बिहार चुनाव 1952: पहले चुनाव में कांग्रेस का जलवा, श्रीकृष्ण बने CM
आजादी के बाद देश में जब पहली बार चुनाव हुए तो लोकसभा के साथ ही राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव भी कराए गए थे। बिहार में कांग्रेस विजयी हुई थी।

बिहार विधानसभा चुनाव 1952, Photo Credit: Khabargaon
देश के आजाद होने से काफी पहले ही बिहार की नींव पड़ चुकी थी। साल 1912 के मार्च महीने में फैसला हुआ कि बिहार-ओडिशा को बंगाल से अलग करके नया राज्य बनाया जाएगा। तब सर चार्ल्स स्टुवर्ट को बिहार और ओडिशा का पहला लेफ्टिनेंट गवर्नर बनाया गया। 20 जनवरी 1913 को बिहार-ओडिशा की प्रोविंसियल लेजिस्लेटिव काउंसिल की मीटिंग हुई जिसमें कुल 43 सदस्य थे। जहां यह मीटिंग हुई, वहीं आज बिहार का विधान भवन है। सदस्यों की संख्या समय के साथ बदलती और बढ़ती गई। 1937 में बिहार में प्रधानमंत्री चुने गए। पहले प्रधानमंत्री बने मोहम्मद युनूस लेकिन वह कुछ महीने तक ही इस पद पर रहे। फिर आए श्रीकृष्ण सिन्हा। देश के आजाद होने से पहले बिहार के प्रधानमंत्री रहे श्रीकृष्ण सिन्हा ही देश के पहले अंतरिम मुख्यमंत्री और पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री भी बने।
1947 में देश को आजादी मिलने के बाद लंबे समय तक विधानसभा और लोकसभा के चुनाव साथ ही होते थे। 1951-52 में जब पहला चुनाव हुआ तो बिहार संयुक्त राज्य था यानी तब झारखंड नहीं बना था। यही कारण है तब विधानसभा की सीटें 276 और लोकसभा सीटें 44 हुआ करती थीं। तब विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ ही हुए थे। एक रोचक बात यह है कि कई सीटें ऐसी थीं जहां विधानसभा के लिए ही एक नहीं दो-दो सदस्य चुने जाते थे। यही वजह थी कि कुल 276 सीटों पर 330 सदस्य चुने गए थे।
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चुनाव आयोग और पहला चुनाव
1951-52 में देश में पहला चुनाव कराने से पहले मार्च 1950 में सुकुमार सेन को देश का पहला मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किया गया। इससे पहले वह पश्चिम बंगाल सरकार के चीफ सेक्रेटरी थे। उनके CEC बनने के एक महीने बाद देश की संसद ने रिप्रेजेंटशन ऑफ पीपल्स ऐक्ट पास किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इच्छा जताई कि अगले साल तक चुनाव कराने हैं। यानी नए CEC के पास एक साल से भी कम वक्त था। सुकुमार सेन को 17.6 करोड़ लोगों को चुनावी प्रक्रिया समझानी थी जिसमें से 85 प्रतिशत लोग तब साक्षर भी नहीं थे यानी वे न तो पढ़ सकते और ना ही लिख सकते थे।
तब तक देश के लोगों को ना तो किसी पार्टी के चिह्न के बारे में पता था और ना ही कोई वोटर लिस्ट बनी थी। वोटर आईडी, बैलट पेपर और बैलट बॉक्स तो दूर की बात थी। सब कुछ शून्य से शुरू होना था और समय बहुत कम था। दोहरी जिम्मेदारी यह थी कि लोकसभा के साथ-साथ राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव भी कराने थे। ऐसे में पंडित नेहरू की सरकार ने चुनाव आयोग की भरपूर मदद की।
चुनाव से अंजान थे लोग
जब देश के साथ-साथ बिहार में भी चुनाव हो रहे थे, उस वक्त ज्यादातर लोग सिर्फ कांग्रेस को ही जानते थे। वजह थी कि आजादी के लिए हुए संघर्ष के समय कांग्रेस के बैनर तले तमाम कार्यक्रम आयोजित होते थे। चंपारण समेत बिहार के कई अन्य इलाकों में तो महात्मा गांधी से लेकर कई अन्य नेताओं ने जमकर आंदोलन भी किए थे। इसके चलते कुछ लोग महात्मा गांधी और सरदार पटेल जैसे नेताओं के नाम जानते थे तो कुछ पंडित नेहरू को पहचानते थे। हालांकि, विधानसभा और लोकसभा क्या है, इसका ज्ञान बहुत कम ही लोगों का था। इसका नतीजा पहले चुनाव के मतदान प्रतिशत में दिखता भी है। उस चुनाव में 40 प्रतिशत से भी कम लोगों ने ही वोट डाले और इसके लिए भी भरपूर मशक्कत करनी पड़ी।
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महात्मा गांधी के प्रयोगों की धरती रहे बिहार के साथ-साथ जब देशभर में चुनाव हुए तब देश के लोग पहली बार चुनावी प्रक्रिया देख रहे थे। नेताओं ने साइकिल चलाकर प्रचार किए, वोट डालने के लिए महिलाओं को बैलगाड़ियों से लाया गया और अलग-अलग पार्टी के लिए अलग-अलग रंग के बैलट बॉक्स रखे गए थे ताकि लोग इन्हें आसानी से पहचान सकें। सिर्फ बिहार में ही तब 1.81 करोड़ मतदाता थे। पहले चुनाव में कई मतदाता ऐसे भी थे जो एक से ज्यादा सीटों पर वोट डाल सकते थे। यही वजह है कि वोट डालने के योग्य कुल लोगों की संख्या 2.41 करोड़ थी। पहली बार चुनाव करवा रही मशीनरी के लिए न तो इतने मतदाताओं तक पहुंचना आसान था और न ही चुनाव करवा पाना।
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, शिवानंद तिवारी बताते हैं कि पहले चुनाव में सबसे बड़ी चुनौती था महिलाओं से वोट डलवाना। तब महिलाएं अपना उपनाम नहीं लिखती थीं और पोलिंग बूथ पर उन्हें पहचान पाना भी मुश्किल होता था। एक स्थानीय व्यक्ति मौजूद होता था जिसकी आपत्ति पर चुनाव अधिकारी संज्ञान लेते थे और आखिरी फैसला उनका ही होता था। पहला चुनाव होने के बावजूद बिहार में चुनावों में वैसी हिंसा नहीं हुई जैसी कि बाद के चुनावों में शुरू हुई।
बिहार का पहला चुनाव और कांग्रेस
देश में पहली बार चुनाव थे तो लोगों को मुद्दों की भी समझ नहीं थी। पढ़े-लिखे नेताओं से सुसज्जित कांग्रेस ने अपना प्रचार अपने चुनाव चिह्न के साथ शुरू किया। तब कांग्रेस का चुनाव चिह्न हाथ का पंजा नहीं दो बैलों की जोड़ी था। उस वक्त का चुनाव देखने वाले लोग लिखते हैं कि देश के विभाजन के बाद हुई घटनाओं ने मुस्लिमों के अंदर डर पैदा कर दिया था लेकिन कांग्रेस पार्टी ने उन्हें संभाला। नतीजा हुआ कि मुसलमान मतदाता नेहरू के पीछे खड़े थे।
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बिहार कांग्रेस में श्रीकृष्ण सिन्हा और अनुग्रह नारायण सिंह जैसे नेता मुख्य दावेदार थे। आजादी से पहले तक बिहार के प्रधानमंत्री रहे श्रीकृष्ण सिन्हा मजबूत दावेदार थे। ऐसे में दोनों के बीच नेतृत्व को लेकर खूब रस्साकशी भी चला करती थी। इस रेस में डॉ. राजेंद्र प्रसाद का भी नाम होता लेकिन वह पहले ही देश के पहले राष्ट्रपति बन चुके थे।
कभी नील प्लांटर्स का जुल्म झेलने वाले बिहार के किसान और ओबीसी समुदाय के लोगों के सामने आजादी के बाद नई समस्या जमींदारी प्रथा थी। बिहार में प्रभावी मानी जाने वाले भूमिहार जमींदारी के समर्थक थे लेकिन राजपूत-कायस्थ इसके खिलाफ थे। इसका असर कांग्रेस में दिख रहा था। भूमिहार जाति से आने वाले श्रीकृष्ण सिन्हा, राजपूत अनुग्रह सिंह और कायस्थ डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बीच भी कमोबेश ऐसे ही मतभेद थे। हालांकि, ये मतभेद कांग्रेस के लिए उतनी ही चुनौती थे जितनी कि सामने का कोई दूसरा दल।
कांग्रेस बनाम सोशलिस्ट पार्टी
सिर्फ सोशलिस्ट पार्टी ऐसी थी जो कांग्रेस के लिए थोड़ी समस्या पैदा कर रही थी। वजह यह थी कि यह पार्टी कांग्रेस से ही निकले जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे दिग्गज नेताओं ने बनाई थी। लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं ने उन दिनों किसानों का मुद्दा उठाया और टाटा जैसी कंपनियों का विरोध शुरू कर दिया। इस बारे में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के नेता शिवानंद तिवारी बताते हैं कि उनके पिता रामानंद तिवारी 1952 में सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर शाहपुर से जीते थे और बहुत सारे दलितों ने उन्हें वोट दिया था।
तब जेपी और लोहिया के लिए 'पिछड़ा' का मतलब हर जाति का दबा-कुचला वर्ग था। तब समाजवादी नेता नारे लगाते थे, 'नेहरू राज की एक पहचान, नंगा-भूखा हिंदुस्तान', मांग रहा है हिंदुस्तान, रोटी, कपड़ा और मकान। उस चुनाव में रामबृक्ष बेनीपुरी जैसे साहित्यकार भी नेहरू की कांग्रेस को चुनौती देते हुए सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े। कटरा नॉर्थ विधानसभा सीट से चुनाव लड़े रामबृक्ष बेनीपुरी को कांग्रेस के मथुरा प्रसाद सिंह ने चुनाव हरा दिया। कांग्रेस ने आजादी की लड़ाई में इस्तेमाल हुए नारे 'खरा रुपैया चांदी का, राज महात्मा गांधी का' जैसे नारों का इस्तेमाल किया। दुख की बात है कि तब महात्मा गांधी जिंदा नहीं थे और 1948 में ही उनकी हत्या कर दी गई थी।
कांग्रेस की बंपर जीत
बिहार में चुनावी बिसात बिछी तो पहली लड़ाई कांग्रेस के ही भीतर हो रही थी। प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत अपनी किताब 'बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम' में लिखते हैं कि श्रीकृष्ण सिन्हा के गुट ने कृष्ण बल्लभ सहाय यानी के बी सहाय को अपना प्रतिनिधि बना दिया था। केबी सहाय की मौजूदगी में अनुग्रह नारायण सिंह ने कई इलाकों के उम्मीदवारों की एक लिस्ट तैयार कर दी। इस लिस्ट पर श्रीकृष्ण सिन्हा को ऐतराज था तो उन्होंने हल्ला कर दिया। मामला शांत कराने के लिए पंडित नेहरू ने दोनों नेताओं को दिल्ली बुलाया, बातचीत हुई लेकिन बात बनी नहीं। अगली मीटिंग पटना की सिन्हा लाइब्रेरी में हुई। मीटिंग के दौरान बाहर जोरदार नारेबाजी हुई। तमाम बैठकों का नतीजा बहुत उत्साहजनक नहीं रहा। सरदार पटेल के हस्तक्षेप के बाद जब उम्मीदवारों की लिस्ट जारी हुई तो कई बागी सामने आए। लगभग ढाई दर्जन नेताओं ने बगावत कर दी और निर्दलीय ही चुनाव लड़ गए।
तमाम चुनौतियों के बावजूद देश में और बिहार में चुनाव हुए और 26 मार्च 1952 को वोट डाले गए। चुनाव आयोग के डेटा के मुताबिक, कुल 39.51 प्रतिशत लोगों ने वोट डाले। कांग्रेस ने 276 सीटों पर कुल 322 उम्मीदवार उतारे थे। इसकी वजह है कि कई सीटों पर दो उम्मीदवार चुने जाने थे और एक पार्टी दो उम्मीदवार भी उतार सकती थी। सोशलिस्ट पार्टी ने 266, भारतीय जनसंघ ने 47, झारखंड पार्टी ने 53 और छोटा नागपुर संथाल परगना जनता पार्टी ने कुल 38 उम्मीदवार उतारे थे।
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वोटों की गिनती हुई तो कांग्रेस को अपनी पुरानी सक्रियता का फायदा मिला। निर्दलीय उम्मीदवार, सोशलिस्ट पार्टी या अन्य दल कांग्रेस के सामने कोई बड़ी चुनौती पेश नहीं कर पाए। कांग्रेस के 239 उम्मीदवार जीते और वह अकेले सरकार बनाने में कामयाब हुई। दूसरे नंबर पर रही झारखंड पार्टी जिसके 32 उम्मीदवार जीते। सोशलिस्ट पार्टी के 23 और छोटा नागपुर संथाल परगना जनता पार्टी के 11 उम्मीदवार जीते। उस चुनाव में बिहार में भारतीय जनसंघ के एक भी उम्मीदवार चुनाव जीते।
रोचक बात है कि आपसी प्रतिद्वंद्विता होने के बावजूद जब श्रीकृष्ण सिन्हा मुख्यमंत्री चुने गए तो उन्होंने कैबिनेट तय करने का काम अनुग्रह नारायण सिंह को दिया और उन्हें डिप्टी सीएम भी बनाया। अनुग्रह नारायण सिंह ही बिहार की पहली आजाद और निर्वाचित सरकार में वित्त मंत्री भी बने।
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