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Vishal Mega Mart बनाकर बेचा, PM क्यों बनना चाहते हैं रामचंद्र अग्रवाल?

इन दिनों खूब चर्चा में चल रहे रामचंद्र अग्रवाल आगे चलकर प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। इस पद तक पहुंचने के पीछे उनका एक बेहद पुराना सपना भी है।

Ramchandra Agarwal

रामचंद्र अग्रवाल और उमा अग्रवाल, Photo Credit: Ramchandra Agarwal Instagram

एक ही सपना- विशाल मेगा मार्ट में सेक्योरिटी गार्ड की नौकरी हो अपना। सोशल मीडिया पर बीते दिनों इस मीम ने खूब सुर्खियां बटोरी, चर्चा भी हुई। आपने भी खूब देखा होगा लेकिन इस सपने की बात नहीं कर रहे हैं। हम उस शख्स की बात कर रहे हैं जिसने विशाल मेगा मार्ट का सपना देखा। वह शख्स जिसे 4 साल की उम्र में ही पोलियो हो गया, जो बिना सहारे के अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता उसने कैसे 6500 करोड़ की कंपनी खड़ी कर दी। कैसे उसने ना सिर्फ अपना सपना पूरा किया बल्कि लोवर मिडल क्लास से ताल्लुक रखने वाले लाखों लोगों को हाइपरमार्केट तक ले जाकर हाथ में ट्राली लेकर शॉपिंग करने का सपना भी पूरा किया। कैसे उसने कलकत्ता के एक 50 वर्ग फीट की दुकान से ऐसा बिजनेस शुरू किया जो 20 लाख वर्ग फीट तक फैल गया। 

 

एक शहर से निकलकर देश के 18 से भी ज्यादा राज्यों तक फैला। बात इसपर भी होगी कि अचानक से करोड़ों का मुनाफा कमाने वाली कंपनी कैसे मुनाफे से कई गुना ज्यादा घाटे में चली जाती है। कैसे लोगों को क्वालिटी ऑफ लाइफ देने वाले बिजनेसमैन दिवालिया हो जाते हैं? कैसे एक बार फिर से वह खड़े होते हैं और एक नई कपंनी खड़ी करते हैं। ना सिर्फ खड़ी करते हैं बल्कि उसका टर्नओवर भी करीब-करीब 2000 करोड़ तक पहुंचा देते हैं। 

 

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क्या है विशाल मेगा मार्ट और V2 को खड़ा करने वाले राम चंद्र अग्रवाल की पूरी कहानी, आइए जानते हैं।

 

साल 1965, कलकत्ता के एक लोवर मिडल क्लास ज्वाइंट फैमिली में राम चंद्र अग्रवाल का जन्म होता है। 650 वर्ग फीट के पूरे मकान में कुल 20 सदस्य रहते थे। परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि कभी-कभी घर का खर्च निकालना भी मुश्किल हो जाता था। बचपन से ही अलग प्रतिभा रखने वाले राम चंद्र की तबीयत 4 साल के उम्र के बाद बिगड़ने लगी। उन्हें चलने फिरने में तकलीफ होने लगी। डॉक्टर को जब दिखाया गया तो लगा कि इन्हें भी बड़े भाई के जैसे ही मेनिनजाइटिस की दिक्कत है। मेनिनजाइटिस एक तरह की गंभीर बीमारी होती है जिसमें दिमाग और रीढ़ की हड्डी को कवर करने वाली झिल्ली में सूजन आ जाती है। डॉक्टरों ने यही सोचकर इनका इलाज शुरू किया लेकिन मर्ज कुछ और ही निकला। नतीजतन 4 साल की उम्र के बाद से ही राम चंद्र का एक पैर पोलियो ग्रस्त हो गया और उनका जीवन अब बैसाखी के भरोसे चलने लगा। 

बचपन में ही खराब हो गए पैर

 

रामचंद्र की जिंदगी बैसाखी के भरोसे तो आ गई लेकिन वह अब भी कुछ अलग करने की चाह रखते थे। 17 साल की उम्र से ही उन्होंने डायरी लिखनी शुरू कर दी। डायरी में वह अपनी और अपने समाज की क्वालिटी ऑफ लाइफ को सुधारने की खूब सारी प्लानिंग किया करते थे। यह उनका सपना था कि वह लोगों की जिंदगी को बेहतर बना पाएं लेकिन किसी भी प्लानिंग को अमल में लाने के लिए सबसे जरूरी था पैसा। सो पैसों की दिक्कत को खत्म करने के लिए रामचंद्र ने पैसों का जुगाड़ करना शुरू कर दिया। बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। इसी से वह अपना खर्चा मैनेज किया करते थे लेकिन इससे काम नहीं चलने वाला था। सेंट जेवियर्स कॉलेज से कॉमर्स में ग्रेजुएशन करने के बाद, 1983-84 के अल्ले-पल्ले रामचंद्र ने लॉ कॉलेज में एडमिशन लिया और इसी के साथ उन्होंने नौकरी भी शुरू की। यह एक पार्ट टाइम जॉब थी- कोलकाता की रानी सती मेटल इंडस्ट्रीज़ में एक असिस्टेंट मैनेजर की। रामचंद्र सुबह 6 से 10 कालेज अटेंड करते थे फिर नौकरी करते थे। सैलरी मिलती थी महीने के 300 रुपये। 

 

 

नौकरी करते हुए रामचंद्र को यह ऐहसास हो गया कि नौकरी से तो कुछ खास नहीं हो सकता है। सो उन्होंने अब बिजनेस में उतरने का फैसला लिया। साल 1986 में महज 21 साल की उम्र में रामचंद्र ने कोलकाता के लाल बाजार के इलाके में एक दुकान किराए पर उठाई। दुकान केवल 50 वर्ग फीट की थी। माने एक घर में जितना बड़ा बाथरूम होता है लगभग उतना ही बड़ी। 

 

बहरहाल, दुकान तो किराए पर मिल गई लेकिन बिजनेस कौन सा किया जाए यह तय नहीं हो पाया था। सबसे पहले रामचंद्र ने उस दुकान में कोल्ड ड्रिंक बेचना शुरू किया लेकिन यह भी इतना आसान नहीं था, कोल्ड ड्रिंक को ठंडा करने के लिए फ्रिज चाहिए थी, उस वक्त यह एक लग्जरी प्रोडक्ट था, इसे खरीदना इतना भी आसान नहीं था। ऊपर से घर में इतने पैसे भी नहीं थे कि माल के साथ ही साथ फ्रिज में भी पैसे लगाए जाए। रामचंद्र ने इसका भी जुगाड़ निकाला। वह अपने घर पर रखे फ्रिज को दुकान ले लाए और कोल्ड ड्रिंक बेचना शुरू किया लेकिन यह बिजनेस चला नहीं। 

 

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रामचंद्र ने देखा कि उनके आस-पास कई सारे दफ्तर थे। उन्होंने सोचा अगर फोटोकॉपी का बिजनेस किया जाए तो शायद चल जाए पर यह धंधा भी ठीक नहीं चला। इसके बाद रामचंद्र ने इसी दुकान से फैब्रिक यानी बिना सिले हुए कपड़े बेचने शुरू किए लेकिन यह धंधा भी नहीं चला। यह वह दौर था जब रेडीमेड कपड़े यानी पहले से सिले हुए कपड़ों का चलन धीरे-धीरे बढ़ने लगा था। लोग तैयार कपड़े खरीदना पसंद करने लगे थे। सो इस बदलते दौर के हिसाब से रामचंद्र ने एक और बार अपना बिजनेस बदला।

काम कर गया आखिरी दांव

 

उसी दुकान से रामचंद्र ने एक आखिरी दांव चला। अब उन्होंने सिले हुए कपड़ों का धंधा शुरू किया। दुकान का नाम रखा- Vishal Garments लेकिन जिस घर का खर्चा ही मुश्किल से चलता हो वह रेडीमेड कपड़ों की दुकान में सामान भरने के लिए पैसे कहां से लाता। इसके लिए परिवार की थोड़ी-बहुत बचत और लोकल साहूकारों से 1 लाख रुपये कर्ज लिया था। अब तक 2-3 बिजनेस ठप हो चुके थे तो इस बार रामचंद्र ने पहले से भी ज्यादा मेहनत की। अपनी स्कूटर जिस पर दिव्यांगों के लिए 2 एक्सट्रा पहिए लगे होते हैं उसी से वह खुद माल खरीदने जाते और दुकान पर ला कर बेचते थे। शुरुआत में सेल कम ही थी लेकिन 90 के दशक तक कलकत्ता में उनकी दुकान का नाम चलने लगा था। 50 वर्ग फीट की एक दुकान अब 4 से 5 स्टोर्स में बदल चुकी थी। उन्होंने ब्रांडेड कपड़ों के बड़े-बड़े स्टॉक खरीदकर उसे डिस्काउंट पर बेचना शुरू किया। ज्यादा कपडे बेचने के लिए रामचंद्र को ज्यादा जगह की जरूरत महसूस होने लगी और छोटी-छोटी दुकानों से काम चलता नहीं। यहां रामचंद्र अग्रवाल ने एक तरकीब आजमाई। उन्होंने कपड़ों की प्रदर्शनी लगाना शुरू किया। प्रदर्शनी माने कपड़ों को खुले में हैंगर पर लगाकर रखना कि लोग उसे खुद ही देख पाएं, उसे दिखाने के लिए किसी एक कर्मचारी को न लगाना पड़े। इससे कम स्टाफ ज्यादा सेल कर पाता था। दुर्गा पूजा के वक्त खरीदारी के लिए भारी भीड़ उमड़ती थी। यह देखते हुए रामचंद्र ने एक बंद पड़े टाइगर सिनेमा हॉल को दुकान में बदल दिया। वहां अपने कपड़ों को लगाना शुरू किया और ज्यादा जगह की वजह से भारी भीड़ में आने वाले लोग आसानी से कपड़े खरीद भी रहे थे। 

 

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कपड़ों की ऐसी प्रदर्शनी लगाना उनके लिए एक अच्छा मार्केटिंग स्ट्रैटेजी साबित हुई। इसी दौरान सिंगापुर, बैंकॉक और यूरोप की यात्रा पर भी गए। एक बिजनेसमैन हर बिजनेस के बारे में ही सोचता है। रामचंद्र भी ऐसे ही थे। विदेश में जब उन्होंने हाइपर मार्केट सिस्टम को देखा तो उन्हें अपने भविष्य के बिज़नेस मॉडल का आइडिया मिल गया। हाइपर मार्केट माने एक ऐसी बड़ी दुकान जहां घरेलू किराना के सामानों के साथ ही साथ कपड़े-जूते और घर के सारे बर्तन फर्नीचर और इलेक्टानिक्स वगैरह-वगैरह।  अग्रवाल को समझ आया कि अगर बिज़नेस में बड़ा बनना है, तो बड़ी वॉल्यूम में सामान बेचना होगा  और उसके लिए हाइपर मार्केट ही सही रास्ता है। लोगों की क्वालिटी ऑफ लाइफ को सुधारने के उनके सपने को सार्थक करने का यह सबसे सटीक तरीका भी था। एक ऐसा बड़ा स्टोर खोलना जहां कपड़ों के साथ-साथ घर के सारे सामान मिल सकें और दाम इतना कम रखना कि मिडिल क्लास और लोवर मिडिल क्लास परिवार से ताल्लुक रखने वाले लोग भी मॉल में शॉपिंग का अनुभव ले पाएं। हुआ भी ऐसा ही। 

 

रीटेल स्टोर के अलावा रामचंद्र ने कलकत्ता में एक्वाटिका नाम से एक वाटर पार्क भी खोला। जो खूब चल भी रहा था। 90 के दशक तक तो सब ठीक था लेकिन नई सदी, नया दशक अग्रवाल के लिए ठीक नहीं रहा। यूनियन से जुड़ी कुछ ऐसी समस्याएं हुईं और साल 2001 में अग्रवाल को कोलकाता में अपनी सारी दुकानें बंद करनी पड़ीं। स्थिति इतनी बिगड़ गई कि उन्हें शहर ही छोड़ना पड़ा लेकिन राम चंद्र ने इससे हार नहीं मानी। नई सदी के साथ वह पूरे परिवार को लेकर दिल्ली आ गए। नए आइडियाज़ के साथ नया बिजनेस शुरू किया। नाम रखा Vishal Retail Private Limited। यह वही विशाल रीटेल था जो आगे चलकर विशाल मेगामार्ट बना। बहरहाल,  2003 में उन्होंने दिल्ली के राजौरी गार्डेन में अपना पहला हाइपर मार्केट खोला। देखते ही देखते यह हाइपरमार्केट उड़ान भरने लगा। फिर रामचंद्र गुड़गांव पहुंचे। 2003 में गुडगांव में पहली मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट डाली। अपने बिजनेस मॉडल के चलते उन्होंने रिलायंस और डी मार्ट जैसे हाइपर मार्केट को टक्कर देना शुरू कर दिया। 2007 में कपंनी ने अपनी IPO जारी किया और इसका वैल्यूएशन 2000 करोड़ के पार चला गया।

 

बेच क्यों दिया विशाल मेगामार्ट?
 
2007-8 तक विशाल मेगा मार्ट के18 राज्यों में 50 से भी ज्यादा स्टोर्स खुल लिए थे। उनका टारगेट Tier 2 और Tier 3 शहरों के लोग थे। जो कम दाम में अच्छे प्रोडक्ट्स एक ही छत के नीचे चाहते थे। उन्होंने दूसरी कंपनियों के साथ ही साथ अपनी खुद की मैनुफैक्चरींग भी शुरू की। मतलब अपनी ही फैक्ट्री में कपड़े बनाते और अपने ही स्टोर में उसे बेचा करते थे। इससे उनको और भी ज्यादा मुनाफा होने लगा था।  तेजी से बढ़ते इस बिजनेस को रामचंद्र ने और भी रफ्तार देने की कोशिश की लेकिन यह रफ्तार उनके लिए अच्छी नहीं रही बल्कि यही उनके बिजनेस का अंत करने वाला थी। स्टोर पर स्टोर खोले और एक के बाद एक फैक्ट्रियां खोलने लगे। इन सब के लिए बाजार से खूब सारा पैसा भी लेना पड़ा लेकिन एक साथ इतने स्टोर्स को मैनेज करना मुश्किल होने लगा। खर्चे बढ़ने लगे और आमदनी घटने लगी। ऊपर से साल 2008-09 की आर्थिक मंदी के बाद से ही रामचंद्र अग्रवाल का विशाल मेगा मार्ट घाटे में जाने लगा। घाटा भी छोटा मोटा नहीं। ऐसा जिसने उन्हें 900 करोड़ के कर्ज में ला दिया। रामचंद्र एक तरह से दिवालिया हो गए। अंतत: उन्होंने 2010-11 में अपनी कंपनी विशाल मेगामार्ट  को ही बेच दिया और सारे कर्ज चुकाए।  

 

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भले ही रामचंद्र ने विशाल मेगा मार्ट को बेच दिया लेकिन उनका बिजनेस प्लान अब भी उनके साथ था। उन्होंने उसी प्लान के साथ एक नई कंपनी खड़ी की। नाम दिया V2 रीटेल लिमिटेड। अपनी पिछली गलतियों से सीखते हुए उन्होंने इस बार ज्यादा फोकस्ड होकर अपना बिजनेस एक्पैंड किया। 2012 में झारखंड के जमशेदपुर में अपना पहला स्टोर खोला। बीते 13 सालों में रामचंद्र अग्रवाल के V2 ने देशभर के अलग-अलग राज्यों में 150 से भी ज्यादा स्टोर्स खोले। कंपनी की वैल्युएशन  4000 करोड़ की हो गई और तो और टर्नओवर भी  1900 करोड़ तक पहुंच गया है। बकौल रामचंद्र उन्होंने v2 से की हुई नई शुरुआत से विशाल मेगा मार्ट को भी पछाड़ दिया है।  6500 से भी ज्यादा कर्मचारियों को अपने स्टोर्स पर रोजगार दिया है और समाज के लोगों को क्वालिटी ऑफ लाइफ देने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। 

 

देश भर के Tier 2 और Tier 3 शहरों में रामचंद्र लगातार अपना बिजनेस बढ़ा रहे हैं। अब राम चंद्र अग्रवाल का ध्यान दक्षिण और पश्चिम भारत में मौजूदगी को मज़बूत करने पर है।  V2 की सफलता के पीछे एक बड़ी वजह उनकी लोकेशन सेलेक्शन भी है। छोटे शहरों पर फोकस करने के दो खास वजह या कह ले तो फायदे होते हैं।
 
- बड़े शहरों के मुकाबले छोटे शहरों में बड़े स्टोर्स (हाइपरमार्केट्स) से समाज में ज़्यादा असर डाला जा सकता है।
- छोटे शहरों में रहने वाले लोगों के लिए मॉडर्न रिटेल का अनुभव – जैसे खुद ट्रॉली लेकर आराम से घूमना और बिना किसी की दखलअंदाज़ी के सामान चुनना – एक नई और आकर्षक चीज़ है। 

 

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अब जब छोटे शहरों में लोगों की आमदनी और ख़र्च करने की क्षमता बढ़ रही है, तो इन जगहों से भी अच्छी कमाई होने लगी है।  सबसे बड़ी बात यह है कि इन शहरों में जमीन और दुकान का किराया (रियल एस्टेट कॉस्ट) मेट्रो शहरों की तुलना में काफी कम होता है। इससे दुकानों की लागत कम रहती है और ग्राहकों को भी सस्ती चीजें मिलती हैं। 

 

बिक्री के साथ जैसा कि रामचंद्र अपने सपने- क्वालिटी ऑफ लाइफ को सुधारने का हवाला देते हैं उसका ज्यादा असर भी इन्हीं इलाकों में देखने को मिलता है। बहरहाल, केवल बिजनेस ही नहीं बल्कि रामचंद्र का एक और सपना है, जिसे वह आने वाले समय में पूरा करने की बात करते हैं। बिजनेसमैन रामचंद्र देश का प्रधानमंत्री बनने का भी सपना देखते हैं। वह खुद की पॉलिटिकल पार्टी खड़ी करना चाहते हैं। वह चाहते हैं कि देश का प्रधानमंत्री बनकर वह लोगों की समस्याएं और समाज की क्वालिटी ऑफ लाइफ को और भी आसानी से बेहतर बना सकते हैं। 

 

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