायता मांगी। यह बसंतर के टैंक युद्ध की शुरूआत थी।
बसंतर का टैंक युद्ध
तारीख 16 दिसंबर सुबह करीब 8 बजे। पूना हॉर्स की दो टैंक टुकड़ियों को पाकिस्तान के जारपाल क्षेत्र की ओर बढ़ने का आदेश दिया गया। इनमें से एक टुकड़ी को लीड कर रहे थे- सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल। दूसरी तरफ पाकिस्तानी सेना भी टैंकों के साथ तैयार थी उसने एक आर्मर्ड रेजीमेंट के साथ धुंध की आड़ में पूरी ताकत से हमला किया। दुश्मन के सामने भारतीय सेना संख्या में कम थी और उनके पास टैंकों की संख्या भी कम थी, इसलिए बी स्क्वाड्रन के कमांडर ने तुरंत रीइन्फोर्समेंट की मांग की। जब वे बसंतर नदी पार कर रहे थे, तब वहां कुछ पाकिस्तानी टैंक और रीकॉइल गन पोस्ट एक्टिव थे। रीकॉइल गन पोस्ट का मतलब है- दुश्मन की एक मजबूत फायरिंग पोजिशन, जहां एंटी-टैंक गन्स या भारी तोपें छिपाकर या कवर के पीछे लगाई जाती हैं।
अरुण की टुकड़ी में दो टैंक थे और वह बी स्क्वाड्रन के पास ही तैनात थे। उन्होंने रीइन्फोर्समेंट का जवाब दिया और दुश्मन से सीधे मुकाबले के लिए आगे बढ़ने का फैसला लिया लेकिन ब्रिजहेड जोन के पास, छिपे हुए पाकिस्तानी टैंक और रीकॉइल गन पोस्ट से भारतीय टैंकों पर भारी हमला हुआ। खेत्रपाल ने पलटवार किया। उन्होंने दुश्मन के मजबूत ठिकानों पर बहादुरी से हमला किया। दुश्मन की डिफेंस लाइन को तोड़कर वे उसके भीतर घुस गए। अरुण पाकिस्तानी सैनिकों और उनकी रिकॉयल गनों के बिल्कुल पास पहंच गए लेकिन इसी दौरान दुश्मन ने अरुण की टुकड़ी के दूसरे टैंक पर हमला किया। जिससे मौके पर ही उसके कमांडर शहीद हो गए। अब दुश्मन के सामने अरुण अपनी टीम के साथ अकेले चुके थे।
इसके बावजूद अरुण अपने टैंक के साथ आगे बढ़ते रहे। उन्होंने एक-एक कर दुश्मन के सभी ठिकानों पर अकेले ही तब तक हमला जारी रखा। जब तक कि वह पूरा इलाका फ्री नहीं हो गया। इसके बाद वह तेजी से बी स्क्वाड्रन की पोजिशन की ओर बढ़े। वहां पहुंचने पर अरुण ने देखा कि दुश्मन के टैंक पीछे हटने लगे थे। खेत्रपाल ने उनका पीछा किया और पीछे हटते एक पाकिस्तानी टैंक को तबाह कर दिया। खेत्रपाल पीछे हटने को तैयार नहीं थे। स्क्वाड्रन कमांडर ने उनको किसी तरह वापस लाइन में आने के लिए मनाया। उधर पाकिस्तानी सेना ने भी हार नहीं मानी थी। उन्होंने जल्द ही अपनी टुकड़ियों को दूसरे हमले के लिए तैयार किया और इस बार दुश्मन ने पूरी ताकत के साथ जवाबी हमला किया। हमले के लिए जिस सेक्टर को चुना गया वहां अरुण खेत्रपाल और दो अन्य अधिकारी अपने अपने टैंक के साथ तैनात थे। दुश्मन ने अपनी पूरी आर्मर्ड स्क्वाड्रन को सिर्फ इन्हीं तीन भारतीय टैंकों के पीछे लगा दिया। फिर शुरू हुआ असल टैंक युद्ध। जिसमें भारतीय टैंकों ने पाकिस्तानी टैंकों के छक्के छुड़ा दिए।
आदेश के बावजूद पीछे हटने से इनकार
सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रीपाल, फामागुस्ता के ज़रिए दुश्मन से लोहा ले रहे थे। दुश्मन संख्या में ज्यादा थे लेकिन भारतीय सेना ने अपना पराक्रम दिखाया और कई पाकिस्तानी टैंकों को तबाह कर दिया। आसामान धुएं से भर गया था और घायल सैनिकों की चीखें गोलों की आवाज़ के नीचे दब रही थीं। भारतीय सेना के इन तीन टैंकों ने पाकिस्तान के 10 टैंकों को तबाह कर दिया था जिनमें से अकेले अरुण खेत्रपाल ने 4 टैंकों को निशाना बनाया था लेकिन तब तक उनके टैंक में भी आग लग चुकी थी। दो भारतीय टैंक निष्क्रिय हो गए थे- एक दुश्मन के अटैक में नष्ट हो गया था और दूसरे में मैकेनिकल खराबी आ गई थी। अब अरुण खेत्रपाल का टैंक ही बचा था और वह भी आग की लपटों में घिरा था। खुद अरुण भी घायल हो चुके थे।
वह शख्स जिसने महज़ 6 महीने पहले आर्मी ज्वाइन की थी, वह दुश्मन के टैंक के सामने खड़ा था और पीछे हटने को तैयार नहीं था। कमांडर ने उनको पीछे हटने का मैसेज भेजा। जिसके जवाब में अरुण खेत्रपाल ने कहा, ‘No Sir, I will not abandon my tank, My gun is still working and I will get these guys.’ (नो सर, मैं अपना टैंक नहीं छोड़ूंगा। मेरी गन अब भी काम कर रही है और मैं इन लोगों को निपटा दूंगा।) इतना कहकर उन्होंने अपना ट्रांसमीटर बंद कर दिया ताकि पीछे हटने का आदेश उन तक पहुंच ही ना पाए। वह जानते थे कि अगर उन्होंने अपनी पोज़ीशन छोड़ी तो दुश्मन को मौका मिल जाएगा।
टैंक के ड्राइवर प्रयाग सिंह ने उनसे कहा, ‘साहब, पीछे चलते हैं… आग बुझा लेते हैं। फिर आगे आ जाएंगे।’ अरुण खेत्रपाल ने तेज आवाज में आदेश दिया, ‘नहीं! हम एक इंच भी पीछे नहीं हटेंगे।’ उनके गनर नाथू सिंह ने फिर से पोजिशन ली। नाथू ने सामने देखा। हवा पूरी तरह काली थी। जलते टैंकों की गर्मी के साथ झुलसते मांस की गंध तेज़ थी और उनके ठीक पीछे खड़ा था उनका 21 साल का कमांडर। अरुण खेत्रपाल। लंबा कद, दुबला चेहरा और हल्की दाढ़ी। जलते टैंक से उन्होंने चिल्लाते हुए कहा, ‘On tank, Nathu!’
इस आवाज के साथ, नाथू निशाना लगाते हैं और फायर करते हैं। रचना बिष्ट रावत अपनी किताब '1971 Charge of the Gorkhas and other stories' में इस दृश्य का वर्णन करते हुए लिखती हैं कि जैसे ही पाकिस्तानी टैंक पर वार होता, उनके सैनिक बंदूकें उठा कर टैंक से कूदकर भागते थे। वे जलकर नहीं मरना चाहते थे क्योंकि उनका धर्म इसकी इजाजत नहीं देता।
कुछ ही देर में यह टैंक युद्ध अपने आखिरी पड़ाव पर पहुंच चुका था। मैदान में बस दो ही टैंक थे। सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल का टैंक और सामने एक पाकिस्तानी टैंक। जिसे पाकिस्तान आर्मी की 13 लांसर्स का स्क्वाड्रन कमांडर लीड कर रहा था। अरुण जानते थे कि अगर उन्होंने इस टैंक को भी मार गिराया, तो उनकी गिनती पांच पर पहुंच जाएगी लेकिन उसी वक्त, अरुण के निशाने पर जो पाकिस्तानी टैंक था, उसने भी फायर कर दिया। यह एक भारतीय टैंक और एक पाकिस्तानी टैंक के बीच आमने-सामने की टक्कर थी। एक घातक सीटी जैसी आवाज के साथ दुश्मन का गोला अरुण के टैंक से टकराया। विशालकाय टैंक फामागुस्ता हिल गया। पाकिस्तानी सेना की 13 लांसर्स का स्क्वाड्रन कमांडर किसी तरह बच निकला। उसने टैंक से छलांग लगाई और वहां से भाग खड़ा हुआ और अरुण का क्या हुआ?
गोले ने उनके पेट को चीर दिया था। हड्डी चकनाचूर हो चुकी थी और उनकी टांग मुड़कर सीट के नीचे फंस गई थी। पूरे शरीर से खून बह रहा था। उनका गनर नाथू बाहर निकलता है और अपने साहब को भी बाहर निकालने की कोशिश करने लगता है। उनका 21 साल का वह साहब असहनीय पीड़ा में फुसफुसाता है, ‘नाथू, मैं बाहर नहीं निकल पाउंगा।’ इसके बाद भारत मां का वह जांबाज़ सपूत हमेशा हमेशा के लिए मौन हो जाता है। सुबह के 10 बजकर 15 मिनट पर। अरुण खेत्रपाल ने आखिरी सांस ली थी। अगले रोज सीजफायर की घोषणा होती है। अरुण जैसे कई वीर जवानों की बहादुरी के चलते भारत को इस युद्ध में जीत मिलती है। एक नए देश बांग्लादेश का जन्म होता है।
'मैं कुछ कबूल करना चाहता हूं’
किस्सा का यह सिरा अब सीधे 30 साल आगे पहुंचता है और जुड़ता है पाकिस्तान के सरगोधा से। साल था 2001, अरुण खेत्रपाल के पिता ब्रिगेडियर केएल खेत्रपाल जो तब 81 साल के थे उन्होंने अपने पैतृक गांव सरगोधा जाने का फैसला किया। परिवार के समझाने के बाद भी वह नहीं माने। के एल खेत्रपाल लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज से पढ़े थे अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान वह कॉलेज के ही एक पूर्व छात्र के घर तीन दिन ठहरने वाले थे और वहीं से सरगोधा जाने का प्लान था। जिस छात्र के घर वह ठहरने वाले थे वह पाकिस्तान आर्मी का एक अफसर था जो लाहौर में रहता था।
उनके छोटे बेटे मुकेश खेत्रपाल ने उनको एयरपोर्ट छोड़ा, लाहौर पहुंचकर उन्होंने अपने घर फोन किया और पूरे जोश से बताया कि वहां सब ठीक है और उनका खूब ख्याल रखा जा रहा है लेकिन तीन दिन बाद जब खेत्रपाल वापस लौटे, तो सब बदल गया था। वह बिल्कुल शांत थे। मायूस थे और भीतर ही भीतर टूट चुके थे। उन्होंने अपने घरवालों से कुछ खास बात नहीं की और घर से निकलना बंद कर दिया। एक सप्ताह बाद 1971 युद्ध के वरिष्ठ अधिकारी मेजर जनरल इयान कार्डोज़ो के बुलावे पर वह एक किताब के लोकार्पण में पहुंचे। इस किताब में अरुण खेत्रपाल की कहानी भी दर्ज थी। वहां पत्रकारों ने उनसे सवाल-जवाब किया।
एक सप्ताह बाद। मुकेश खेत्रपाल एक रोज इंडिया टुडे मैगजीन पढ़ रहे थे। उनका ध्यान एक स्टोरी पर गया। जो उनके पिता के बारे में थी। उसमें उनकी पाकिस्तान यात्रा के बारे में विस्तार से लिखा गया था। इस लेख को पढ़ते ही खेत्रपाल को सदमा लगा। आंखों में आंसू लिए वह उठे और अपने पिता को ढूंढने लगे। उनके सामने जाते ही उन्होंने पूछा- ‘क्या मैंने जो पढ़ा वह सच है? और अगर सच है तो आपने हमसे यह छुपाया क्यों?’
यह स्टोरी पाकिस्तानी आर्मी के उस अफसर के बारे में थी, जिसके घर पर ब्रिगेडियर खेत्रपाल तीन दिनों तक रुके थे। आखिर उस लेख में ऐसा क्या था कि खेत्रपाल परिवार का 30 साल पुराना जख्म फिर से ताजा हो गया?
लाहौर का सीक्रेट
लाहौर में पाकिस्तान आर्मी के जिस रिटायर्ड अधिकारी ने ब्रिगेडियर खेत्रपाल की मेजबानी की थी, वह थे- ब्रिगेडियर ख्वाजा मोहम्मद नासिर। अपने पाकिस्तान दौरे के तीसरे दिन। ब्रिगेडियर खेत्रपाल सरगोधा से लाहौर वापस आ चुके थे। उन्होंने नासिर की ओर देखा, जो उनको संकोच और उत्सुकता भरी मुस्कान के साथ देख रहे थे। नासिर ने उनको धीमे से कहा, ‘मौसम अच्छा है, ब्रिगेडियर साहब… इंशाअल्लाह, कुछ देर बाहर बगीचे में चलकर बैठें?’
ब्रिगेडियर खेत्रपाल ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘क्यों नहीं! कल सुबह तो मैं निकल जाऊंगा… फिर आपसे बात कहां हो पाएगी?’ जब दोनों लॉन में लगी कुर्सियों पर बैठे तो ब्रिगेडियर खेत्रपाल को अचानक ब्रिगेडियर नासिर का मिजाज कुछ बदला-बदला सा लगा। वह असहज दिख रहे थे, जैसे वह किसी प्रायश्चित में हैं और अपना कोई जुर्म कबूल करना चाहते हैं। नासिर अपनी नजरें झुकाए घास की ओर देख रहे थे। फिर उन्होंने ऊपर देखा और धीमे से कहा, ‘मैं कुछ कबूल करना चाहता हूं, ब्रिगेडियर साहब।’ ब्रिगेडियर खेत्रपाल ने कहा, ‘कहिए बेटा, मैं सुन रहा हूं।’
रचना बिष्ट अपनी किताब में लिखती हैं कि ब्रिगेडियर खेत्रपाल को पहले दिन से अब तक कई बातें याद आने लगीं। उन्होंने याद किया कि वह जब से यहां आए हैं। उनकी आवभगत बहुत बढ़-चढ़कर की जा रही है और ब्रिगेडियर नासिर के परिवार की महिलाएं जब उन्हें खाना परोसती हैं, तो उनको बहुत दया और सहानुभूति से देखती हैं। नासिर उनसे लगभग 30 साल छोटे थे। वह अपनी आवाज संभालते हैं और कहते हैं, ‘सर… कई सालों से मैं आपसे एक बात कहना चाहता था पर मौका नहीं मिला। मैं भी 1971 के युद्ध में लड़ा था। उस वक्त मैं एक युवा मेजर था। पाकिस्तान आर्मी की 13 लांसर्स का स्क्वाड्रन कमांडर।’ नासिर आगे कहते हैं, ‘हमने बसंतर की लड़ाई में पूना हॉर्स (यानी अरुण की रेजीमेंट) का सामना किया।’
थोड़ी देरी की चुप्पी के बाद उन्होंने आगे कहा, ‘सर… मैं वही आदमी हूं… जिसने आपके बेटे को मारा।’ ब्रिगेडियर खेत्रपाल अवाक रह गए… उन्हें इस बात का कोई अंदाजा नहीं था कि वह जिस आदमी के यहां रुके हैं, वह उनके बेटे की मौत का कारण है।
नासिर ने अपनी बात जारी रखी। उन्होंने कहा, ‘16 दिसंबर 1971 की सुबह, मैं 13 लांसर्स की काउंटर-अटैक पार्टी को लीड कर रहा था। आपका बेटा सामने था। वह बिल्कुल चट्टान की तरह खड़ा हो गया था। लड़ाई में कई टैंक तबाह हुए। उसने हमारे कई टैंक उड़ा दिए। आखिर में सिर्फ हम दोनों बचे। हम एक-दूसरे से 200 मीटर की दूरी पर थे। हमने एक साथ फायर किया और दोनों टैंक हिट हुए। किस्मत में लिखा था कि मैं बच जाऊं और अरुण न बचे। आपका बेटा बहुत बहादुर था। सर, वह अकेला ही हमारी हार का कारण बना।’
खेत्रपाल कुछ भी बोल पाने की स्थिति में नहीं थे। किसी तरह उन्होंने खुद को संभाला और बस इतना पूछा, ‘आपको कैसे पता चला कि वो टैंक अरुण का था?’ नासिर ने बताया कि सीजफायर के बाद वे अपने साथियों के शव लेने गए, तो उन्होंने उस टैंक को भी देखा जिससे उनकी भिड़ंत हुई थी। उन्होंने भारतीय सैनिकों से पूछा, ‘बहुत बहादुरी से लड़े आपके साहब। चोट तो नहीं आई उनको?’ और जवाब मिला, ‘साहब शहीद हो गए।’ नासिर बताते हैं कि जब अरुण को परमवीर चक्र मिला, तब उनको पता चला कि अरुण केवल 21 साल के थे। उन्होंने कहा, ‘मैं उन्हें सलाम करता हूं और आपको भी…’
रात हो चुकी थी। लॉन में चांद की रौशनी फैली हुई थी। दोनों अधिकारी कुछ देर यूं ही चुपचाप बैठे रहे। फिर ब्रिगेडियर खेत्रपाल अपनी कुर्सी से उठे। यह देखकर ब्रिगेडियर नासिर भी खड़े हो गए। खेत्रपाल ने नासिर की नम आंखों को देखा। धीरे से उन्हें गले लगाया और फिर लॉन पार करके अपने कमरे में चले गए।
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