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बिहार चुनाव 1962: कांग्रेस की हैट्रिक, विपक्ष ने दी बदलाव की आहट

बिहार विधानसभा चुनाव 1962 में कांग्रेस ने एक बार फिर से जीत हासिल की। नए मुख्यमंत्री की अगुवाई में उतरी कांग्रेस को इस चुनाव में जबरदस्त चुनौती मिली थी।

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बिहार विधानसभा चुनाव 1962, Photo Credit: Khabargaon

देश की आजादी के बाद लगातार चुनाव जीतती आ रही कांग्रेस को तीसरा चुनाव होने से पहले बिहार में एक बड़ा झटका लगा था। मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा अपने पद पर ही थे और 31 जनवरी 1961 को उनका निधन हो गया। आनन-फानन में दीप नारायण सिंह को कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनाया गया। वह सिर्फ 17 दिन ही इस पद पर रहे और पार्टी के भीतर की तमाम उठा-पटक के बाद राजमहल के विधायक बिनोदानंद झा को मुख्यमंत्री बनाया गया।

 

1962 में जब कांग्रेस चुनाव में उतरी तो राज्य की कमान बिनोदानंद झा के ही हाथ में थी। केंद्रीय नेतृत्व अभी भी पंडित जवाहर लाल नेहरू के हाथ में था और कांग्रेस नेहरू की लोकप्रियता पर सवार तीसरे चुनाव में उतर चुकी थी। कांग्रेस भले ही पुरानी होती जा रही थी लेकिन हर बार उसके सामने नए प्रतिद्वंद्वी आ जाते थे। नए प्रतिद्वंद्वियों में इस बार एंट्री हुई भारतीय जनसंघ की। जनसंघ ने पहले भी चुनाव लड़े थे लेकिन इस बार उसे बिहार की विधानसभा में भी जीत हासिल हो गई। जनसंघ के कुल तीन उम्मीदवार इस चुनाव में जीत गए।

 

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बिहार में स्वतंत्र पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी भी खूब सक्रिय थी। इस चुनाव में जनता पार्टी ने भी खूब पसीना बहाया और कांग्रेस को चुनौती देने की कोशिश की। इस चुनाव में पहली बार ऐसा हुआ कि कुल 46 महिलाएं भी चुनाव लड़ीं। उस वक्त यह बड़ी बात थी। अच्छी बात यह रही कि 46 में से 25 महिलाओं ने जीत हासिल की।

स्वतंत्र पार्टी की एंट्री

 

सामान्य ज्ञान की किताबों में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का नाम देश के आखिरी गवर्नर जनरल के तौर पर तर्ज पर दर्ज है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और स्वतंत्रता सेनानी रहे राजगोपालाचारी उर्फ राजाजी समय के साथ-साथ पंडित नेहरू के आलोचक होते गए। कभी कांग्रेस में रहकर महात्मा गांधी के साथ काम करने वाले राजगोपालाचारी ने आगे चलकर कांग्रेस के लिए कहा, 'राजनीतिक स्थिति में कांग्रेस का वर्चस्व चुनावी सफलताओं का नहीं, इतिहास का नतीजा है लेकिन अब यह वर्चस्व सत्ता के मद में संसदीय लोकतंत्र को तबाह करने की तरफ है। इस लोकतंत्र को बचाने के लिए पर्दे के पीछे वाले विपक्ष की नहीं बल्कि खुले तौर पर सामने आने वाले विपक्ष की जरूरत है।'

 

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राजगोपालाचारी जो बोल रहे थे, वह खुद उन्होंने ही करके दिखाया। 4 जून 1959 को स्वतंत्र पार्टी की स्थापना कर डाली और कांग्रेस से अलग हो गए। नेहरू पर आरोप लगाए कि वह समाजवाद को नकारते हैं और कम्युनिस्ट विचारधारा की तरफ झुकाव रखते हैं। इसी स्वतंत्र पार्टी में बिहार के राजघरानों की बनाई कई पार्टियां भी शामिल हो गईं। बिहार चुनाव में स्वतंत्र पार्टी ने मुद्दा उछाला कि आजादी के इतने साल बाद भी देश का विकास क्यों नहीं हुआ है?

 

1959 में बनी स्वतंत्र पार्टी के लिए पहला चुनाव 1962 का ही था। बिहार ही नहीं, इस पार्टी ने राजस्थान, गुजरात और ओडिशा जैसे राज्यों में भी चुनाव लड़ा और मुख्य विपक्ष बनकर उभरी। देश की 18 लोकसभा सीटों पर भी स्वतंत्र पार्टी ने जीत हासिल की। बिहार के विधानसभा चुनाव में भी स्वतंत्र पार्टी ने अपनी किस्मत आजमाई। कुल 259 उम्मीदवार उतारे जिसमें कई ऐसे उम्मीदवार भी थे जो कांग्रेस से नाराज चल रहे थे और स्वतंत्र पार्टी में शामिल हो चुके थे। स्वतंत्र पार्टी ने कांग्रेस को नुकसान भी पहुंचाया। जहां पिछली बार कांग्रेस के 210 उम्मीदवार जीते थे, इस बार यह संख्या घटकर 185 पर ही आ गई। स्वतंत्र पार्टी के 259 में से 50 उम्मीदवार जीते और वह बिहार में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। 

बिहार के तीसरे चुनाव में क्या बदला?

 

तीसरा चुनाव आते-आते एक और चीज बदली थी। देश के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन रिटायर हो चुके थे। उनकी जगह ली थी KVK सुंदरम ने। 1962 के चुनाव में एक बदलाव हुआ कि जिन लोकसभा सीटों पर दो सदस्य चुने जाते थे, वह व्यवस्था खत्म कर दी गई। 1957 में जहां बिहार में कुल 264 सीटों के लिए 318 सदस्य चुने गए थे, इस बार कुल सीटों की संख्या ही 318 कर दी गई। यानी हर सीट पर एक सदस्य। इस तरह से बहुमत के लिए जरूरी थे 160 सदस्य।

 

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एक और चीज नहीं बदली थी और वह था चुनाव का तरीका। ज्यादातर इलाकों में न तो सड़कें बन पाई थीं और न ही संचार के उतने मजबूत साधन थे। लिहाजा, तरीका यही था कि उम्मीदवार या उनके समर्थक लोगों के घर तक जाएं, उनसे मुलाकात करें और वोट मांगें। थोड़ी राहत यह थी कि पहले भी दो बार वोट दे चुके लोग अब थोड़ा-बहुत इस प्रक्रिया को समझने लगे थे। इसका असर मतदान में दिखा और पिछले दो चुनावों की तुलना में मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी हुई। इस चुनाव में एक और इतिहास रचा गया। एक भी बूथ ऐसा नहीं रहा जहां किसी भी कारण से दोबारा मतदान करवाना पड़ा हो। इससे पहले 1951-52 में कुल 41 बूथ पर और 1957 के चुनाव में 4 बूथ पर फिर से वोटिंग करानी पड़ी थी।

नतीजों ने क्या तय किया?

 

कांग्रेस लगातार तीसरी बार पूर्ण बहुमत की सरकार तो बना रही थी लेकिन इस चुनाव ने दिशा और दशा में बदलाव की शुरुआत कर दी थी। जहां पहले कांग्रेस एकतरफा जीतती आ रही थी, अब उसे चुनौती मिलने लगी थी। भले ही यह चुनौती उसके पुराने साथी ही दे रहे थे लेकिन अब कांग्रेस के सामने कई दल खड़े होने लगे थे। यही वजह रही कि कांग्रेस में आपसी कलह भी बढ़ने लगी और पहले एक नेता के पीछे दम लगाकर खड़ी होने वाली कांग्रेस बार-बार नेतृत्व परिवर्तन के लिए भी मजबूर होने लगी।


1962 विधानसभा चुनाव

विधानसभा सीटें: 318
वोटर की कुल संख्या- 2.21 करोड़
वोट डाले गए- 98.33 लाख
प्रतिशत: 44.47%
कांग्रेस ने पूरे 318 उम्मीदवार उतारे, जीते- 185
दूसरे नंबर पर रही स्वतंत्र पार्टी ने 259 उम्मीदवार उतारे थे, जीते- 50 
प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने 199 उम्मीदवार उतारे, जीते- 29
जनता पार्टी ने कुल 75 उम्मीदवार उतारे, जीते- 20 
जनसंघ ने कुल 75 उम्मीदवार उतारे, जीते-3

 

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