साल था 12 ईसा पूर्व। रोम शहर की गलियों में एक आदमी अपनी पूर्व पत्नी को देखता है। वे एक-दूसरे से नज़रें मिलाते हैं और उस आदमी की आंखों में आंसू भर आते हैं। वह उसे आज भी बेपनाह मोहब्बत करता है, वह रोने लगता है। यह कोई आम आदमी नहीं था। यह था तिबेरियस, रोम के महान सम्राट ऑगस्टस का सौतेला बेटा और होने वाला सम्राट और वह औरत थी विप्सानिया, उसकी पहली पत्नी, जिसे वह दुनिया में सबसे ज़्यादा चाहता था। उनका एक बच्चा भी था। उनकी ज़िंदगी ख़ुशहाल थी लेकिन सम्राट ऑगस्टस को एक सियासी डील करनी थी। उसे अपनी बेटी जूलिया के लिए एक ताक़तवर पति चाहिए था और तिबेरियस से ज़्यादा ताक़तवर कौन होता?
सम्राट ने हुक्म सुनाया। तिबेरियस को अपनी प्यारी पत्नी विप्सानिया को तलाक़ देना होगा और उसकी जगह जूलिया से शादी करनी होगी। तिबेरियस का दिल टूट गया लेकिन सम्राट के हुक्म के आगे किसी की नहीं चलती। शादी हो गई। इतिहासकार लिखते हैं कि उस दिन के बाद, जब भी तिबेरियस की नज़रें अपनी पहली पत्नी पर पड़तीं, वह फूट-फूटकर रोने लगता। यह देखकर, सम्राट ऑगस्टस ने ऐसा इंतज़ाम किया कि वह दोनों फिर कभी एक-दूसरे के सामने ना आ सकें। यह कोई अनोखी कहानी नहीं है।
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हज़ारों सालों तक, दुनिया ऐसे ही चलती थी। यह अपवाद नहीं, नियम था। शादी का प्यार से कोई लेना-देना नहीं था। असल में प्यार को एक अच्छी शादी के लिए ख़तरा माना जाता था। एक ऐसी जंगली आग जो बसे-बसाए साम्राज्यों को, समाज के नियमों को और परिवार की इज़्ज़त को जलाकर राख कर सकती थी। प्यार को क़ाबू में रखना ज़रूरी था। फिर यह सब शुरू कैसे हुआ? अगर शादी प्यार के लिए नहीं बनी थी तो फिर क्यों बनी? वह कौन सी मजबूरी थी? वह कौन सी वजह थी, जिसने इंसान को एक ऐसे बंधन में बांध दिया जिसे आज हम ‘शादी’ कहते हैं? अलिफ लैला की इस कड़ी में हम जानेंगे कि इंसान ने शादी करना कब शुरू की और क्यों?
शादी से पहले बच्चा
आज से लगभग 70,000 साल पहले। कल्पना कीजिए। ना कोई शहर है, ना कोई गांव। सिर्फ़ घने जंगल, विशाल मैदान, और नदियां। इस दुनिया में हम इंसान, यानी होमो सेपियंस, 20-50 लोगों के छोटे-छोटे ग्रुप्स में रहते थे। ज़िंदगी का एक ही मक़सद था- ज़िंदा रहना।
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हमारा कोई एक ठिकाना नहीं था। हम घुमंतू थे। जहां शिकार मिला, जहां खाने लायक फल-फूल मिले, वहीं हमारा बसेरा हो जाता। ऐसे में परिवार कैसा होता होगा? पति, पत्नी, बच्चे? इसका जवाब आपको चौंका सकता है। आज की न्यूक्लियर फ़ैमिली का उस दुनिया में कोई वजूद नहीं था। इतिहासकार युवाल नोआ हरारी अपनी किताब 'सेपियंस'में इसे Ancient Commune कहते हैं। यानी एक ऐसा समाज जहां सब कुछ साझा था। शिकार, खाना और यहां तक कि बच्चे भी।
एक बच्चे की परवरिश सिर्फ़ उसकी मां नहीं करती थी, बल्कि क़बीले की सभी औरतें मिलकर उसे पालती थीं। कोई एक पुरुष उसका पिता नहीं कहलाता था, क़बीले के सभी पुरुष उसके रक्षक थे। यह सिस्टम सुनने में अजीब लग सकता है लेकिन इसके पीछे एक बड़ी बायोलॉजिकल वजह थी- इंसान का बच्चा।
जानवरों के बच्चे कुछ ही घंटों या हफ़्तों में आत्मनिर्भर हो जाते हैं लेकिन इंसान का बच्चा सालों तक पूरी तरह असहाय होता है। एक मां के लिए अकेले एक बच्चे को इतने सालों तक पालना लगभग नामुमकिन था। इसी मजबूरी ने एक 'जोड़े' के रिश्ते को जन्म दिया। एक पुरुष और एक महिला कुछ वक़्त के लिए साथ रहते। पुरुष शिकार लाता, महिला बच्चे की देखभाल करती। यह एक टीमवर्क था लेकिन यह 'शादी' नहीं थी। यहां कोई रस्में या क़समें नहीं थीं। यह एक अनौपचारिक, अस्थायी व्यवस्था थी। इस सिस्टम में एक और बड़ी प्रॉब्लम थी- 'Problem of Paternity'। यानी, एक पुरुष कभी भी 100% यकीन से नहीं कह सकता था कि क़बीले का कौन सा बच्चा उसका है तो समाज ने इसका हल निकाला। उन्होंने इस सवाल को ही गैर-ज़रूरी बना दिया। जब कोई एक बच्चा किसी एक आदमी का है ही नहीं, वह पूरे क़बीले का है, तो फिर जलन कैसी? हज़ारों सालों तक इंसान इसी कामयाब व्यवस्था में जिया लेकिन फिर एक खोज ने इस पूरी व्यवस्था को हमेशा के लिए बदलकर रख दिया।
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ज़मीन, जायदाद और ज़रूरत
वह खोज थी- खेती। लगभग 10,000 साल पहले, इंसान ने बीज बोना और फ़सल उगाना सीख लिया। इतिहास की किताबों में इसे इंसानियत की सबसे बड़ी छलांग बताया जाता है लेकिन युवाल नोआ हरारी इसे 'इतिहास का सबसे बड़ा धोखा' कहते हैं। धोखा क्यों? क्योंकि खेती ने इंसान की ज़िंदगी को आसान नहीं बल्कि और मुश्किल बना दिया। शिकारी-समूहों का जीवन कहीं ज़्यादा आरामदेह था। वह दिन में कुछ घंटे काम करते, तरह-तरह का भोजन करते और आज़ाद घूमते थे लेकिन किसान? उसे सुबह से शाम तक, कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती थी। जोतना, बोना, सींचना, काटना और बदले में उसे मिलता क्या था? गेहूं, चावल या मक्के पर टिकी एक बोरिंग डाइट। बीमारियां ज़्यादा थीं और मेहनत भी।
फिर इंसान इस जाल में फंसा क्यों? एक वजह से। खेती से आबादी बढ़ी। बहुत ज़्यादा बढ़ी। शिकार पर जीने वाला एक छोटा सा क़बीला जिस ज़मीन पर मुश्किल से गुज़ारा करता था, उसी ज़मीन पर खेती करके एक पूरा गांव पल सकता था और यहीं से सब कुछ बदल गया। इंसान की हज़ारों साल पुरानी घुमंतू ज़िंदगी खत्म हो गई। उसने घर बनाए, गांव बसाए और इंसान के जीवन में पहली बार एक नए और शक्तिशाली विचार का जन्म हुआ- 'निजी संपत्ति'। 'मेरा' और 'तेरा'। एक शिकारी के पास ज़्यादा कुछ नहीं होता था लेकिन एक किसान के पास ज़मीन थी, घर था, अनाज था, मवेशी थे। ये सब उसकी अपनी मेहनत की कमाई थी और इसी 'मेरी संपत्ति' के विचार ने एक ऐसे सवाल को जन्म दिया, जिसने दुनिया बदल दी: 'मेरे मरने के बाद, मेरी इस संपत्ति का क्या होगा?'
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वह इसे किसी को सौंपकर जाना चाहता था। लेकिन किसे? अपने बेटे को? पर कौन सा बेटा? किस औरत से पैदा हुआ बेटा? उसे अब एक ‘गारंटी’ चाहिए थी। एक पुख्ता सबूत कि जो बच्चा उसकी संपत्ति का वारिस बनेगा, वह उसी के खून का है। इसी गारंटी की ज़रूरत ने शादी को जन्म दिया। इतिहासकार स्टेफ़नी कून्ट्ज़ अपनी किताब 'मैरिज, अ हिस्ट्री' में लिखती हैं कि शादी का आविष्कार प्यार के लिए नहीं, बल्कि यह तय करने के लिए हुआ था कि किसकी संपत्ति किसको मिलेगी। शादी एक था। एक सार्वजनिक घोषणा कि यह महिला अब इस पुरुष की है और इस रिश्ते से पैदा होने वाले बच्चे ही इस पुरुष के 'जायज़'वारिस होंगे।
इस नई व्यवस्था ने औरतों की ज़िंदगी को हमेशा के लिए बदल दिया। उसकी सबसे बड़ी क़ीमत उसकी कोख बन गई। उसकी दुनिया जंगल की आज़ादी से सिमटकर घर की चारदीवारी में क़ैद हो गई। शादी, अपनी शुरुआत में, एक आर्थिक व्यवस्था थी। इसका मक़सद था संपत्ति को कंट्रोल करना और एक बार जब इंसान को यह पता चल गया कि शादी से ज़मीन और जायदाद को कंट्रोल किया जा सकता है तो उसे य समझने में देर नहीं लगी कि इससे इंसानों और सल्तनतों को भी कंट्रोल किया जा सकता है।
एक सियासी सौदा
इंसान को एक नया हथियार मिल गया था। एक ऐसा हथियार जो तलवार से ज़्यादा धारदार था - शादी। अब यह सिर्फ़ परिवारों को नहीं, सल्तनतों को कंट्रोल कर सकती थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमें अपनी ही धरती पर मिलता है। आज से लगभग 2300 साल पहले, सिकंदर के जनरल सेल्यूकस निकेटर ने भारत पर हमला किया। उसका सामना हुआ सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य से। जंग के बाद सेल्यूकस ने अपनी बेटी हेलेना की शादी चंद्रगुप्त से कर दी। यह सिर्फ़ दो लोगों का रिश्ता नहीं, दो साम्राज्यों के बीच एक सौदा था। इस एक शादी के बदले में सेल्यूकस ने आज के अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान का एक बड़ा इलाका मौर्य साम्राज्य को सौंप दिया। एक शादी और सरहदें बदल गईं। दुश्मन, रिश्तेदार बन गए।
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आम लोगों के लिए भी शादी एक सौदा ही थी। एक किसान को पत्नी चाहिए थी लेकिन रोमांस के लिए नहीं। उसे एक जोड़ी हाथ चाहिए थे जो घर और खेत का काम संभाल सके और बच्चे पैदा कर सके। एक औरत को पति चाहिए था सुरक्षा और एक छत के लिए। शादी का एक और बड़ा फ़ायदा था- रिश्तेदारी का नेटवर्क। जब दो लोगों की शादी होती थी तो सिर्फ़ वे नहीं जुड़ते थे। उनके पूरे परिवार, पूरे कुनबे आपस में जुड़ जाते थे। आपका ससुराल पक्ष। वे सिर्फ़ रिश्तेदार नहीं थे। वे आपका सुरक्षा कवच थे। फ़सल ख़राब हो गई? आपके ससुर आपकी मदद करेंगे। किसी पड़ोसी से झगड़ा हो गया? आपके साले आपके साथ खड़े होंगे। बीमार पड़ गए? आपकी सास घर आकर बच्चों को संभालेगी। शादी आपका सोशल इंश्योरेंस थी। तो हज़ारों सालों तक, महल से लेकर झोपड़ी तक, शादी का सिर्फ़ एक मतलब था - एक प्रैक्टिकल समझौता। प्यार, मोहब्बत, दिल। ये शब्द शादी की डिक्शनरी में थे ही नहीं। असल में प्यार को शादी के लिए एक ख़तरा माना जाता था।
दिल की क्रांति
प्यार, मोहब्बत, इश्क़। ये जज़्बात हमेशा से थे लेकिन हज़ारों सालों तक, इन्हें शादी के दरवाज़े के बाहर ही रखा गया। प्यार एक दुर्लभ, एक अनोखी घटना थी और क्योंकि यह इतना दुर्लभ था इसीलिए जब भी यह होता था तो एक कहानी बन जाता था। हम हीर-रांझा, लैला-मजनूं, रोमियो-जूलियट की कहानियां क्यों याद रखते हैं? इसलिए नहीं कि उनके ज़माने में सब लोग प्यार करते थे। बल्कि इसलिए क्योंकि कोई नहीं करता था। ये सारी प्रेम कहानियां असल में 'ट्रेजेडी' हैं। इनका अंत दुखद हुआ क्योंकि इन किरदारों ने अपने समाज के सबसे बड़े नियम को तोड़ा था। उनकी कहानियां एक चेतावनी थीं कि अगर दिल के पीछे भागोगे तो बर्बाद हो जाओगे।
फिर यह बदलाव आया कैसे?
यह क्रांति 18वीं और 19वीं सदी में यूरोप से शुरू हुई। नए विचारकों ने पहली बार 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता' और 'व्यक्तिगत खुशी' की बात की। यह एक क्रांतिकारी विचार था। इसी सोच को हवा दी औद्योगिक क्रांति ने। लोग अब सिर्फ़ बाप-दादा की ज़मीन पर निर्भर नहीं थे। वह शहरों में जाकर फ़ैक्ट्रियों में काम करके अपनी तनख़्वाह ख़ुद कमा सकते थे। जब एक नौजवान की जेब में अपना पैसा होता है तो उसमें अपने फ़ैसले ख़ुद लेने की हिम्मत आ जाती है। इस आग को हवा देने में और आविष्कार ने बड़ी भूमिका निभाई।
प्रिंटिंग प्रेस और उससे छपने वाले उपन्यास। पहली बार, आम लोगों के हाथ में कहानियां थीं। प्यार की, रोमांस की, बगावत की। लोगों ने इन कहानियों को पढ़ा और अपनी ज़िंदगी में भी वैसा ही प्यार ढूंढने का ख़्वाब देखने लगे। ये एक पीढ़ीगत संघर्ष था। पुरानी पीढ़ी कहती - 'शादी एक ज़िम्मेदारी है।' नई पीढ़ी कहती- 'नहीं! शादी प्यार का इज़हार है।'
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धीरे-धीरे, दशकों के संघर्ष के बाद, यह विचार समाज में अपनी जगह बनाने लगा। 20वीं सदी आते-आते, प्यार अब शादी का एक ऑप्शन नहीं रहा। वह शादी की सबसे बड़ी और शायद इकलौती वजह बन गया लेकिन जब प्यार ने शादी को जीत लिया तो क्या सब कुछ परफेक्ट हो गया या इस जीत ने कुछ नई और पहले से भी ज़्यादा उलझनें पैदा कर दीं?
आज की शादी
इतिहासकार स्टेफ़नी कून्ट्ज़ लिखती हैं, प्यार ने शादी को पहले से कहीं ज़्यादा मुश्किल और नाज़ुक बना दिया। क्यों? क्योंकि जब शादी एक सौदा थी, तो उसकी शर्तें साफ़ थीं। उम्मीदें ज़्यादा नहीं थीं। लेकिन आज? आज हमने एक ही इंसान पर उम्मीदों का पूरा पहाड़ लाद दिया है। आज हम चाहते हैं कि हमारा जीवन-साथी हमारा सबसे अच्छा दोस्त हो, सबसे जुनूनी प्रेमी हो, हमारा सपोर्टर हो, बराबर का आर्थिक भागीदार हो और हमारा पर्सनल थेरेपिस्ट भी हो। हमने एक ही इंसान से एक पूरे गांव का काम करने की उम्मीद लगा रखी है। यह एक ऐसा बोझ है जो इतिहास में किसी भी शादी ने नहीं उठाया।
इसी उम्मीदों के बोझ के ऊपर, 20वीं सदी में औरतों की दुनिया में एक बड़ी क्रांति हुई। बराबरी की मांग, शिक्षा और आर्थिक आज़ादी। औरतें घरों से बाहर निकलीं लेकिन दिक्कत यह हुई कि औरतें तो बदल गईं पर शादी का सिस्टम ज्यों का त्यों रहा। समाज आज भी औरत से उम्मीद करता है कि वह नौकरी करने के साथ-साथ घर की पूरी ज़िम्मेदारी भी उठाएगी। इस दोहरी मार ने औरतों पर बोझ बढ़ाया और रिश्तों में टकराव पैदा किया।
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यहीं से तलाक़ की भूमिका बदलती है। आज बढ़ती तलाक़ की दरें देखकर लोग कहते हैं कि शादी की संस्था कमज़ोर हो रही है लेकिन यह आधा सच है। तलाक़ इस बात का सबूत है कि लोग एक दुखी और बिना प्यार की शादी को अब और बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं और तलाक़ अपने आप में कोई दिक्कत नहीं है। अगर हम शादी की शुरुआत को समझें तो यह हमेशा से एक कॉन्ट्रैक्ट रहा है। एक समझौता। यह कोई बंधुआ मज़दूरी नहीं है कि चाहे कुछ भी हो, आपको ज़िंदगी भर एक ही इंसान के साथ बितानी है। अगर कॉन्ट्रैक्ट की शर्तें, जो आज प्यार, सम्मान और बराबरी हैं, पूरी नहीं हो रहीं, तो उस कॉन्ट्रैक्ट से बाहर निकलना कोई असफलता नहीं है। यह एक अधिकार है।
और अब 21वीं सदी में हम शादी के इतिहास में एक और नया और शायद सबसे क्रांतिकारी मोड़ देख रहे हैं। नई पीढ़ी के बीच एक 'एंटी-मैरिज' सोच की लहर चल पड़ी है। वह शादी की पूरी परंपरा पर ही सवाल उठा रहे हैं। लोग पूछ रहे हैं कि प्यार और साथ के लिए किसी सरकारी या सामाजिक स्टाम्प की ज़रूरत ही क्यों है? कई युवा आज अपने करियर, अपनी आज़ादी और अपनी पर्सनल ग्रोथ को शादी के पारंपरिक बंधन से ज़्यादा ज़रूरी समझ रहे हैं। वह पार्टनरशिप में यक़ीन रखते हैं लेकिन उस पर 'शादी' का लेबल लगाना ज़रूरी नहीं समझते। तो क्या यह शादी का अंत है? या यह बस उसके बदलने का एक और नया तरीक़ा है?
शादी के हज़ारों साल के सफ़र से हम कोई एक बात सीख सकते हैं, तो वह यह है- शादी कोई पत्थर की लकीर नहीं है। यह हमेशा समाज की ज़रूरतों के हिसाब से ख़ुद को ढालती आई है और आगे भी ऐसा ही होगा।
