ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर, जिसे मंदिरों का शहर भी कहा जाता है, वहां स्थित लिंगराज मंदिर सिर्फ पूजा-अर्चना का स्थल नहीं, बल्कि भारत की धार्मिक एकता और स्थापत्य वैभव का अद्भुत प्रतीक है। ग्यारहवीं शताब्दी में निर्मित यह विशाल शिव मंदिर आज भी हजारों वर्षों पुरानी कलिंग स्थापत्य कला की जीवंत मिसाल बना हुआ है। भक्तों का विश्वास है कि यहां भगवान लिंगराज हरिहर रूप में विद्यमान हैं, यानी भगवान शिव और विष्णु दोनों की शक्ति इस लिंग में समाहित है। 

 

यह मंदिर ओडिशा के धार्मिक और सांस्कृतिक गौरव का केंद्र है, जहां हर रोज हजारों श्रद्धालु दर्शन के लिए उमड़ते हैं और महाशिवरात्रि के अवसर पर यह आस्था का सागर बन जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब भगवान शिव काशी से एक शांत और पवित्र स्थान की खोज में निकले, तब उन्होंने भुवनेश्वर को अपना स्थायी निवास बनाया और यहां लिंग रूप में प्रकट हुए।

 

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लिंगराज मंदिर की विशेषता

भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर ओडिशा की प्राचीन कलिंग स्थापत्य कला का सबसे भव्य उदाहरण माना जाता है। यह मंदिर भगवान हरिहर को समर्पित है, जो भगवान शिव (हर) और भगवान विष्णु (हरि) दोनों के मिलन रूप माने जाते हैं। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां शिवलिंग में स्वयं भगवान विष्णु की ऊर्जा का वास माना गया है। यह मंदिर 11वीं शताब्दी में सोमवंशी राजा ययाति केशरी ने बनवाया था और लगभग 180 फीट ऊंचा मुख्य शिखर इसकी भव्यता को और बढ़ाता है।

 

मंदिर परिसर में लगभग 150 छोटे-छोटे मंदिर बने हैं, जो भगवान शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, विष्णु, सूर्य और चंद्र जैसे देवताओं को समर्पित हैं। यह मंदिर भुवनेश्वर के सबसे प्राचीन और प्रमुख मंदिरों में से एक है, जो आज भी जीवंत पूजा स्थल है।

 

मंदिर की धार्मिक मान्यता

लिंगराज मंदिर को एकीकरण का प्रतीक माना जाता है, यानी यहां भगवान शिव और विष्णु की उपासना एक साथ की जाती है। भक्तों का मानना है कि यहां आने से व्यक्ति के पाप नष्ट होते हैं, मोक्ष की प्राप्ति होती है और जीवन के सभी दुखों का अंत होता है। यह भी माना जाता है कि लिंगराज मंदिर का जल (जिसे ‘बिंदुसागर’ कहा जाता है) में स्नान करने से सभी रोग और पाप दूर हो जाते हैं।

 

महाशिवरात्रि के दिन यहां लाखों श्रद्धालु आते हैं। इस दिन भगवान लिंगराज की भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है और रात भर भगवान शिव की आराधना होती है।

 

लिंगराज मंदिर से जुड़ी पौराणिक कथा

पौराणिक मान्यता के अनुसार, भगवान शिव स्वयं काशी छोड़कर एक सुंदर स्थान की खोज में निकले थे और वह अंत में एक कटक वन (अब भुवनेश्वर) में आए। यहां उन्हें बहुत शांति और दिव्यता का अनुभव हुआ, इसलिए उन्होंने लिंगा रूप में यहां निवास करने का निर्णय लिया। यह स्थान बाद में एकेश्वर (एकमात्र ईश्वर) के रूप में प्रसिद्ध हुआ, जो कालांतर में 'लिंगराज' नाम से जाना गया।

 

एक अन्य कथा के अनुसार, जब भगवान विष्णु ने हिरण्यकश्यप का वध किया, तब भगवान शिव और विष्णु दोनों की शक्तियों का मिलन इस स्थान पर हुआ, जिससे हरिहर लिंग की उत्पत्ति हुई। इसलिए यह मंदिर दोनों देवताओं के एकत्व का प्रतीक माना जाता है।

मंदिर से जुड़ी मान्यता और आस्था

यह मंदिर सिर्फ धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक एकता का प्रतीक भी है। यहां आने वाले श्रद्धालु मानते हैं कि लिंगराज मंदिर में दर्शन करने से जीवन के सभी क्लेश दूर होते हैं और भगवान लिंगराज की कृपा से शांति, स्वास्थ्य और समृद्धि प्राप्त होती है।

 

यह भी कहा जाता है कि जो भक्त भुवनेश्वर में लिंगराज के दर्शन के बाद पुरी जाकर जगन्नाथ का दर्शन करते हैं, उन्हें विशेष पुण्य प्राप्त होता है।

लिंगराज मंदिर तक पहुंचने का रास्ता

  • स्थान: मंदिर ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर के केंद्र में स्थित है।
  • नजदीकी रेलवे स्टेशन: भुवनेश्वर रेलवे स्टेशन लगभग 4 किलोमीटर दूर।
  • नजदीकी एयरपोर्ट: भुवनेश्वर बीजू पटनायक अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा मंदिर से लगभग 3 किलोमीटर दूरी पर है।
  • सड़क मार्ग: मंदिर तक शहर के किसी भी हिस्से से ऑटो, टैक्सी या बस से आसानी से पहुंचा जा सकता है।
  • मंदिर के पास ही बिंदुसागर झील, मुकेश्वर मंदिर, और राजारानी मंदिर जैसे अन्य प्रसिद्ध तीर्थ स्थल भी हैं।