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RSS: अपने प्रचारक को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचाने वाले संगठन की कहानी

RSS अब 100 साल का हो चुका है। अपने 100 साल के इतिहास में तीन बार प्रतिबंधित हो चुकी इस संगठन की मौजूदा अहमियत यह भी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी RSS के स्वयंसवेक और प्रचारक रहे हैं।

mohan bhagwat and rss leaders

मोहन भागवत, डॉ. हेडगेवार और गोलवलकर, AI Generated Images

साल 1920, एक ट्रेन नागपुर से मद्रास जा रही थी। इसी दौरान दो यात्रियों की टिकट चेकर से बहस हो जाती है, बहस की वजह थी कि इन दोनों यात्रियों में से एक पास फर्स्ट क्लास के डिब्बे की टिकट थी और दूसरे के पास थर्ड क्लास की। यानी उनके पास अलग-अलग कोच के टिकट थे। TT ने उन दोनों को फर्स्ट क्लास के डिब्बे में ही पाया, जिसके बाद उसने थर्ड क्लास के टिकट वाले यात्री पर जुर्माना लगाने की बात कही जबकि दोनों यात्रियों का तर्क था कि मद्रास से पहले गाड़ी रुकी तो वह सामान इकट्ठा करने के लिए साथ आ गए। TT ने उनकी एक नहीं सुनी और वह लगातार जुर्माने की बात कहता रहा जिससे दोनों पक्षों में बहस छिड़ गई। उन यात्रियों में से एक की लंबी दाढ़ी देखकर TT ने उसे गलती से मुसलमान समझ लिया जिसके बाद उसने चेतावनी देते हुए कहा, 'मेरे ऊपर रोब मत गांठिए। याद रखिए यह मुस्लिम देश नहीं है।'

 

TT की बात सुनकर कोई और हैरान हो जाता लेकिन इन यात्रियों के चेहरे पर मुस्कान आ गई। TT की इस एक लाइन, 'यह मुस्लिम देश नहीं है'- उन्हें कितनी संतुष्टी दी, वह बयान नहीं कर सकते थे क्योंकि इन दोनों यात्रियों का यही उद्देश्य था। उनके जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य ही जन-जन तक इस बात को पहुंचाना था कि यह देश हिंदुओं का है और वही इस देश के मालिक हैं। जैसे ही एक अजनबी के मुंह से उन्होंने यह बात सुनी तो वह आनंदित हो गए। इन यात्रियों में से एक थे डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, जिन्होंने आगे चलकर राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ की नींव रखी और उनके साथ दूसरे यात्री थे बालकृष्ण मुंजे जो लोकमान्य तिलक के सहयोगी थे।

 

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हिंदू राष्ट्र का लक्ष्य लेकर चले इस संगठन के 27 सितंबर 2025 को 100 साल पूरे हो गए। इन 100 साल के दौरान इस संघ ने कई उतार चढ़ाव देखे। फिर चाहे वह महात्मा गांधी की हत्या के बाद लगा बैन हो या फिर आपातकाल में लगा प्रतिबंध। यहां तक कि बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराए जाने के बाद भी संघ को प्रतिबंध का सामना करना पड़ा था लेकिन संघ हर बार मुख्यधारा में लौट आता है। संघ के समर्थक, विरोधी और उसकी चर्चा करने वालों में से एक छोटा हिस्सा ही है, जो वास्तव में जानता है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना आखिर हुई कैसे? 1920 में नागपुर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में ऐसा क्या हुआ कि इस अधिवेशन का जिम्मा संभालने वाले डॉ. हेडगेवार का कांग्रेस से मोह भंग हो गया और आगे चलकर उन्होंने संघ की नींव रखी? बात होगी हिंदू मुस्लिम एकता पर गांधी और हेडगेवार के बीच हुए वार्तालाप की। साल 1923 में आई सावरकर की उस किताब का भी ज़िक्र करेंगे जिसने डॉ हेडगेवार पर गहरा असर डाला।

 

संघ का नाम तय होने में 10 महीने क्यों लग गए थे? संघ के आने के बाद हिंदू मुस्लिम टकराव कैसे बदला? आज़ादी के आंदोलन में संघ का क्या और कितना योगदान था? और जब संघ कहता है कि वह सांस्कृतिक संगठन है, तो फिर वह एक राजनैतिक दल के लिए काम क्यों करता है?

RSS क्या है? 

 

RSS के बारे में जानने से पहले हमें 20वीं सदी की उन घटनाओं के बारे में जान लेना चाहिए जिनकी वजह से RSS की स्थापना का विचार उत्पन्न हुआ। 20वीं सदी के शुरुआत में पूरी दुनिया में उथल-पुथल मची हुई थी। नई तकनीकों की खोज हो रही थी। कई देशों में क्रांतियां हो रही थीं। 1920 तक दुनिया पहला विश्वयुद्ध भी देख चुकी थी। भारत में भी लोग, अंग्रेजी शासन के खिलाफ कांग्रेस नाम की छतरी के नीचे एकजुट हो रहे थे। दक्षिण अफ्रीका से लौटकर आए मोहनदास करमचन्द गांधी की पकड़ जैसे-जैसे कांग्रेस पर मजबूत हुई, आंदोलन का भी विस्तार होता गया। गांधी के नेतृत्व में हिंदू-मुसलमान दोनों अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष को एकजुट थे। पहला विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद खिलाफत आंदोलन की शुरुआत हुई लेकिन खिलाफत आंदोलन के दौरान जब गांधी मुस्लिम समुदाय के करीब आए तो कई हिंदूवादी नेताओं का कांग्रेस से मोहभंग हुआ। जिनका मानना था कि खिलाफत आंदोलन के दौरान मुस्लिम समुदाय के लोगों ने देश से ज्यादा धर्म के प्रति वफादारी दिखाई। तब कांग्रेस में दोहरी सदस्यता का प्रावधान था। यानी कोई व्यक्ति कांग्रेस के अलावा किसी और संगठन का भी सदस्य हो सकता था और मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे जैसे कई नेता कांग्रेस के साथ-साथ हिंदू महासभा के भी सदस्य थे। गांधी और कांग्रेस का मुस्लिमों और पश्चिमी सभ्यता की ओर झुकाव देखकर हिंदू महासभा से जुड़े नेताओं का एक वर्ग निराश भी था। इन नेताओं का मानना था कि प्राचीन हिंदू धर्म के उत्थान का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ना चाहिए क्योंकि हिंदुओं के गौरवशाली अतीत ने गुलामी के दौर में निरंतर पतन ही देखा है। फिर चाहे वह शासक मुसलमान रहे हों या फिर अंग्रेज। अगर गुलामी की जंजीरों को तोड़ना है तो एक बार फिर से हिंदू धर्म के पुनरोत्थान की ओर बढ़ना होगा।

 

 

RSS की स्थापना भले ही 1925 में हुई लेकिन 1923 में एक के बाद एक ऐसी कई सारी घटनाएं हुईं जिसने इस संगठन की बुनियाद रखी। इसी साल बनारस में हिंदू महासभा का अधिवेशन हुआ। अपनी किताब 'Rss'S Tryst With Politics: From Hedgewar To Sudarshan' में प्रलय कानूनगो लिखते हैं- 'इस अधिवेशन में कांग्रेस के कई नेता और हिंदूवादी संगठन शामिल हुए। अधिवेशन की अध्यक्षता कर रहे मदन मोहन मालवीय, जो तब तक दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके थे, उन्होंने सुझाव दिया कि हिंदुओं को खुद को मजबूत बनाने की जरूरत है ताकि मुसलमानों का उपद्रवी वर्ग यह न सोचे कि वह सुरक्षित रूप से हिंदुओं को लूट और अपमानित कर सकते हैं।'
  
मालवीय का मानना था कि इसके लिए एक स्वयंसेवी संगठन स्थापित किया जाए जो युवाओं को शिक्षित करने, अखाड़े (व्यायामशालाएं) स्थापित करने और लोगों को हिंदू महासभा के निर्णयों का पालन करने के लिए राज़ी करे। फिर इसी साल विनायक दामोदर की किताब 'Essentials of Hindutva' आई। बाद में इसका नाम 'हिंदुत्व: हिंदू कौन है?' कर दिया गया। इस किताब ने हिंदू पहचान की अवधारणा को परिभाषित किया।  जिसने हिंदुओं और गैर-हिंदुओं के बीच लकीर खींचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। साथ ही कांग्रेस और हिंदू महासभा के बीच झूल रहे लोगों को एक नया संगठन खड़ा करने के लिए वैचारिक आधार भी दिया।

 

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यानी हिंदूवादी नेताओं के पास एक स्वयंसेवी संगठन स्थापित करने के लिए आधार और वजह दोनों थे। रही-सही कसर अक्टूबर 1923 में हुए दंगों ने पूरी कर दी और इस तरह हिंदू धर्म के पुनरोत्थान और हिंदू राष्ट्र की अवधारणा के साथ सितंबर 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। अब सवाल यह उठता है कि डॉ. हेडगेवार आखिर थे कौन? लगे हाथ एक नज़र उनके जीवन पर भी मार लेते हैं।

 

 कौन थे हेडगेवार?

 

केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म 1 अप्रैल 1889 को हुआ था। हेडगेवार परिवार मूल रूप से तेलंगाना के कंडकुर्ती गांव का रहने वाला था। उनके पिता का नाम बलिराम पंत हेडगेवार और माता का नाम रेवतीबाई था। हेडगेवार 9 भाई-बहनों में पांचवी संतान थे। पिता पुरोहित थे। परिवार निर्धन था। हालांकि, बालक केशव में स्वाभिमान कूट-कूटकर भरा था। 1897 में रानी विक्टोरिया के शासन के 100 वर्ष पूरे हुए। इस अवसर पर देश में तमाम कार्यक्रम आयोजित हुए। केशव के विद्यालय में भी मिठाई बांटी गई। केशव ने इसका विरोध किया और मिठाई फेंक दी। महज 8 साल की उम्र में। केशव का अपने गुरुओं से सिर्फ एक ही सवाल था कि हजारों मील की दूरी से आने वाले ये अंग्रेज हमारे शासक कैसे बन गए?

 

1908 में जब वह हाईस्कूल में थे तब उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। वजह थी कि उन्होंने स्कूल का निरीक्षण करने आए अधिकारी के सामने वंदे मातरम का नारा लगाया। केशव से कहा गया कि अपनी गलती मान लें लेकिन केशव ने गलती मानने से इनकार कर दिया और उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। 

 

केशव जब 13 वर्ष के थे तभी उनके माता-पिता का प्लेग की वजह से निधन हो गया। विपरीत परिस्थितियों में भी केशव ने अपनी पढ़ाई जारी रखी। उन्होंने नागपुर, यवतमाल और पूना के विभिन्न संस्थानों में अध्ययन किया और फिर स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए। वह लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के प्रखर राष्ट्रवाद से बहुत प्रभावित थे। केशव, चिकित्सा की पढ़ाई के लिए पूना से कलकत्ता गए। इस दौरान वह क्रांतिकारी संगठनों के करीब आए। अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र बगावत करने वाले संगठन अनुशीलन समिति से भी उनके जुड़ने की बात कही जाती है। हालांकि, इस दावे पर कुछ लोग आपत्ति भी जताते हैं। 

 

1916 में केशव, डॉक्टर की डिग्री लेकर डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार बनकर नागपुर लौटे। हालांकि, उन्होंने डॉक्टरी का पेशा नहीं अपनाया। न ही गृहस्थ जीवन में कोई दिलचस्पी दिखाई। डॉ. हेडगेवार 'अकेले प्राण सदा कल्याण' की राह पर चलते हुए सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों से जुड़ गए। वह बाल गंगाधर तिलक से प्रभावित होकर कांग्रेस से जुड़े। नागपुर में कांग्रेसियों का एक और संगठन था। जिसे राष्ट्रीय मंडल कहा जाता था। इसमें डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे, नीलकण्ठराव उधोजी, नारायणराव अलेकर, नारायणराव वैद्य, मोरूभाऊ अभ्यंकर, भवानीशंकर नियोगी, डॉ. परांजपे आदि शामिल थे। केशव इस मंडल के सबसे युवा सदस्य थे। इस मंडल में मध्य प्रांत के सभी दिग्गज नेता शामिल थे। जिनका कांग्रेस की राजनीति पर नियंत्रण था। हालांकि, हेडगेवार का विचार इन नेताओं के विचार से मेल नहीं खाता था। हेडगेवार विशुद्ध स्वातंत्र्य यानी पूर्ण स्वराज की मांग कर रहे थे जबकि कांग्रेस की नीति तब साम्राज्यान्तर्गत स्वराज्य या औपनिवेशिक स्वराज की थी। यानी उस वक्त कांग्रेस के नेताओं का मानना था कि अंग्रेज़ों से सीधे टकराने की बजाय पहले हम धीरे-धीरे अपने अधिकार बढ़ाएं यानी ब्रिटिश सरकार बनी रहे लेकिन भारतीयों को कुछ हद तक शासन का अधिकार दे दिया जाए। डॉ. हेडगेवार इस विचार के विरोध में थे। 

कैसे बना RSS? 

 

अब आते हैं उन परिस्थितियों पर जिन्होंने RSS की नींव रखी। 1920 में नागपुर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन के आयोजन में डॉ. मुंजे, परांजपे के साथ डॉ. हेडगेवार ने अहम भूमिका निभाई। आयोजकों ने इस अधिवेशन में करीब 1 हजार स्वयंसेवकों की फौज खड़ी कर दी। हालांकि, आयोजन से पहले मध्य प्रांत के नेताओं को उस वक्त तगड़ा झटका लगा। जब 1 अगस्त 1920 को बाल गंगाधर तिलक का निधन हो गया। असल में मुंजे, हेडगेवार समेत मध्य प्रांत के नेता यह चाहते थे कि तिलक को नागपुर अधिवेशन का अध्यक्ष चुना जाए लेकिन उनके निधन की खबर ने उन्हें तोड़कर रख दिया। उधर खिलाफत आंदोलन के प्रति महात्मा गांधी के बढ़ते रुझान को देखते हुए यह तय किया गया कि नागपुर-अधिवेशन के लिए एक ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष बनाया जाए जिसका मत तिलकवादियों से मेल खाता हो। 

 

इस पर अरविन्द घोष का नाम सामने आया। उस वक्त वह पांडिचेरी में थे। मुंजे और हेडगेवार उनसे मिलने गए। जब वे दोनों जा रहे थे तभी ट्रेन में वह घटना घटी, जिसका जिक्र हमने शुरुआत में किया है। मुंजे और हेडगेवार, अरविंद घोष को मनाने पांडिचेरी पहुंचे लेकिन अरविंद घोष ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। असल में वह सक्रिय राजनीति से पूरी तरह से दूर हो चुके थे। अब उनका पूरा मन पांडिचेरी में ही रहते हुए ध्यान अध्यात्म और योग के विकास पर था। खैर घोष तैयार नहीं हुए। जिसके चलते हेडगेवार और मुंजे को खाली हाथ वापस लौटना पड़ा।  

 

दिसंबर 1920 में कांग्रेस का अधिवेशन नागपुर में होने वाला था। इससे कुछ दिन पहले डॉ. हेडगेवार और उनके कुछ साथियों ने नागपुर के व्यंकटेश नाट्यगृह में एक सभा आयोजित की। इस सभा में उन्होंने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें कहा गया, 'विशुद्ध स्वातंत्र्य ही हमारा उद्देश्य है', यानी उनका मकसद था पूरी और सच्ची आज़ादी, जिसमें किसी भी तरह का समझौता न हो। इस प्रस्ताव को लेकर चार लोग गांधी जी के पास गए और आग्रह किया कि कांग्रेस को भी इस प्रस्ताव को अपनाना चाहिए। गांधी ने उनकी बात सुनकर कहा- 'स्वराज्य में विशुद्ध स्वतंत्रता अपने आप शामिल हो जाती है।'उन्होंने इस प्रस्ताव को अलग से स्वीकार करने की ज़रूरत नहीं समझी।

 

हेडगेवार ने नागपुर अधिवेशन के आयोजन में काफी मेहनत की थी लेकिन उन्हें इस अधिवेशन से बहुत निराशा हुई। एक तो इस अधिवेशन में गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया गया। दूसरा, कांग्रेस और खिलाफत समिति के बीच आधिकारिक गठबंधन भी इसी अधिवेशन में हुआ, जिसका हेडगेवार खुलकर विरोध कर रहे थे। उन्होंने इस विषय पर महात्मा गांधी से भी अपनी असहमति जताई। 

हेडगेवार और महात्मा गांधी की बातचीत

 

RSS की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के अनुसार, हेडगेवार और गांधी जी के बीच इस समय एक विशेष बातचीत हुई। हेडगेवार को सिर्फ 'हिंदू-मुस्लिम एकता' जैसे शब्दों का शब्द प्रयोग खटकता था। उन्होंने गांधी जी से सवाल किया कि भारत में तो हिंदू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी – सभी धर्मों के लोग रहते हैं, फिर आप सिर्फ हिंदू-मुस्लिम एकता की ही बात क्यों करते हैं? गांधी जी ने जवाब दिया कि उन्होंने मुसलमानों के मन में देश के लिए अपनापन जगाया है और यही वजह है कि वे अब आज़ादी की लड़ाई में पूरी ताकत से शामिल हो रहे हैं। इस उत्तर से हेडगेवार संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने कहा कि पहले भी कई मुस्लिम नेता जैसे जिन्ना, डॉ. अंसारी और हकीम अजमल खां, लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में राष्ट्र के लिए काम कर चुके हैं, बिना 'हिंदू-मुस्लिम एकता' जैसे विशेष प्रचार के। उन्हें आशंका थी कि इस तरह के शब्दों से मुसलमानों में अलगाव की भावना बढ़ सकती है। गांधी ने यह कहते हुए बातचीत खत्म की कि उन्हें ऐसी कोई चिंता नहीं है।

 

नागपुर अधिवेशन के बाद हेडगेवार ने असहयोग आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। उन्होंने कई शहरों में सभाएं कीं और लोगों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किय। लेकिन उनके भाषणों को भड़काऊ बताया गया और उन पर सार्वजनिक रूप से बोलने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जब उन्होंने अपनी गतिविधियां जारी रखीं तो उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला। मजिस्ट्रेट के सामने हेडगेवार ने खुद जिरह की। जिसे सुन मजिस्ट्रेट ने कहा कि इनके मूल भाषण की अपेक्षा तो जिरह के दौरान कही गई बाते अधिक राजद्रोह पूर्ण है। उन्हें एक साल की सजा सुनाई गई।
  
12 जुलाई 1922 को हेडगेवार जेल से बाहर आए। नागपुर के कांग्रेस नेताओं के अलावा  पं. मोतीलाल नेहरू और हकीम अजमल खां उनके स्वागत में पहुंचे लेकिन हेडगेवार जेल से बाहर आए तो असहयोग आंदोलन समाप्त हो चुका था। मुस्लिमों के प्रति कांग्रेस का जिस तरह से झुकाव था, हिंदु पुनरोत्थानवादी हेडगेवार को अब कांग्रेस से ज्यादा उम्मीद नहीं बची थी। नया संगठन खड़ा करने पर काम शुरू किया गया जिसकी जरूरत मदन मोहन मालवीय ने 1923 में हिंदू महासभा के बनारस अधिवेशन में बताई थी और इसी साल आई सावरकर की किताब और नागपुर में हुए दंगों ने डॉ. हेडगेवार के सामने संगठन की पूरी रूपरेखा खींच दी थी कि संगठन क्यों होना चाहिए और कैसा होना चाहिए? 

पहले बात दंगों की

 

नागपुर में शुक्रवार तालाब के पास एक गणेश मंडल चलता था। वहीं पास में एक मस्जिद भी थी। 1923 में मस्जिद के सामने से हिंदुओं के धार्मिक जुलूस पर आपत्ति जताई गई। सितंबर 1923 में जिलाधिकारी ने आदेश जारी कर दिया। ढोल, ताशे, पखावज आदि के साथ यात्रा रोक दी गई। हेडगेवार, मुंजे और राजा लक्ष्मणराव भोंसले आदि ने इसका विरोध किया और कहा कि जब तक जुलूस की अनुमति नहीं मिलती गणपति का विसर्जन नहीं किया जाएगा।

 

कांग्रेस और खिलाफत समिति के बीच कई दिन तक वार्ता हुई लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। गणपति वहीं के वहीं रह गए। तनाव बढ़ता गया। अक्टूबर में उसी रास्ते से दिण्डी यानी भजन मंडली जाने वाली थी। जिसमें बाधा डाली गई। 30 अक्टूबर को जिलाधिकारी ने उस रास्ते से दिण्डी पर भी प्रतिबंध लगा दिया क्योंकि दिण्डी यात्रा सूर्योदय के समय होती थी और इसी समय मस्जिद में नमाज होती थी।

 

इस फैसले के विरोध में हेडगेवार ने दिण्डी सत्याग्रह शुरू कर दिया। जिसमें जय विट्ठल-जय विट्ठल का नारा लगाती करीब 20 हजार लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई। लक्ष्मणराव भोंसले ने भीड़ से पूछा, 'अपने धर्म के अधिकारों का उपभोग, अगर हिंदू, हिंदुस्तान में नहीं करेगा तो और कहां कर सकेगा?' इन्हीं हज़ारों लोगों की भीड़ के सामने ही डॉ. हेडगेवार ने हिंदू सभा की स्थापना की घोषणा की, जिसके अध्यक्ष बने राजा लक्ष्मणराव भोंसले, उपाध्यक्ष मुंजे और हेडगेवार सचिव बने। जब हजारों लोगों की भीड़ मस्जिद तक पहुंच गई तो जिलाधिकारी ने दिण्डी यात्रा की अनुमति दी। पांच वक्त की नमाज के अलावा बाकी समय मस्जिद के सामने यात्रा की अनुमति मिली। 

 

हालांकि, इसके बाद भी कई बार यात्रा के दौरान हिंदुओं-मुसलमानों के बीच टकराव हुआ। कहीं मूर्ति टूटी मिलती तो कहीं गाय का कटा पैर। दोनों ओर से एक दूसरे के खिलाफ लाठी, तलवार, छुरी का इस्तेमाल हुआ। जमकर हिंसा हुई। माहौल तनावपूर्ण था। हिंदू सभा के नेतृत्व में युवाओं ने लाठी लेकर जुलूस निकाला। मुसलमानों के बहिष्कार का निर्णय लिया गया। मस्जिदों के सामने हिंदू त्यौहारों पर धार्मिक जुलूस और मुस्लिमों का बहिष्कार जो 100 साल बीत जाने के बाद भी बहस का मुद्दा बना हुआ है। खैर, हिंदू सभा के नेतृत्व में मुसलमानों के खिलाफ हिंदू इकट्ठा हो रहे थे और अब एक नए संगठन की कल्पना आकार लेने लगी थी।  

1923 में विनायक दामोदर सावरकर की किताब 'Essentials of Hindutva' (बाद में 'Hindutva: Who is a Hindu?') प्रकाशित हुई। विनायक दामोदर सावरकर जेल में थे। किताब उनके भाई गणेश सावरकर ने छपवाई। हेडगेवार उनके संपर्क में थे। हेडगेवार पर इस किताब ने गहरा प्रभाव छोड़ा। इस किताब ने हिंदू पहचान को परिभाषित किया। सावरकर ने पितृभूमि को सिर्फ भौगोलिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक एकता का प्रतीक बताया, जो हिंदुओं को एक राष्ट्र के तौर पर एकजुट करती थी। पितृभूमि से सावरकर का तात्पर्य ऐसी जगह से था, जहां व्यक्ति का जन्म हुआ और उसके पूर्वजों की सभ्यता फली-फूली। भारत, हिंदुओं के लिए ऐसी ही भूमि था। 

हिंदू कौन था?

 

सावरकर लिखते हैं: 'A Hindu is he who looks upon the land that extends from the Indus to the seas as his Fatherland।' अर्थात हिंदू वह है जो सिंधु से समुद्र तक की भूमि को अपनी पितृभूमि मानता है। सावरकर जिस हिंदू राष्ट्र की कल्पना कर रहे थे, नागपुर दंगों ने उसमें हेडगेवार की आस्था को और मजबूत किया। दंगों के दौरान हेडगेवार ने हिंदुओं को कमजोर और असंगठित महसूस किया। यही बात सावरकर ने किताब में लिख रखी थी। सावरकर लिखते हैं, 'हिंदू समाज की ताकत उसकी एकता में है, लेकिन वह बिखरा हुआ है।'

 

फिर क्या था गणेश सावरकर, बीएस मुंजे और अन्य लोगों के मार्गदर्शन में हेडगेवार ने हिंदुओं को इकट्ठा करने का बीड़ा उठाया। यहीं से एक अनुशासित हिंदू काडर तैयार करने का आइडिया आया। 1924 तक खिलाफत आंदोलन धराशायी हो चुका था। महात्मा गांधी की तमाम कोशिशों के बावजूद हिंदू-मुस्लिम एकता दरक रही थी। पंजाब से लेकर बंगाल तक हिंदू-मुस्लिम दंगे आम हो चुके थे। सितंबर 1924 में कोहाट में भीषण दंगा हुआ। भारी संख्या में हिंदू-सिखों का पलायन हुआ। इस दंगे के चलते हिंदू-सिखों की लगभग पूरी आबादी पलायन कर रावलपिंडी आ गई। 


किताबों के जरिए उछाले जाते थे कीचड़

इसी समय रंगीला रसूल नाम से एक विवादित किताब भी आई। महाशय राजपाल ने इस किताब में पैगम्बर मोहम्मद के निजी जीवन पर ऐसे व्यंग्य और अपमानजनक टिप्पणियां की, जिसे मुस्लिम समाज ने अपमानजनक बताया। मुसलमानों ने भी हिंदू देवी-देवताओं के नाम से कई सारी भड़काऊ और विवादित किताबें छापीं। यह ऐसा दौर था जब एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने के लिए सोशल मीडिया नहीं था तब किताबों के ज़रिए यह काम किया जाता था। खैर परिणाम यह रहा कि मालाबार, बॉम्बे, संयुक्त प्रांत, बिहार, ओडिशा और बंगाल में जमकर दंगे हुए। उधर हेडगेवार हिंदू हितों की उपेक्षा से नाराज थे।

 

बस यहीं से एक नए संगठन की नींव रखी गई। डॉ. हेडगेवार ने 15-20 लोगों अपने घर इकट्ठा किया और सबके सामने यह ऐलान किया- 'आज से हम लोग संघ की शुरूआत कर रहे हैं।' इस दौरान बैठक में भाऊजी कावरे, अण्णा सोहोनी, विश्वनाथराव केळकर, बाळाजी हुद्दार, बापूराव भेदी आदि मौजूद थे। शुरुआत में स्वयंसेवकों का काम अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए युवाओं को शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक रूप से प्रशिक्षित करना था और लक्ष्य क्या था?
 
हेडगेवार आज़ादी की बात तो करते थे लेकिन उनके लिए आज़ादी का मतलब सिर्फ अंग्रेजों को देश से बाहर निकालना नहीं था। उनके नजरिए में सिर्फ अंग्रेजों का विरोध करना ही देशभक्ति या राष्ट्रीयता नहीं था। उनके लिए असली राष्ट्र निर्माण का मतलब था — हिंदू समाज का पुनर्जागरण, यानी एक हिंदू राष्ट्र की स्थापना। उनका मानना था कि अगर भारत को सही मायनों में एकजुट और मजबूत बनाना है तो हिंदू समाज को संगठित करना होगा। वह यह भी मानते थे कि हिंदू राष्ट्र की सोच में ही धार्मिक अल्पसंख्यकों से जुड़ी समस्याओं का समाधान छिपा है। संघ के उद्देश्य के बारे में हेडगेवार का कहना था, 'हिंदू संस्कृति हिंदुस्थान की प्राणवायु है। यदि हिंदू संस्कृति हिंदुस्थान में ही नष्ट हो जाए और यदि हिंदू समाज का अस्तित्व समाप्त हो जाए, तो केवल भौगोलिक इकाई को हिंदुस्थान कहना उचित नहीं होगा। केवल भौगोलिक खण्डों से राष्ट्र नहीं बनता। यह स्मरण रखना चाहिए कि शक्ति केवल संगठन से ही आती है। अतः प्रत्येक हिंदू का कर्तव्य है कि वह हिंदू समाज को संगठित करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करे। देश का वर्तमान भाग्य तब तक नहीं बदला जा सकता जब तक लाखों युवा अपना संपूर्ण जीवन इस कार्य के लिए समर्पित न कर दें। हमारे युवाओं के मन को इसी दिशा में ढालना संघ का सर्वोच्च उद्देश्य है। संघ इसी कार्य को कर रहा है।' 

कैसे बना संगठन?

 

संघ की शुरुआत तो हो गई थी लेकिन अभी ना तो संगठन का कोई नाम था ना ही संगठन की रूपरेखा तय हुई थी। 17 अप्रैल, 1926 को हेडगेवार ने एक बैठक बुलाई। 26 स्वयंसेवकों की मौजूदगी में संगठन के नाम को लेकर चर्चा हुई। कई नामों पर चर्चा के बाद तीन नाम फाइनल हुए। वे थे: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जरीपताका मंड और भेद्रतोद्धारक मण्डल। आखिर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम पर मुहर लगी। RSS की पहली दैनिक शाखा  28 मई, 1926 को लगी। शुरुआत में स्वयंसेवक नागपुर के मोहितेवाड़ा मैदान में इकट्ठा होते थे। आज यह नागपुर में RSS के विशाल मुख्यालय का हिस्सा है। RSS के शुरुआती स्वयंसेवकों में 12-15 वर्ष के बालक थे। जो शारीरिक गतिविधियों, व्यायाम, कसरत आदि में हिस्सा लेते थे। रविवार और गुरुवार को बौद्धिक वर्ग होता था। जिसमें स्वयंसेवकों को संघ कार्य के लिए मानसिक तौर पर तैयार किया जाता था। अलग-अलग वक्ता आते थे जो देश की वर्तमान परिस्थिति के बारे में बताते और संगठन मजबूत करने के लिए मार्गदर्शन करते। 

 

शाखा की शुरुआत भगवा ध्वज को प्रणाम करने के साथ होती और समापन प्रार्थना के साथ। संघ ने अपना गुरु किसी व्यक्ति को मानने की बजाय भगवा ध्वज को माना। जो प्रांत, पंथ, जाति, भाषा, पद्धति के बंधनों से परे था। संघ का मानना है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कितना ही महान क्यों न हो, राष् ट्रके लिए आदर्श नहीं बन सकता इसलिए अग्नि की लौ वाला रंग, जो हिंदू धर्म में पवित्र माना जाता है। संघ ने उसे अपना गुरु माना। शाखा आज भी आरएसएस के संगठनात्मक ढांचे की मूल इकाई है। शाखा में कोई भी व्यक्ति शामिल हो सकता है। इसकी कोई आधिकारिक सदस्यता नहीं है। जो कोई भी एक बार भी शाखा में आया है, उसे 'स्वयंसेवक' माना जाता है। साल में एक बार गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु यानी भगवा ध्वज को गुरु दक्षिणा दी जाती है और यही संगठन का आर्थिक स्रोत है। 

 

1927 तक आते-आते मोहितेवाड़ा में लगने वाली शाखा में स्वयंसेवकों की संख्या बढ़ने लगी थी। नागपुर में हिंदू-मुस्लिम टकराव भी बढ़ने लगा था। 4 सितंबर 1927 को यह छिटपुट टकराव दंगे में तब्दील हो गया। संघ ने इसे हजारों मुसलमानों के जुलूस के जवाब में संघ की ओर से किया गया पहला प्रतिकार माना। लाठी-डंडे से लैस सैकड़ों स्वयंसेवकों और मुस्लिम जुलूस में शामिल भीड़ आमने-सामने थी। तीन दिन तक हिंसा हुई। संघ ने इसे अपनी जीत बताया। लिखा, 'सतर्क स्वयंसेवकों ने हमलों को तुरंत विफल कर दिया। समूहों के बीच मुठभेड़ तीन दिनों तक चली और अंततः हिंदुओं की जीत हुई। सैकड़ों मुस्लिम गुंडे अस्पताल में भर्ती हुए और 10-15 की मौत हो गई। 4-5 हिंदू भी दम तोड़ गए।' उनमें से एक धुंडीराजा लेहगांवकर नाम का एक स्वयंसेवक था। सेना के आने के बाद शांति लौट आई। उस दिन के बाद इतिहास ने एक नया मोड़ ले लिया। हिंदू अब हमले का शिकार नहीं रहे। ऐसा एक दंगे के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कहना था। 

 

यह वह समय था जब हिंदू-मुस्लिम के बीच नफरत और अविश्वास की खांई तेजी से बढ़ रही थी। दोनों तरफ से एक दूसरे के खिलाफ भड़काऊ बयान दिए जा रहे थे और दंगे भड़काए जा रहे थे। अपनी किताब 'थॉट्स ऑन पाकिस्तान' में डॉ. बीआर अम्बेडकर लिखते हैं, 'अप्रैल की शुरुआत और सितंबर 1927 के अंत के बीच कम से कम 25 दंगे हुए। इनमें से 10 संयुक्त प्रांत में, छह बॉम्बे प्रेसीडेंसी में और दो-दो पंजाब, मध्य प्रांत, बंगाल, बिहार और उड़ीसा में और एक दिल्ली में हुआ। इनमें से अधिकांश दंगे दोनों समुदायों में से किसी एक द्वारा धार्मिक त्योहार मनाने के दौरान हुए जबकि कुछ दंगे मस्जिदों के आसपास हिंदुओं द्वारा संगीत बजाने या मुसलमानों द्वारा गायों की हत्या के कारण हुए। उपद्रवों में कुल 103 व्यक्ति मारे गए और 1,084 घायल हुए।'

 

इस तनावपूर्ण माहौल में 'रंगीला रसूल' बारूद के ढेर पर जलती चिंगारी की तरह गिरी। किताब 1924-25 में आई थी लेकिन 1926 में कानूनी कार्यवाही शुरू हुई। लाहौर हाई कोर्ट ने महाशय राजपाल को बरी कर दिया क्योंकि धार्मिक देवी-देवताओं या आराध्य के अपमान से संबंधित कोई कानून ही नहीं था। फैसले ने आग में घी का काम किया। बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। दबाव में ब्रिटिश हुकूमत ने IPC की धारा 295A लागू की। जिसके तहत जानबूझकर और दुर्भावनापूर्वक धार्मिक विश्वासों का अपमान करना एक आपराधिक कृत्य बना दिया गया। इस तरह भारत को ईश निंदा पर कानून मिला। 

 

इधर महाशय राजपाल के खिलाफ लाहौर से लेकर दिल्ली तक रैलियां हो रहीं थीं। दिल्ली की जामा मस्जिद से मौलाना मोहम्मद अली ने राजपाल, उन्हें रिहा करने वाले जज और अंग्रेजी सरकार के खिलाफ 'जेहाद' का एलान किया। 1929 तक राजपाल पर दो बार हमले हो चुके थे। 6 अप्रैल 1929 को भी हुआ। इल्म-उद-दीन नाम के एक एक 19 साल के लड़के ने उनके किताबों के दुकान में घुसकर उनकी हत्या कर दी। जो अपने लबादे में छुपाकर एक नया खरीदा हुआ खंजर लेकर आया था। 

 

इल्म-उद-दीन पर मुकदमा चला। मोहम्मद अली जिन्ना ने उसका केस लड़ा। अल्लामा इकबाल समेत तमाम मुस्लिम नेताओं ने उसका समर्थन किया। अक्टूबर 1929 में उसे फांसी दे दी गई। अल्लामा इकबाल और जिन्ना दोनों उसके जनाजे में शामिल हुए। उसे आज भी पाकिस्तान में गाजी का दर्जा मिला हुआ है।  

 

अगले कुछ वर्षों में संघ का विस्तार हुआ। अब संगठन की छवि कट्टर हिंदूवादी संगठन की बनने लगी थी। ऐसे में कांग्रेस ने इससे दूरी बनाना शुरू किया। हेडगेवार का भी अब पूरा ध्यान कांग्रेस की बजाय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर था। हालांकि, 1930 में जब महात्मा गांधी ने दांडी मार्च शुरू किया तो हेडगेवार ने भी अंग्रेजों के कानून की अवहेलना करते हुए जंगल सत्याग्रह में हिस्सा लिया। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और जेल भेज दिया गया। इस सत्याग्रह में हेडगेवार जरूर शामिल हुए थे लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इससे दूरी बना रखी थी। शाखा में साफ कहा गया था कि अगर कोई स्वयंसेवक, व्यक्तिगत तौर पर शामिल होना चाहता है तो हो सकता है। हेडगेवार समेत कुछ स्वयंसेवक शामिल भी हुए थे। हालांकि, आरोप ये भी लगते हैं कि बहुत सारे स्वयंसेवकों को नमक सत्याग्रह में शामिल होने से रोका गया था। 

 

बढ़ती सांप्रदायिक घटनाओं को देखते हुए 1934 में कांग्रेस ने अपने सदस्यों को मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा और RSS में शामिल होने से प्रतिबंधित कर दिया। यानी दोहरी सदस्यता वाला प्रावधान खत्म कर दिया गया। अब कोई व्यक्ति या तो कांग्रेस का सदस्य हो सकता था या बाकी किसी और संगठन का। इस तरह से संघ और कांग्रेस के रास्ते बिल्कुल अलग हो गए। बाद के वर्षों में स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों की वजह से हेडगेवार की सक्रियता कम होती गई। 21 जून 1940 को उनका निधन हुआ। अपनी मृत्यु से पहले अपने अंतिम भाषण में हेडगेवार ने 1940 में नागपुर में कहा था, 'वह स्वर्णिम दिन अवश्य आएगा जब सम्पूर्ण भारत संघमय हो जाएगा। तब पृथ्वी पर कोई भी शक्ति हिंदुओं पर कुदृष्टि डालने का साहस नहीं कर सकेगी।'

गुरु गोलवलकर 

 

1940 में हेडगेवार की मृत्यु के बाद आरएसएस के सरसंघचालक या प्रमुख के रूप में माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने पदभार संभाला। जिस तरह से संघ के लोग हेडगेवार को डॉक्टरजी कहते थे, गोलवलकर को गुरुजी कहा जाता था। गोलवलकर का जन्म 19 फरवरी 1906 को महाराष्ट्र के रामटेक शहर में हुआ था। उन्होंने नागपुर में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से जीव विज्ञान में एमएससी की डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होंने बीएचयू में ही पढ़ाना शुरू कर दिया, जिससे उन्हें गुरुजी उपनाम मिला।

 

1928 में संघ के शुरुआती स्वयंसेवकों में से एक प्रभाकर दानी, पढ़ाई के लिए बीएचयू आए। यूनिवर्सिटी के संस्थापक मदन मोहन मालवीय के आशीर्वाद से बीएचयू में संघ की शाखा शुरू हुई। गोलवलकर ने भी शाखा में हिस्सा लेना शुरू किया। 1932 में हेडगेवार ने गोलवलकर को विजयदशमी समारोह में हिस्सा लेने के लिए नागपुर बुलाया। वापस लौटने के बाद गोलवलकर ने संघ कार्यों में सक्रियता और बढ़ाई।

 

1933 में गोलवलकर नागपुर लौट आए। हेडगेवार ने उन्हें कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी। हेडगेवार समेत संघ के अन्य वरिष्ठ सदस्य कांग्रेस, हिंदू महासभा या किसी ना किसी राजनीतिक दल या संगठन से जुड़े थे। गोलवलकर के साथ ऐसा कुछ न था। हालांकि, वह संघ और  रामकृष्ण मिशन को लेकर दुविधा में थे। उनका काफी समय नागपुर के रामकृष्ण मिशन में बीतता। 1936 में एक दिन अचानक वह गायब हो गए। खोजबीन शुरू हुई तो पता चला कि बंगाल में अखंडानंद के आश्रम में हैं। अखंडानंद, रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे। करीब एक साल आश्रम में बिताने के बाद गोलवलकर वापस नागपुर लौटे और पूरी तरह से संघ के काम में लग गए। 1939 में उनकी एक किताब 'We or Our Nationhood defined' प्रकाशित हुई। यह किताब न केवल गोलवलकर की पहली अभिव्यक्ति थी बल्कि RSS का एक स्पष्ट वैचारिकी खांचा खींचने वाला एकमात्र ग्रंथ भी था। हालांकि, RSS ने बाद में इससे दूरी बना ली। 1963 में गोलवलकर ने कहा कि वह इस किताब के लेखक नहीं हैं और वास्तव में यह गणेश सावरकर की किताब राष्ट्र मीमांसा का अनुवाद है। 

 

इस किताब में धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ और मार्शल रेस की बात की गई थी। हिटलर-मुसोलिनी के नाजीवाद और फासीवाद की तारीफ थी और इसे हिंदुस्तान के लिए सबक बताते हुए सीखने की बात कही गई थी। इस किताब में गोलवलकर का कहना था कि हिंदुस्तान में रहने वाली विदेशी नस्लों को हिंदू संस्कृति और भाषा अपनानी होगी, आदर-सम्मान करना होगा, अपना अलग अस्तित्व त्यागकर हिंदू धर्म में विलीन होना होगा, पूरी तरह से हिंदू राष्ट्र के अधीन रहना होगा। जिसमें कोई विशेष अधिकार या विशेष व्यवहार नहीं होगा। यहां तक कि नागरिक अधिकार भी नहीं। बाद में संघ और गोलवलकर दोनों ने इस किताब से पल्ला झाड़ लिया। 

 

1940 में गोलवलकर, सरसंघचालक बने। उनके सामने संगठन को महाराष्ट्र से बाहर प्रसारित करने की चुनौती थी और गोलवलकर इसमें सफल रहे। गोलवलकर के सरसंघचालक रहते संघ कई बार उथल-पुथल के दौर से गुजरा। देश आजाद हुआ, विभाजन त्रासदी बनकर आई, महात्मा गांधी की हत्या हुई, संघ पर प्रतिबंध लगा। 30 वर्षों के अपने कार्यकाल में गोलवलकर ने न केवल संघ को राष्ट्रव्यापी बनाया बल्कि देश के हर राजनीतिक, सामाजिक तबके में अपनी मौजूदगी भी दर्ज कराई। गोलवलकर के नेतृत्व में न केवल संघ बल्कि जनसंघ, विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ जैसे अनुषांगिक संगठनों को भी विस्तार दिया और समाज के हर तबके तक अपनी पहुंच बनाई। हिंदू, हिंदू राष्ट्र, संघ और उसके उद्देश्यों की व्याख्या करने वाली गोलवलकर की किताब बंच ऑफ थॉट्स को संघ की बाइबल कहा जाता है। संघ के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर ने संघ पर संस्थापक हेडगेवार से ज्यादा प्रभावशाली छाप छोड़ी।

 

ज्योतिपुंज नाम की किताब में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गोलवलकर की तुलना बुद्ध, छत्रपति शिवाजी और बाल गंगाधर आदि से की है। मोदी ने किताब में RSS के कार्यकर्ताओं के बारे में लिखा है और सबसे लंबा लेख गोलवलकर पर है। गोलवलकर ने भले ही संघ को एक राष्ट्रव्यापी संगठन के तौर पर खड़ा किया हो लेकिन वह हमेशा अपने घृणा और नफरत फैलाने वाले विचारों के लिए आलोचकों के निशाने पर रहे। उनके आलोचकों द्वारा उन्हें हमेशा देश का सद्भाव बिगाड़ने और अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत पैदा करने वाले कमांडर के तौर पर देखा गया। 

पहला प्रतिबंध

 

देश की आजादी में संघ का योगदान, एक ऐसा सवाल है जिस पर संघ हमेशा से बैकफुट पर रहा है। RSS की आलोचना केवल इस बात के लिए नहीं होती कि उसने आजादी की लड़ाई से दूरी बनाई, बल्कि इसलिए भी होती है कि जो लोग शामिल हो रहे थे उन्हें हतोत्साहित किया और रोका।

 

गोलवलकर ने भारत छोड़ो आंदोलन को अराजक बताया। उन्होंने कहा कि हमारा काम हिंदू समाज को संगठित करना है, न कि अस्थायी आंदोलनों में उलझना। पहले भी संघ कांग्रेस के उद्देश्य, अंग्रेजों को बाहर निकालने को तत्कालिक और अपने लक्ष्य हिंदू राष्ट्र को दीर्घकालिक बता चुका था। अब संघ, अग्रेजों से सीधे टकराव से बच रहा था। गोलवलकर ने स्वयंसेवकों को कहा, 'हमें ब्रिटिश से नहीं, बल्कि आंतरिक कमजोरी से लड़ना है।' गोलवलकर ने स्वयंसेवकों से आंदोलन की बजाय शाखा पर ध्यान देने को कहा। 


आलोचकों ने इसे आंदोलन के दौरान अंग्रेजों का समर्थन बताया जबकि संघ ने इसे 'रणनीतिक तटस्थता' बताया। हालांकि, बाद के वर्षों में RSS यह कहता रहा है कि आजादी के आंदोलन में संघ ने सक्रिय भूमिका निभाई थी और असहयोग आंदोलन के दौरान उनके जेल जाने का जिक्र किया जाता है लेकिन इसके जवाब में यह तर्क दिया जाता है कि तब हेडगेवार कांग्रेस में थे और RSS की स्थापना हुई ही नहीं थी। आजादी की लड़ाई का नेतृत्व कर रहे गांधी भी RSS को सांप्रदायिक संगठन मानते थे। इंडियन एक्सप्रेस में छपे राम पुनियानी के आर्टिकल के मुताबिक 9 अगस्त, 1942 को हरिजन में छपे एक लेख में गांधी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को एक सांप्रदायिक संगठन बताया था। जिनका यह मानना था कि देश केवल हिंदुओं का है और आजादी के बाद दूसरे धर्मों के लोग गुलाम होंगे। 

 

अपनी किताब 'Religious Dimensions of Indian Nationalism: A Study of RSS' में शम्सुल इस्लाम लिखते हैं कि संघ ने 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी को खारिज किया। 17 जुलाई 1947 को संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में छपे लेख में भगवा ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज घोषित कर दिल्ली के लाल किले पर फहराने की मांग की गई। तीन रंगों वाले झंडे को राष्ट्र के लिए अशुभ बताया गया और कहा गया कि हिंदू इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे। संघ ने दोहराया कि उसकी प्रतिज्ञा और प्रार्थना से स्पष्ट है कि हिंदू राष्ट्र स्थापित करने की उनकी प्रतिबद्धता जारी रहेगी। 

 

सितंबर 1947 में गांधी और गोलवलकर की दिल्ली में मुलाकात हुई। संघ के मुताबिक, दोनों नेताओं ने विभाजन के बाद मची मारकाट और हिंसा पर चिंता जताई थी और शाम की सभा में गांधी ने गोलवलकर की तारीफ की थी। हालांकि, दूसरा पक्ष इसे सिरे से खारिज करता है। इंडियन एक्स्प्रेस में राजमोहन गांधी लिखते हैं कि गांधी ने गोलवलकर से कहा था कि उन्होंने RSS का हाथ दंगों के खून से रंगे होने की बात सुनी है। इस पर गोलवलकर ने गांधी को आश्वस्त किया कि यह झूठ है। संघ, मुसलमानों की हत्या के पक्ष में नहीं था। वह बस अपनी पूरी क्षमता से हिंदुस्तान की रक्षा करना चाहता था। बातचीत का विवरण 21 सितंबर 1947 को 'हरिजन' में छपा था। गोलवलकर चाहते थे कि गांधी, शाम की सभा में उनकी बात को रखें और गांधी ने ऐसा ही किया। राजमोहन गांधी के आर्टिकल के मुताबिक बाद में 27 अक्टूबर, 1948 को नेहरू ने पटेल को एक पत्र लिखा था। जिसमें उन्होंने कहा था कि गांधी को गोलवलकर की बात विश्वसनीय नहीं लगी थी। 

 

RSS और नाथूराम गोडसे
 

फिर कुछ ही महीनों बाद 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई। नाथूराम गोडसे नाम के एक उग्र हिंदूवादी ने गांधी को गोली मारी। इस हत्याकांड ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। जो व्यक्ति पूरी जिंदगी अहिंसा के लिए लड़ता रहा उसकी गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। वह भी तब जब दशकों के संघर्ष ने मुकाम हासिल किया था और देश नया-नया आजाद हुआ था। इस हत्या का दोष RSS के माथे आया क्योंकि गोडसे RSS का सदस्य रहा था। हालांकि, RSS का कहना था कि गोडसे, काफी पहले ही RSS छोड़कर हिंदू महासभा में जा चुका था। काफी समय से गोडसे का संघ से कोई लेना-देना नहीं लेकिन गांधी की हत्या, कलंक बनकर RSS के माथे चिपक गई थी। जो इतनी आसानी से छूटने वाला नहीं थी। 
 
 15 नवंबर 1949 को अंबाला जेल में गोडसे को फांसी हुई। और फांसी से कुछ समय पहले गोडसे ने एक प्रार्थना पढ़ी, 
 
 नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
 त्वया हिंदूभूमे सुखं वर्धितोहम
 महानमंगले पुण्यभूमे त्वदर्थ
 पतत्वेष कायो नमस्ते, नमस्ते!

 

बताने की जरूरत नहीं है। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आधिकारिक प्रार्थना है। जो आज भी शाखाओं में गाई जाती है। इस गीत को 1939 में संघ ने स्वीकार किया था। यह कहा गया कि इससे यह पता चलता है कि गोडसे इसके बाद भी संघ से जुड़ा रहा। गोडसे के परिजन ने भी उसके स्वयंसेवक होने का दावा किया और कहा कि उन्होंने कभी इसे छोड़ा नहीं था। हालांकि, यह सवाल अभी भी विवाद का विषय बना हुआ है कि गोडसे का RSS  से कोई संबंध था या नहीं। RSS ने लगातार यह बात दोहराई कि 1930 के दशक के शुरुआती सालों में गोडसे संघ से जुड़ा था और कुछ ही समय बाद वह संघ छोड़कर हिंदू महासभा में चला गया था। हालांकि, इन तमाम दावों के बावजूद अक्सर संघ और उससे जुड़े संगठनों के लोग गोडसे से सहानुभूति और गांधी के प्रति अपनी नफरत सार्वजनिक करते रहे हैं। 
 
गांधी की हत्या के 4 दिन बाद गोलवलकर को गिरफ्तार कर लिया गया। अगले दिन 4 फरवरी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। गोलवलकर ने एक बयान जारी कर महात्मा गांधी की हत्या में संघ की किसी भी तरह की संलिप्तता से इनकार किया। कहा कि संघ हमेशा से कानून के दायरे में रहकर गतिविधियां चलाने में विश्वास करती है क्योंकि संघ को प्रतिबंधित कर दिया गया है इसलिए यह जरूरी है कि प्रतिबंध लागू रहने तक संघ को भंग कर दिया जाए। हालांकि, इस एलान के बाद भी स्वयंसेवकों की गतिविधियां जारी रहीं।

 

वल्लभभाई पटेल ने 19 जुलाई 1948 को श्यामा प्रसाद मुखर्जी को एक चिट्ठी लिखी। पटेल ने कहा, 'मेरे मन में कोई संदेह नहीं है कि हिंदू महासभा का एक अतिवादी वर्ग इस साजिश में शामिल था। आरएसएस की गतिविधियां सरकार और राज्य के अस्तित्व के लिए एक स्पष्ट खतरा थीं। हमारी रिपोर्ट बताती हैं कि प्रतिबंध के बावजूद, ये गतिविधियां कम नहीं हुई हैं।' हालांकि, गृहमंत्री पटेल के इन दावों के बावजूद सरकार को जांच के दौरान संघ के साजिश में शामिल होने के सबूत न मिले और  कुछ ही दिनों बाद गोलवलकर और अन्य नेताओं को रिहा कर दिया गया लेकिन संघ पर प्रतिबंध जारी रहा। कारवां में छपी हरतोष सिंह बल की रिपोर्ट के मुताबिक तत्कालीन गृहमंत्री बल्लभभाई पटेल ने गोलवलकर को पत्र लिखकर RSS  की गतिविधियों पर चिंता जताई। उन्होंने लिखा, 'हिंदुओं को संगठित करना और उनकी मदद करना एक बात है लेकिन निर्दोष और असहाय पुरुषों, महिलाओं और बच्चों पर उनके अत्याचारों का बदला लेना बिलकुल अलग बात है।'

 

पटेल ने संघ नेताओं के भाषणों को सांप्रदायिक और जहरीला बताया। जिसकी वजह से गांधी की जान गई। सरदार पटेल ने कहा, 'जब गांधीजी की हत्या हुई तो RSS के लोगों ने मिठाई बांटी और खुशी जताई। इससे लोगों में आक्रोश पैदा हुआ और RSS का विरोध शुरू हुआ। ऐसी स्थिति में RSS के खिलाफ कार्रवाई जरूरी थी।' पटेल ने गोलवलकर को कुछ बदलाव के सुझाव भी दिए। 

ABVP, मजदूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच

 

गोलवलकर ने प्रतिबंध हटाने के लिए कई बार अपील की। उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू और गृहमंत्री पटेल को पत्र भी लिखे। सत्याग्रह भी शुरू किया। अंतत: प्रतिबंध हटा 11 जुलाई 1949 को। गोलवलकर ने संघ का एक लिखित संविधान सरकार को सौंपने पर सहमति जताई। इसी में यह स्पष्ट हुआ कि संघ केवल सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन है और राजनीति का इससे कोई लेना-देना नहीं। हालांकि, स्वयंसेवकों को इस बात की स्वतंत्रता थी कि वे किसी दल, संस्था में शामिल हो सकें। हालांकि, संघ में बड़ी संख्या में ऐसे नेता भी थे जो राजनीति में सक्रिय थे। प्रतिबंध के दौरान मची उथल-पुथल ने इस बहस को जन्म दिया कि क्या संघ को राजनीति में शामिल होना चाहिए या नहीं? 

 

इस बहस का एक परिणाम यह हुआ कि अलग-अलग क्षेत्रों में संघ के अनुषांगिक संगठनों की शुरुआत हुई। सबसे पहले 1949 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद बना। जो यूनिवर्सिटी-कॉलेजों में छात्रों के बीच संघ के प्रसार का माध्यम बना। संघ ने अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था को मैकाले की नीति बताया। जो भारत में आज्ञाकारी सेवक तैयार करने के लिए बनाई गई थी। इसके प्रतिकार में संघ ने विद्या भारती की शुरुआत की। 1952 में गोरखपुर में पहला सरस्वती शिशु मंदिर खोला गया। ईसाई मिशनरियों के द्वारा चलाए जा रहे धर्मांतरण अभियान का सबसे आसान शिकार दूर-दराज के इलाकों में रहने वाले आदिवासी थे। उनकी हिंदू पहचान स्थापित करने और मुख्यधारा से जोड़ने के लिए वनवासी कल्याण आश्रम की शुरुआत की गई। 

 

ट्रेड यूनियनों में मजबूती से जमे कम्यूनिस्टों का सामना करने के लिए भारतीय मजदूर संघ की स्थापना हुई। आगे चलकर सेवा भारती, स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय किसान संघ, विश्व संवाद केंद्र, राष्ट्र सेविका समिति, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच, राष्ट्रीय सिख संगत, हिंदू जागरण मंच, हिंदू स्वयंसेवक संघ, विवेकानंद केंद्र, सहकार भारती जैसे संगठन संघ परिवार का हिस्सा बने लेकिन इन सब संगठनों के अलावा संघ को एक ऐसे संगठन की भी जरूरत थी जो लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक विकल्प बने और इस जरूरत को पूरा किया भारतीय जनसंघ ने। नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा देने के बाद हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ नाम से एक राजनीतिक दल की स्थापना की जिसे संघ का आशीर्वाद प्राप्त था। 

जनसंघ और RSS

 

1950 में जब पहली बार मुखर्जी ने एक नई पार्टी खड़ी करने में मदद मांगी तो गोलवलकर ने साफ मना कर दिया था लेकिन कुछ ही महीनों बाद उन्होंने मन बदला। उन्होंने मुखर्जी को जनसंघ चलाने के लिए अपने भरोसेमंद स्वयंसेवक दिए। जिसमें दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख, बलराज मधोक, सुंदर सिंह भंडारी, बापू साहेब सोहनी और अटल बिहारी वाजपेयी का नाम शामिल था। जनसंघ पर RSS का संगठनात्मक नियंत्रण था। 1952 में हुए पहले आम चुनावहं में जनसंघ ने 94 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और 3 सीटों पर जीत हासिल की। इसमें बंगाल से श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दुर्गा चरण बनर्जी, जबकि राजस्थान से उमाशंकर त्रिवेदी शामिल थे। जनसंघ के कोर एजेंडे में सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता, जम्मू कश्मीर से आर्टिकल 370 का खात्मा और गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध शामिल था। 

 

आने वाले सालों में RSS और अनुषांगिक संगठनों का तेजी से प्रसार हुआ। चीन से युद्ध के बाद 1963 में हुए गणतंत्र दिवस समारोह में RSS के करीब 2 हजार स्वयंसेवकों ने अपनी यूनिफॉर्म में परेड किया। उस साल गणतंत्र दिवस समारोह को नागरिक समारोह में तब्दील कर दिया गया था। जिसमें अलग-अलग समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों ने हिस्सा लिया था। इसी में संघ के स्वयंसेवकों को भी बुलाया गया। भारत-पाक युद्ध के समय, तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जिन भारतीय नेताओं से परामर्श किया था, उनमें गोलवलकर भी शामिल थे। विद्यार्थी परिषद, जनसंघ और बाकी संगठन तो अपना काम कर ही रहे थे। धीरे-धीरे संघ को भी स्वीकार्यता मिल रही थी। 

 

अब गोलवलकर मुख्य लक्ष्य की ओर लौटे। 1964 में विश्व हिंदू परिषद की स्थापना हुई। जिसका काम दुनिया भर के हिंदुओं को एकजुट करना था। साधु-संतों, हिंदूवादी नेताओं को एक मंच पर लाना था और विश्व हिंदू परिषद 1964 से ही इस काम में लग गया। 

 

इसी साल विश्व हिंदू परिषद ने गोरक्षा का मुद्दा उठाया। जिसका 3 शंकराचार्यों, कई संगठनों और साधु-संतों ने समर्थन किया। 1965 में एक बैठक बुलाई गई जिसमें अखिल भारतीय रामराज्य परिषद के करपात्री महराज को इसका नेता चुना गया। इस बैठक मे संसद का घेराव कर विरोध प्रदर्शन करने पर सहमति बनी। इससे पहले 1948 में भी करपात्री महराज के नेतृत्व में हिंदू कोड बिल के खिलाफ संसद का घेराव हो चुका था। हिंदू कोड बिल एक सुधारवादी बिल था। जो महिलाओं को शादी, विरासत और संपत्ति से जुड़े कई सारे अधिकार देता था। संसद के भीतर और बाहर दोनों जगह रुढ़िवादी नेताओं ने इसका विरोध किया। इसे हिंदुओं की परंपरा, संस्कृति के साथ छेड़छाड़ बताया था। जिसके बाद सरकार को इसे वापस लेना पड़ा था और अंबेडकर ने नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था। हालांकि, बाद में कुछ संशोधनों के साथ नेहरू ने इसे पास करा लिया था। 

 

1966 में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर थीं। जिन्होंने गोहत्या पर प्रतिबंध न लगने तक आमरण अनशन की घोषणा करने वाले साधु-संतों के खिलाफ झुकने से इनकार कर दिया था। 7 नवंबर 1966 को करीब एक लाख प्रदर्शनकारियों की भीड़ ने भाला, त्रिशूल लहराते हुए संसद पर धावा बोल दिया। इसे जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समर्थन था। पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए फायरिंग की। जिसमें 7 लोगों की मौत हुई। प्रदर्शनकारियों ने सैकड़ों लोगों के मारे जाने का दावा किया। भीड़ हिंसक हो गई। संसद के आसपास नेताओं के घरों में जमकर तोड़फोड़ हुई। 

1966 में ही प्रयाग कुम्भ में विश्व हिंदू परिषद ने संत सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या में रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन शुरू करने का एलान किया। जिसने संघर्ष के एक नए चरण को जन्म दिया।

दूसरा प्रतिबंध

 

5 जून 1973 को गोलवलकर की मृत्यु हुई। अपने 30 वर्षों के कार्यकाल में माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने न केवल संघ को स्थापित कर दिया था बल्कि आनुषंगिक संगठनों की लंबी-चौड़ी फौज खड़ी कर दी थी। जिसने संघ की पहुंच हर क्षेत्र तक बना दी थी। गोलवलकर की मृत्यु के बाद उनके तीन सीलबंद लिफाफे खोले गए। पहले लिफाफे में एक पत्र निकला। जिसमें लिखा कि उनके बाद मधुकर दत्तात्रेय देवरस, जिन्हें लोग ‘बालासाहब देवरस’ कहते थे, अगले सरसंघचालक होंगे।

 

बाला साहब देवरस बाल स्वयंसेवक थे। वह मोहितेवाड़ा में लगी संघ की पहली शाखा में शामिल रहे थे। उन्होंने हेडगेवार और गोलवलकर दोनों के साथ लंबे समय तक काम किया था। सरसंघचालक बन जाने के बाद बालासाहब देशव्यापी दौरे पर निकले। उन्होंने बड़ी संख्या में सभाओं को संबोधित किया। उन्होंने श्रोताओं के साथ सवाल-जवाब की परंपरा शुरू की। कोई भी व्यक्ति सरसंघचालक से सवाल पूछ सकता था और वह उसका जवाब देते।

 

अपने पूर्ववर्ती सरसंघचालकों की तरह देवरस ने भी संघ को सक्रिय राजनीति से दूर रखा लेकिन बाकी संगठनों के जरिए उनका हस्तक्षेप लगातार बना रहा। 1974 में उन्होंने विद्यार्थी परिषद को गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन में उतार दिया। इस आंदोलन ने गुजरात की चिमन भाई पटेल की सरकार को उखाड़ फेंका। आजाद भारत में यह पहली बार था जब किसी निर्वाचित सरकार को इस तरह से हटाया गया हो। इसके बाद सड़कों पर छात्रों के आंदोलन का एक अलग ही दौर चला। अगला टारगेट बिहार था। पटना की सड़कें इंदिरा हटाओ, देश बचाओ के नारे से गूंज उठीं और नारेबाजी कर रहे छात्रों में समाजवादी और वामपंथी छात्रों के साथ-साथ भगवा झंडा थामे विद्यार्थी परिषद के भी कार्यकर्ता शामिल थे। जेपी की संपूर्ण क्रांति आंदोलन को संघ ने पूरा समर्थन दिया। दोनों ने एक दूसरे की जरूरत पूरी की। जेपी के पास एक आंदोलन था, राजनीतिक नेतृत्व था। RSS के पास जमीनी नेटवर्क वाला एक मजबूत संगठन था। बदले में जेपी ने संघ की जमकर प्रशंसा की और कहा कि अगर संघ फासीवादी है तो मैं भी फासीवादी हूं। 

 

4 नवंबर 1974 को जयप्रकाश नारायण, पटना में गांधी मैदान से राज्य सचिवालय तक छात्रों और विपक्षी कार्यकर्ताओं के एक मार्च का नेतृत्व कर रहे थे, तभी पुलिस ने अचानक लाठीचार्ज कर दिया। जय प्रकाश नारायण पर बेरहमी से लाठियां बरसाई गईं। कहा जाता है कि उनके अचेत शरीर पर ढाल बन गए, संघ के प्रचारक रहे नानाजी देशमुख भारतीय जनसंघ के वरिष्ठ नेता थे। उनका हाथ टूट गया लेकिन वह जेपी को बचाने में सफल रहे। नानाजी देशमुख ने संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान प्रमुख निडर चेहरे के तौर पर अपनी पहचान बनाई। वह लोक संघर्ष समिति के महासचिव थे। आपातकाल के खिलाफ बनी इस समिति में RSS के स्वयंसेवकों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। आंदोलन के दौरान ये स्वयंसेवक राजनीतिक नेतृत्व के संपर्क में आए। उनके साथ काम करने और संपर्क बनाने का अनुभव भी प्राप्त किया। 

 

जून 1975 में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा दी। पूरे देश में विपक्षी दलों या विचारधारा से संबंधित लोगों को गिरफ्तार किया गया। सरसंघचालक समेत संघ से जुड़े स्वयंसेवकों और नेताओं को भी गिफ्तार कर जेल भेज दिया गया और संघ पर दूसरी बार प्रतिबंध लगा। नानाजी देशमुख, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी समेत जनसंघ के सभी बड़े नेताओं को भी गिरफ्तार कर लिया गया। आपातकाल के दौरान जब समूचा विपक्ष या तो जेल में था या अंडरग्राउंड था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के देशव्यापी नेटवर्क ने आंदोलन को जिंदा रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वयंसेवकों ने प्रतिबंधित साहित्य को छापने और प्रसारित करने के लिए गुप्त नेटवर्क बनाए। आंदोलन को बनाए रखने के लिए धन जुटाया। जेल में बंद नेताओं और अंडरग्राउंड नेताओं के बीच कम्युनिकेशन लाइन बनाई। 

 

स्वयंसेवकों की इस सक्रियता ने मुख्यधारा की राजनीति में उन्हें स्वीकार्य बनाया। हालांकि, उनके मंतव्य पर भी कई बार सवाल उठे। खासतौर पर तब जब जेल में रहते सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखे। उनसे संघ पर लगाए गए प्रतिबंध को हटाने की मांग की और उनकी तारीफ की। इसकी काफी आलोचना हुई। हालांकि, RSS का कहना है कि यह पत्र व्यवहार केवल इसलिए था कि संघ से प्रतिबंध हट जाए। जेल में बंद स्वयंसेवकों की रिहाई सुनिश्चित करना था। कांग्रेस के आगे झुकने का कोई सवाल ही नहीं था। यह पत्र व्यवहार रणनीति का हिस्सा था। 

जनता पार्टी में टूट और BJP की स्थापना

 

संघ का दावा है कि इमरजेंसी के दौरान 25 हजार से ज्यादा स्वयंसेवकों को मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया। कुछ स्वयंसेवकों की हिरासत में मौत भी हो गई। आपातकाल 1977 में खत्म हुआ। चुनावों की घोषणा हुई। सभी प्रमुख राजनीतिक दल जनता पार्टी की छतरी के नीचे इकट्ठा हुए। इसमें जनसंघ भी शामिल था। चुनाव में जनता पार्टी को अभूतपूर्व सफलता मिली। पहली बार कांग्रेस पार्टी सत्ता से बाहर हुई। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। जनसंघ के कोटे से अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री और लालकृष्ण आडवाणी सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने लेकिन कई धड़ों में बंटी यह सरकार ज्यादा दिन टिक नहीं पाई। 1978 में समाजवादी नेता मधु लिमये ने जनसंघ से आए नेताओं की दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठाया। कहा गया, 'जनसंघ से आए नेता RSS के भी सदस्य हैं और जनता पार्टी के भी। यह दोहरी सदस्यता एक साथ नहीं रखी जा सकती।' जनसंघ के नेताओं ने RSS की सदस्यता छोड़ने से साफ इनकार कर दिया। पार्टी टूट गई। सरकार गिर गई। 
 
जनसंघ के नेताओं ने अपनी अलग पार्टी बनाने का फैसला किया। 6 अप्रैल 1980 को दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई। अटल बिहारी वाजपेयी इसके अध्यक्ष चुने गए। संस्थापक सदस्यों में लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख, मुरली मनोहर जोशी, विजय राजे सिंधिया, भैरो सिंह शेखावत जैसे नेता शामिल थे। पार्टी की स्थापना के बाद मुंबई में पहला अधिवेशन हुआ। अध्यक्षीय भाषण देते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने छत्रपति शिवाजी महराज और महात्मा फूले से प्रेरणा लेने की बात कही और कहा, 'अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा।'

 

अपने पहले ही अधिवेशन में अटल बिहारी वाजपेयी ने गांधीवादी समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता अपनाने का एलान कर दिया। उन्होंने कार्यकर्ताओं से एक हाथ में भारत का संविधान और दूसरे में समता का निशान लेकर जूझने की अपील की। बीजेपी की यह लाइन उसके मूल संगठन RSS और पूर्ववर्ती जनसंघ से हटकर थी। जिसने बीजेपी के प्रति संघ में अविश्वास पैदा किया। इतना ही नहीं यह भी कहा जाने लगा कि संघ, किसी भी राजनीतिक दल से स्थायी रूप से जुड़ा हुआ नहीं है। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या की बाद लोकसभा के चुनाव हुए। सहानुभूति लहर में राजीव गांधी को 400 से ज्यादा सीटें मिलीं। बीजेपी के महज 2 सांसद चुनाव जीते। इस हार की वजह जो भी रही हो, कहा गया कि संघ ने बीजेपी से पूरी तरह से दूरी बना ली है। 

 

इसी बीच 1 फरवरी 1986 को आए एक अदालती आदेश ने सब कुछ बदल दिया। अयोध्या में जिस बाबरी मस्जिद को राम जन्मभूमि बताते हुए विश्व हिंदू परिषद मंदिर निर्माण आंदोलन कर रहा था, उसका ताला खोलने का आदेश आ गया। इसी साल लालकृष्ण आडवाणी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बने। 1989 में इलाहाबाद में कुम्भ मेला लगा हुआ था। विश्व हिंदू परिषद ने संत सम्मेलन के दौरान इसी साल नवंबर में मंदिर का शिलान्यास करने का एलान कर दिया। विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल ने देश भर के युवाओं से मंदिर निर्माण के लिए बलिदान का आह्वान किया। सितंबर में विश्व हिंदू परिषद ने पूरे देश में शिला पूजन कार्यक्रम शुरू कर दिया। गांव-गांव से ईंट अयोध्या लाई जाने लगी। ऐसा करके अशोक सिंहल, राम मंदिर आंदोलन को घर-घर तक पहुंचाने में सफल रहे। VHP के पोस्टरों में मनमोहक और सौम्य मुस्कान वाले राम की जगह धनुष थामे युद्ध को तैयार राम ने ले ली थी।
  
'सौगंध राम की खाते हैं मंदिर वहीं बनाएंगे', 'बच्चा-बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का' जैसे नारे पूरे देश में गूंज रहे थे। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र के कई शहरों में दंगे हुए। जिसमें सैकड़ों लोगों की मौत हुई। भागलपुर में रामशिला जुलूस पर हमले के बाद दंगे भड़क गए जिसमें करीब 1 हजार लोग मारे गए। 

 

1989 में चुनाव होना था। रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद चुनावी मुद्दा बन गया था। धार्मिक रुझान के आधार पर वोटिंग पहली बार नहीं हो रही था लेकिन हिंदू वोटर जातियों में बंटा हुआ था। वोट देते समय लोग धर्म से ज्यादा जाति पर ध्यान देते थे। बीजेपी-संघ ने इसे ही बदलने की कोशिश की। एक एकीकृत हिंदू वोट बैंक तैयार किया। जो जाति के साथ-साथ ग्रामीण-शहरी सीमाओं से भी ऊपर उठा हुआ था। बाकी 1986 में विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंहल ने अपना एजेंडा क्लियर कर दिया था। जिसमें बाकी चीजों के साथ यह भी साफ-साफ कहा गया था कि हिंदू हितों का समर्थन करने वाले राजनीतिक उम्मीदवार का समर्थन किया जाएगा। बाद में यही नारे के तौर पर प्रचलित हुआ- 'जो हिंदू हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा।' 

अब सवाल ये था कि यह दल कौन सा होगा? क्या यह बीजेपी होगी? 

 

एक तरफ गांधीवादी समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता थी तो दूसरी तरफ मूल संगठन का ध्येय और भारी-भरकम वोटबैंक लिए एक ऐसा मुद्दा जो उन्हें सत्ता के शीर्ष पर पहुंचा सकता था। जून 1989 में पालमपुर में हुए अधिवेशन में लालकृष्ण आडवाणी की अध्यक्षता वाली बीजेपी ने अपने मूल की ओर वापस लौटने का फैसला किया। मंदिर निर्माण पर प्रस्ताव आया। जिसमें कहा गया, 'न्यायालय, यह निर्णय नहीं दे सकता कि बाबर ने वास्तव में अयोध्या पर आक्रमण किया था, मंदिर तोड़ा था और उसकी जगह मस्जिद बनवाई थी।' राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव पारित हुआ। यह फैसला न केवल बीजेपी बल्कि पूरे देश की राजनीति के लिए टर्निंग पॉइंट था। 

 

चुनाव के नतीजे आए तो पिछले चुनाव में दो सीटें जीतने वाली बीजेपी ने 1989 में 85 सीटों पर जीत दर्ज की। इतना ही नहीं 1990 में मध्य प्रदेश, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनी। भैरो सिंह शेखावत, सुंदर लाल पटवा और शांता कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे। जनसंघ से लेकर बीजेपी तक, यह पहली बार था जब पार्टी सरकार चला रही थी। इस जीत से उत्साहित आडवाणी ने राम मंदिर आंदोलन में खुलकर उतरने का फैसला किया। सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा का एलान किया। 

 

इसे वीपी सिंह की मंडल पॉलिटिक्स का काउंटर बताया गया और नाम दिया गया कमंडल पॉलिटिक्स। हजारों कार्यकर्ताओं की भीड़ लेकर आडवाणी अयोध्या के लिए रवाना हुए लेकिन 23 अक्टूबर 1990 को बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव ने समस्तीपुर में उनकी यात्रा को रोक लिया लेकिन हजारों की संख्या में कारसेवक अयोध्या पहुंच गए थे। VHP के आह्वान पर इकट्ठा हुई कारसेवकों की भीड़ मस्जिद की ओर बढ़ी तो 30 अक्टूबर 1990 को उत्तर प्रदेश पुलिस ने फायरिंग कर दी। जिसमें बड़ी संख्या में कारसेवक मारे गए। VHP और बीजेपी ने मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव पर इस गोलीकांड का ठीकरा फोड़ा। साथ ही वीपी सिंह की सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई। 1991 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 120 सीटें मिलीं। उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनी और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने। 

तीसरा प्रतिबंध 

 

6 दिसंबर 1992 को बीजेपी और VHP नेताओं के आह्वान पर उमड़ी भीड़ ने बाबरी मस्जिद पर हमला कर दिया। मस्जिद ढहा दी गई। अशोक सिंहल, प्रवीण तोगड़िया, उमा भारती, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, केएस सुदर्शन, महंत अवैद्यनाथ समेत बीजेपी, VHP और आरएसएस के 68 शीर्ष नेताओं को लिब्रहान आयोग ने इसका जिम्मेदार बताया।  फ्रंट पर जो काम VHP और बीजेपी ने किया उसके लिए RSS को जिम्मेदार बताया गया। 4 दिन बाद 10 दिसंबर 1993 को एक बार फिर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित कर दिया गया। यह प्रतिबंध अगले 7 सात महीने तक जारी रहा। जून 1993 में इसे हटाया गया। 

 

बालासाहब देवरस के सरसंघचालक रहते अब संघ का आनुषंगिक संगठन मुख्यधारा की राजनीति में भी स्थापित हो चुका था। जो हिंदुत्व का कोर एजेंडा लेकर चल रहा था। उनके कार्यकाल में विद्यार्थी परिषद और स्वयंसेवकों ने सरकारों के बनने-बिगाड़ने में सक्रिय भूमिका निभाई। आपातकाल का सामना किया।  4 सौ साल से जिस बाबरी मस्जिद को लेकर विवाद बना हुआ था वह भी इसी समय निर्णायक मोड़ पर पहुंचा। अपने गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए 1994 में देवरस ने नए सरसंघचालक के नाम की घोषणा की। यह पहली बार था जब किसी सरसंघचालक ने अपने जीवित रहते उत्तराधिकारी का नाम घोषित किया। 

 

राजेंद्र सिंह रज्जू भइया, संघ के चौथ सरसंघचालक बने। रज्जू भइया पहले सरसंघचालक थे जो महाराष्ट्र से नहीं थे। ब्राह्मण नहीं थे। वह उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में पैदा हुए। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से उन्होंने फिजिक्स में MSc की और वहीं प्रोफेसर नियुक्त हुए। रज्जू भइया फिजिक्स डिपार्टमेंट के HoD भी बने। मुरली मनोहर जोशी, रामप्रकाश गुप्ता जैसे नेता उनके शिष्य रहे थे। रज्जू भइया 1966 में संघ से जुड़े थे। 1994 में वह सरसंघचालक बने। उन्हीं के कार्यकाल के दौरान पहली बार भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई। अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने। 

RSS बनाम वाजपेयी सरकार

 

इस दौरान संघ और सरकार के बीच टकराव भी हुआ। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की नीतियों और उनके व्यवहार की संघ नेताओं ने कई बार खुलकर आलोचना की। संघ के आनुषंगिक संगठनों स्वदेशी जागरण मंच, बजरंग दल से लेकर विश्व हिंदू परिषद तक ने कई बार वाजपेयी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला। पाकिस्तान, राम मंदिर और उदार आर्थिक नीतियों को लेकर अटल बिहारी वाजपेयी, संघ के निशाने पर थे। VHP प्रमुख अशोक सिंघल ने कहा कि अटल जी सत्ता के नशे में चूर हैं और अगर वह राम मंदिर निर्माण के लिए कानून नहीं बना सकते, तो उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए। VHP के महासचिव गिरिराज किशोर ने अटल को छद्म हिंदू बताया। संघ ने बीमा क्षेत्र को विदेशी कंपनियों के लिए खोलने की आलोचना की। सुदर्शन ने पूरे देश में एक भाषा लागू करने के लिए अटल सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की। हालांकि, अटल बिहारी वाजपेयी का मानना था कि सबको साथ लेकर चलने की जरूरत है। भले ही वे हिंदी न समझ पाएं। भाषा को संवेदनशील मुद्दा बताते हुए वाजपेयी ने कहा कि जबरन भाषा थोपने से देश के टूटने जैसे हालात पैदा हो सकते हैं। 

 

दरअसल, सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने इर्द-गिर्द गैर-संघी नेताओं की दीवार बना रखी थी। जो संघ को पसंद नहीं थे। इसमें जसवंत सिंह और ब्रजेश मिश्रा शामिल थे, जो अटल के प्रधान सचिव होने के अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी थे। जॉर्ज फर्नांडीस, नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू जैसे दूसरे दलों के नेताओं को कैबिनेट में महत्वपूर्ण पद दिए गए थे। संघ प्रमुख ने एक बयान में बीजेपी को चेतावनी दी कि वह यह भ्रम न पालें कि RSS उनकी पूंछ है। इसी तरह से सह सरकार्यवाह केएस सुदर्शन ने कहा कि बीजेपी को RSS को हल्के में नहीं लेना चाहिए। 

 

जनवरी 2000 में कंधार हाईजैक के बाद आतंकियों को रिहा करने के फैसले की भी रज्जू भइया ने आलोचना की और कहा कि इस घटना ने हिंदू समाज की 'कायरता' को उजागर कर दिया है। केएस सुदर्शन ने वाजपेयी पर परोक्ष रूप से नेहरूवादी आर्थिक नीति को जारी रखने का आरोप लगाया था। जो शहर केंद्रित था। सुदर्शन और अटल के बीच का टकराव लंबा चला। 2000 में केएस सुदर्शन के सरसंघचालक बनने के बाद भी। खराब स्वास्थ्य की वजह से रज्जू भइया ने केएस सुदर्शन को अगला सरसंघचालक घोषित कर दिया था। उनके नाम के एलान ने लोगों को चौंकाया क्योंकि संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह एचवी शेषाद्रि को स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना जा रहा था। केएस सुदर्शन संघ विचार के सबसे कट्टर लोगों में से एक माने जाते थे। मार्च 2000 में सरसंघचालक का पद ग्रहण करने के बाद मीडिया से अपनी पहली ही बातचीत में उन्होंने साफ कहा कि ब्रिटिश विरासत की बात करने वाले पुराने भारतीय संविधान को फेंक दो। 

 

मार्च 2001 में उन्होंने अटल-आडवाणी को निशाने पर लिया और कहा कि प्रधानमंत्री कार्यालय में कुछ अयोग्य लोग बैठे हैं। एक और मौके पर उन्होंने वाजपेयी और आडवाणी को युवाओं के लिए जगह बनाने की सलाह दी।  2002 में गुजरात दंगों के बाद वाजपेयी, मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को हटाना चाहते थे। नरेंद्र मोदी, संघ के प्रचारक थे और उन्हें जब मुख्यमंत्री बनाया गया तब उन्हें संसदीय राजनीति का कोई अनुभव नहीं था। उन्होंने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा था। मुख्यमंत्री बनने के बाद वह विधानसभा के सदस्य बने। दंगों के बाद वाजपेयी ने दंगों से निपटने के तरीके को लेकर उनकी आलोचना की। उन पर पद छोड़ने का दबाव बनाया लेकिन संघ के दबाव की वजह से ऐसा नहीं हो पाया। 

 

जहां एक तरफ पहले दो सरसंघचालकों ने सक्रिय राजनीति से दूरी बना रखी थी। वहीं, दूसरी तरफ बाला साहब देवरस के बाद से यह हर अगले सरसंघचालक के साथ बढ़ता ही गया और सुदर्शन तक आते-आते काफी हालात ये हो गए थे कि राजनीतिक नियुक्तियों से लेकर राज्यसभा की सीटों तक की सिफारिश के लिए संघ मुख्यालय की दौड़ लगाई जाने लगी। इसकी एक वजह यह भी थी कि पहले सत्ता की ताकत नहीं थी। जब आई तो हस्तक्षेप भी बढ़ा। जिससे अपने पूरे कार्यकाल के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी जूझते रहे। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 24 दलों के गठबंधन वाली सरकार थी। सहयोगियों के साथ संतुलन बनाने के साथ-साथ उन्हें संघ को भी संतुष्ट करते हुए सरकार चलाना था। जो काफी कठिन काम था और नतीजा यह रहा कि प्रधानमंत्री के तौर पर वाजपेयी का पूरा कार्यकाल, संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों से जूझते हुए ही बीता। 2004 में सत्ता चली गई। 2009 में केएस सुदर्शन ने मोहन भागवत को अगला सरसंघचालक नियुक्त किया।  

नया दौर 

 

मोहन भागवत का सरसंघचालक के तौर पर चयन चौंकाने वाला था। मार्च 2009 तक वह सरकार्यवाह का अपना कार्यकाल पूरा कर चुके थे। नए सरकार्यवाह के लिए मीटिंग हो रही थी। 'द हिंदू' अखबार में छपी खबर के मुताबिक एमजी वैद्य कहते हैं, 'मैं सरकार्यवाह के चुनाव की प्रक्रिया शुरू करने ही वाला था कि सुदर्शनजी ने मुझे रोक दिया। उन्होंने माइक हाथ में लिया। कहा कि मेरी तबीयत ठीक नहीं और अगले सरसंघचालक के तौर पर मोहन भागवत का नाम प्रस्तावित कर दिया।'
 
मोहन भागवत, तब 59 साल के थे। बूढ़ों का संगठन कहे जाने वाले संघ के शीर्ष पद के लिए अपेक्षाकृत युवा। यह पीढ़ीगत बदलाव का फैसला था जो काफी सोच समझकर लिया गया था। 2004 में बीजेपी की हार हो चुकी थी। जिन्ना की मजार पर चादर चढ़ा लौटे आडवाणी विवादों से उबर नहीं पाए थे। दूसरी पीढ़ी के सबसे बड़े नेताओं में से एक प्रमोद महाजन की हत्या हो चुकी थी। केसी सुदर्शन और अशोक सिंहल, बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं की वजह से सक्रियता कम कर रहे थे। कुछ ही महीने बाद हुए चुनाव में बीजेपी को एक और हार मिली। जिसके बाद भागवत के कड़े फैसलों की लंबी फेहरिस्त शुरू हुई। 

 

19 अगस्त 2009 को बीजेपी की चिंतन बैठक से ठीक पहले भागवत ने गुटबाजी को लेकर बीजेपी पर निशाना साधा और कहा कि आडवाणी को पार्टी का नेतृत्व युवाओं को सौंपने पर विचार करना चाहिए। यह पूछे जाने पर कि क्या अध्यक्ष पद के लिए अरुण जेटली, वेंकैया नायडू, सुषमा स्वराज और नरेंद्र मोदी ही विकल्प हैं? भागवत ने कहा कि बीजेपी को इन चारों से आगे देखना चाहिए। बीजेपी में कई अच्छे नेता हैं जो संगठन की बागडोर संभालने में सक्षम हैं। जल्द ही इस बयान का असर दिखा। दिसंबर 2009 में आडवाणी की जगह सुषमा स्वराज, लोकसभा में विपक्ष की नेता बनीं जबकि महाराष्ट्र के प्रदेश अध्यक्ष और भागवत के करीबी नितिन गडकरी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। 

RSS और नरेंद्र मोदी

 

आडवाणी नेपथ्य में थे और यह लगभग तय हो चुका था कि बीजेपी अगले चुनाव में नए चेहरे के साथ उतरेगी। दावेदार कई सारे थे। भागवत की जो भी तैयारी रही हो लेकिन एक चेहरा और भी था जिसकी कुछ और ही प्लानिंग थी और दावेदारी खुलकर संघ परिवार में गूंजने लगी थी। नाम- नरेंद्र मोदी। गुजरात के मुख्यमंत्री। 

 

2009 से 2013 के बीच का समय काफी उथल-पुथल वाला रहा। गडकरी पर घोटालों के आरोप लगे। उन्हें पद छोड़ना पड़ा। राजनाथ सिंह नए अध्यक्ष बने। अन्ना आंदोलन और घोटालों की फेहरिस्त ने जो सत्ता विरोधी लहर पैदा की। संघ ने इस लहर को सुनामी बनाने में कोई कसर न छोड़ी। रही-सही कसर नरेंद्र मोदी के व्यापक प्रचार अभियान ने पूरी कर दी। विकास के गुजरात मॉडल और अच्छे दिनों के वादे के साथ चुनाव मैदान में उतरे नरेंद्र मोदी, संघ परिवार की उस इच्छा को भी पूरी करते थे जो प्रखर हिंदूवादी नेता को शीर्ष पद पर बिठाना चाहता था। 2014 में नरेंद्र मोदी ने जोरदार चुनाव प्रचार किया। उन्होंने संघ परिवार के विशाल परिवार को चुनावी मशीनरी में तब्दील कर दिया। स्वयंसेवकों और प्रचारकों ने भी पूरे उत्साह से इसमें भाग लिया क्योंकि वे मोदी में उस स्वयंसेवक की छवि पाते थे जो उनके ही बीच से निकला था। 2014 में बीजेपी को अभूतपूर्व जनादेश मिला और इसने संघ परिवार में मोदी के कद को भी काफी बड़ा कर दिया। 

 

मोदी के प्रधानमंत्री बनने का संघ के स्वयंसेवकों पर भी गहरा असर हुआ। साधारण स्वयंसेवकों को भी यह संबल मिला कि अगर उनके बीच का कोई व्यक्ति देश के शीर्ष पद पर पहुंच सकता है तो वे भी ऐसा कर सकते हैं। मोदी का बीजेपी पर तो नियंत्रण था ही, संघ के भीतर भी शक्ति संतुलन उनके पक्ष में होने लगा। अब तक नेतृत्व, संघ प्रमुख के हाथों में था और बाकी संगठन पीछे लेकिन अब मोदी सामने हैं और बाकी संगठन पीछे क्योंकि मोदी हिंदुत्व का वह उभार लेकर आए जिसका सपना संघ के कार्यकर्ता हमेशा से देखते रहे हैं। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद संघ की ताकत बढ़ गई। संघ की शाखाओं में कई गुना वृद्धि हुई। समाज में भी इसका प्रभाव बढ़ा। आज संघ के पास पहले से कहीं ज़्यादा संसाधन हैं। अब स्वयंसेवकों/प्रचारकों को पहले जैसी तंगी में नहीं रहना पड़ता। हर ज़िले में अत्याधुनिक सुविधाओं वाले संघ कार्यालय बन गए हैं या बन रहे हैं। प्रचारकों के पास कार हैं, महंगे फोन हैं, ब्रांडेड कपड़े पहनते हैं। संघ के स्वयंसेवक अब खाकी निक्कर की जगह फुल पैंट पहनते हैं। संघ परिवार ने इंटरनेट और सोशल मीडिया के जरिए अपना प्रसार किया। 

 

तकनीक और डिजिटलाइजेशन के इस दौर में जिस तरह से नरेंद्र मोदी, बीजेपी को एक नए दौर की ओर ले गए उसी तरह से मोहन भागवत ने भी समय के साथ बदलावों को प्राथमिकता दी। इसकी एक बड़ी वजह ये है कि संघ के लिए भी इतने अच्छे हालात पहले कभी नहीं रहे। 11 साल की सत्ता ने कई सारे क्षेत्रों में संघ परिवार की मौजूदगी को मजबूत किया है। एक तरीके से संघ परिवार की हुकूमत चलती है। शैक्षणिक संस्थानों में, सरकारी संस्थानों में, राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों की कुर्सियों तक संघ के एजेंडे में फिट होने वाले लोग बिठाए गए हैं। 

 

2014 में जब बीजेपी सत्ता में आई और पूर्ण बहुमत के साथ आई तब उस तरह की दिक्कतें नहीं आईं। जो अटल और सुदर्शन के समय आई थी। मोहन भागवत के नेतृत्व वाले संघ और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार में सामंजस्य देखने को मिला। इस दौरान मोदी सरकार ने संघ के कोर एजेंडों को भी पूरा किया। जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाया गया। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हुआ। विश्वविद्यालयों, शैक्षिक संस्थानों में संघ के लोग शीर्ष पदों पर पहुंचे। सिलेबस से लेकर नीतियां तक तय करने में संघ की भूमिका बढ़ी है। हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नागपुर स्थित संघ कार्यालय तक जाने में 12 साल का समय लग गया। 

 

30 मार्च 2025 को नरेंद्र मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री नागपुर स्थित संघ कार्यालय का पहला दौरा किया। यह दौरा संघ के शताब्दी वर्ष में हुआ। यह दौरा ऐसे समय में भी हुआ जब पहली बार नरेंद्र मोदी की सरकार गठबंधन के सहयोगियों के भरोसे चल रही थी। 2024 के लोकसभा चुनाव में अबकी बार 400 पार के नारे के साथ उतरी बीजेपी महज 240 सीटों पर सिमट गई। कहा गया संघ, इस बार नाराज है और चुनाव प्रचार में अपनी पूरी ताकत नहीं झोंकी। चुनाव के दौरान बीजेपी अध्यक्ष जेपी नेड्डा ने ऐसा बयान दिया जिसने लोगों को चौंकाया। नड्डा ने कहा, 'शुरुआत में जब हम छोटे थे, कम सक्षम थे तब हमें RSS की जरूरत थी। आज हम सक्षम हैं। बीजेपी खुद चलती है।' 

 

चुनाव परिणाम आने के बाद RSS ने नड्डा के बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया दी। जून 2024 में भागवत ने कहा, 'देश को निस्वार्थ एवं सच्ची सेवा की ज़रूरत है। जो मर्यादा का पालन करता है उसमें अहंकार नहीं होता और वह सेवक कहलाने का हक़दार होता है।' नतीजे आने के करीब 10 दिन बाद आया यह बयान किसके लिए था, इस पर किसी को डाउट नहीं था क्योंकि सब जानते हैं प्रधानमंत्री खुद को प्रधान सेवक के तौर पर प्रोजेक्ट करते हैं। जुलाई 2024 में भी भागवत का एक बयान आया जिसमें उन्होंने कहा, 'मनुष्य महामानव, फिर देवता, फिर भगवान बनना चाहता है। ऐसी इच्छाएं रखने की बजाय, लोगों को मानवता के कल्याण के लिए काम करना चाहिए।' 

 

इस बयान को भी मोदी के उस बयान पर निशाना बताया गया जिसमें उन्होंने खुद को नॉन-बायलॉजिकल बताया था। हालांकि, जल्दी ही इस टकराव को पाटने के प्रयास शुरु किए जाने लगे। फ्रंटलाइन में छपी एक रिपोर्ट में राजनीतिक विश्लेषक और लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, नरेंद्र मोदी को भी यह अहसास हुआ कि संघ को नाराज करके चुनाव नहीं जीता जा सकता और संघ को भी यह अहसास हो गया कि अभी उन्हें ऐसा नेता नहीं मिल सकता जो समाज में उनका राजनीतिक आधिपत्य बना सके। 

 

मार्च 2025 में संघ हेडक्वार्टर पर मोदी की यात्रा इसी सुलह की दिशा में एक कदम बताया गया। समारोह को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा, 'सौ साल पहले बोए गए बीज आज एक वटवृक्ष बन गए हैं। लाखों स्वयंसेवक इसके तने और शाखाएं हैं। यह कोई साधारण वटवृक्ष नहीं है। यह भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और आधुनिकीकरण का प्रतीक है। यह राष्ट्रीय चेतना को ऊर्जा देता है।' नरेंद्र मोदी ने मोहन भागवत की भी तारीफ की और भागवत ने नरेंद्र मोदी की। 15 अगस्त 2025 को लाल किले की प्राचीर से भी नरेंद्र मोदी ने संघ के कार्यों की सराहना की।
 
मोहन भागवत का कहना है कि सरकार के साथ उनका अच्छा समन्वय रहा है और कोई झगड़ा नहीं है, हमें एक दूसरे पर विश्वास है। मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी दोनों ही 75 साल के हैं। दोनों का ही करियर लगभग समान गति से आगे बढ़ा है। 

RSS के 100 साल


 26 से 28 अगस्त 2025 तक दिल्ली में संघ के 100 वर्षों पर कार्यक्रम आयोजित हुआ। कार्यक्रम के आखिर में मोहन भागवत ने लोगों के सवालों के जवाब दिए। इस आयोजन के दौरान उम्मीद जताई जा रही थी कि संघ प्रमुख, अपने उत्तराधिकारी का एलान कर देंगे या प्रधानमंत्री पर ऐसा करने के लिए दबाव बनाएंगे क्योंकि दोनों ने ही इस साल महज 6 दिनों के अंतराल पर 75 साल की उम्र सीमा को पूरा किया है। 2014 के बाद से कई वरिष्ठ नेता इसी नियम के आधार पर सक्रिय राजनीति से रिटायर हुए। आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे शीर्ष नेता इसके उदाहरण हैं। यहां तक कि इसी साल जुलाई में मोहन भागवत ने कहा था कि जब कोई आपको 75 साल की उम्र में सम्मानित करे तो इसका मतलब होता है कि अब आपका समय पूरा हो गया है। अब आप हट जाएं और हमें काम करने दीजिए।

 

जब अपनी बारी आई तो भागवत ने ऐसा कुछ भी करने से साफ इनकार कर दिया। उनका कहना है कि उन्होंने कभी नहीं कहा कि 75 के बाद वह रिटायर हो जाएंगे या किसी और को ऐसा करने के लिए कहेंगे। यानी न तो नरेंद्र मोदी और ना ही मोहन भागवत फिलहाल रिटायरमेंट का प्लान बना रहे हैं बल्कि दोनों एक दूसरे के लिए रास्ता बना रहे हैं। संघ और बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के बीच यह लगभग तय हो गया है कि 2029 के चुनावहं में बीजेपी, फिर से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनावहं में उतरेगी। 100 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम के दौरान भागवत ने साफ कहा कि संघ, मोदी सरकार के कामकाज में दखल नहीं देता। संघ का काम शाखाएं चलाना और चरित्र निर्माण करना है। इन शाखाओं में तैयार हुए स्वयंसेवक बीजेपी और अन्य संगठनों में जाते हैं और नेतृत्व करते हैं। भागवत ने कहा कि बीजेपी के पास सरकार चलाने, अपने नेताओं की इच्छा के अनुसार जरूरी फैसले लेने की स्वतंत्रता और विशेषज्ञता है। 

 

भागवत के कार्यकाल को उदार बताया जा रहा है। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान कई बार मुस्लिम संगठनों के नेताओं के साथ बैठक की। उन्होंने अयोध्या में मंदिर निर्माण के बाद हिंदू संगठनों से हर मंदिर के नीचे शिवलिंग न ढूंढ़ने की अपील की थी। हालांकि उन्होंने काशी और मथुरा में विवाद पर सख्त रूख भी दिखाया। कहा कि संघ किसी आंदोलन में नहीं जुड़ेगा लेकिन स्वयंसेवक स्वतंत्र हैं। उन्होंने मुसलमानों से भाईचारा और सद्भाव बनाए रखने के लिए काशी और मथुरा से अपना दावा छोड़ने का आग्रह भी किया। 

 

भागवत, भारत को हिंदू राष्ट्र भी  बता चुके हैं और यहां रहने वाले सभी लोगों को हिंदू। भागवत का कहना है कि अविभाजित भारत में रहने वाले लोगों को प्राचीन काल से उनके पूर्वजों की समान परंपराएं जोड़ती हैं। उन्होंने कहा कि इस विशाल भूभाग में 40,000 वर्षों से रहने वाले सभी लोगों का DNA एक जैसा है। 

 

उन्होंने यह भी कहा कि 'हिंदू राष्ट्र' का मतलब किसी क्षेत्र या राजनीतिक शक्ति से नहीं है। इसका मतलब है बिना भेदभाव के सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करना। चाहे वह किसी भी धर्म, भाषा या विचारधारा का हो। उन्होंने स्पष्ट किया कि RSS का उद्देश्य भारत को 'विश्वगुरु' बनाना है और अब समय आ गया है कि देश विश्व को अपना योगदान दे। ये बातें भागवत ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम ‘100 साल की संघ यात्रा: नए क्षितिज’ में कही। भागवत के इन बयानों की तुलना जब आप संघ के शुरुआती प्रमुखों हेडगेवार और गोलवलकर से करेंगे तो जमीन-आसमान का अंतर देखने को मिलेगा। जिस भारत देश की अवधारणा को शुरुआती सरसंघचालकों ने खारिज कर दिया था, अब उसे संघ ने पूरी तरह से आत्मसात कर लिया है।

 

 कैसे काम करता है RSS?

 

तो यह रहा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का 100 सालों का सफर। आखिर में यह भी समझ लेते हैं कि यह संगठन काम कैसे करता है। संगठन में सर्वोच्च पद सरसंघचालक का होता है। फिलहाल मोहन भागवत सरसंघचालक हैं। सरसंघचालक का पद आजीवन होता है। इसके चुनाव की कोई स्पष्ट प्रक्रिया नहीं है। सरसंघचालक ही अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करता है। फिर सरकार्यवाह का पद होता है। संगठन का प्रमुख भले ही सरसंघचालक हो, सबसे ताकतवर पद सरकार्यवाह का होता है। सरकार्यवाह, संगठन का मुख्य कार्यकारी अधिकारी होता है। जिसके पास सारे फैसले लेने की शक्ति होती है। फिलहाल दत्तात्रेय होसबाले संघ के सरकार्यवाह हैं। सितंबर 2018 में एक कार्यक्रम के दौरान सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा था, 'मैं केवल गाइड, फ्रेंड, फिलॉस्फर हूं। मेरे पास कोई पॉवर नहीं है। संघ में सारी ताकत सरकार्यवाह के पास होती है। मेरा क्या है, मुझे अभी सरकार्यवाह बुलाएंगे तो फौरन मुझे जाना होगा। वह जो कहेंगे वह मुझे करना अनिवार्य है।' एक कार्यक्रम के दौरान सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा था कि इसके बाद सह-सरकार्यवाह आते हैं। जिनकी संख्या 4-5 होती है। 

 

संघ अपना कामकाज 5 विभागों के माध्यम से करता है। शारीरिक, संपर्क, प्रचार, बौद्धिक, व्यवस्था और सेवा। इन विभागों के प्रमुख और सह-प्रमुख होते हैं। इसके अलावा कार्यकारिणी के सदस्य होते हैं। जो संघ को चलाते हैं। इसके अलावा प्रचारक और विचारक भी होते हैं। जो संगठन का काम करते हैं। संघ ने अपने संगठन को पूरे देश में 46 प्रांतों में बांट रखा है। प्रांत के बाद विभाग, जिले और फिर खंड आते हैं। RSS  की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक इस वक्त देश में 60 हजार से अधिक शाखाएं हैं। 

 

शाखा, RSS का सबसे प्राथमिक ढांचा है। जो बेहद ही लोकल लेवल पर रोज आयोजित होती हैं। कुछ विशेष शाखाएं साप्ताहिक भी होती हैं। इनमें खेल-कूद, कसरत व्यायाम, बौद्धिक चर्चा और संस्कार प्रशिक्षण शामिल होता है। यह सामूहिकता और अनुशासन को बढ़ावा देता है। शाखा में आयोजित होने वाले खेलों और कसरतों के कई सारे वीडियोज भी वायरल होते हैं। जिसमें कभी लाठी चलाने की ट्रेनिंग तो कभी रस्सी कूद तो कभी दूसरे खेल होते हैं। कई बार इनका मजाक भी बनाया जाता है लेकिन संघ के स्वयंसेवक, अनुशासन को सर्वोपरि बताते हुए इससे विचलित नहीं होते। काफी समय तक संघ के गणवेश यानी यूनिफॉर्म का भी मजाक बनाया गया। जिसमें सफेद शर्ट, काली टोपी के साथ खाकी रंग का हॉफ पैंट हुआ करता था। मोहन भागवत ने समय के साथ बदलाव की मांग को स्वीकार करते हुए इसे बदलकर फुल पैंट कर दिया है।

 

शाखा में जो चीज सबसे यूनीक है वह है बराबरी का भाव और एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव। शाखा में सब बराबर होते हैं। चाहे वह कोई 8 साल का बाल स्वयंसेवक हो या फिर 80 साल के बुजुर्ग। वे किसी भी क्लास से आते हैं, बेरोजगार हों या बड़े अधिकारी। किसी भी जाति समूह से आते हों। स्वयंसेवक एक दूसरे को बराबर सम्मान देते हैं। नाम भी केवल उतना ही लिया जाता है जो जाति को न प्रदर्शित करता हो। जैसे राम जी भाई साहब, श्याम जी भाई साहब। स्वयंसेवक संघ में केवल पुरुषों को ही एंट्री मिलती है क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को शुरू से ही पुरुषों को अनुशासित स्वयंसेवक के तौर पर तैयार करने के लिए डिजाइन किया गया था और इस पर पितृसत्तात्मक और रुढ़िवादी सोच का पर्याप्त प्रभाव था। महिलाओं के लिए बाद में अलग से 1936 में राष्ट्र सेविका समिति बनाई गई। इसकी शुरुआत लक्ष्मीबाई केलकर ने की थी। जिन्हें मौसीजी के नाम से जाना जाता है। राष्ट्र सेविका समिति का मुख्यालय भी नागपुर में है और पूरे देश भर में करीब 2900 शाखाएं हें।  

BJP का साथ कैसे देता है संघ?


RSS भले ही खुद को गैर-राजनीतिक संगठन बताता हो लेकिन संघ और उसके अनुषांगिक संगठन अपने देशव्यापी नेटवर्क के जरिए भारतीय जनता पार्टी को संगठनात्मक, वैचारिक और चुनावी समर्थन देते हैं। यह साइलेंट कैम्पेन होता है। स्वयंसेवक घर-घर जाकर अलग-अलग मुद्दों पर अपने पक्ष में माहौल तैयार करते हैं। बूथ लेवल मैनेजमेंट से लेकर मुद्दों के ध्रुवीकरण तक में सक्रिय रहते हैं।  बड़े स्तर पर इसकी शुरुआत 80 के दशक में हुई जब बीजेपी ने राम मंदिर आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथों में लिया। राम मंदिर आंदोलन के नाम पर संघ और VHP ने हिंदू एकता की जो जमीन तैयार की थी, बीजेपी ने उसे वोट बैंक में तब्दील कर दिया। संघ और VHP बैकग्राउंड में थे। बीजेपी फ्रंट पर और फिर समय के साथ यह गठबंधन मजबूत ही होता गया। 

 

बीच-बीच में टकराव भी होते रहे। नाराजगी भी हुई। जिसका असर चुनावी नतीजों में भी दिखता रहा। बीजेपी के चुनावी प्रदर्शन के पीछे संघ परिवार का अदृश्य मेहनत ऐसा चस्पा हुआ कि जब नतीजे पक्ष में होते तो कहा जाता कि यह संघ की मेहनत है और हालात विपरीत होते तो कहा जाता है इस चुनाव में बीजेपी को संघ की नाराजगी का खामियाजा भुगतना पड़ा। 

 

2014 में प्रचंड बहुमत के साथ बीजेपी की सत्ता में वापसी हुई तो इसके पीछे बहुत सारी वजहों में से एक बड़ी वजह संघ परिवार की एकजुटता को भी बताया गया। अपने प्रचारक नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए संघ ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। जिसका परिणाम भी नतीजों में देखने को मिला। अपने 100 सालों की यात्रा में आज संघ जिस मुकाम पर है उसके पीछे वजह केवल सांप्रदायिक या राजनीतिक ध्रुवीकरण भर नहीं है। इसके पीछे उन तमाम क्षेत्रों तक, लोगों तक पहुंच भी है जो सदियों से हाशिये पर थे। छुआछूत, भेदभाव और स्वदेशी जागरण को लेकर संघ की ओर से तमाम सेवा अभियान चलाए गए। शिक्षा और सेवा संघ के दो ऐसे विभाग हैं, जो लोगों को संघ से जोड़ने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और यह सेवा केवल वह सेवा नहीं है जो किसी आपदा के समय हमें खाकी पैंट में करते स्वयंसेवक नजर आते हैं। बाढ़, दुर्घटना, या इस तरह के तमाम प्राकृतिक या मानवीकृत अवसरों पर संघ के स्वयंसेवक लोगों की सेवा करते तो नजर आते ही हैं, बड़ी संख्या में स्वयंसेवकों की पूर्णकालिक ड्यूटी सेवा कार्य में लगाई जाती है। जो सेवा भारती, शिक्षा भारती, वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठनों के लिए काम करते हैं।

 

80-90 के दशक में वनवासी कल्याण आश्रम के जरिए नॉर्थ ईस्ट के राज्यों पर फोकस बढ़ाया। जहां ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में आकर आदिवासी समुदाय में तेजी से धर्मांतरण हो रहा था।  यहां वनवासी कल्याण आश्रम ने स्कूल, कॉलेज, हॉस्टल, हॉस्पिटल, मेडिकल कैंप और स्पोर्ट्स सेंटर खोले। विवेकानंद केंद्र के तहत आवासीय स्कूलों की शुरुआत की। आदिवासियों के त्यौहारों में भागीदारी, छोटे-छोटे मंदिर बनाकर स्थानीय संस्कृति को हिंदुत्व से जोड़ा। परिणाम यह हुआ कि नॉर्थ ईस्ट के राज्यों में भी हिंदू एकता का विचार तेजी से मजबूत हुआ। जहां बड़ी संख्या में आदिवासियों का धर्मांतरण हो रहा था। संघ की जमीनी मेहनत का राजनीतिक प्रभाव भी देखने को मिला। 2016 में असम, 2017 में मणिपुर और 2018 में त्रिपुरा में बीजेपी की सरकार बनी। बाकी राज्यों में भी बीजेपी ने दूसरे दलों के साथ मिलकर गठबंधन की सरकार बनाई। 

आज नॉर्थ-ईस्ट के सातों राज्यों समेत पूरे देश भर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं का एक मजबूत नेटवर्क है और जब यह संगठन अपने 100 साल पूरे कर रहा है, पूरी मजबूती के साथ अपनी यात्रा के शीर्ष पर विराजमान है। 27 सितंबर 2025 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 साल पूरे हो गए।

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