हिंदू धर्म में शादियों का सीजन शुरू होने वाला है और इसमें कई लोग परंपराओं के अनुसार शादी के बंधन में बंध जाएंगे। दूल्हा बारात लेकर दूल्हन के घर जाएगा और अपनी दुल्हन को अपने घर लेकर आ जाएंगे। आमतौर पर हमारे समाज में सभी शादियां ऐसे ही होती हैं लेकिन उत्तराखंड के उत्तरकाशी में एक ऐसी शादी हुई है जिसमें दुल्हन दूल्हे के घर बारात लेकर पहुंची। दुल्हन के साथ करीब 100 लोग बारात में गए और शादी का गवाह बने। यह शादी जोजोड़ा विवाह परंपरा से हुई है, जो हिमाचल और उत्तराखंड की सीमा पर स्थित कई गावों में सालों से चली आ रही है।
 
स्थानीय लोगों का कहना है कि यह परंपरा लगभग 50 साल पहले खत्म हो चुकी थी लेकिन उत्तरकाशी के बंगाण क्षेत्र में फिर से इस परंपरा से शादी हुई। इस परंपरा को ग्रामीणों और शहर से आए कई लोग इस परंपरा के गवाह बने। उत्तरकाशी जिले के मोरी तहसील में आराकोट के कलीच गांव में इस परंपरा से फिर से एक शादी हुई है। कलीच गांव के पूर्व प्रधान कल्याण सिंह चौहान के बेटे मनोज चौहान की शादी इस परंपरा से हुई है। 
 
यह भी पढ़ें- बिहार की वह 8 विधानसभा सीटें, जहां बढ़ सकती हैं BJP प्रत्याशियों की मुश्किले
पुरानी परंपरा से हुई शादी
मनोज की शादी करीब 50 साल पहले लुप्त हो चुकी परंपरा से ही की गई। मनोज चौहान की दुल्हन जाकटा गांव के जनक सिंह की बेटी कविता हैं। कविता बारात लेकर मनोज के घर पहुंची थी। ढोल बाजे के साथ 100 से ज्यादा लोग कविता के साथ बारात में मनोज के घर पहुंचे। मनोज चौहान के परिवार ने भव्य तरीके से कविता और बारात का स्वागत किया। इसके बाद मनोज के घर पर ही दोनों शादी के बंधन में बंध गए। 
 
इस परंपरा के अनुसार, इन गावों में दुल्हन फेरे और जयमाला से पहले ही दूल्हे की गैरमौजूदगी में अपने मायके से विदा होती है। दुल्हन अपने साथ बारात लेकर दूल्हे के घर जाती है। बारात में दुल्हन के साथ एक दो मेहमान नहीं बल्कि परिवार के कई करीबी लोग जाते हैं। लड़के वाले भव्य तरीके से दुल्हन का स्वागत करते हैं। इसके बाद दूल्हे के घर पर ही शादी की रस्में की जाती हैं। 
क्या है जोजोड़ा विवाह परंपरा?
इन गावों में विवाह की इस परंपरा को जोजोड़ा विवाह कहा जाता है। इसका मतलब है वह जोड़ी जिसे भगवान खुद बनाते हैं। इस परंपरा के अनुसार, दुल्हन के साथ बारात में जाने वाले बारातियों को जोजोड़िये कहा जाता है। इस परंपरा के पीछे एक खास मकसद है। लोगों का मानना है कि इस परंपरा की शुरुआत इसलिए हुई ताकि बेटी के पिता पर बारात को रोकने और उनकी सेवा को बोझ न पड़े। ऐसी शादी में लड़की के पिता पर आर्थिब बोझ नहीं पड़ता है। यह परंपरा हिमाचल और उत्तराखंड सीमा पर स्थित इलाके में बहुत प्रचलित थी। यह परंपरा काफी गांवों से खत्म हो गई लेकिन कुछ ऐसे गांव भी हैं जहां आज भी इस परंपरा से शादियां होती हैं। 
 
यह भी पढ़ें-- जितनी अडानी की नेटवर्थ, उतना 45 दिन में शादियों पर उड़ा देते हैं भारतीय
इलाके में प्रचलित थी यह परंपरा
यह परंपरा उत्तराखंड और हिमाचल सीमा की पहाड़ियों पर स्थित कई गांवों में प्रचलित थी। करीब पांच दशक पहले यह परंपरा प्रचलन से बाहर हो गई लेकिन कुछ गांवों ने इस परंपरा को जीवित रखा। उत्तरकाशी जिले की मोरी तहसील में आराकोट और इससे लगता हुआ बाबर, जौनसार का चकराता, देहरादून का क्षेत्र और हिमाचल बॉर्डर क्षेत्र में इस तरह की परंपरा अभी भी चली आ रही है। इस परंपरा से लड़की के परिवर पर आर्थिक बोझ नहीं पड़ता था।