साल 1967, भारत की आज़ादी के दो दशक बीते चुके थे। भारत में IITs, एम्स और कई नए विश्वविद्यालय बनकर फ़ंक्शनल हो चुके थे। बड़े संस्थानों में शुरुआत से ही अंग्रेजी वालों का दबदबा था इसलिए तब हायर एजुकेशन एक प्रिविलेज हुआ करता था। ग्रामीण परिवेश के लोगों के लिए वहां तक पहुंचना एक बड़ी चुनौती हो गई थी। उस दौर में अगर कोई व्यक्ति दसवीं या इंटर भी पास कर जाता था, तो उसे बड़े सम्मान की नज़र से देखा जाता था। कैसे इन संस्थानों तक हर वर्ग के लोगों की पहुंच हो, यह सुनिश्चित करने के लिए सरकारें अपना एनालिसिस कर रही थी। ऐसा ही कुछ बिहार में भी हो रहा था। तब बिहार के शिक्षामंत्री थे कर्पूरी ठाकुर। उन्होंने विचार किया कि अगर बिहार के बोर्ड एग्जाम में अंग्रेजी विषय में पास करने को कंपल्सरी ना रखा जाए तो उच्च शिक्षा निचले पायदान के लोगों तक भी पहुंचेगी। सरकार ने इसके बाद दसवीं के बोर्ड एग्जाम से अंग्रेजी में पास करना अनिवार्य नहीं रखा, जो कि आजतक बना हुआ है।
पढ़िए कर्पूरी ठाकुर के उस फैसले की कहानी, जिसे शिक्षा का डेमोक्रेटाइजेशन बताया गया। कैसे कर्पूरी का एक फैसला उन लोगों को कॉलेज के दरवाज़े लेकर आया, जिन्होंने कभी उसका मुंह तक नहीं देखा था। अगर यह वाकई इतना सराहनीय कदम था तो बिहार में कर्पूरी डिवीज़न बोलने पर लोग बिगड़ क्यों जाते हैं?
बिहार और अंग्रेजी भाषा
ब्रिटिश काल के दौरान शासकों और जनता के बीच भाषा की बाधा खूब गहरी हो गई। जो लोग अंग्रेजी जानते थे, वे सरकार और बाकी आबादी के बीच मध्यस्थ बन गए, जिसके कारण जनता में हीनभावना उत्पन्न हुई। यहां से अंग्रेज़ी एलीट और रूलिंग क्लास की भाषा बनी और इसीलिए इसकी तालीम पाने को लेकर सभी लालायित भी रहते थे। आज़ादी के बाद अंग्रेज़ी रोज़गार की भाषा बनी। इसीलिए क्रमशः सरकारों ने सरकारी स्कूलों में भी अंग्रेज़ी पढ़ाना शुरू किया। यही बिहार में भी हुआ। 1967 से पहले बिहार बोर्ड की दसवीं की परीक्षा में एक अनिवार्य पर्चा अंग्रेज़ी का भी होता था।
यह भी पढ़ें- बिहार में कैसे हारने लगी कांग्रेस? लालू-नीतीश और नक्सलवाद के उदय की कहानी
दिक्कत यह थी कि मद्रास और बॉम्बे प्रेसीडेंसी में रहे बाकी इलाकों की तरह बिहार में अंग्रेज़ी शिक्षा की व्यवस्था उतनी दमदार नहीं थी। बिहार के इलाकों की तो बाकायदा यह शिकायत ही थी कि बंगाल प्रेसिडेंसी में अंग्रेज़ों का पूरा ध्यान बंगाली इलाकों तक रहता है। सरकारी नौकरी से लेकर हर एरिया में बिहारी दोयम दर्जे पर थे। अंततः बिहार अलग हुआ लेकिन उसने पहले पेट की परवाह की। अभाव में जी रहे सूबे के लिए शिक्षा एक लग्ज़री आइटम था और इसीलिए प्राथमिकता वैसी नहीं थी, जैसी चाहिए थी। तिस पर अंग्रेज़ी शिक्षा बिलकुल दूर की कौड़ी थी। इसीलिए बिहार में ज़्यादातर छात्र गणित लगा लेते थे, विज्ञान के सूत्र भी लिख आते थे लेकिन अंग्रेज़ी उन्हें नहीं आती थी क्योंकि सिखाने वालों को भी उतनी नहीं आती थी।
https://youtu.be/8WgKL6-1-bw?list=PLBbFm31sQqQekB6iylGwvOAsFyQjEDMzb
दसवीं बोर्ड में अंग्रेज़ी का पर्चा तो अनिवार्य था। जो सही जवाब न लिख पाता, फेल हो जाता। न सिर्फ पर्चे में, बल्कि पूरी परीक्षा में और इसी बात ने बिहार की बड़ी आबादी के पैरों को जकड़ रखा था। वे नौवीं से आगे बढ़ नहीं पा रहे थे। ऐसे में किसी को कुछ करना था और तब कर्पूरी ठाकुर आगे आए। कर्पूरी ठाकुर के अंग्रेजी को अनिवार्य विषय से हटाने के फैसले के खिलाफ लोगों के अपने अलग-अलग मत हैं। 60-70 के दशक में देश की रूपरेखा तय की जा रही थी कि आगे यह देश किस दिशा में आगे बढ़ेगा? इसमें सबसे महत्वपूर्ण थी शिक्षा। देश में नए नए विश्वविद्यालय खोले जा रहे थे। IITs बन रही थीं। नेशनल इंपोर्टेंस के कई और बड़े संस्थानों की स्थापना लगभग उसी समय हो रहे थे लेकिन देखा यह जा रहा था कि सरकारी पैसों पर चलने वाले इन संस्थानों तक देश का हर तबका नहीं पहुंच पा रहा था। इसलिए आमतौर पर इन संस्थानों में ऊंची जाति के लोगों का ही एक्सेस था या वे जो बहुत प्रिविलेज्ड थे। यह समस्या देश की भी थी और बिहार की भी।
यह भी पढ़ें- आजादी के बाद का पहला दशक, कैसे जातीय संघर्ष का केंद्र बना बिहार?
सरकार इस चिंता पर लगातार विचार कर रही थी। तब बिहार के शिक्षामंत्री थे कर्पूरी ठाकुर। उन्होंने पाया कि इसमें सबसे बड़ा रोड़ा अंग्रेजी था। तब बिहार बोर्ड की दसवीं की परीक्षा में अंग्रेजी में पास करना कंपल्सरी था। इसके कारण बहुत मुश्किल से लोग दसवीं पास कर पा रहे थे। देखा यह गया कि उन छात्रों ने बाकी विषयों में काफी अच्छे अंक लाए लेकिन अंग्रेजी के कारण वो परीक्षा पास नहीं कर पा रहे थे। इस कारण उनकी आगे की पढ़ाई वहीं रुक जा रही थी। ग्रामीण परिवेशों में उच्च जाति के लड़कों के साथ भी यह समस्या थी। यह संख्या बहुत ही ज्यादा बड़ी थी।
दसवीं में फेल होने के कारण वे कॉन्स्टेबल तक की नौकरी के लिए फॉर्म नहीं भर पा रहे थे। 'नॉन मैट्रिक' की अपमानजनक संज्ञा अलग तो कर्पूरी ठाकुर ने इन सबको ऑब्जर्व करते हुए उसका संज्ञान लिया।
कर्पूरी ठाकुर ने अंग्रेजी पर लिया बड़ा फैसला
इसी बीच साल 1967 में केन्द्रीय शिक्षा मंत्री यानी तब के मानव संसाधन विकास मंत्री त्रिगुन सेन ने शिक्षा नीति पर एक बैठक बुलाई। जिसमें बिहार के शिक्षा मंत्री कर्पूरी ठाकुर भी शामिल हुए। उस बैठक में कर्पूरी ठाकुर ने शिक्षा नीति पर जो अपने विचार और तर्क रखे, उसे खुद त्रिगुण सेन और बाकी राज्यों से आए प्रतिनिधियों ने भी खूब सराहा। कर्पूरी ठाकुर ने इस बैठक में उच्च शिक्षा के लोकतांत्रिकरण की बात की कि कैसे शिक्षा जन-जन तक पहुंचे। इसको लेकर उन्होंने जो तर्क रखे उसे अखबारों में भी खूब सराहा गया।
यह भी पढ़ें- राज्य बनने से लेकर दंगों में जलने तक, कैसा था आजादी के पहले का बिहार?
तो त्रिगुण सेन के साथ इस बैठक के बाद कर्पूरी ठाकुर जब बिहार लौटे तो वह मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा से मिले। उनसे बातचीत करके ये बड़ा फैसला लिया गया कि अब बिहार बोर्ड के दसवीं की परीक्षा में अंग्रेजी अनिवार्य विषय नहीं होगा। सिर्फ इस परीक्षा में बैठने मात्र से आप पास माने जाएंगे। परीक्षा में पास करना भले न अनिवार्य हो लेकिन बैठना अनिवार्य होगा। मैट्रिक पास करने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता हटाने के इस कदम ने सरकार और विपक्ष दोनों को चौंका दिया, जिससे कि बड़ा विवाद उत्पन्न हो गया। किसी भी मापदंड से यह एक साहसी निर्णय था, जिसके महत्वपूर्ण सामाजिक निहितार्थ थे। रूलिंग क्लास और सामंतवादियों ने इस निर्णय की घोर आलोचना की। इसे शिक्षा प्रणाली पर हमला करार दिया गया।
कर्पूरी को क्यों मिला लोहिया का साथ?
इसमें कर्पूरी को उनके नेता डॉ राम मनोहर लोहिया का भरपूर साथ मिला। समाजवादी नेताओं जैसे डॉ. लोहिया ने आजादी के बाद अंग्रेजी का कड़ा विरोध किया था और हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने की वकालत की थी। जवाहरलाल नेहरू ने हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी सरकार की भाषा के रूप में महत्वपूर्ण बनाए रखा जबकि जापान, जर्मनी, फ्रांस, रूस और चीन जैसे देशों ने अंग्रेजी पर निर्भर हुए बिना अपनी पहचान स्थापित की। इन देशों के सरकारी कामकाज इनकी अपनी भाषा में ही होता है। डॉ. लोहिया इस बात पर खासा जोर देते थे।
लोहिया क्षेत्रीय भाषाओं के उपयोग की ज़ोरदार वकालत करते थे। लोकसभा में एक बहस के दौरान डॉ. लोहिया ने इस बात पर जोर दिया था कि यदि देश का काम जनता की भाषा में नहीं किया जाता तो लोकतंत्र सही तरीके से कार्य नहीं कर सकता। उनका मानना था कि क्षेत्रीय भाषाओं के उपयोग के बिना लोगों की सरकार असंभव है।
वापस आते हैं कर्पूरी ठाकुर से उस फैसले पर। कर्पूरी ठाकुर की खुद की अंग्रेजी खराब नहीं थी। वह अंग्रेजी लिखने और बोलने दोनों में अच्छे थे लेकिन वह मानते थे कि कोई विदेशी भाषा इतना बड़ा बोझ ना बन जाए जिससे कि किसी व्यक्ति की आगे की शिक्षा ही रुक जाए। वह मानते थे कि अंग्रेजी सिखना ज़रूरी है लेकिन यह एकमात्र मकसद नहीं होना चाहिए। कर्पूरी और लोहिया इस बात में विश्वास रखते थे कि भाषा कभी भी नॉलेज की जगह नहीं ले सकती। उनका मानना था कि बिना भेदभाव के सभी छात्रों को बराबर मौका मिलना चाहिए।
यह भी पढ़ें- बिहार चुनाव 1962: कांग्रेस की हैट्रिक, विपक्ष ने दी बदलाव की आहट
कर्पूरी ठाकुर के इस फैसले के बस कुछ ही दिनों बाद एक घटना बड़ी चर्चित रही थी। बिहार के ऊर्जा मंत्री और वरिष्ठ समाजवादी नेता बिजेंद्र प्रसाद यादव इस घटना का जिक्र करते हैं। यह घटना 1967 की है। भागलपुर के तिलका मांझी कॉलेज में एक सेमिनार आयोजित की गई थी, जिसमें शिक्षा मंत्री कर्पूरी ठाकुर मुख्य अतिथि थे। डॉ. सीपी सिंह नाम के एक प्रोफेसर ने टिप्पणी की थी कि कर्पूरी ठाकुर एक नाई हैं और उन्हें अंग्रेजी नहीं आती। बस इसलिए उन्होंने दसवीं की परीक्षा के लिए अंग्रेजी को अनिवार्य विषय से हटा दिया। किसी तरह कर्पूरी ठाकुर को यह बात पता चल गई। हालांकि, उन्होंने अपना भाषण हिंदी में तैयार किया था लेकिन उन्होंने अपना पूरा भाषण अंग्रेजी में दिया। इस दौरान उन्होंने अंग्रेजी के कुछ कठिन शब्दों का भी इस्तेमाल किया। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि डॉ. लोहिया अंग्रेजी में बहुत अच्छे थे, मगर जहां जरूरी था, वहीं इसे बोलते थे। उनका तर्क था कि अंग्रेज़ी बाकी भाषाओं की तरह ही सिर्फ एक भाषा है। कार्यक्रम के बाद, आयोजकों ने स्थानीय अंगिका बोली में प्रोफेसर से पूछा, ‘की रे सीपी, बुझलय अंग्रेजी? क्या रे सीपी? अंग्रेजी समझ आई?
कर्पूरी ठाकुर ने फैसला तो ले लिया। अब बारी थी नतीजों की। आश्चर्यजनक रूप से उसके अगले ही साल दसवीं की परीक्षा में पास होने वाले छात्रों की संख्या उसके पिछले साल से लगभग दोगुनी रही। अंग्रेजी को अनिवार्य विषय से हटाने के बाद ही बिहार स्कूल परीक्षा बोर्ड (बीएसईबी) की सफलता दर में लगभग 100 प्रतिशत की वृद्धि हुई क्योंकि उम्मीदवारों को 'अंग्रेजी के बिना पास' घोषित कर दिया गया। अंग्रेजी में फेल होकर भी परीक्षा पास करने को बिहार में 'कर्पूरी डिवीजन' कहा जाता है। मगर जिस उद्देश्य से यह किया गया था, वह परिणाम देखने में थोड़ा वक्त लगता। पांच-छ साल का वक्त बीत जाने के बाद आखिरकार नतीजा देखने को मिला। इस कार्यकाल में कर्पूरी ठाकुर भले ही छ महीने के लिए रहे लेकिन इन नतीजों ने उन्हें बहुत प्रासंगिक रखा।
विश्वविद्यालय में बढ़ने लगे ग्रामीण तबके के छात्र
मुख्य रूप से इसके दो फायदे देखने को मिले। अचानक से ही चार-पांच सालों में ऐसा देखा गया कि पटना विश्वविद्यालय में ओबीसी और दलितों की संख्या बढ़ने लगी। इसके अलावा ग्रामीण परिवेश से उच्च जाति के लड़के-लड़कियों की भी संख्या बढ़ी। दूसरा फायदा यह हुआ कि बिहार सरकार की ऐसी कई नौकरियां जिसमें न्यूनतम योग्यता दसवीं पास थी, उसमें भी वे शामिल हो पा रहे थे। ना सिर्फ न्यूनतम अहर्ता को पूरा कर रहे थे बल्कि नौकरी भी मिल रही थी। इससे यह चीज़ निकलकर आई कि नॉलेज के लेवल पर वह उतने योग्य थे लेकिन अंग्रेजी ने उनका रास्ता रोक रखा था। कर्पूरी ठाकुर के इस निर्णय ने एक समावेशी और समान शिक्षा प्रणाली का मार्ग प्रशस्त किया, जो देश में बोली जाने वाली सभी भाषाओं और बोलियों को महत्व देती थी।
अपनी किताब बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम में प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत लिखते हैं कि कर्पूरी ठाकुर के इस इनिशिएटिव ने बहुत जल्द ही सकारात्मक परिणाम दिए थे। अगर राम मनोहर लोहिया लंबे समय तक ज़िंदा रहते तो इसका इंप्लिमेंटेशन नेशनल लेवल पर भी देखने को मिलता। जैसे-जैसे समय बीतता गया, उस वक्त की एलीट पटना यूनिवर्सिटी की सामाजिक संरचना भी बदलने लगी। यूनिवर्सिटी में ग्रामीण परिवेश से आए पिछड़े और दलितों की संख्या बढ़ने लगी। इसके बाद वही लोग उच्च शिक्षा के लिए देश-विदेश भी गए।
यह भी पढ़ें- बिहार चुनाव 1952: पहले चुनाव में कांग्रेस का जलवा, श्रीकृष्ण बने CM
इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कर्पूरी ने शिक्षा पर एलीट क्लास के अघोषित एकाधिकार को तोड़ा। फिर उस वक्त की अपनी एक दूसरी समस्या भी थी। अंग्रेजी एक विदेशी भाषा थी और उस दौर में इसे समझने या बोलने वालों की संख्या बहुत कम थी। इसलिए लंबे वर्षों तक यह देखा गया कि बिहार के सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी के योग्य शिक्षकों का अभाव रहा। इसलिए योग्य शिक्षकों के अभाव में अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रूप में अपनाना एक कठिन काम था।
कर्पूरी ने सरकारी कार्यालयों में अनिवार्य की हिंदी
कर्पूरी ठाकुर ने अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान, परंपराओं को काफी हद तक तोड़ा और 'राष्ट्रीय विकास परिषद' के मंच पर हिंदी की सर्वोच्चता स्थापित की। उन्होंने सभी सरकारी अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे फाइलें केवल हिंदी में ही प्रस्तुत करें और किसी भी अधिकारी ने इस नियम का उल्लंघन करने की हिम्मत नहीं की। जिन्होंने ऐसा किया, उन्हें त्वरित परिणाम भुगतने पड़े। 1967 में जब वह बिहार के शिक्षामंत्री थे तो उन्होंने उर्दू को दूसरी आधिकारिक भाषा बनाने के आंदोलन को बड़ा प्रोत्साहित किया लेकिन राज्य में इसके घातक परिणाम देखने को मिले। भारतीय जनसंघ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन जैसे संगठनों ने उर्दू विरोधी आंदोलन शुरू कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि रांची और हटिया में 22 से 29 अगस्त के बीच भयानक रूप से दंगा भड़का। इस दंगे में 184 लोग मारे गए। मारे जाने वाले लोगों में 164 मुस्लिम शामिल थे।
इसके बाद में प्रदेश में जब पहली बार जनता पार्टी की सरकार बनी और कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने, सिंचाई मंत्री सच्चिदानंद सिंह ने एक सर्कुलर जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि अंग्रेजी इस्तेमाल करने वाले सरकारी कर्मचारियों को सजा दी जाएगी। मंत्रालय और सरकारी कार्यालयों से अंग्रेजी टाइपराइटर तक हटा दिए गए थे। निर्देश था कि केंद्र और अन्य राज्यों से पत्राचार भी हिंदी में होगा और अंग्रेजी के लिए विशेष अनुमति लेनी होगी। अंग्रेजी अखबारों को विज्ञापन भी हिंदी में देने का आदेश दिया गया था, भले ही उसमें अतिरिक्त लागत आए।
उस वक्त तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. जी. रामचंद्रन ने इस सर्कुलर की आलोचना की थी और कहा था कि बिहार सरकार तीन-भाषा फॉर्मूले के बजाय सिर्फ एक भाषा चाहती है, जो देश की एकता के लिए ठीक नहीं है। जब यह विवाद बढ़ा तो कर्पूरी ठाकुर ने एम. जी. रामचंद्रन को शांत करने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि बिहार सरकार तमिल पढ़ाने की योजना बना रही है ताकि राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिले। हम अंग्रेजी के खिलाफ नहीं हैं लेकिन यह विदेशी भाषा हटनी चाहिए। इस बात का भी खासा विरोध हुआ था क्योंकि बिहार में तमिल बोलने वाले लोग एक प्रतिशत भी नहीं थे।
कर्पूरी ठाकुर के इस फैसले के बाद कई मुख्यमंत्री बने लेकिन उनके फैसलों को नहीं पलटा। भले ही वह विपक्ष में रहते हुए उस चीज़ का विरोध कर रहे थे लेकिन सरकार में आने के बाद इस फैसले को पलटना गरम तवे पर बैठने जैसा था क्योंकि यह सच है कि इसके सकारात्मक परिणाम दिख रहे थे और अंग्रेज़ी की हिमायत का जोखिम हिंदी पट्टी में कौन ही लेता।
लालू यादव की सोच कर्पूरी से उलट क्यों थी?
कर्पूरी ठाकुर के बाद ओबीसी की कमान संभालते हैं, लालू प्रसाद यादव। मगर इस विषय पर उनका विचार कर्पूरी ठाकुर से ठीक उलट था। लालू यादव जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने माध्यमिक स्तर पर अंग्रेजी को कंपल्सरी करने की कोशिश की। लालू यादव को यह डर था कि अगर पिछड़ा वर्ग ने अंग्रेजी को गंभीरता से नहीं लिया, तो कंप्यूटर और नए तकनीकों के दौर में वह मुख्यधारा से पीछे रह जाएंगे। लालू यादव का कहना था कि बिना अंग्रेजी के कोई व्यक्ति इस दौड़ में नहीं जीत सकता। उनकी चिंता यह भी थी कि अगर बिहार का पिछड़ा वर्ग अंग्रेजी में निपुण नहीं होगा तो राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं में उसकी भागीदारी कम हो जाएगी। लालू यादव वह नेता थे जो जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संपूर्ण क्रांति के दौरान पटना की सड़कों पर अंग्रेजी साइनबोर्ड को काला करते हुए कहते थे कि यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद की विरासत है। मगर धीरे-धीरे उन्हें समझ आने लगा कि दुनिया ग्लोबलाइज़ हो चुकी है और उससे ताल मिलाने के लिए आपको अंग्रेज़ी सीखनी होगी।
मगर जैसे ही उन्होंने अंग्रेजी विषय को अनिवार्य करने की कोशिश शुरू की, जनता दल के विधायकों ने ही उनका विरोध करना शुरू कर दिया। तब राजभाषा मंत्री थे, विजय कृष्ण। नीतीश कुमार के बेहद करीबी। उन्होंने कहा, 'हम अंग्रेजी को फिर से थोपने के कदम का विरोध करेंगे क्योंकि यह स्वतंत्रता संग्राम की उपलब्धियों को उलटने का प्रयास है।' तभी जनता दल के विधायकों ने एक नारा भी लगाया था, 'अंग्रेजी में काम न होगा, फिर से देश गुलाम न होगा।' बीजेपी ने भी लालू यादव के इस इरादे का विरोध किया था। जनता दल के विधायकों ने लालू यादव पर कर्पूरी, लोहिया और जेपी के विचारों के साथ विश्वासघात करने का आरोप लगाते हुए उनसे इस्तीफे तक की मांग कर डाली थी। इस विरोध के बाद लालू यादव तुरंत बैकफुट पर चले गए। लालू ने सफाई दी कि वह इस मुद्दे पर एक बहस चाहते थे ताकि इस बात पर चर्चा हो कि क्या वक्त की मांग है कि यह फैसला लिया जाए? वह थोपने की कोशिश नहीं कर रहे हैं।
जनता दल के एक नेता भोला प्रसाद सिंह ने कहा था कि बिहार के 90 प्रतिशत मंत्री भी अंग्रेजी वर्णमाला में अंतर नहीं कर पाएंगे। उन्होंने कहा कि 1967 में जब मैं मंत्री था तो अंग्रेजी साइनबोर्ड को काला करता था। इस तरह का कोई कदम डॉ राम मनोहर लोहिया के विचारों के खिलाफ होगा।
यह भी पढ़ें- बिहार चुनाव 1957: फोर्ड का काम और जोरदार प्रचार, दोबारा जीती कांग्रेस
तब लालू यादव के बेहद करीबी रंजन यादव ने अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रूप में शुरू करने की वकालत की थी। दावा करते हुए कि बिहारी छात्र अपनी अंग्रेजी की कमजोरी के कारण प्रतियोगी परीक्षाओं में पिछड़ जाते हैं। सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि सरकार और विपक्ष में शामिल सारे नेताओं के बच्चे खुद प्राइवेट अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ते थे लेकिन जब सरकारी स्कूल में इसपर ज़ोर देने की बात होती थी तो उनका मत होता था कि अंग्रेजी को जबरदस्ती थोपा जा रहा है। मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू यादव ने 1995 में अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य देशों की यात्रा की और इसके बाद अंग्रेजी भाषा के प्रति उनका आकर्षण बढ़ता गया। लालू यादव को इन्फ्लुएंस में करने में उनके एक आईटी विशेषज्ञ दामाद का सबसे बड़ा रोल था। उन्होंने एक बार युवाओं को एड्रेस करते हुए बताया था कि उनके दामाद ने साइबर प्रौद्योगिकी में बिहार को गति देने के लिए अंग्रेजी शुरू करने की आवश्यकता पर जोर दिया है। खैर लालू यादव के बाद जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने, तब भी इस विषय पर ज्यादा बात नहीं हुई जबकि दावा यह किया जाता है कि नीतीश कुमार के रिजीम में शिक्षा व्यवस्था पहले से बेहतर हुई है।
अंग्रेजी पर क्या बोले विशेषज्ञ?
बिहार में अंग्रेज़ी शिक्षा पर हमने विशेषज्ञों से भी बात की। बिहार के ही रहने वाले और JNU में प्रोफेसर मनिंदर ठाकुर बताते हैं, 'इस बात में कोई संदेह नहीं कि अंग्रेजी भाषा में ही सबसे ज्यादा नॉलेज क्रिएट किया जा रहा है। अगर हम यह तय कर लें कि नहीं हमें अंग्रेज़ी पढ़नी ही नहीं, तो फिर भाषा छोड़िये हम ज्ञान तक हासिल नहीं कर पाएंगे। अगर हिन्दी के लिए कुछ बेहतर करना ही है तो आप बढ़िया से बढ़िया किताबों का हिन्दी अनुवाद कराएं। जो कि अब तक असफल है।'
उन्होंने मध्य प्रदेश का एक उदाहरण दिया। 2023 में मध्य प्रदेश सरकार ने करोड़ों रुपये लगाकर MBBS की किताबों का हिन्दी अनुवाद कराया था। उसका खूब प्रचार किया गया। किताबें मुफ्त में बांटी गई लेकिन वे किताबें हिन्दी मीडियम के छात्रों के लिए भी बस सजावट बनकर रह गई। जब परीक्षा हुई, तो एक भी स्टूडेंट ने हिन्दी में अपना पेपर नहीं लिखा। इससे यह रिफ्लेक्ट हुआ कि शायद हिन्दी अनुवाद का वह स्तर नहीं कि वह मौलिक रूप से अंग्रेजी में लिखे कॉन्टेंट की बराबरी कर सके।
मनिंदर ठाकुर ने हमें अपने छात्र जीवन की एक कहानी सुनाई। उन्होंने कहा, '1990 में हमने एक आंदोलन किया था कि IITs अपनी एंट्रेंस परीक्षा भारतीय भाषाओं में भी ले। हमने यह नहीं कहा था कि IIT अपनी पढ़ाई हिन्दी में कराने लगे। अंग्रेज़ी पढ़ने वाले लोग 3% थे और भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले 97% थे। IIT के एंट्रेंस में उस 3% से 97% लोग आ रहे थे और 97% से 3% लोग। तो हमने कहा था कि भारतीय भाषाओं में एंट्रेंस ले लीजिए। जो जिस भाषा में उस विषय को समझता है, वह उस भाषा में अपना उत्तर देगा। इसके बाद अगर उनका सेलेक्शन हो जाता है, तो दो-तीन महीने पहले बुलाकर उन्हें अंग्रेजी का कोर्स करा दीजिए। यदि हम IIT को हिन्दी में पढ़ाने के लिए कहते तो हमारा IIT बर्बाद हो जाता क्योंकि हिन्दी में तो हमने उस ज्ञान का वैसा संकलन किया नहीं है, जैसा IIT में अंग्रेजी में पढ़ाया जाता है।'
अंत में उन्होंने कहा कि बिहार के सारे दलों को इसपर विचार करना चाहिए और बिहार के छात्रों के हित में सर्वसम्मति से यह फैसला लेना चाहिए कि अंग्रेजी भाषा को अनिवार्य किया जाए और इसपर स्कूलों में जोर दिया जाए कि कोई भी बच्चा फेल ना हो और भविष्य में उसको वह संघर्ष ना करना पड़े जो अभी भी हिन्दी पट्टी के छात्रों को बड़े-बड़े संस्थानों में आकर करना पड़ता है।
बिहार में बच्चों को बेहतर तकनीक के साथ अंग्रेजी भाषा की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए। इतना कि भाषा उसके लिए कोई इश्यू ही ना हो। जब तक आप अंग्रेजी को कंपल्सरी नहीं करेंगे, तब तक ना तो बच्चों पर यह दबाव होगा कि वे अंग्रेजी सीखें और ना ही टीचर्स इसका लोड लेंगे कि बच्चे फेल हो जाएंगे। सबसे ज़्यादा निश्चिंत अंग्रेजी के ही शिक्षक हैं, क्योंकि उनपर इस बात का दबाव नहीं है कि उन्हें बच्चों को पास कराना है।
किसी भाषा के ना जानने के दर्द को खत्म करने का एक ही तरीका है कि उस भाषा को जान लें। आज के समय में ज्ञान सृजन की सबसे बड़ी भाषा ही अंग्रेजी है। अंग्रेज़ी वह अकेली भाषा है, जिसका सीधा संबंध रोज़गार से है। इस सच्चाई को बिहार की राजनीति स्वीकारने में वक्त ले रही है और कितना, यह हम आपको देखना है।