सुशील मोदी क़िस्सा सुनाया करते थे। गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन अपने चरम पर था। विधानसभा भंग हो चुकी थी। चिमनभाई पटेल की सरकार गिर चुकी थी क्योंकि कांग्रेस के 90 विधायकों ने इस्तीफ़ा दे दिया था। ये विधायक सूबे में चल रहे छात्रों के आंदोलन में शामिल हो चुके थे। यह छात्रों की जीत से कम नहीं था और जीत की गूंज 1800 किलोमीटर दूर बिहार तक पहुंच रहा था। इसी गूंज में बिहार के छात्रों ने आवाज़ मिलाई और एक नारा दिया-
गुजरात की जीत हमारी है
अब बिहार की बारी है
आखिरकार 1974 के मार्च महीने में बिहार की बारी आई। पटना में छात्र एकजुट हो गए। आह्वान किया कि विधानसभा में राज्यपाल रामचंद्र धोडिंबा भंडारे का अभिभाषण नहीं होने देंगे। छात्रों का एक प्रतिनिधि मंडल राज्यपाल से मिला। अपील की कि विधानसभा में भाषण ना दें लेकिन राज्यपाल माने नहीं। उल्टे तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर ने आंदोलन को पुलिसिया जूतों के तले रौंद देने का मन बना लिया। 18 मार्च की तय तारीख़ आई। विधानसभा में राज्यपाल भाषण देने वाले थे। उधर पटना यूनिवर्सिटी से छात्र नेताओं का जत्था विधानसभा घेराव के लिए आगे बढ़ गया। मुख्यमंत्री के आदेश पर छात्र नेताओं की आव-भगत के लिए बैरिकेडिंग और पुलिस का घेरा तैयार था। हज़ारों छात्रों की भीड़ विधानसभा के बाहर पहुंच गई और फिर वही हुआ जिसका आदेश था। लाठियां चलीं। छात्रों को पीटा गया और देखते ही देखते पुलिस ने फायरिंग कर दी। 8 छात्रों की गोली लगने से मौत हो गई। हिंसा का जवाब हिंसा से ही मिलना था। पटना में जगह-जगह आगजनी शुरू हो गई। प्रदीप और सर्चलाइट अख़बार के दफ़्तर आग के हवाले कर दिए गए। आग की लपटें ऐसी उठीं कि उसकी जद में पूरा बिहार आ गया।
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छात्रों के आंदोलन ने मचाया हंगामा
छात्रों का आंदोलन अब सिर्फ छात्रों का नहीं रह गया था। बल्कि गैर-कांग्रेसी पार्टियों का आंदोलन बन गया था। अव्वल तो उन दिनों पटना यूनिवर्सिटी के छात्र संघ अध्यक्ष रहे लालू प्रसाद यादव ने पटना के गांधी मैदान में बयान दिया, 'हमारा आंदोलन नेताओं के हाथ नहीं लगना चाहिए।' लेकिन पलटकर कर्पूरी ठाकुर ने कह दिया, 'आंदोलन किसी के बाप का नहीं होता। आंदोलन में कोई भी भाग ले सकता है।' कर्पूरी ने जो कहा वही हुआ। सिनेमा हॉल के टिकट, कैंटीन में खाने की क़ीमत और बस का किराया बढ़ने जैसे मुद्दों पर शुरू हुआ आंदोलन कांग्रेस की सत्ता उखाड़ फेंकने का आंदोलन बन गया लेकिन लालू प्रसाद यादव को भी कहां ही मालूम था कि यह आंदोलन उनके हाथ से निकल जाएगा और ऐसा निकलेगा कि उसे कंट्रोल करने के लिए एक समाजवादी बरगद की ओट लेनी पड़ेगी। यह कोई और नहीं बल्कि जयप्रकाश नारायण थे। जेपी उन दिनों बीमार चल रहे थे। 18 मार्च के दिन ही छात्र नेताओं का एक गुट जेपी के कदमकुआं आवास पर पहुंचा। अर्जी लगाई कि आंदोलन की बागडोर अपने हाथ में ले लें क्योंकि आंदोलन आउट ऑफ कंट्रोल हो गया है। हिंसा भड़क चुकी है। जेपी नहीं माने। मिन्नतें 19 मार्च को भी हुईं। जेपी ने नैतिक समर्थन भर दिया लेकिन इतने भर से काम कहां चलने वाला था तो लालू प्रसाद यादव, सुशील मोदी, राम बहादुर राय और वशिष्ठ नारायण सिंह के साथ एक बार फिर जेपी को मनाने पहुंचे। इस बार जेपी ने कुछ शर्तें रखीं। बोले- 'सबसे पहले हिंसा बंद करो। अब इसके बाद मैं जो कहूंगा, आंदोलन में वही होगा।' छात्र नेताओं के पास और चारा भी क्या था। सब राज़ी हो गए।
जेपी सड़क पर उतरे। लालू ने एक सभा में उन्हें ‘लोकनायक’ कहा और लोकनायक के नेतृत्व में बिहार का छात्र आंदोलन जन आंदोलन बन गया। जन आंदोलन की धाह पटना से निकलकर दिल्ली में बैठे सत्ताधीशों तक पहुंचने लगी थी। इंदिरा गांधी जेपी को कायदे से जानती थीं लेकिन उनके बेटे संजय गांधी तो अपनी ही धुन में देश को हांकने पर तुले हुए थे। 1974 का साल बीत चुका था। तारीख़ थी 12 जून, 1975। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने रायबरेली से इंदिरा गांधी की लोकसभा जीत को रद्द कर दिया क्योंकि उन पर चुनाव के दौरान सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के आरोप साबित हुए थे। ख़बर जेपी तक भी पहुंची। उन्होंने इंदिरा के इस्तीफ़े की मांग की योजना बनाई। तय हुआ कि 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली होगी और इसी रैली में इंदिरा गांधी से इस्तीफ़े की मांग की जाएगी।
कैलेंडर पर 25 जून की तारीख़ आई लेकिन जेपी रामलीला मैदान नहीं पहुंच पाए। बल्कि एक घोषणा उनके और देशभर के लोगों के कानों तक पहुंची।
बिहार की माटी में सने-बने एक आंदोलन ने ऐसा विकराल रूप धारण किया कि इंदिरा गांधी और संजय गांधी की ज़मीन खिसक गई और इस खिसकी ज़मीन में मां-बेटे की जोड़ी ने आपातकाल का बीज बो दिया लेकिन यह कहानी आपातकाल के बीज की नहीं है। बल्कि उस माटी की है जहां से ये सब कुछ शुरू हुआ था- सत्तर के दशक का बिहार।
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बिहार का वह दशक जिसने लालू-नीतीश सरीखे नेता दिए। वह दशक जो जातीय हिंसा की आग में झुलसा। कहीं दलितों का पूरा गांव कत्ल कर दिया गया तो कहीं दंगे में लोगों की हत्या कर ज़मीन में गाड़ दिया गया और उसके ऊपर गोभी रोप दी गई। वह दशक जो लाल आतंक के ख़ौफ़ में रहा। वह दशक जिसने बिहार में जाति के आधार पर ख़ून-खराबा करने वाली कास्ट आर्मी खड़ी कर दी। वह दशक जिसने रूमाल की तरह मुख्यमंत्रियों का बदलना देखा।
बिहार में हो रही थी हिंसा
बेलछी, बिहार की राजधानी पटना से करीब 90 किलोमीटर दूर बसा एक गांव। सत्तर के दशक में इस गांव में एक बेनामी गैंग ऐक्टिव था। गैंग के दो मुखिया थे- महावीर और परशुराम। दोनों के पास ज़मीनें थी, स्थानीय नेताओं का समर्थन था और था आतंक। जो ज़मीनों पर कब्जा और ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों की हत्या करके फैलाया गया था। महावीर और परशुराम का एक राइवल था- सिद्धेश्वर उर्फ सिंघवा। वह पड़ोस के महिया गांव का रहने वाला था। इत्तेफाक़न सिंघवा की शादी बेलछी में हो गई। सिंघवा को लगा कि मायके में तो दबदबा है ही, क्यों ना ससुराल में भी अपना विस्तार किया जाए। उसने अपना अड्डा बेलछी शिफ्ट कर लिया क्योंकि सिंघवा और महावीर-परशुराम के गैंग का बिजनेस फील्ड एक ही था इसलिए टकराव पैदा होना लाज़मी था। सो हुआ भी। छुटपुट भिडंत होती रहीं और इन सब के बीच कैलेंडर पर तारीख़ लगी 27 मई, 1977।
27 मई की सुबह सिंघवा और विरोधी गैंग के बीच लड़ाई छिड़ गई। सिंघवा के लोग भारी पड़े। महावीर और परशुराम के लोगों को बेलछी छोड़कर भागना पड़ा। सिंघवा ने इस जीत की खुशी में अपने गैंग को शरबत पार्टी दी लेकिन उसे कहां मालूम था कि दुश्मन दो कदम पीछे इसलिए हटा है ताकि चार कदम आगे की चढ़ाई कर सके। बीच शरबत पार्टी महावीर और परशुराम पूरे लश्कर के साथ बेलछी में धमक पड़े। जिस घर में पार्टी चल रही थी उसे चारों तरफ से घेर लिया। गोलियों की तड़तड़ाहट हुई और फिर सिंघवा के लिए एक ऐलान किया गया। 'बाहर निकलो और फाइनल सेटलमेंट करो।' सिंघवा को लगा कि सेटलमेंट में ही भलाई है। वरना जान से हाथ धो बैठेगा। वह अपने लोगों के साथ बाहर निकला। बाहर निकलते ही महावीर और परशुराम के लोगों ने सभी को दबोच लिया। हाथ बांधा गया और एक खुले इलाके में ले जाया गया। जहां आग लगाकर रखी गई थी। इंडिया टुडे मैगज़ीन में छपी उस वक्त की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ सिंघवा के लोगों को प्वाइंट ब्लैंक रेंज से गोली मारी गई और फिर जलती आग में फेंक दिया गया। 17 साल के राजा पासवान से लेकर 30 बरस के राम पासवान तक मौत के घाट उतार दिए गए। सिंघवा समेत कुल 11 लोगों इस हत्याकांड में मारे गए।
बेलछी हत्याकांड ने दिल्ली तक को हिला दिया। इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी की सरकार बनी थी। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे। ख़बर उन तक भी पहुंची। संसद में सवाल उठे लेकिन उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि बेलछी की घटना ना सिर्फ बिहार को झुलसाएगा बल्कि उनकी सियासत भी मिट्टी में मिला देगा क्योंकि 1977 के चुनाव में अपनी करतूतों की वजह से औंधे मुंह गिरीं इंदिरा गांधी के लिए दोबारा उठ खड़े होने का एक मौका मिल गया। इंदिरा गांधी ने दो महीने बाद यानी अगस्त महीने में बेलछी का दौरा तय किया। इंदिरा हवाई जहाज से पटना पहुंचीं। वहां से कार से गईं। पटना से बेलछी के रास्ते पर आगे बढ़ती गईं और गाड़ियां बदलती गईं क्योंकि सड़कें ख़राब होती जा रही थीं। कार से जीप। जीप से ट्रैक्टर पर सवार हो गई थीं लेकिन जब ट्रैक्टर भी फंसने लगी तो पड़ोस के गांव हरनौत से मोती नाम का एक हाथी बुलाया गया। हाथी पर बैठकर इंदिरा बेलछी पहुंचीं। 13 अगस्त की तारीख़ थी। उन्होंने पीड़ित परिवारों से मुलाकात की। उनकी बातें सुनीं और फिर दिल्ली लौट गईं। यह इंदिरा की दिल्ली और पॉलिटिक्स दोनों में एक मज़बूत वापसी साबित हुई। हाथी पर बैठीं इंदिरा गांधी की तस्वीरें आज तक लोगों को बख़ूबी याद है।
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जाति की राजनीति और वर्चस्व की लड़ाई
याद तो यह भी है कि कैसे तत्कालीन गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह ने बेलछी हत्याकांड में जाति की भूमिका नकार दी थी जबकि हालात यही बताते हैं कि बेलछी विशुद्ध तौर पर जातिगत वर्चस्व की लड़ाई का नतीजा था और वर्चस्व की इस लड़ाई की औपचारिक शुरुआत पचास के दशक में हुई और तलवारें साठ के दशक में खिंच गईं। जिसमें हमने परत दर परत बताया है कि कैसे जमींदारी उन्मूलन के बाद जमींदारों और भूमिहीनों के बीच टकराव शुरू हो गया। साथ ही मध्य बिहार के इलाके में नक्सल मूवमेंट के उभार ने इस टकराव को भयानक तरीके से हिंसक बना दिया।
बिहार की ज़मीन पर जो आग लगी थी उसकी सबसे बड़ी वजह जाति और जाति सेनाएं थीं और फिर इसी में कहीं मजदूरी की लेयर जुड़ती है तो कहीं जमीन पर कब्जे का इसलिए कई बार ऐसा होता था कि ज़मीन पर हक़ को लेकर लड़ाई का माहौल बना रहता था। फ़िर कोई एक ऐसी घटना हो जाती थी जो जातिगत भेदभाव की आग जला जाती थी। नतीजा यह होता था कि मोहल्ले के मोहल्ले आग के हवाले कर दिए जाते थे। 1980 में पिपरा में ही जो हुआ उसी का उदाहरण ले लीजिए। 25 फरवरी की तारीख़ थी। पटना से सिर्फ 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पिपरा में हमला हो गया। कुर्मियों के हथियारबंद गिरोह ने दलित जाति के भूमिहीन मजदूरों की बस्ती में आग लगा दी। दलितों को मारा-पीटा गया। 14 दलितों की मौत हो गई। यह सब पांच घंटे तक चला। इस कत्लेआम को लेकर दो थ्योरीज़ चलती हैं। नरेंद्र सिंह की किताब ‘बिहार में निजी सेनाओं का उद्भव और विकास’ में दोनों कहानियां मिलती हैं। नरेंद्र सिंह लिखते हैं, 'नरसंहार होने से कुछ दिन पहले चमारों की जातीय पंचायत ने कल्याणचक गांव के राधिका सिंह नाम के एक कुर्मी भूस्वामी को कहा था कि वह तारामती से विवाह कर लें। इस हरिजन महिला के साथ राधिका सिंह पिछले 20 सालों से रह रहे थे। जब उन्होंने शादी करने से मना कर दिया तो चमारों की पंचायत ने सुझाया कि वह अपनी जाति बदल लें। यह बात राधिका सिंह को इतनी नागवार गुजरी कि उन्होंने चमारों को सबक सिखाने का निश्चय कर लिया। इस अवैध संबंध के चलते चमार भी अपमानित महसूस कर रहे थे। इसलिए एक दिन उन्होंने तारामती को गांव से निकाल दिया। राधिका सिंह इस बात इतने क्षुब्ध और क्रोधित हुए कि उन्होंने पूरे गांव को जला देने की धमकी दे डाली और इस प्रपंच के ठीक बाद पिपरा नरसंहार हो गया।
नरेंद्र सिंह लिखते हैं कि यह महज एक तात्कालिक कारण था। ऐतिहासिक कारण कुछ और ही था। आजादी के वक़्त तक पिपरा में कुर्मी और दलित रैयत का काम करते थे। जमीनों के मालिक थे मुसलमान। बंटवारे के वक्त गांव में सांप्रदायिकता का माहौल था। गांव के कुर्मियों ने दंगा फैलाकर जमीनों पर कब्जे की योजना बनाई लेकिन दलितों ने इस प्लानिंग में साथ नहीं दिया और इसी वजह से दोनों पिपरा में इन दो समुदायों के बीच दरार पड़ गई। 1980 के दौर में कुर्मियों ने किसी परमानेंट सॉल्यूशन की राह तब चुनी जब दलित समुदाय के मजदूरों ने मजदूरी बढ़ाने की मांग की। नतीजा पिपरा नरसंहार लेकिन क्या यह नरसंहार रैंडम लोगों द्वारा अंजाम दिए जाते थे? ऐसा कैसे हो सकता है कि एक समुदाय के लोग अचानक तय कर लें कि चलो फलां जाति की बस्ती जला दें। कोई तो ऐसी फोर्स होती होगी जो रक्त पिपासुओं की फौज खड़ी करती थी। कोई तो सूत्रधार होता ही होगा? इस फोर्स या सूत्रधार को इतिहास के पन्नों में 'Cast Army' का नाम दिया है। जाति सेनाएं। 70 के दशक के बाद बिहार में Cast Army का विस्फोट होता है। ऐसा नहीं है कि इससे पहले जाति आधारित संगठन नहीं थे। यादव, कुर्मी और कोइरी का त्रिवेणी संघ, भूमिहार महासभा, कायस्थ महासभा, यादव महासभा जैसे संगठन थे लेकिन इन संगठनों का अंतिम लक्ष्य था अपनी जाति की समस्याएं दूर करना। आपसी संघर्ष को खत्म करना और जातिगत सोपान में अपनी स्थिति मजबूत करना लेकिन यह काम दूसरी जातियों का सफाया करने का मंसूबा पाले नहीं हो रहा था। सत्तर के दशक और उसके बाद जो Cast Army बनीं उनके टारगेट पर हमेशा राइवल जातियां रहीं। काफी हद तक यह ट्रेंड नक्सल आंदोलन के पसराव के साथ शुरू हुआ क्योंकि नक्सलियों ने जमींदारों की हत्याएं शुरू कीं। जो एक ख़ास जाति से आते थे।
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इसी ट्रेंड से 1979 में किसान सुरक्षा समिति का गठन हुआ। समिति के विघटन के बाद कुर्मियों ने भूमि सेना का गठन कर दिया। पिपरा नरसंहार के मुख्य अभियुक्त लड्डू सिंह ने पटना सेंट्रल जेल से 6 अक्टूबर, 1981 को जमींदार कुर्मियों को चिट्ठी लिखी और संगठित होने की अपील की। 15 दिन बाद ही कुर्मियों ने हथियार लहराते हुए पटना में रैली निकाल दी। नारे लगाए गए- 'झोपड़ी में आग लगाएंगे, सड़कों पर लाश बिछाएंगे।' दावा किया जाता है कि इसी भूमि सेना ने 1982-85 के बीच 65 दलित भूमिहीनों की हत्या कर दी। सेना नक्सली आंदोलन के समर्थकों को निपटाने की मंशा लिए घूम रही थी। मसलन इन्हीं लोगों ने पटना विश्वविद्यालय के महासचिव प्रेमचंद सिन्हा की हत्या कर दी क्योंकि सिन्हा नक्सल समर्थक थे।
भूमि सेना की ही तरह सेंट्रल बिहार में नक्सलियों को निपटाने के लिए ब्रह्मर्षि सेना का गठन किया गया। 1981 का साल था। लगभग 500 हथियारबंद लोगों की। यह सेना बाहुबली सरदार कृष्ण सिंह ने की थी। नरेंद्र सिंह अपनी किताब में लिखते हैं, '1985-88 के दौरान जब बिंदेश्वरी दुबे बिहार के मुख्यमंत्री थे तब इस सेना का प्रभाव काफी बढ़ा। यह कहना गलत नहीं होगा कि बिंदेश्वरी दुबे के काल में ब्रह्मर्षि सेना प्रशासन का औपचारिक अंग-सा बन गई थी। मुख्यमंत्री निवास में सेना के खास लोगों का बड़ा महत्व था। जिलाधिकारी और अन्य बड़े-बड़े अफसरों के तबादले ब्रह्मर्षि सेना के इशारे पर किए जाते थे।'
अलग-अलग जातियों ने बनाई अपनी सेना
नब्बे के दशक में जब बिहार में लालू राज था तब आरोप लगते थे कि बाहुबलियों और माफियाओं को सीएम हाउस का आशीर्वाद प्राप्त था लेकिन यह सब लालू राज में शुरू नहीं हुआ। बल्कि अस्सी के दशक में एक हिंसक कास्ट आर्मी को सीएम हाउस का प्रश्रय मिला हुआ था।
इसी धमक ने दूसरी जातियों को मोटिवेट किया आर्मी खड़ी करने के लिए और फिर हम देखते हैं कि यादवों ने 1983 में लोरिक सेना का गठन कर दिया। नालंदा वाले इलाके में ये लोग ऐक्टिव थे। इन्होंने भी नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई छेड़ रखी थी। लड़ाई की हद ऐसी कि एक नक्सली समर्थक जब पुलिस के शिकंजे से छूटकर भाग रही थी तो लोरिक सेना के लोगों ने उसे पकड़ लिया। महिला के साथ गैंगरेप किया और फिर उसे नंगा करके पूरे गांव में घुमाया। छुटपुट हत्याओं के अलावा इस सेना ने जहानाबाद जिले के दुमही-खगरी गांव में एक बड़े नरसंहार को अंजाम दिया। रामाशीष यादव नाम के शख्स के नेतृत्व में लोरिक सेना की एक गुट ने गांव में हमला किया। बच्चों सहित 11 लोगों की हत्या कर दी गई। ये सभी मुसहर जाति के लोग थे। प्रतिक्रिया नक्सलियों की तरफ से भी आई। नक्सली बेड़े ने 1990 के अगस्त महीने में लोरिक सेना के कमांडर रामानंद यादव को ही मार गिराया।
यह वह दौर था जब हर बरस-दो बरस पर किसी कास्ट आर्मी का गठन हो रहा था और कुछ ऐसे भी संगठन बन रहे थे जिनमें एक से ज्यादा जातियां शामिल थीं। किसान संघ का ही उदाहरण ले लीजिए। जिसमें यादव, राजपूत और भूमिहार जातियों के लोग थे। 1989-90 में संघ बना। बनने की कहानी दिलचस्प है। लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री बन चुके थे। क़रीब 500 लोगों की भीड़ लालू के मुख्यमंत्री आवास पर पहुंची। मांग यह कि नक्सली गतिविधियों को कंट्रोल किया जाए। मुख्यमंत्री से जो बातें होनी थीं वे तो हुईं लेकिन साथ में हुआ किसान संघ बनाने का ऐलान। किसान संघ भी भूमि सेना, लोरिक सेना के ही टेम्प्लेट को फॉलो कर रहा थी। वही मारकाट, नरसंहार। भोजपुर के देव-सहियारा इन्हीं हथियारबंदों ने 14 दलित भूमिहीनों का कत्ल कर दिया। पालीगंज के तिसखोरा में भी 14 दलितों की हत्या कर दी गई। तिसखोरा में नक्सली काफी ऐक्टिव थे। गांव में 19 मार्च, 1991 के दिन एक शादी हो रही थी। कुम्हार जाति के रामलखन पंडित घर शादी थी। नक्सली संगठन के 3 लोग इस शादी में शामिल होने पहुंचे थे। ख़बर किसान संघ को मिली। 500 लोगों ने हथियार लिए हमला कर दिया। गोलियों की बौछार में 14 लाशें बिछ गईं।
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उस दौर में माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर यानी MCC और लिबरेशन जैसे संगठनों के जवाब में उठ खड़ी हुई Cast Army और उनकी करतूतों की फेहरिस्त काफी लंबी है। सवर्ण लिबरेशन फ्रंट, कुंवर सेना, सनलाइट सेना और किसान सेवक समाज जैसे संगठन का नाम इस लिस्ट में जुड़ता है और जुड़ता है गांव-गांव दलितों की हत्या की घटनाएं। नरसंहारों का स्केल समझाने के लिए यहां आपके सामने एक आंकड़ा रखना ज़रूरी है।
कास्ट-क्लास की लड़ाई में हत्याओं का कोई सटीक आधिकारिक आंकड़ा नहीं मिलता। लेकिन 1986 में छपी इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट में कुछ आंकड़े मिलते हैं। दिल्ली स्थित पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (PUDR) के अनुसार, जनवरी 1980 से अक्टूबर, 1986 के बीच सेंट्रल बिहार में क़रीब 390 लोग मारे गए। दूसरी ओर, बिहार सरकार के गृह विभाग के मुताबिक वामपंथी उग्रवादियों ने इस दौरान क़रीब 160 हत्याएं की। हालांकि इंटेलिजेंस ब्यूरो ने यह आंकड़ा 250 बताया है।
आंकड़ों से अगर उस दौर का रक्तपात ना समझ आया हो तो पैटर्न से समझिए। बेलछी नरसंहार में कुर्मियों ने एक बड़ी चिता जलाई। हरिजनों को लाइन में खड़ाकर गोली मारी और फिर आग में फेंक दिया। पिपरा में दलितों की बस्ती में आग लगा दी गई। फिर घर से जो-जो बाहर निकला उसे गोली मार दी गई या दोबारा आग के हवाले कर दिया गया। पारस बिगहा में भी ऐसा ही किया गया। बस किसी को भी घर से बाहर नहीं निकलने दिया गया। यानी सिर्फ हत्याएं नहीं हो रही थीं। बल्कि इस ढंग से हत्या की जा रही थी कि विरोधियों की रूह कांप जाए।
पता चलता है कि उस दौर में कानून व्यवस्था का हाल कैसा था। बिहार में अराजकता का मंजर पसरा था। आरोप शासन-प्रशासन पर भी लग रहे थे और ये आरोप सच्चाई में तब तब्दील हो जाते थे जब खुद पुलिस आंखफोड़वा कांड कर देती थी। यह क्या बवेला था? नवंबर, 1980 की बात है। भागलपुर में जेल में बंद अंडर ट्रायल कैदियों की आंखें बड़ी सूई से फोड़ दी गईं। आंखें फोड़ने के बाद तेजाब डालकर पूरी तरह अंधा कर दिया गया और यह एक-दो लोगों के साथ नहीं बल्कि 33 लोगों के साथ किया गया। यह ख़बर सबसे पहले इंडियन एक्सप्रेस ने छापी थी। बाद के दिनों इसी घटना पर आधारित गंगाजल फिल्म बनी। अजय देवगन वाली। असल में बिहार का यह दौर फिल्मी ही मालूम पड़ता है। ऐसी फिल्म जिसमें चारों तरफ अपराधी छुट्टा सांड़ की तरह घूम रहे हों। पुलिस का कहीं नामों-निशान ना हो। बिहार इस दर्जे के अपराध और हिंसा का गवाह रहा है।
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सिर उठाता संगठित अपराध
जिस दौर में बिहार जातीय हिंसा और नरसंहारों का गवाह बन रहा था, उसी दौर में संगठित अपराध भी सिर उठाने लगा था। जमीनों पर कब्जे की लड़ाई के पैरलल ठेकेदारी में वर्चस्व की जंग शुरू होने लगी थी। इसी जंग का तो नतीजा था कि मुजफ्फरपुर के लंगट सिंह कॉलेज का छात्र नेता रहे मिनी नरेश ने रामानंद सिंह नाम के एक बड़े ठेकेदार की हत्या कर दी। सिर्फ इसलिए कि कॉलेज और आसपास के ठेकों पर नरेश का कब्जा हो जाए। यही वह मिनी नरेश है जो अस्सी के दशक के अंतिम सालों में गैंगस्टर अशोक सम्राट के संपर्क में आया। कहानी दिलचस्प है अशोक सम्राट और नरेश की दोस्ती की। दरअसल, अशोक सम्राट तो बेगूसराय में अपना दबदबा बनाना चाहता था लेकिन कम्युनिस्टों ने नाक में ऐसा दम किया कि वह भागकर मुजफ्फरपुर पहुंच गया। मुजफ्फरपुर में चंद्रेश्वर सिंह और मिनी नरेश के बीच राइवलरी थी। वजह ठेकेदारी ही थी और यह राइवलरी इस दर्जे की थी कि दोनों एक-दूसरे को निपटा देना चाहते थे। निपटारा हुआ भी। मिनी नरेश का। 1989 के साल में 10 फरवरी को सरस्वती पूजा थी। लंगट सिंह कॉलेज के हॉस्टल में सरस्वती पूजा का आयोजन था। हचक के भीड़। छात्र नेताओं से लेकर आम छात्रों तक जुटे हुए थे। इसी जुटान में हथियार लेकर चंद्रेश्वर गैंग के लोग पहुंच गए। ताक में थे कि हॉस्टल नरेश बस आ जाए। नरेश आया भी। जैसे वह अपनी गाड़ी से निकली चंद्रेश्वर के लोगों ने फायर झोंक दिया। इतनी गोलियां चलीं की मिनी नरेश छलनी हो गया।
अशोक सम्राट उन दिनों पटना किसी काम से गया हुआ था। उसे अपने पार्टनर की हत्या से सदमा लगा। उसने प्रण लिया कि एक साल के भीतर चंद्रेश्वर का नाम मिटा देगा। साल भर का वक़्त बीता। 1990 का साल आया। इस साल 31 जनवरी को सरस्वती पूजा थी। उसी कॉलेज हॉस्टल के पास अशोक सम्राट चंद्रेश्वर की ताक में में बैठा था। चंद्रेश्वर अपनी गाड़ी से आया। बाहर निकला। सिगरेट जलाई। सिगरेट जलाते के साथ ही अशोक सम्राट ने गोलियों की तड़तड़ाहट से पूरे शहर को दहला दिया। चंद्रेश्वर को मारने के लिए उसने तीस गोलियां मारीं। ख़बर फैली और अशोक सम्राट के नाम का दहशत भी क्योंकि उसने इस हत्या के लिए पहली बार एक ऐसे हथियार का इस्तेमाल किया था जो अब तक बिहार में नहीं हुआ था। AK47।
यह क़िस्सा सिर्फ इसलिए ताकि आप समझ सकें कि अस्सी के दशक में संगठित अपराध, गैंगवॉर और AK47 जैसे हथियारों का चलन शुरू हो गया था। जून, 1980 में छपी इंडिया टुडे मैगज़ीन की एक रिपोर्ट से संगठित अपराध और पुलिसिया की कार्रवाई की एक झलकी मिलती है। 1977 से 1979 के बीच बिहार पुलिस ने 3461 बंदूकें, कई हज़ार गोला-बारूद, हाई पावर के 30 बम बरामद किए। इसी दौरान पुलिस ने बेगूसराय में कामदेव सिंह और रोहतास में रामाशीष बिंद जैसे दो खूंखार अपराधियों का काम तमाम भी किया लेकिन मध्य और दक्षिणी बिहार के अन्य इलाकों के माफिया गिरोह लगातार फल-फूल रहे थे और इनको खाद पानी दिल्ली में बैठे अंडरवर्ल्ड तक से मिल रहा था।
अपराधियों और पांव पसारते बाहुबलियों को सियासतदारों का भरपूर आशीर्वाद हासिल था और यह Give & Take वाला रिश्ता था। बाहुबलियों को ठेका मिलता था और नेताओं को बूथ लूटवाकर जीत। इस बात को समझने के लिए यहीं 1980 के बिहार चुनाव का हाल सुन लीजिए तो हालात समझ जाएंगे। बिहार विधानसभा में तब 324 सीटें हुआ करती थीं। चुनाव में वोटिंग हुई और पूरे बिहार में जमकर उत्पात मचा। जगह-जगह पार्टियों के कार्यकर्ता और नेता पोषित गुंडों ने मार-काट मचाया। इस खून-खराबे में कम से कम 20 लोगों की लाशें गिरीं। 70 से ज्यादा लोग फटा सिर और टूटी हड्डियां लेकर घूमते रहे। बख्तियारपुर में तो ऐसा हंगामा हुआ था कि पुलिस ने फायरिंग खोल दी थी। हालांकि, कोई मरा नहीं।
काले हीरे का राजा कौन?
मिलन वैष्णव अपनी किताब 'When Crime Pays: Money and Muscle in Indian Politics' एक ऑब्जर्वर के हवाले से एक ट्रेंड समझाते हैं। वह लिखते हैं, 'आपातकाल के बाद के दौर में किराए के एजेंटों का एक पूरा वर्ग जो कभी राजनेताओं की सेवा करता था, अब राजनेता बन गया था। वह दिन चले गए जब गैंगस्टर राजनेताओं के प्यांदे हुआ करते थे। अब कुत्ता पूंछ नहीं हिलाता बल्कि पूंछ कुत्ते को हिलाती है।'
इस पहेली को समझने के लिए चलना होगा धनबाद। अविभाजित बिहार का एक ज़िला। धनबाद जहां कोयले की खान थी। काला हीरा। जहां अस्सी के दशक में डेढ़ लाख से ज्यादा मज़दूर काम कर रहे थे। कोयले की ऐसी खानगाह जहां सिर्फ मजदूरी, लोडिंग और ट्रकों के किराये से अस्सी के ही दशक में 300 मिलियन डॉलर की कमाई हो रही थी। आज के हिसाब से दाम लगा लें तो क़रीब ढाई हज़ार करोड़ से कुछ ज्यादा और इस कमाई का एक-तिहाई हिस्सा कोयला माफिया और नेताओं के नेक्सस की भेंट चढ़ रहा था। यानी आज की क़ीमत के हिसाब से क़रीब 800 करोड़ से कुछ ज्यादा और इस नेक्सस में धनबाद के सबसे बड़े कोयला माफिया तो शामिल थे ही, राष्ट्रीय स्तर के नेता भी शामिल थे। इसे समझने के लिए एक क़िस्सा पढ़िए।
मिलन वैष्णव अपनी किताब में देश के कई राज्यों का उदाहरण पेश करते हैं और इन्हीं में एक नाम धनबाद के सूर्य देव सिंह का आता है। सूर्य देव सिंह की कहानी पढ़ते हुए आपको एक कल्ट फिल्म भी याद आएगी। पहले कहानी पढ़िए और फिर फिल्म का नाम।
सूर्यदेव सिंह बलिया का रहने वाला था। सत्तर के दशक की बात है। वह नौकरी की तलाश में हजारों-लाखों लोगों की तरह धनबाद पहुंचा। उन दिनों भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के नेता बीपी सिन्हा की कोयला खदान के गढ़ में तूती बोलती थी। बीपी सिन्हा ने सूर्यदेव को कोयला खदानों में काम दिया लेकिन धीरे-धीरे सूर्यदेव का नाम धनबाद के अख़बारों में सुर्खियां बनाने लगा और इस नाम की धमक बनी 1979 में। क्योंकि बीपी सिन्हा का कत्ल हो गया। आरोपियों में सूर्यदेव का भी नाम आया। थ्योरीज़ चलीं कि बीपी सिन्हा की गद्दी पर कब्जा करने के लिए सूर्यदेव ने ये साजिश रची। आरोप लगते रहे लेकिन उसने इसकी परवाह नहीं की। उसने बीपी सिन्हा की जगह हथिया ली।
1979 से पहले सूर्यदेव की कहानी में 1977 का साल आ चुका था। देश से इमरजेंसी हटी। चुनाव हुए। जनता पार्टी ने कांग्रेस को चुनौती दी और फिर पटखनी। इसी जनता पार्टी ने सूर्यदेव को झरिया विधानसभा सीट से टिकट दिया। सूर्यदेव चुनाव जीतकर विधायक बन चुका था। बहुत जल्द वह जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर का क़रीबी बन गया। दो वजहें थीं। पहली- सूर्यदेव उसी बलिया का था जहां से चंद्रशेखर आते थे। दूसरी वजह जाति। सूर्यदेव राजपूत समुदाय से आता था और चंद्रशेखर भी।
काले हीरे की मंडी में सूर्यदेव की माफियागिरी चमकने लगी थी। प्रोटेक्शन मनी और एक्सटॉर्शन की वसूली होने लगी थी। पैसा ही पैसा। तो सियासी संरक्षण के लिए वह जनता पार्टी को फंडिंग करने लगा। इसकी बदौलत उसने क्या रसूख हासिल किया था वह एक क़िस्से से समझिए।
सूर्यदेव से जुड़ी है वसेपुर की कहानी
सितंबर, 1982 की बात है। शत्रुघ्न सिन्हा धनबाद में अपनी एक फिल्म की शूटिंग करने वाले थे। शूटिंग के उद्घाटन के लिए बिहार के बड़े नेताओं को आमंत्रित किया। बिहार के तत्कालीन स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री ललितेश्वर प्रसाद साही, तत्कालीन केंद्रीय सिंचाई मंत्री केदार पांडे धनबाद पहुंचे। दोनों का हाथ था शत्रुघ्न सिन्हा के सिर पर। नेताओं के आगमन से पहले धनबाद की दीवारों पर एक मांग लिख दी गई- 'सूर्य देव सिंह को बिना शर्त रिहा करो।' यह तो फिर भी एक मांग की शक्ल में लिखी गई बात थी लेकिन जो बात चंद्रशेखर ने एक प्रोटेस्ट के दौरान कही, वह सुन कर तो एक बार को हैरत हो जाए। सूर्य देव की रिहाई के लिए धनबाद में प्रोटेस्ट चल रहा था। चंद्रशेखर प्रोटेस्ट में पहुंचे। मांग का समर्थन किया। सरकार को हिदायत दे डाली- 'सूर्य देव सिंह को रिहा नहीं किया गया तो खून-ख़राबा होगा।'
कोयला माफिया की रिहाई के लिए खदान में काम करने वाले ग़रीब मजदूर प्रदर्शन कर रहे थे। इसके पीछे एक वजह है और है एक टेम्प्लेट। जो लगभग हर कुख्यात माफिया की कहानी में मिल जाएगा। धनबाद में दो सिनेमा घरों का मालिक रहा सूर्य देव ग़रीब मजदूरों की बेटियों की शादी में मदद करता था। शादी का पूरा खर्च दिया करता था। मजदूरों की बस्ती में पानी का इंतज़ाम करवाता था। जिसकी वजह से उसने वही टिपिकल माफिया जो ‘गरीब-गुरबों का मसीहा’ बन जाता है, वाली छवि हासिल कर रखी थी। यह छवि अपनी पीक पर तब पहुंचा जब उसने एक दिन अपनी गाड़ी वसेपुर की तरफ घुमा दी। हुआ यह कि एक दिन वसेपुर के कुछ गुंडे धनबाद की एक ब्राह्मण लड़की को किडनैप कर ले गए। लड़की का बाप पुलिस के पास पहुंचा लेकिन कोई मदद नहीं मिली। तब भागता-दौड़ता ‘सिंह भवन’ पहुंचा। यह सूर्यदेव का आवास था। रोते-गिड़गिड़ाते लड़के के बाप ने सारी बात बताई।
The Print के साथ बातचीत में वकील और सामाजिक कार्यकर्ता बिजय झा कहते हैं, 'सूर्यदेव सिंह अपने आदमियों के साथ तुरंत वासेपुर के लिए रवाना हो गए, वहां अपनी गाड़ी खड़ी की और उन्हें चेतावनी दी। अगर 24 घंटे के अंदर लड़की वापस नहीं आई तो वसेपुर को कब्रिस्तान में बदल दिया जाएगा।'
क्यों, याद आ गई न अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वसेपुर। जिसमें सरदार खान (मनोज वाजपेयी का क़िरदार) खुली जीप में बैठकर रामाधीर सिंह के इलाके में जाता है। कहता है- 'हज़रात, हज़रात, हज़रात। कल शाम वसेपुर की एक लड़की को अगवा कर लिया गया है। जनाब, अगले तीन घंटे में लड़की सही-सलामत अपने घर वापस नहीं पहुंची तो पूरे इलाके में इतना बम मारेंगे कि इलाका धुआं-धुआं हो जाएगा।'
फिल्म में सरदार खान की धमकी के बाद लड़की मिल जाती है क्योंकि रियल लाइफ में भी ऐसा ही हुआ था। सूर्यदेव सिंह की धमकी के कुछ ही घंटे बाद गुंडे लड़की को उसके घर पहुंचा कर भाग गए थे। असल में वसेपुर की कहानी धनबाद के ही कोयला खदानों और वर्चस्व की लड़ाई की कहानी थी।
भागलपुर दंगा 1989
1980 में बख्तियारपुर के हिस्से यह वाक्य आया- ‘हालांकि कोई मरा नहीं।’ लेकिन 9 बरस बाद भागलपुर इस मामले में अभागा साबित हुआ। उसके हिस्से यह वाक्य नहीं आया। उसके हिस्से आया दंगा, कत्लेआम, नफ़रत और गोभी की खेती का ट्रॉमा। 1989 में क्या हुआ था भागलपुर में? क्या है उस दंगे की कहानी जिसने बिहार में कांग्रेस की सियासत मटियामेट कर दिया। क्या है उस दंगे की कहानी जिसने लालू को सेक्युलरिज्म का चैंपियन बना दिया? 6 दिसंबर, 1992 में अयोध्या में जो हुआ, उसके नेपथ्य में क्या-क्या हुआ? चलिए 1989 भागलपुर दंगे की कहानी पर एक नज़र डालते हैं।
भागलपुर दंगों की कहानी से पहले उस वक्त की राजनीति का बैकग्राउंड बताना ज़रूरी है ताकि आप यह समझ सकें कि दंगों की जो बयार भागलपुर में चली, उसकी हवा कैसे तैयार हुई थी तो जल्दी-जल्दी माहौल समझ लीजिए। 1985 में शाह बानो प्रकरण होता है। शाह बानो मध्य प्रदेश के शहर इंदौर की रहने वाली थीं। उनके पति मोहम्मद अहमद खान ने 1978 में तलाक दे दिया था। विवाद हुआ गुजारा भत्ता को लेकर। शाह बानो ने स्थानीय कोर्ट में भत्ते के लिए अर्जी दायर की। कोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया लेकिन इस फैसले के खिलाफ अहमद खान पहले हाई कोर्ट पहुंचे और फिर सुप्रीम कोर्ट। सुप्रीम कोर्ट ने 1985 में अपना फैसला सुनाया। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि IPC की धारा 125 सभी भारतीयों पर लागू होती है और मुस्लिम पर्सनल लॉ इसे रद्द नहीं कर सकता। इसी धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता देना का फैसला हुआ लेकिन मुस्लिम संगठनों के बीच इस फैसले के खिलाफ नाराज़गी थी। ये लोग इस फैसले को शरिया के खिलाफ मान रहे थे। तब देश में कांग्रेस की सरकार थी। प्रधानमंत्री थे राजीव गांधी। राजीव गांधी और कांग्रेस पार्टी को लगा कि मुस्लिमों के एक तबके की नाराज़गी का असर चुनाव पर पड़ सकता है। पॉलिटिकल प्रेशर में आकर राजीव गांधी की सरकार ने 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम पारित किया। इस कानून ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया। कानून के तहत तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को केवल 90 दिनों (इद्दत) तक गुजारा भत्ता मिल सकता था, जिसके बाद उनकी जिम्मेदारी उनके परिवार या वक्फ बोर्ड की होती थी। मुस्लिमों का नाराज़ तबका खुश हुआ लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि राजीव सरकार पर मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप लगने लगे। आरोप लगे कि मुसलमान वोटर्स को खुश करने के लिए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट दिया।
कुछ ही महीनों बाद 1986 में राजीव गांधी सरकार ने अयोध्या में राम मंदिर का ताला खुलवा दिया। सरकार के विरोधियों ने आरोप लगाए कि राजीव सरकार वोट के चक्कर में तुष्टीकरण की राजनीति कर रही है लेकिन ये सब उस माहौल को गरमा रहे थे जिसका नतीजा 1989 में भागलपुर में दिखने वाला था। विश्व हिंदू परिषद राम मंदिर की मांग को लेकर लगातार अलग-अलग कार्यक्रम चला रही थी। इसी कार्यक्रम का हिस्सा थी ‘शिला पूजन रैली’। जो अक्टबर, 1989 में भागलपुर में निकाली गई। अब चलिए देखते हैं कि रैली के दौरान भागलपुर में क्या हुआ।
तारीख़ 24 अक्टूबर, 1989। शिला पूजन रैली निकली। नारे लग रहे थे-
'सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे'
'बच्चा बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का'
नारेबाज़ी करती हिंदुओं की भीड़ यह सुनिश्चित कर रही थी कि रैली के रूट पर जो भी दिखे उसे लाल तिलक लगाई जाए और इस रूट पर कई मुस्लिम बहुल इलाके भी थे और यह बात भी तय थी कि जब रैली इन इलाकों से गुजरेगी तो टेंशन बढ़ेगा। बिल्कुल यही हुआ। प्रशासन की मनाही के बावजूद क़रीब 15 हज़ार लोगों की भीड़ वाली शिला पूजन रैली मुस्लिम बहुल इलाके नाथनगर में घुसने लगी। इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पुलिस ने रैली को रोकना चाहा। पुलिस और हिंदू संगठनों के बीच तू-तू मैं-मैं हो ही रहा था कि इलाके के मुसलमान बड़ी संख्या में इकट्ठा हो गए और इसी भीड़ और बहसा-बहसी में पहली गोली चली। गोली चलना, दंगे का एलान था। यह घोषणा थी कि भागलपुर में अगले कुछ दिनों तक मौत का तांडव होने वाला है। नाथनगर से शुरू हुई हिंसा परबत्ती और ततरपुर के इलाके तक पहुंच गई। इन दोनों इलाकों में भी मुस्लिम आबादी का डॉमिनेंस था। ततरपुर में हिंदू संगठनों के लोग नारे लगा रहे थे-
'जय मां काली, करो ततरपुर खाली'
अपनी किताब 'Ruled or Misruled' में संतोष सिंह लिखते हैं- 'एक हफ्ते तक चले इस दंगे में आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 1000 लोगों की मौत हुई।' लेकिन ग़ौर कीजिए कि यह वह संख्या है जो दस्तावेजों में लिखी गई है।
दंगों की जड़ में कई तरह के खाद होते हैं लेकिन उसके लिए पानी बनती है ‘अफवाह’। यही वह पानी है जिसमें दंगे की नाव तैरते हुए एक इलाके से दूसरे इलाके में पहुंचती है। भागलपुर में भी ऐसा ही हुआ था। परबत्ती में एक कुआं था। कुएं के पानी में कई लाशें ऊपर तैर रही थीं। अफवाह यह फैली कि 200 हिंदू छात्रों की हत्या कर कुएं में फेंक दिया गया है। स्थानीय पत्रकारों के जरिए यह अफवाह हर तरफ फैल गई। जिसका नतीजा हमने आपको ऊपर बताया लेकिन क्या सचमुच कुएं में 200 हिंदू छात्रों के शव फेंके गए थे? जवाब है नहीं। असल में कुएं में 12 शव फेंके गए थे और ये सभी 12 लोग मोहम्मद जावेद नाम के एक स्थानीय के परिवार वाले थे।आप देखिए कि भड़काऊ नारेबाज़ी, खतरनाक किस्म के अग्रेसिव धार्मिक जुलूस और अफवाहों के कॉकटेल ने भागलपुर में दंगा की आग सुलगाई और इस आग में एक हज़ार से ज्यादा लोग मरे। क़रीब 50 हज़ार लोग विस्थापित हुए और शहर ने लगभग एक महीने तक कर्फ्यू झेला लेकिन दंगे की क्रूरता का अंदाजा इन आंकड़ों से कम ही पता चलता है। कितनी बर्बरता हुई थी, यह जानने के लिए तो आपको एक खेत में चलना होगा।
लाशें गाड़कर बो दी थी गोभी
यह खेत लोगांय गांव में था। लोगांय भागलपुर शहर से क़रीब 30 किलोमीटर दूर बसा एक गांव है। लोगांय के एक बड़े से खेत में गोभी रोपी गई थी। देखकर पता चल रहा था कि खेती ताज़ा है। यानी ज्यादा वक़्त नहीं बीता है खेत कोड़े हुए। गोभी की फसल कतारबद्ध थी और इन कतारों के बीच-बीच में कहीं रिबन बिखरे हुए थे। बाल बांधने वाला रिबन। बिखरे हुए रिबन और गोभी की जड़ों के साथ बच्चों की उंगलियां ज़मीन के ऊपर दिख रही थीं और जब गोभियां उखाड़ी गईं तो पता चला कि ज़मीन के नीचे क़रीब 110 लोगों की लाश दफनाई गई थी। कहानी यह हुई थी कि दंगाईयों ने लोगांय के 25-30 परिवारों में रहने वाले लोगों को पहले मार डाला और फिर खेत में गाड़ दिया। किसी को पता ना चले इसलिए उसके ऊपर गोभी रोप दी गई। मारे जाने वालों में 50 से ज्यादा छोटे बच्चे शामिल थे।
मन में सवाल आता है कि जब एक जिला दंगे की आग में झुलस रहा था तब सियासतदान क्या कर रहे थे? कानून व्यवस्था बनाए रखने के जिम्मेदार क्या कर रहे थे? एक लाइन में तो कहा जा सकता है कि घालमेल कर रहे थे और अपनी राजनीति बचाने की कवायद में जुटे थे लेकिन इस बात को ज़मीन देने के लिए ज़रूरी है कि उस वक़्त की पॉलिटिकल ऐक्टिविटी के बारे में बात कर ली जाए।
तब बिहार में कांग्रेस की सरकार हुआ करती थी। मुख्यमंत्री थे सत्येंद्र नारायण सिन्हा। वह अनुग्रह नारायण सिन्हा के बेटे थे। दंगा जिस दिन भड़का सीएम सिन्हा ने भागलपुर के तत्कालीन एसपी केएस द्विवेदी का ट्रांसफर कर दिया। वजह यह थी कि पहले ही दिन 100 लोगों की हत्या हो जाने के बावजूद द्विवेदी ऐक्टिव नहीं दिख रहे थे। ऐक्शन नहीं लिए जा रहे थे। लेकिन सत्येंद्र नारायण सिन्हा को लग रहा था कि बिहार के मुख्य सचिव और डीजीपी उनका साथ नहीं दे रहे थे क्योंकि वे दोनों ब्राह्मण थे और सीएम भूमिहार लेकिन इन जातिगत खेमेबाज़ी से इतर एक सच्चाई और थी। इस सच्चाई को दर्ज करते हैं संतोष सिंह। संतोष सिंह लिखते हैं, 'सबसे बड़ी गलती यह थी कि मुख्यमंत्री भागलपुर नहीं गए। इससे भी बुरी बात यह कि जब प्रधानमंत्री राजीव गांधी भागलपुर जाते समय पटना आए तो सरकारी विमान तैयार नहीं था। यहां तक कि पायलट भी नहीं था। सिन्हा ने अस्वस्थ होने का हवाला देकर प्रधानमंत्री के साथ जाने से इनकार कर दिया। राजीव गांधी खुद विमान उड़ाकर भागलपुर गए। वह सिन्हा से बहुत नाराज थे, जिनका वह बहुत सम्मान करते थे।'
ऐसा लगता है कि तत्कालीन कांग्रेस इस दंगे को रोकने के लिए प्रो-एक्टिव नहीं थी और ना ही पुलिस-प्रशासन और यह बात सिर्फ हम नहीं कह रहे बल्कि दंगे की जांच के लिए गठित आयोगों की रिपोर्ट भी यही कहती हैं।
पटना हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस राम नंदन प्रसाद, जस्टिस राम चंद्र प्रसाद सिन्हा और जस्टिस एस शमसुल हसन की जांच आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि कम से कम एक साल पहले से भागलपुर में रामशिला जुलूस को लेकर तनाव बढ़ रहा था लेकिन प्रशासन और पुलिस ने इस पर आंखें मूंद ली थीं। 1989 के जुलूस को ततरपुर से होकर ले जाने के लिए कोई आवेदन नहीं था और जुलूस के आयोजकों को जारी किए गए लाइसेंस में ततरपुर शामिल नहीं था। फिर भी पुलिस ने 'हजारों उपद्रवियों की भीड़' को इस इलाके से जाने दिया। इस रिपोर्ट में दंगों के लिए BJP और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर भी उंगलियां उठीं।
जिम्मेदार जो भी था लेकिन दंगे के चूल्हे में झोंके गए आम लोग और भागलपुर का सामाजिक ताना-बाना लेकिन इस दंगे की आग पर कई सियासी रोटियां जलीं और सेंकी गई। कांग्रेस की सियासी रोटी तो ऐसी जली कि वह आज तलक बिहार में की थाली में रखे नहीं गए। लालू प्रसाद यादव की सियासी रोटी ऐसी सिंकी की उन्होंने डेढ़ दशक तक बिहार की सत्ता पर राज किया और जब सत्ता से बेदखल हुए तब भी बिहार की राजनीति के केंद्र में बने रहे लेकिन क्या इन दो बातों भर में क़रीब डेढ़ दशक की राजनीति को समेटा जा सकता है? इसके लिए तो हमें फिर लौटना 1974 में। फिर झांकना होगा जेपी की संपूर्ण क्रांति में और देखनी होगी बिहार कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों की उठा-पटक और अपने पैरों पर खड़े होते लालू-नीतीश की कहानी भी।
CM बदल जाते थे मौसम की तरह
तो साहब सरकार बनने और गिरने की कहानी दशक सीरीज के दूसरे एपिसोड में भोला पासवान शास्त्री की गैर-कांग्रेसी सरकार तक पहुंची थी और कुछ सहयोगियों के समर्थन वापस ले लेने के बाद सरकार गिर गई थी और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। 6 महीने के लिए लगा था राष्ट्रपति शासन। यानी जब राष्ट्रपति शासन हटता तो चुनाव होता या फिर नए सिरे से गठजोड़ वाली सरकार बनती क्योंकि 1969 में ही विधानसभा का चुनाव हुआ था, इसलिए बिहार की पार्टियां साल भर के भीतर ही चुनाव लड़ना नहीं चाहती थीं। ऐसे में एक ही रास्ता था कि नए सिरे से साथी इकट्ठा किए जाएं और सरकार बनाने का दावा पेश किया जाए। यही हुआ भी।
कांग्रेस (R) ने बिहार में सरकार बनाने के लिए जुगत शुरू कर दी। यहां कांग्रेस (R) और कांग्रेस (O) को लेकर एक जानकारी है। 1969 की बात है। कांग्रेस के ओल्डगार्ड्स इंदिरा गांधी को अपने हिसाब से चलाना चाहते थे। उन्हें प्रधानमंत्री भी तो इसी मंशा से बनाया गया था लेकिन जिन इंदिरा को गूंगी गुड़िया कहा गया, उन्होंने अपने तेवर दिखा दिए तो कांग्रेस दो फाड़ हो गई। ओल्डगार्ड्स वाली कांग्रेस (O) और इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस (R)। तो यही इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस (R) बिहार में सरकार बनाने जा रही थी। शोषित दल और झारखंड पार्टी ने गठबंधन किया। प्रसोपा और सीपीआई जैसी पार्टियों ने बाहर से सरकार को समर्थन देने का फैसला किया। निर्दलीय विधायकों का समर्थन हासिल हुआ। कांग्रेस पार्टी के महासचिव हेमवंती नंदन बहुगुणा पटना पहुंचे। साथ में एक संदेश ले आए कि पूर्व की कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे और पार्टी के विधायक दारोगा प्रसाद राय को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। नाम पर सहमति बनी और इस तरह राष्ट्रपति शासन के बाद सूबे में एक बार फिर कांग्रेस की सरकार बनी और दारोगा प्रसाद राय बन गए मुख्यमंत्री। 1970 का साल था और फरवरी का महीना। जब उन्हें कुर्सी मिली और इसी साल के दिसंबर महीने में कुर्सी छोड़नी पड़ी। हैरान मत होइए। इस दौर में तो हर नए मौसम की आमद के साथ मुख्यमंत्री बदलने वाले हैं क्योंकि दारोगा प्रसाद राय के नेतृत्व वाली सरकार गिर गई। वह भी एक बस कंडक्टर को लेकर हुए विवाद की वजह से।
हुआ यह कि बिहार राज्य पथ परिवहन निगम में काम करने वाले एक बस कंडक्टर पर काम में लापरवाही का आरोप लगा। परिवहन के अधिकारियों ने कंडक्टर को सस्पेंड कर दिया। सस्पेंड कंडक्टर आदिवासी था। तत्कालीन कांग्रेस पार्टी में 11 विधायकों वाली झारखंड पार्टी भी शामिल थी। जो खुद को आदिवासियों का प्रतिनिधि बताती थी तो कंडक्टर पार्टी के नेता बागुन सुम्ब्रई के पास पहुंचा। उसने अर्जी लगाई कि नौकरी बहाल करवा दी जाए। बागुन सुम्ब्रई अपने 11 विधायकों का बल समेटे मुख्यमंत्री कार्यालय पहुंचे। मामला बताया। मुख्यमंत्री दारोगा राय से मांग की- आदिवासी कंडक्टर की नौकरी बहाल कर दी जाए। दारोगा राय को यह मुद्दा ज़रूरी नहीं लगा। उन्होंने ख़ास तवज्जो नहीं। कई बार कहने के बावजूद जब मुख्यमंत्री ने बिहार राज्य पथ परिवहन निगम को कोई आदेश नहीं दिया तो बागुन सुम्ब्रई ख़फ़ा हो गए। यह वह वक्त था जब एक भी विधायक के नाराज़ होने का मतलब था सीएम की कुर्सी हिल जाना। यहां तो सुम्ब्रई के पास 11 विधायक थे तो उन्होंने पूरी सरकार ही हिला दी। एलान कर दिया कि सरकार को आदिवासी हितों से कोई मतलब नहीं है इसलिए समर्थन वापस ले रहे हैं। नंबर गेम ख़राब हो चुका था। बिहार विधानसभा में फ्लोर टेस्ट की बारी आई। दारोगा राय की कांग्रेस पार्टी को नाकामी हाथ लगी क्योंकि उनके पास सिर्फ 144 विधायकों का ही समर्थन रह गया था। विरोध में पड़ गए 164 वोट। यानी सिर्फ झारखंड पार्टी ही नहीं बल्कि कुछ निर्दलीय विधायकों ने भी दारोगा प्रसाद राय की सरकार के खिलाफ वहट डाला था तो इस तरह फरवरी की उतरती ठंड में बनी कांग्रेस सरकार दिंसबर की चढ़ती ठंड के मौसम में गिर गई।
सरकार गिरते ही संसोपा और कांग्रेस (O) ने सत्ता में काबिज होने की कवायद शुरू कर दी। सांठ-गांठ हुई। गठजोड़ में जनसंघ, भारतीय क्रांति दल, शोषित समाज दल (मंडल ग्रुप), हुल झारखंड पार्टी, लोकतांत्रिक कांग्रेस, कुछ अन्य छोटी पार्टियां और निर्दलीय विधायक शामिल हुए। एक नया मंच बना और मंच की सदारत सौंपी गई इससे पहले भी एक बार बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके कर्पूरी ठाकुर को।
सत्ता में लौटे कर्पूरी ठाकुर
फलानी-फलानी पार्टियों का सपोर्ट मिला और कर्पूरी सीएम बन गए, कहानी इतनी भर तो नहीं हो सकती। तिस पर भी जब कहानी राजनीति की है। तो दिलचस्प क़िस्सा मिलता है संतोष सिंह की किताब 'The Jannayak Karpoori Thakur: Voice of the Voiceless' में और क़िस्सा सुनाया था डॉ. राममनोहर लोहिया के क़रीबी सहयोगी रहे समाजवादी नेता उमेश प्रसाद सिंह ने। कर्पूरी ठाकुर के करीबी सहयोगी प्रणब चटर्जी ने उमेश प्रसाद सिंह को निर्देश दिया कि वह ठाकुर को बताएं कि सत्येंद्र नारायण सिन्हा उनसे तुरंत मिलना चाहते हैं। उमेश कर्पूरी से गांधी मैदान के पास एक पार्टी नेता के आवास पर मिले। आवास पर जब पहुंचे तो वहां कर्पूरी और रामानंद तिवारी में किसी बात पर बहस छिड़ी हुई थी। उमेश सिंह ने हिम्मत जुटाकर कर्पूरी ठाकुर के कान में संदेशा बुदबुदा दिया। रामानंद तिवारी भी साथ चलने को तैयार हो गए। मुलाकात हुई, बात हुई। तय हुआ कि कर्पूरी ठाकुर को समर्थन दिया जाएगा। कर्पूरी भी राज़ी हो गए और उसी दिन सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया।
सरकार बनते ही कर्पूरी ठाकुर ने वृद्धा पेंशन योजना की शुरुआत की। बुजुर्गों को सरकार पेंशन देगी यह आइडिया कैसे आया? एक बुजुर्ग दादा की लाचारी देखकर। लाचारी कि वह अपने पोते के साथ आए शख्स को आशीर्वाद के तौर पर कुछ पैसे नहीं दे पाया क्योंकि उसकी ज़ेब ख़ाली थी। हुआ यह था कि सीएम बनने के बाद एक बार कर्पूरी ठाकुर रामनाथ ठाकुर के घर गए। मुख्यमंत्री ने जब उनकी दादी के पांव छुए तो दादी ने आशीर्वाद में 25 पैसे दिए। यही आशीर्वाद दादा भी देना चाहते थे लेकिन पैसे नहीं थे तो सिर झुकाए घर से बाहर की ओर चले गए। कर्पूरी ठाकुर बाबा की लाचारी भांप गए और जब पटना लौटे तो इस मंसूबे के साथ कि अब से बिहार के बाबा (दादा) और ईया (दादी) को कभी आशीर्वाद देते हुए हिचकना ना पड़े।
इस कदम के साथ एक मुख्यमंत्री के तौर पर कर्पूरी जितने संवेदनशील दिखते हैं, वह उतने ही कठोर भी थे। अपनी विचारधारा को लेकर सख़्त। उन्हें क्लैरिटी थी कि चाहे जो हो जाए समाजवादी राजनीति की बागडोर संभाले रहना है और कांग्रेस से हाथ नहीं मिलाना है। इसी कार्यकाल के दौरान की एक दिलचस्प घटना है। इंदिरा गांधी पटना आई थीं। कर्पूरी ठाकुर एयरपोर्ट पहुंचे स्वागत करने। एयरपोर्ट पर ही इंदिरा ने कर्पूरी से कहा, 'क्या आप हमारे साथ नहीं आ सकते? अगर आप आ जाएं तो मैं उत्तर भारत की राजनीति बदल दूंगी।' कर्पूरी चुप रहे लेकिन राजभवन की सीढ़ियां चढ़ते हुए इंदिरा गांधी को जवाब दे गए, 'मैं आपके साथ नहीं आ सकता। इसके पहले मैं आपके महान पिता का भी ऐसा ही ऑफर ठुकरा चुका हूं।' अंदाज़ा लगाइए कर्पूरी के वैचारिक कद का। 1970-71 के दौर में वह इंदिरा गांधी को मुंह पर न सिर्फ जवाब दे रहे थे बल्कि उनके पिता के ऑफर की याद दिला रहे थे।
वैचारिक दृढ़ता चाहे जितनी भी हो लेकिन वही कर्पूरी ठाकुर बुजुर्ग कांग्रेसियों के धड़े से मिलकर सरकार चला रहे थे। एक खिचड़ी गठबंधन की सरकार और खिचड़ी से कितनी ही ताकत मिल सकती है? खिचड़ी तो मरीज़ों का प्राथमिक भोजन है। पाचन तंत्र पर ज़्यादा ज़ोर ना पड़े और दम कुछ-कुछ बचा रहे इसलिए खिचड़ी खाई जाती है तो ना कभी खिचड़ी से जान आ सकी है और ना खिचड़ी गठबंधन से कोई मज़बूत सरकार चल सकी है। कर्पूरी ठाकुर को यह बात 2 जून, 1971 को समझ आई थी। जब उनकी सरकार गिर गई। फरवरी में ही कैबिनेट विस्तार किया था ताकि कुर्सी बांटकर साथी दलों को शांति से बैठाया जा सके लेकिन 3-4 महीने में ही सरकार गिर गई।
कर्पूरी ने कुर्सी गंवाई। बारी एक बार फिर भोला पासवान शास्त्री की आई। वही भोला पासवान शास्त्री जो बिनोदानंद झा की वजह से पहले भी दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बन चुके थे तो यहां उनकी कहानी दोहराएंगे नहीं क्योंकि दशक सीरीज के दूसरे एपिसोड में उन पर विस्तार से हमने बात की है।
खूब बदले मुख्यमंत्री
तो हवा की रफ़्तार से यहां ये जान लीजिए कि जून, 1971 से जनवरी, 1972 तक सीएम रहे। क़रीब दो सौ दिनों बाद यह सरकार भी मुंहकुड़िए गिर गई और एक बार फिर बिहार के हिस्से राष्ट्रपति शासन आया। इसके बाद बिहार विधानसभा का चुनाव होता है। चुनाव में कांग्रेस ने जीत हासिल की। 324 सीटों वाली बिहार विधानसभा में उसे 167 सीटें मिली थीं। कांग्रेस (O) 272 में से 30 सीटों जीत दर्ज कर पाई। भारतीय जन संघ को 25 सीटें हासिल हुई। धक्का संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी को भी लगा। पार्टी ने 256 सीटों पर चुनाव लड़ा था। जीत मिली थी सिर्फ 33 सीटों पर। बहरहाल कांग्रेस ने सरकार बनाई। मुख्यमंत्री बने केदार पांडे। हालांकि, वह पांच साल तक सीएम की कुर्सी पर नहीं बैठ सके। पांच साल के इस कार्यकाल में कांग्रेस ने बिहार को तीन मुखिया दिए। केदार पांडे, अब्दुल गफ़ूर और जगन्नाथ मिश्र।
चलिए, एक-एक कर इन तीनों की कहानी इसी क्रोनोलॉजी में सुना देते हैं।
सबसे पहले बात केदार पांडे की। बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत हो चुकी थी। मुख्यमंत्री पद के कई दावेदार थे। हर दावेदार के पास विधायकों का अपना गुट था लेकिन इन सभी गुटों पर भारी थी दिल्ली में बैठी कांग्रेस की मालकिन। इंदिरा गांधी। दिल्ली से ही फरमान आया कि केदार पांडे को सर्वसहमति से विधायक दल का नेता चुना जाए। यही हुआ भी। केदार पांडेय मुख्यमंत्री बन गए। उनके कार्यकाल में कई काम हुए। जिन्हें आज तक दोहराया जाता है लेकिन जो जनरल नॉलेज की किताबों में दर्ज हो गया वह था 19 दूनी 38 प्लस 1 बराबर 39 का फैसला। नहीं समझ आया। हम समझा देते हैं। उस वक़्त तक बिहार और झारखंड एक ही राज्य हुआ करते थे। कुल जिले थे 19। बड़े-बड़े क्षेत्रफल वाले जिले। सीएम केदार को लगा कि सूबे की कानून व्यवस्था की लगाम टाइट करनी है तो जिलों को छोटा करना होगा। ताकि पुलिस कमांड पुख्ता हो सके। फैसला लिया गया कि बिहार में जिलों की संख्या बढ़ाकर 39 कर दी जाएगी और कर दी गई। आप सोच रहे होंगे कि कहा तो जाता है कि बिहार में लालू यादव के राज में ‘जंगलराज’ आया। सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध में यह चर्चा क्यों? इसके जवाब में दो घटनाओं की कहानी पढ़िए।
तारीख़ 19 मार्च, 1972। एक तरफ केदार पांडे ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली थी। दूसरी तरफ कम्युनिस्ट पार्टी के हजारीबाग से विधायक मंजरुल हसन खान जेल से छूटकर अपने MLA क्वार्टर में पहुंचे। पहुंचते ही उन पर गोलियों की बौछार हो गई। एक जीते हुए विधायक की हत्या कर दी गई। ठीक उसी दिन जिस दिन मुख्यमंत्री ने अपने पद की शपथ ली थी। एक महीना भी नहीं बीत पाया था। तारीख़ थी 6 अप्रैल, 1972 की। कांग्रेस के ही यादवों के दिग्गज नेता राम लिखन सिंह यादव के भाई राम परीक्षण यादव की हत्या हो गई। फिर बवाल मचा। केदार पांडे की कुर्सी पर खतरा मंडराने लगा था लेकिन केदार की कुर्सी जाने के लिए अभी एक और हत्या होनी थी।
1973 का बरस और अप्रैल का महीना। रांची के टाटा सिल्वे स्थित उषा मार्टिन रोप कारखाना के मुख्य द्वार पर मज़दूरों का प्रदर्शन चल रहा था। प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे थे सूरज नारायण सिंह। मजदूरों के नेता थे। आज़ादी की लड़ाई लड़ चुके थे। जय प्रकाश नारायण के संघलोरवा रहे थे और उस वक्त मधुबनी से विधायक भी थे। प्रदर्शन के पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया। पुलिसिया लाठी सूरज नारायण पर भी पड़ीं। सिर पर इतनी चोट आई की हॉस्पिटल में भर्ती कराना पड़ा। हॉस्पिटल में ही मौत भी हो गई। बवाल मच गया। जेपी के दोस्त की मौत हो गई थी, वह भी पुलिस की मार से। ख़बर जेपी तक पहुंची। जेपी को यकीन नहीं हुआ तो भागे-दौड़े अपने दोस्त को देखने पहुंचे। मृत्यु शैय्या पर देखकर बोले, 'सूरज बाबू को अंग्रेज नहीं मार सके लेकिन पुलिस ने मार दिया। मेरा दाहिना हाथ टूट गया।'
अब्दुल गफूर कैसे बने CM?
जेपी का दाहिना हाथ टूटा और टूट गई केदार पांडे की मुखियई की कमर। ध्वस्त कानून-व्यवस्था और बिहार कांग्रेस की खेमेबाज़ी की बदौलत दिल्ली का फरमान पटना पहुंचा और केदार पांडेय की मुख्यमंत्री कार्यालय से विदाई हो गई। आगमन हुआ विधानपरिषद के सभापति का। यह अब्दुल गफूर थे। कांग्रेस के विधायक। अल्पसंख्यक समुदाय के नेता। ऐसे नेता जो कांग्रेस के वोटबैंक को बैलेंस करते थे। केदार की विदाई के बाद आलाकमान ने अब्दुल गफूर को सूबे का सीएम बना दिया। सियासत के जानकार मानते हैं कि उस दौर में विपक्ष और ख़ासकर समाजवादी धड़ा जिस तरह से सिर उठा रहा था, उससे पार पाने के लिए अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाले नेता को कुर्सी सौंपी गई थी।
अब्दुल गफूर के लिए यह कांटों भरा ताज था क्योंकि नेपथ्य में एक छात्र आंदोलन की तैयारी हो रही थी। वह आंदोलन जिससे इस वीडियो की शुरुआत हुई थी। वही आंदोलन जो जेपी आंदोलन बन गया। वही आंदोलन जिसकी वजह से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगा दिया। लेकिन ठहरिए। अभी इमरजेंसी लगी नहीं थी। अभी तो पटना के छात्रों ने आंदोलन शुरू किया था। गफूर ही मुख्यमंत्री थे। आंदोलन की बागडोर जैसे ही जेपी के हाथ में गई, दिल्ली की आंखें चौड़ी हो गईं। दिल्ली से पटना पर नज़र रखी जाने लगी। गफूर इस आंदोलन को कायस्थों का आंदोलन कह रहे थे। और जेपी फीस वृद्धि और कैंटीन की बढ़ी कीमतों से बहुत आगे बढ़ चुके थे। वह न सिर्फ पटना बल्कि दिल्ली तक की चूलें हिला देने का मंसूबा कायम कर चुके थे। लिहाजा आंदोलन संभला नहीं। बल्कि दिनो-दिन बढ़ता ही चला गया। गफूर इस अग्निपरीक्षा में फेल हो चुके थे। मुख्यमंत्री पद से उनकी विदाई की स्क्रिप्ट लिखी जा चुकी थी।
इसी बीच नए साल की आमद हुई। साल 1975। नए बरस का दूसरा ही दिन। पटना से क़रीब 90 किलोमीटर दूर समस्तीपुर में बम ब्लास्ट हो गया। बम ब्लास्ट में कांग्रेस के दिग्गज नेता और अब्दूल गफूर की विदाई के स्क्रिप्ट राइटर ललित नारायण मिश्र की मौत हो गई। कांग्रेस आलाकमान को लगा कि बिहार के एक बड़े नेता की मौत हुई है। ऐसे में उनके छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र को मुख्यमंत्री बना देना चाहिए। पब्लिक सेंटिमेंट के लिहाज से यह फैसला एकदम सटीक था। सो फैसला हुआ और जगन्नाथ मिश्र जो मुख्यमंत्री की रेस में दूर-दूर तक नहीं थे, सीएम की कुर्सी पर बिठा दिए गए। Ruled Or Misruled किताब में जगन्नाथ मिश्र का बयान मिलता है, 'मेरे बड़े भाई ललित बाबू ने चंद्रशेखर को इंदिरा गांधी और जेपी की मुलाकात कराने के लिए बुलाया था। वह चाहते थे कि यह मुलाकात समस्तीपुर यात्रा के बाद हो। मेरे भाई की मौत बम विस्फोट में हो गई और जेपी-इंदिरा की मुलाकात कभी नहीं हो पाई। 12 जून 1975 को मैं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की बैठक में शामिल होने के लिए दिल्ली गया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके लोकसभा चुनाव को रद्द किए जाने के बाद इंदिरा गांधी ने इस्तीफा देने की पेशकश की थी। उन्होंने अदालत से राहत मिलने तक अपने उत्तराधिकारी के रूप में जगजीवन राम या पंडित कमलापति त्रिपाठी के नाम का सुझाव दिया था लेकिन पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने संवैधानिक प्रावधानों का हवाला देते हुए आंतरिक आपातकाल का विचार पेश किया। इंदिरा जी हिचकिचा रही थीं। रे ने बाद में संजय गांधी से मुलाकात की। जेपी के 25 जून को रामलीला मैदान से संपूर्ण क्रांति के आह्वान ने ट्रिगर का काम किया और इंदिरा जी आपातकाल लगाने के लिए राजी हो गईं।'
इमरजेंसी के बाद क्या हुआ?
1977 में आपातकाल खत्म हुआ। बिहार विधानसभा का कार्यकाल भी खत्म हो चुका था। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव हुए। चुनाव कांग्रेस और जनता पार्टी के बीच था। दरअसल, आपातकाल के बाद होने वाले चुनाव के लिए सोशलिस्ट पार्टी और कई अन्य छोटे दलों ने मिलकर जनता पार्टी बनाई थी। ताकि मज़बूती के साथ कांग्रेस को चुनौती दी जा सके। पार्टी ने लक्ष्य हासिल किया। केंद्र और बिहार दोनों ही जगहों पर कांग्रेस ने सत्ता गंवाई। दोनों ही जगहों पर जनता पार्टी ने सरकार बनाई। कर्पूरी ठाकुर जनता पार्टी में ही थे। मुख्यमंत्री कार्यालय का अनुभव था उन्हें और तब तक तो वह समाजवादी राजनीति के सबसे बड़े चेहरों में शुमार भी हो चुके थे। इन सब से इतर सबसे बड़ी बात जो उनके पक्ष में थी वह यह कि जनता पार्टी के सर्वेसर्वा जेपी का आशीर्वाद प्राप्त था क्योंकि जेपी सत्ता के शीर्ष पर पिछड़े तबके के नेता को देखना चाहते थे लेकिन बिहार की राजनीति में अभी सवर्णों की ठसक कम नहीं हुई थी। सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने रोड़ा अटका दिया तो तय हुआ कि जनता पार्टी के विधायकों की वोटिंग करा ली जाए। विधायक जिसे अपना नेता चुनेंगे वही सीएम बनेगा।
पटना के बृज किशोर मेमोरियल में जनता पार्टी के 235 विधायकों का जुटान हुआ। फिर वोटिंग शुरू हुई। सत्येंद्र नारायण ओवर कॉन्फिडेंस में थे। वजह- 45 विधायक ऐसे थे जो राजपूत समुदाय से आते थे। किसी एक जाति के विधायकों का यह सबसे बड़ा नंबर था। दूसरे पायदान पर यादव थे- इस बिरादरी के 36 विधायक चुने गए थे। वोटिंग के दौरान यादवों ने कर्पूरी के साथ जाना चुना। सोच वही थी- बैकवर्ड क्लास का नेता। विधायकों की वोटिंग का नतीजा आया। जो बात सत्येंद्र नारायण सिन्हा को छोड़कर बाकी सबको पता थी, वही हुआ। कर्पूरी ठाकुर के नाम पर 144 वोट पड़े और सिन्हा को मिले 84 वोट और यहीं तय हो गया कि 24 जून, 1977 को पटना के रामलीला मैदान में एक आवाज़ गूंजेगी- 'मैं कर्पूरी ठाकुर...' यह पहला मौका था जब बिहार सरकार में सवर्णों से ज्यादा OBC मंत्री बने थे।
अपने इस कार्यकाल में कर्पूरी ठाकुर ने कुछ रिमार्केबल काम किए। जिन पर बात करनी जरूरी है। पहली बात तो यही जान लीजिए कि नीतीश कुमार से बहुत पहले यह कर्पूरी ही थे जिन्होंने बिहार में शराब बैन कर दिया था। शराब माफियाओं और विपक्ष के दबाव के बावजूद कर्पूरी हिले नहीं और शराब पर बैन लगाया। हालांकि, जब उन्होंने कुर्सी गंवाई तो यह बैन हटा दिया गया लेकिन कुर्सी रहते एक और ऐसा काम कर गए कर्पूरी ठाकुर, जिस पर बात किए बिना यह दशक पूरा नहीं होता और ना ही वह ज़मीन तैयार होती है, जिस पर अगले कई दशकों की राजनीति चमकाई जानी थी और यह फैसला था मुंगेरी लाल कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर 20 फीसदी आरक्षण लागू करना।
टाइमलाइन यह है कि 1971 में बिहार में भोला पासवान शास्त्री की सरकार थी। तब मुंगेरी लाल कमीशन का गठन हुआ। आयोग को बिहार में जातियों की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति का अध्ययन करना था और उसके आधार पर अपने रिकमेंडेशन देने थे। 1976 में आयोग अपनी रिपोर्ट पेश करता है। इस दौरान कैसी सियासी हलचल मची थी यह आप थोड़ी ही देर पहले सुन चुके हैं लेकिन 1977 में जब कर्पूरी ठाकुर वाली सरकार बनी तो टर्बुलेंस कुछ कम हुआ तो बारी आई जनता पार्टी के घोषणा पत्र में किए गए वादों को पूरा करने की। जिसमें मुंगेरीलाल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने की बात भी कही गई थी।
10 नवंबर, 1978 की ऐतिहासिक तारीख। बिहार सरकार ने 26 फीसदी आरक्षण लागू कर दिया। इस 26 परसेंट में तीन हिस्से थे।
पहला हिस्सा- 20 फीसदी आरक्षण। इसमें दो भाग थे। 12 फीसदी अति पिछड़ा जातियों (EBC) के लिए और 8 फीसदी अन्य पिछड़ी जातियों (OBC) के लिए।
दूसरा हिस्सा- 3 फीसदी आरक्षण महिलाओं के लिए।
तीसरा हिस्सा- 3 फीसदी आरक्षण आर्थिक तौर पर पिछड़े सवर्ण जातियों के लिए।
आरक्षण और सवर्णों का विरोध
आरक्षण लागू करने का फैसला होते ही सवर्ण जातियों का विरोध फट पड़ा। जनता पार्टी के सवर्ण नेताओं का विरोध होने लगा क्योंकि उनके सरकार में रहते हुए भी कर्पूरी सरकार ने यह फैसला लिया था। सवर्ण जातियों के संगठनों ने लोगों को लामबंद किया और सड़क पर उतर गए। सड़क पर वे लोग भी उतरे जिन्हें आरक्षण का फायदा मिलने वाला था। ये लोग समर्थन में खड़े थे। माहौल हिंसक हो चला था क्योंकि सवर्ण ये समझ गए थे कि इस फैसले का असर सिर्फ नौकरियों पर नहीं पड़ेगा। असल में भर्तियों पर जो असर पड़ता वह तो बस मंच के सामने दिख रहा धुआं था। गुस्सा और डर तो उस धुएं के पीछे जमे बादल को लेकर था। जो इस फैसले के बाद घुमड़-घुमड़ कर बरसने वाला था और यह बादल था सियासी वर्चस्व का। उस दौर तक बिहार की राजनीति में सवर्णों का डॉमिनेंस था। ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ। इन्हीं का दबदबा था लेकिन आरक्षण के बाद जातिगत चेतना की ज्वालामुखी फटने वाली थी वह सियासत में उन जातियों का वर्चस्व स्थापित करने वाली थी जिसे लेकर पारंपरिक तौर पर वर्चस्ववादी शक्तियां घबराई हुई थीं।
इसी घबराहट से जो गुस्सा पैदा हुआ उसने बिहार में एक नई हिंसा को जन्म दे दिया। और उसी दौर में कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ क्या नारे लगे? सवर्णों ने विरोध-प्रदर्शन के दौरान नारा लगाया-
'ई आरक्षण कहां से आई
कर्पूरिया के माई बियाई'
एक और नारा लगा-
'कर्पूरी-कर्पूरा
छोड़ गद्दी
पकड़ उस्तरा'
कर्पूरी ठाकुर की बायोग्राफी में संतोष सिंह समाजवादी साहित्यकार प्रेम कुमार मणि के हवाले से उसी दौर का एक क़िस्सा दर्ज करते हैं। सीएम कर्पूरी दरंभगा के दौरे पर थे। अभी स्टेशन पहुंचे ही थे कि प्रदर्शनकारियों को उनके आने की भनक लग गई। प्रदर्शनकारी इतने हिंसक रूप में थे कि मुख्यमंत्री को ट्रेन के बाथरूम में छिपना पड़ गया क्योंकि प्रदर्शनकारियों के सामने आने पर स्थिति कुछ भी हो सकती थी।
स्थिति तो ‘कुछ भी’ जैसी ही जनता पार्टी की भी हो गई थी। यह तो वैसे भी ऐसा छाता था जिसमें कई तरह की तिल्लियां लगी हुई थीं लेकिन पार्टी के भीतर ही तमाम विरोधों के बावजूद पार्टी अध्यक्ष चंद्रशेखर ने कर्पूरी ठाकुर का समर्थन किया। तारीफ़ की और इस फैसले के लिए कर्पूरी को जननायक तक कहा।
सेंट्रल कमांड से मिल रहे साथ का नतीजा ही था कि 21 मार्च, 1979 को सरकार ने आरक्षण की नीति में एक बदलाव किया। जिसके तहत पिछड़े वर्ग के उन लोगों को आरक्षण देने पर रोक लगा दी गई जिनकी मासिक आय 1000 रुपये से अधिक थी। इसके अलावा महिलाओं के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का आश्वासन दिया गया। इस बदलाव ने विरोधों को और हवा दे दी। 10 दिन बाद ही भारतीय जनसंघ के नेताओं ने पटना में आरक्षण के विरोध में रैली निकाली और एलान किया कि इस लड़ाई को ब्लॉक लेवल तक लड़ा जाएगा। एलान ब्लॉक पर लड़ने का था लेकिन कर्पूरी ठाकुर को झटका शीर्ष कमान से लगा। आरक्षण के मुद्दे पर तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से विवाद हो गया। देसाई पहले से ही आरक्षण के खिलाफ थे। इधर बिहार में कर्पूरी कैबिनेट से जनसंघ, कांग्रेस (O) और भारतीय लोकदल के मंत्रियों ने इस्तीफ़ा सौंप दिया। जगजीवन राम ने भी कर्पूरी के नेतृत्व वाली जनता पार्टी से अपने हाथ पीछे खींच लिए। सरकार अल्पमत में आ चुकी थी। विधानसभा के फ्लोर पर अपनी संख्या साबित करने की बारी आ गई। 19 अप्रैल, 1979 को फ्लोर टेस्ट हुआ कर्पूरी के समर्थन में 105 वोट पड़े। विरोध में 135। कर्पूरी के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार गिर गई। सरकार गिरते ही वह पार्टी से भी अलग हो लिए। साथ खड़े थे राजनारायण, बीजू पटनायक, देवीलाल, जॉर्ज फर्नांडीस और मधु लिमये। इन नेताओं ने मिलकर नई पार्टी बनाई। नाम दिया- जनता पार्टी (सेक्युलर)।
दिलचस्प है कि उसी 1979 के बरस में जनता पार्टी की टूट से पहले मोरारजी देसाई ने सेकेंड बैकवर्ड क्लास कमीशन का गठन कर दिया था। कमीशन के अध्यक्ष थे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल और इन्हीं मंडल साहब के नाम पर बाद में यह आयोग ‘मंडल कमीशन’ कहलाया। आयोग को आरक्षण और जातियों की स्थिति की स्डडी का जिम्मा सौंपा गया था।
अप्रैल, 1979 में कर्पूरी ठाकुर की सरकार गिरी। राम सुंदर दास के नेतृत्व में जनता पार्टी ने नए सिरे से सरकार बना ली। इसके बाद 1979 से लेकर 1989 तक, यानी दस बरस में ही बिहार ने कुल 7 मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल देखा। राम सुंदर दास, जगन्नाथ मिश्र, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दुबे, भगवत झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिंह और फिर जगन्नाथ मिश्र। इसमें भी 1980 में राम सुंदर दास की सरकार की विदाई हुई। चुनाव हुए। कांग्रेस को जीत मिली। फिर इस पूरे अस्सी के दशक में कांग्रेस की सरकार रही। कांग्रेस अपनी खेमेबाज़ी, अपनी सहूलियत और नफ़ा-नुकसान देखकर लगातार मुख्यमंत्री बदलते रही लेकिन अभी भी नहीं बदली थी तो एक रवायत। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर सवर्ण नेताओं का दबदबा।


