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राज्य बनने से लेकर दंगों में जलने तक, कैसा था आजादी के पहले का बिहार?

जिस बिहार में कभी अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी ने सत्याग्रह किया, उसी बिहार में भीषण दंगे हुए। सैकड़ों लोग मारे गए और आजादी की सुबह तक बिहार दर्द में ही रहा।

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चंपारण सत्याग्रह के दौरान महात्मा गांधी, Photo Credit: Sora AI

भारत को आजादी मिलने से कुछ महीने पहले यानी 28 मार्च, 1947 को एक गाड़ी में दो मजदूर नेता सवार होकर धनबाद से पटना लौट रहे थे। ये दो नेता थे- बिहार प्रांत कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष और अपने दौर के बड़े मज़दूर नेता प्रोफेसर अब्दुल बारी सिद्दीकी और मजदूर नेता साधन गुप्ता। गाड़ी अभी पटना से 30 किलोमीटर की दूरी पर फतुहा पहुंची थी। अचानक तीन अनजान लोगों ने गाड़ी रोक दी। गाड़ी रुकते ही दरवाज़ा खोला और साधन गुप्ता पर राइफल के बट से हमला कर दिया। इतना मारा, इतना मारा कि गुप्ता की मौत हो गई। यह सब देखकर प्रोफेसर अब्दुल बारी सुन्न हो चुके थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि ये कौन लोग हैं? क्यों उनके साथी को मार रहे हैं? एक और बात थी, जो प्रोफेसर बारी उन पलों में समझ नहीं पाए थे।
 
दरअसल, यह हमला साधन गुप्ता के लिए नहीं बल्कि खुद प्रोफेसर बारी के लिए हुआ था। साधन गुप्ता के दम तोड़ते ही हमलावरों ने प्रोफेसर का रुख किया। राइफल तानी और अंधाधुंध फायरिंग की। इतनी गोलियां लगीं कि प्रोफेसर की कुछ सेकेंड्स के भीतर ही मौत हो गई। आजादी के मुहाने पर खड़े देश में यह एक सनसनीखेज़ पॉलिटिकल मर्डर था। अगले दिन हर अखबार में यही हेडलाइन थी। हर चौक-चौराहे पर इसी कत्ल की चर्चा हो रही थी। आजादी की लड़ाई के अगुआ मोहनदास करमचंद गांधी तक हिल चुके थे। इस कत्ल को लेकर और बखेड़ा तब शुरू हो गया जब 29 मार्च की सुबह इंडियन एक्सप्रेस ने एक रिपोर्ट छापी। रिपोर्ट के मुताबिक, हत्या के तीनों आरोपियों के तार INA यानी Indian National Army यानी आजाद हिंद फौज से से जुड़े थे। हालांकि, यह आरोप कभी साबित नहीं हुआ। मामले में कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई और इस सवाल का जवाब कभी नहीं मिल पाया कि हत्या किसके इशारे पर हुई थी।

 

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प्रोफेसर अब्दुल बारी को किसने मरवाया?

 

इस मामले में कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई और ना ही पता चल सका कि यह हत्या किसके इशारे पर हुई थी लेकिन सवाल है कि आख़िर प्रोफेसर बारी की हत्या को पॉलिटिकल मर्डर क्यों कहा जाता है? इसका जवाब अफरोज आलम साहिल अपनी किताब 'प्रोफेसर अब्दुल बारी: आजादी की लड़ाई का एक क्रांतिकारी योद्धा' में दर्ज करते हैं। बिहार प्रांत के पहले प्रधानमंत्री बैरिस्टर मोहम्मद युनूस ने ओरिएंट प्रेस ऑफ इंडिया को एक इंटरव्यू दिया था। जिसमें युनूस ने बताया था कि अपनी हत्या से ठीक तीन दिन पहले प्रोफेसर बारी ने एक धमकी दी थी। कहा था कि वह बिहार दंगों में शामिल बिहार कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं के नाम का खुलासा करेंगे। हत्या के बाद गांधी ने शोक जताया था और कहा था- 'इस घटना में कोई पॉलिटिक्स नहीं है। हत्या को INA के साथ जोड़ना ग़लत होगा।' लेकिन अफरोज आलम की ही एक किताब में गांधी और प्रोफेसर बारी की मुलाकात का एक दिलचस्प किस्सा मिलता है। जिससे पता चलता है कि हर किसी को इस बात का इल्हाम था कि प्रोफेसर की जान को ख़तरा है। हुआ यह कि हत्या से तीन-एक हफ्ते पहले की बात है। 5 मार्च की तारीख़ थी। गांधी कोलकाता से पटना पहुंचे। स्वागत के लिए श्रीकृष्ण सिंह के साथ प्रोफेसर बारी भी मौजूद थे। गांधी ने प्रोफेसर को देखा और हंसते हुए पूछा, 'आप अभी तक ज़िंदा कैसे हैं?' बारी ने कुछ जवाब नहीं दिया।

 

इस कत्ल की कोख से एक सवाल जन्मता है कि आख़िर बिहार दंगे में हुआ क्या था? इस दंगे का बंगाल से क्या कनेक्शन था? जिसका हिस्सा कभी बिहार हुआ करता था? पढ़िए कि बंगाल प्रांत से अलग होने के बाद और आज़ादी की सुबह तक बिहार की सरजमीं पर क्या-क्या हुआ? कहानी जनेऊ आंदोलन की। जब यादव समाज के लोगों पर इसलिए हमला हो गया क्योंकि वे जनेऊ पहन रहे थे। कहानी जाति की उस त्रिवेणी की, जिसके जरिए कांग्रेस में अपर-कास्ट डॉमिनेंस को चुनौती देने की जुगत हुई। बात गांधी की उस कवायद की भी होगी जिसे इतिहास ने चंपारण सत्याग्रह के नाम से याद रखा है और उस यादगार सियासी लम्हे को भी उघाड़ेंगे जिसमें गांधी के आदेश की अवहेलना हुई और बिहार प्रांत के प्रधानमंत्री के चुनाव में राजपूत-भूमिहार वर्चस्व की लड़ाई हुई।

महात्मा गांधी को चंपारण का बुलावा

 

दिसंबर, 1916 की बात है। लखनऊ में अखिल भारतीय कांग्रेस का 31वां अधिवेशन हो रहा था। अलग-अलग राज्यों से कांग्रेस का डेलिगेशन लखनऊ पहुंचा था। बिहार से भी कांग्रेसियों का जत्था पहुंचा था। यह जत्था अधिवेशन में पेश करने के लिए अपने साथ दो प्रस्ताव ले गया था। पहला प्रस्ताव पटना यूनिवर्सिटी बिल से जुड़ा हुआ था। दूसरा प्रस्ताव था चंपारण के किसानों पर हो रहे अत्याचार को लेकर। अधिवेशन शुरू हुआ। पहला प्रस्ताव पेश हो गया। दूसरा प्रस्ताव कुछ देर बाद पेश होना था। तभी बिहार कांग्रेस के लोगों की नज़र गांधी पर पड़ी। डॉ. राजेंद्र प्रसाद अपनी किताब ‘Satyagraha In Champaran’ में बताते हैं कि बिहार कांग्रेस के नेताओं ने गांधी और मदन मोहन मालवीय को चंपारण के बारे में बताया। मालवीय को इस मामले की कुछ जानकारी थी लेकिन गांधी को इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी। एक वजह यह समझ आती है कि वह दो साल पहले ही दक्षिण अफ्रीका से भारत आए थे। संभवतः इसीलिए उन्होंने तब बिहार के नेताओं से साफ-साफ कहा कि पहले वह इस मामले की पूरी जानकारी हासिल करेंगे। उसके बाद ही कुछ कहेंगे। 

 

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तब चंपारण के किसानों ने अपने प्रतिनिधि के तौर पर पंडित राजकुमार शुक्ल को लखनऊ भेजा था। इसी अधिवेशन में राजकुमार शुक्ल ने ही दूसरा प्रस्ताव पेश भी किया। यह पहला मौका था जब कांग्रेस के किसी अधिवेशन में किसानों के मुद्दे पर खुद एक किसान बात कर रहा था। क्या बता रहे थे पंडित राजकुमार शुक्ल? यही कि चंपारण के किसानों पर तिनकठिया प्रणाली थोपी जा रही है। जिसके तहत हर किसान को 20 कट्ठे में से 3 कट्ठा ज़मीन पर नील की खेती करनी पड़ती है। नील की खेती करने से दो तरह के नुकसान थे। पहला- अंग्रेजों ने तय कर रखा है किसान बाज़ार में नील नहीं बेच सकते। नील सिर्फ अंग्रेजों को ही बेचना होगा। जिसके बदले उन्हें बाज़ार के मुकाबले बहुत कम दाम दिया जाता था। दूसरा नुकसान- नील एक भारी फसल थी। उसकी फसल लेने से खेत ख़राब हो जाता था। मिट्टी ऊसर हो जाया करती थी। ऐसा लगता था जैसे खेत में नमक की चादर बिछा दी गई हो। जिसकी वजह से दूसरी फसलों की पैदावार कम हो जाती थी।

 

लौटते हैं लखनऊ वाले अधिवेशन पर। राजेंद्र प्रसाद लिखते हैं कि इस अधिवेशन के बाद बिहार के कुछ लोग महात्मा गांधी के साथ कानपुर भी गए और चंपारण की पूरी डिटेल कहानी बताई। 

 

लखनऊ से लौटने के बाद राजकुमार शुक्ला ने गांधी को चिट्ठी लिखी। आग्रह किया कि वह खुद चंपारण आए। गांधी ने चिट्ठी का जवाब दिया। कहा कि कुछ दिनों में वह कलकत्ता आने वाले हैं, वहीं आकर मिलें लेकिन यह जवाबी पत्र जब तक राजकुमार शुक्ल को मिला, गांधी कलकत्ता से लौटकर दिल्ली जा चुके थे। शुक्ल ने दोबारा पत्र भेजा। अबकी गांधी ने एक तार के जरिए मैसेज भेजा। फिर बोले कि कलकत्ता आकर मिलिए। इस बार मैसेज समय से पहुंच गया। राजकुमार शुक्ला कलकत्ते चल दिए लेकिन इस बारे में किसी को कानो-कान ख़बर नहीं थी। राजकुमार शुक्ल बिहार कांग्रेस के किसी भी नेता को इस बारे में नहीं बता रहे थे। डर था कि गांधी के आने की ख़बर फैली तो प्रशासन पहले ही अलर्ट हो जाएगा। वह कलकत्ता पहुंचे, गांधी से बात हुई। गांधी चंपारण आने को राज़ी हो गए। 

खत्म हुआ तिनकठिया कानून

 

10 अप्रैल, 1917 को गांधी पटना पहुंचे। वहां से राजेंद्र प्रसाद के घर गए। घर पर सिर्फ एक नौकर था। जिसने गांधी को नहीं पहचाना लेकिन साथ में राजकुमार शुक्ल थे जो उन्हें राजेंद्र प्रसाद के घर से मुजफ्फरपुर ले गए। बिहार कांग्रेस के नेताओं को इत्तला किया और फिर यह पूरी टोली चंपारण चल पड़ी। सत्याग्रह शुरू होने से पहले ही पुलिस ने गांधी को गिरफ्तार कर लिया। आदेश दिया गया कि वह ज़िला छोड़कर चले जाएं। गांधी नहीं माने तो मामला कोर्ट पहुंच गया। कोर्ट ने बिना जमानत गांधी को छोड़ने का आदेश दिया लेकिन गांधी इस बात पर अड़ गए कि उन्हें कानून के तहत सज़ा दी जाए। अंत में कोर्ट ने फैसला ही स्थगित कर दिया। गांधी चंपारण गए। नील की खेती करने वाले किसानों का बयान दर्ज करने लगे। गांधी की सक्रियता के दबाव में प्रशासन ने एक कमेटी बनाई। कमेटी को नील की खेती करने वाले किसानों की समस्या का अवलोकन करने का काम सौंपा गया। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में किसानों की समस्या को वाजिब माना और सुधार के लिए कुछ सिफारिशें कीं। नतीजतन चंपारण कृषि अधिनियम 1918 पारित हुआ। जिसके तहत तिनकठिया कानून को समाप्त कर दिया गया।

 

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1917 से पहले गांधी की सारी इमेज साउथ अफ्रीका में किए गए आंदोलन के आधार पर बनी थी। वह एक बैरिस्टर थे जो अफ्रीका में अपना लोहा मनवा कर भारत लौटे थे लेकिन 1917 में चंपारण सत्याग्रह ने उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में से एक बना दिया और यह सब बिहार की धरती पर ही हुआ और आगे चलकर यही नायक महात्मा बना। 

शराब के विरोध में सत्याग्रह

 

देशभर में नमक सत्याग्रह चल रहा था। ब्रिटिश शासन ने गांधी को गिरफ्तार करने का मन बना लिया। 4 मई, 1930 को गिरफ्तारी हो भी गई। गांधी की गिरफ्तारी की ख़बर पूरे देश में आग की तरह पसर गई। इस आग की लपटें बिहार तक पहुंची। बिहार के हर जिला मुख्यालय पर हड़ताल शुरू हो गया। चंपारण में कई स्कूलों में हड़ताल हुई। छात्र प्रदर्शन करने लगे। विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया जा रहा था। कपड़ों का विरोध देखते ही देखते शराब के खिलाफ विरोध में बदल गया। Bihar Through the Ages में रितु चतुर्वेदी और एस. आर. बख्शी लिखते हैं, '14 मई को मोतिहारी के ढेकहा गांव में लोग ताड़ के पेड़ काटने लगे। जिससे ताड़ी निकलती थी। गांव में सकल मिश्र नाम का एक आदमी था। उसने गांव के 20 लोगों के साथ मिलकर आसपास के 6 ताड़ के पेड़ पर लगी लबनी तोड़ दीं।' लबनी मिट्टी का एक बर्तन होता है जिसे ताड़ के पेड़ पर बांधकर लटकाया जाता है। ताड़ से ताड़ी लबनी में ही जमा होती है फिर उसे उतार लिया जाता है। शिकारगंज के एलपी स्कूल के टीचर्स और स्टुडेंट्स ने भी मिलकर कई ताड़ी की दुकानों को बंद करवा दिया था। पूरे मई महीने, चंपारण, मोतिहारी और आसपास के इलाकों में शराब और ताड़ी के खिलाफ यह अभियान जारी रहा।

जनेऊ आंदोलन

 

जब पूरे देश में आजादी की लड़ाई चल रही थी, ज़ाहिर है, बिहार भी उसका हिस्सा था लेकिन यहां एक और लड़ाई थी, जो स्वतंत्रता संग्राम के साथ साथ चल रही थी- लड़ाई जाति की। सदियों तक जिन्हें पिछड़ा कहा गया, वे अब सवर्ण जातियों के वर्चस्व को चुनौती देने लगे थे। इस लड़ाई में जनेऊ से जुड़ा एक किस्सा है। हिंदू धर्म में सोलह संस्कार होते हैं। इनमें एक है यज्ञोपवीत संस्कार। इसके तहत पूरे विधि-विधान से लड़कों को एक पवित्र धागा पहनाया जाता है। जिसे जनेऊ कहते हैं। अमूमन यह तीन या छह धागों का एक फेरा जैसा होता है। जनेऊ का संस्कार है तो हिंदू धर्म का हिस्सा लेकिन उसी हिंदू धर्म की एक बड़ी आबादी जो कथित तौर पर निचली जातियों से आती हैं, जनेऊ नहीं पहनने दिया जाता है। यह संस्कार सिर्फ कथित सवर्ण और ख़ासकर ब्राह्मणों तक सीमित है। यह एक तरह से ब्राह्मण होने के सबूत की तरह भी है। कास्ट स्ट्रक्चर में इसकी अपनी धाक है और इसी धाक को अख़्तियार करने के लिए साल 1925 में जनेऊ आंदोलन शुरू हुआ। 

क्या था यह आंदोलन?

 

बिहार के अलग-अलग हिस्सों में कथित निचली जातियों के लोग एक जगह जुटते थे और फिर एक साथ जनेऊ पहनते थे। सवर्णों में इसे लेकर ख़ूब आक्रोश था क्योंकि सोशल डायनेमिक में उनके पावर को चुनौती देने की ज़मीन तैयार हो रही थी। इस खीझ और गुस्से का नतीजा दिखा 26 मई, 1925 के दिन। लखीसराय के लाखोचक गांव की बात है। जनेऊ आंदोलन के तहत लाखोचक गांव के यादव और अन्य निचली जातियों के लोग एक जगह इकट्ठा हुए। ये सारे लोग तय योजना के तहत एक साथ जनेऊ पहनने वाले थे। तभी यादवों की इस भीड़ पर चौतरफा हमला कर दिया गया। 

 

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प्रसन्न चौधरी और श्रीकांत ने अपनी किताब में इस हमले का ब्यौरा दर्ज किया है। ब्यौरा बताता है कि इलाके के एक बड़े जमींदार हुआ करते थे- प्रसिद्ध नारायण सिंह। भूमिहार जाति से आते थे। प्रसिद्ध नारायण को अपने इलाके में जनेऊ आंदोलन रास नहीं आया। रास नहीं आने का मतलब था हिंसा। प्रसिद्ध नारायण सिंह के साथ विश्वेश्वर सिंह नाम के एक रसूखदार भी थे। विश्वेश्वर हाथी पर बैठे हुए थे। प्रसिद्ध नारायण घोड़े पर। साथ में भूमिहारों और ब्राह्मणों की 3000 की भीड़ थी। ये सब लोग जो हथियार मिला- लाठी, भाला, तलवार, गड़ांसी, कुल्हाड़ी… वह लिए लाखोचक की ओर चल पड़े। थोड़ी ही देर में लाखोचक गांव कुरुक्षेत्र बन गया। ऐसी हिंसा हुई कि पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी। 118 राउंड फायरिंग हुई। पुलिस कर्मी जख़्मी हुए और लोग भी। इस हिंसा और पुलिस की कार्रवाई में लगभग 80 लोगों के मारे जाने की बात कही जाती है। मरने वालों की संख्या ठीक-ठीक कभी पता नहीं चली।

 

बिहार में जातीय हिंसा के इतिहास में इस घटना को पहला मामला बताया जाता है। जातीयता की लड़ाई का इतिहास देखिए कि यही जनेऊ आंदोलन लगभग पांच दशक बाद जय प्रकाश नारायण ने भी चलाया लेकिन तब यह जनेऊ तोड़ो आंदोलन बन गया था। 

जाति की ‘त्रिवेणी’

 

जनेऊ आंदोलन ने जाति की जो लड़ाई छेड़ी उसका ही नतीजा था कि आने वाले वक्त में जातिगत संगठन बनने लगे। पहले पिछड़ी जातियों ने सोशल और पॉलिटिकल स्पेक्ट्रम में अपना अधिकार हासिल करने के लिए संगठन खड़ा किया। काउंटर में सवर्ण जातियों ने भी अपने संगठन बना लिए लेकिन इन संगठनों की पहली खेप दिखती है 1933 में। सरदार जगदेव सिंह ने एक संगठन खड़ा करने का मन बनाया। जिसमें तीन जातियां शामिल हों। यदुनंदन प्रसाद मेहता और शिवपूजन सिंह, सरदार जगदेव सिंह के साथ उस दौर में जुड़े हुए थे। साथ में कई आंदोलन कर चुके थे। जनेऊ आंदोलन में भी काम कर चुके थे। यदुनंदन मेहता और शिवपूजन सिंह को जगदेव सिंह की बात पसंद आई। तीनों ने तय किया कि तीन जातियों का एक संगठन बनाया जाएगा। ये तीन जातियां हैं - यादव, कोईरी और कुर्मी। संगठन का नाम क्या होगा इस पर विचार होने लगा और ध्यान गया प्रयागराज, जो तब इलाहाबाद था। जहां गंगा, यमुना और सरस्वती नदी का संगम था। और इस संगम को त्रिवेणी कहा जाता था। यहीं से संगठन का नाम पड़ा- त्रिवेणी संघ। मोटो लाइन रखी गई- संघे शक्ति कलियुगे। माने कलियुग में संगठन ही शक्ति है। सब कुछ तय-तमाम हो जाने के बाद 30 मई, 1933 को बिहार के शाहाबाद में संगठन औपचारिक तौर पर पहली बार ज़मीन पर उतरा। 

 

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दिलचस्प है कि सरदार जगदेव, यदुनंदन मेहता और शिवपूजन सिंह, तीनों ही कांग्रेस के नेता थे लेकिन तीनों इस बात से परेशान थे कि कांग्रेस पिछड़े तबके के नेताओं को चुनाव नहीं लड़ने देती है। अपनी किताब ‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’ में यदुनंदन प्रसाद मेहता लिखते हैं, 'कांग्रेस ने घोषणा की थी कि योग्य व्यक्तियों को चुनाव में उतारा जाएगा। उन्होंने ऐसे व्यक्तियों की पहचान की। फिर उन्हें बताया गया कि केवल खादी पहनने वाले ही योग्य होंगे। जब उन्होंने खादी पहनने वालों की पहचान की, तो उन्हें बताया गया कि जेल की सजा अनिवार्य योग्यता है। जब यह शर्त भी पूरी हो गई, तो उन्हें बताया गया कि विधानमंडल वह जगह नहीं है जहां सब्जियां बोई जाती हैं, भेड़ें चराई जाती हैं, भैंसों का दूध निकाला जाता है या नमक और तेल बेचा जाता है।'

 

इसे समझ पाने में कोई रॉकेट साइंस नहीं है कि ये काम किस जाति से आने वाले लोग करते थे। त्रिवेणी संघ ने तय किया कि वह खुद अपने बैनर तले पिछड़े तबके के नेताओं को चुनाव लड़ाएंगे। 1937 का चुनाव लड़ाया भी लेकिन त्रिवेणी में सुखार पड़ गया। संघ का उत्साह ढीला पड़ गया। उधर कांग्रेस ने भी बैकवर्ड क्लास फेडरेशन का गठन कर दिया। तो त्रिवेणी के जिन नेताओं का कांग्रेस से नाता रहा था उन्होंने दोबारा कांग्रेस का झंडा उठा लिया और इस तरह त्रिवेणी संघ का झंडा बेरंग हो गया लेकिन इस अभियान ने भविष्य के नेताओं को एक रोडमैप दे दिया था। जिसकी परिणति 60 के दशक और उसके बाद दिखी।

बिहार का प्रधानमंत्री और ठाकुर-भूमिहार की लड़ाई

 

शुरुआत में हमने नमक सत्याग्रह की कहानी बताई। उस कहानी में एक क़िरदार सीन में दिखा था। नाम- श्रीकृष्ण सिन्हा। उस सत्याग्रह से सिन्हा गांधी के प्रिय हो गए थे। प्रिय एक और नेता बन चुके थे- अनुग्रह नारायण सिंह। अनुग्रह नारायण बिहार कांग्रेस के नेता थे और श्रीकृष्ण सिन्हा के दोस्त। नमक सत्याग्रह के बाद बहुत जल्द ये दोनों नेता बिहार में आजादी के आंदोलन में अगुआ बन चुके थे। इन्हीं नेताओं की अगुआई बिहार में भी स्वराज की मांग अपने चरम पर थी और चरम पर थी बरतानिया हुकूमत की तिकड़मबाज़ी कि किसी तरह से भारत को गुलाम बनाए रखा जाए। इसी तिकड़म का नतीजा था कि गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट 1935 लागू किया गया। जिसके तहत देश भर में चुनाव कराए गए। राज्यों में सरकारें बनीं। बिहार में भी चुनाव हुआ। कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन कांग्रेस नेतृत्व दोराहे पर खड़ा था। उलझन थी कि उसे सरकार बनानी चाहिए या फिर सरकार नहीं बनाकर अंग्रेजों से लड़ते रहना चाहिए। इस चुनाव में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी मुस्लिम इंडिपेंडेंट पार्टी। तब बिहार के गवर्नर हुआ करते थे जेम्स डेविड शिफ्टॉन। डेविड ने मुस्लिम इंडिपेंडेंट पार्टी को सरकार बनाने का न्योता दिया। पार्टी के मुखिया मोहम्मद युनूस ने न्योता स्वीकार किया और सरकार बना ली और इस तरह यूनुस बिहार के पहले प्रधानमंत्री बन गए लेकिन डेविड और यूनुस दोनों जानते थे कि ये सरकार अल्पमत की वजह से गिर जाएगी। हुआ भी यही। सरकार गिर गई। तब तक कांग्रेस का कन्फ्यूजन दूर हो चुका था। गवर्नर ने कांग्रेस को सरकार बनाने का न्योता दिया और कांग्रेस ने स्वीकार कर लिया।

 

कहानी में ट्विस्ट यहां से शुरू होता है क्योंकि सरकार बनाने के बाद कांग्रेस को तय करना था कि सरकार का मुखिया यानी बिहार का प्रधानमंत्री कौन होगा? आजादी की लड़ाई का नेतृत्व कर रही कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं के सामने यह अपनी तरह का पहला सवाल था। यह वह वक़्त था जब गांधी पार्टी के मार्गदर्शक थे। हर रणनीति पर आख़िरी मुहर गांधी की ही लग रही थी। ज़ाहिर है यहां भी ऐसा ही होने की उम्मीद थी। बिहार कांग्रेस के विधायकों की मीटिंग से पहले गांधी ने राजेंद्र प्रसाद को आदेश दिया कि प्रधानमंत्री अनुग्रह नारायण सिंह को बनाया जाए। इस आदेश की वजह से एक ऐसा मंज़र तैयार होने वाला था जिसके बाद अनुग्रह नारायण और श्रीकृष्ण सिन्हा के रिश्ते में कुछ ख़लल पड़ने वाली थी।

 

इस मंजर में एक आश्रम है। सदाकत आश्रम। मौजूदा वक्त में पटना में स्थित बिहार कांग्रेस का मुख्यालय। आश्रम में बिहार में जीत हासिल करने वाले कांग्रेसी विधायकों की बैठकी जमी। राजेंद्र प्रसाद हाथ में एक चिट्ठी लिए पहुंचे। जिस पर गांधी की पसंद दर्ज थी। राजेंद्र बाबू ने गांधी की चिट्ठी सबके सामने पढ़ दी लेकिन चिट्ठी का आख़िरी वाक्य ख़त्म होते-होते वह हुआ जिसकी उम्मीद ख़ुद राजेंद्र बाबू को भी नहीं थी। गांधी की इच्छा का विरोध शुरू हो गया। उस जमाने में वकील और कांग्रेस के नेता रहे सर गणेश दत्त ने अनुग्रह नारायण सिंह का विरोध करते हुए श्रीकृष्ण सिन्हा के नाम का प्रस्ताव रख दिया। बड़े गांधीवादी और किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती ने प्रस्ताव का समर्थन कर दिया। सपोर्ट दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह ने भी किया। बात अब जातिगत खेमेबाज़ी तक पहुंच चुकी थी। अनुग्रह नारायण राजपूत। जिन्हें कायस्थ जाति से आने वाले राजेंद्र प्रसाद और उनके गुट का समर्थन हासिल था। दूसरी ओर श्री कृष्ण सिन्हा थे। जो खुद भूमिहार समुदाय से आते थे। भूमिहार जाति के दूसरे विधायकों का समर्थन हासिल था। साथ में था ब्राह्मण गुट का समर्थन क्योंकि उनके पीछे दरभंगा राज खड़े थे।

 

राजपूत बनाम भूमिहार की राजनीति शुरू हो गई और अंत में पलड़ा भारी दिखा भूमिहार गुट का। गांधी के आदेश की अवहेलना हुई और बिहार के प्रधानमंत्री बन गए श्रीकृष्ण सिन्हा। 1937 से 1939 तक वह प्रधानमंत्री के पद पर रहे। याद कीजिए इतिहास की किताबों में आपने पढ़ा होगा कि 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ था। दूसरे विश्वयुद्ध में बगैर भारतीयों की सहमति के भारत को शामिल करने के विरोध में सभी प्रांतों के प्रधानमंत्रियों ने इस्तीफ़ा दे दिया लेकिन दूसरा युद्ध खत्म हुआ तो 1946 में एक बार फिर बिहार विधानसभा के चुनाव हुए। कांग्रेस ने फिर बाज़ी मारी और श्रीकृष्ण सिन्हा दोबारा बिहार के प्रधानमंत्री बन गए। 

आजादी की सुबह और बिहार का दर्द

 

अतीत की कहानी है कि मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग लगातार मुसलमानों के लिए एक अलग देश की मांग पर टिका हुआ था। उन्हें पाकिस्तान चाहिए था। इसी मांग के समर्थन में जिन्ना ने 16 अगस्त, 1946 के दिन 'डायरेक्ट ऐक्शन' का कॉल दिया। नतीजा क्या हुआ? कोलकाता में कत्लेआम। हिंदू-मुस्लिम दंगे शुरू हो गए। कोलकाता में जो आग लगी, उसकी चिंगारी बंगाल के ही नोआखाली तक पहुंच गई। नोआखाली भी धधक उठा लेकिन दंगों की लपटें बिहार भी पहुंचीं। फिर क्या-क्या हुआ? ब्रिटिश इंडियन आर्मी के लेफ्टिनेंट जनरल सर फ्रांसिस टकर ने अपनी किताब 'While Memory Serves' में बिहार दंगों की पूरी कहानी दर्ज की है। 

 

फ्रांसिस टकर लिखते हैं कि 25 और 26 अक्टूबर को छपरा में दंगे भड़के। 63 लोगों को मार दिया गया। दो दिन बाद यही खून-खराबा भागलपुर में हुआ। 50 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। खैरा में कम से कम 20 लोगों को चाकू गोदकर मार दिया गया तो 30 मुसलमानों को आग के हवाले कर दिया गया। इन सब की मौत हो गई। ऐसी घटनाएं अलग-अलग इलाकों में हुए ही जा रही थीं। 4 नवंबर के दिन बिहार शरीफ में तो ऐसे हालात पैदा हो गए पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी। जिसमें 7 लोगों की जान चली गई। 

 

फ्रांसिस टकर लिखते हैं, 'बिहार में दंगे शुरू हो गए थे। हिंदू पूर्वी बंगाल में हुई हत्याओं का मुसलमानों से बदला ले रहे थे। यह कभी पता नहीं चल पाया कि इस सुनियोजित साजिश का आयोजक कौन था। हम बस इतना जानते हैं कि यह एक तय योजना के तहत हुआ। अगर ऐसा नहीं होता, तो इतनी बड़ी भीड़, पूरी तरह से हथियारों से लैस होकर, कभी भी एकजुट नहीं होती।' टकर के इस बयान में एक सवाल है कि बिहार दंगों की प्लानिंग कौन कर रहा था? कौन ये हथियार और पैसे मुहैया करा रहा था? इन सवालों के जवाब भी टकर ही देते हैं। वह लिखते हैं, "ये सब होने के बाद यह अफवाह हम तक पहुंची कि सारी प्लानिंग कोलकाता के मारवाड़ियों की थी। जो कोलकाता में हुए हिंदुओं की हत्या का बदला लेना चाहते थे क्योंकि कोलकाता किलिंग्स की वजह से उनके बिजनेस को धक्का लगा था। हालांकि, मुझे इस अफवाह के बारे में कभी कोई सबूत नहीं मिला।'

 

बहरहाल, दंगे होते रहे। पुलिस छिटपुट फायरिंग करती रही लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। बिहार के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा पर आरोप लगे कि वह हिंदुओं की भीड़ को कंट्रोल नहीं करने दे रहे क्योंकि सिंह खुद उसी धर्म से आते थे। 


खैर, उसी धर्म से गांधी भी आते थे। जिन्होंने 5 नवंबर के दिन अपना सबसे अचूक औज़ार इस्तेमाल किया। गांधी आमरण अनशन पर चले गए। कह दिया कि 24 घंटे में दंगे रोको वरना मैं अपना दम तोड़ दूंगा। गांधी के अनशन ने सरकार से लेकर पुलिस तक की चिंता बढ़ा दी। दंगे बंद हुए। खून के धब्बे उस सड़क पर लग चुके थे जो आज़ादी की सुबह तक पहुंचने वाली थी, सो पहुंची भी। बिहार और पूरा देश 15 अगस्त, 1947 को आजाद हो गया लेकिन फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने हिंदुस्तान और पाकिस्तान की आजादी की सुबह देखकर लिखा था-

 

ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर
वह इंतिज़ार था जिस का ये वह सहर तो नहीं

 

कितने ही सहर बीत गए लेकिन 1946 के वे दाग अब तक नहीं मिटे हैं। बिहार के हिस्से दुधिया सफ़ेदी वाला आसमान नहीं आया। उसे वह ज़मीन मिली जिसकी माटी खून में सनी दिखी। पूरे देश की तरह बिहार भी आजादी की सुबह जब जागा होगा तो कितनी ही उम्मीदें होंगी। क्या उम्मीदें थीं? अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है लेकिन हासिल क्या हुआ? वह हम जानते हैं। किताबों के हवाले से। मीडिया रिपोर्ट्स के हवाले से। और कुछ-कुछ आंखो-देखी भी तो है ही लेकिन ये कहानियां मगध साम्राज्य की अगली किस्त में। यह किस्त यहीं पूरी होती है।

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