केंद्र सरकार ने एडवोकेट (अमेंडमेंट) बिल वापस ले लिया है। देशभर के वकीलों ने इस विधेयक का विरोध किया था। विधेयक में कई संशोधन ऐसे थे, जिनकी वजह से वकील खुद परेशानी में पड़ सकते थे। वे दूसरों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ते हैं लेकिन इस विधेयक की कुछ धाराओं में वे खुद भी मुकदमे का शिकार हो सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट से लेकर जिला अदालतों तक के वकीलों ने एक साथ इस अधिनियम का विरोध किया।
वकीलों की हड़ताल और सरकार को भेजे गए ढेरों पत्रों के बाद मंत्रालय ने विधेयक वापस ले लिया। इसमें कई बड़े बदलावों का प्रस्ताव था। वकीलों ने इतने बड़े पैमाने पर शायद ही कभी किसी अधिनियम या बिल का विरोध किया हो। ज्यादातर वकीलों का कहना था कि यह सरकार का तानाशाहीपूर्ण रवैया है, वकालत खत्म करने की कोशिश है। वकीलों ने यूपी, बिहार से लेकर कश्मीर और कन्याकुमारी तक इस बिल के खिलाफ प्रदर्शन किया।
बार काउंसिल ऑफ उत्तर प्रदेश के पूर्व अध्यक्ष मधुसूदन त्रिपाठी ने कहा, 'केंद्र और राज्य सरकार अधिवक्ताओं पर नियंत्रण करना चाहती है। अभी तक अधिवक्ता सरकारी नियंत्रण से बाहर होते थे, अब उनके संवैधानिक अधिकारों को खत्म करने की कोशिश की जा रही है। सरकार धारा 47, 48, 7 और 9 को संशोधित करके बार काउंसिल के अधिकार सीमित करना चाहती है।'
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अलग-अलग राज्यों की बार काउंसिल की कार्यकारिणी भी इस विधेयक के खिलाफ उतरी। आखिर ऐसा इस कानून में क्या था कि 22 फरवरी, 2025 को, केंद्र सरकार ने एडवोकेट (अमेंडमेंट) एक्ट 2025 को वापस ले लिया।

वकीलों के ऐतराज की वजह क्या थी?
एडवोकेट एक्ट में जिस मसौदे का जिक्र था, उस पर अधिवक्ताओं को आपत्ति थी। विधेयक में एडवोकेट एक्ट 1961 को संशोधित करने के लिए कहा गया था, जिसके तहत देश में वकील कानून की प्रैक्टिस करते हैं। बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने फैसले के विरोध में केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल को पत्र लिखा और कहा कि प्रस्तावित संशोधन, बार की स्वायत्तता और स्वतंत्रता के लिए खतरा हैं।
क्यों बदलाव करना चाहती थी केंद्र सरकार?
केंद्र सरकार का तर्क था कि यह कानून 1961 का है। देश की ऐसी जरूरतें हैं कि अब बदलावों की जरूरत है। केंद्र का यह भी तर्क है कि नए बदलाव, देश की जरूरतों के हिसाब से वकीलों को तैयार करेगा। यह बिल साल 2023 के ड्राफ्ट पर आधारित था, जिसे दलालों से मुक्त करना था। केंद्र का कहना था कि गैर जरूरी अधिनियमों को हटाने के लिए इन्हें तैयार किया जाएगा।
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किन प्रावधानों पर आपत्ति थी?
- वकीलों से हड़ताल का हक छीनना। धारा 35-ए अधिवक्ताओं और बार एसोसिएशनों को हड़ताल करने से रोक रही थी।
- हड़ताल भी प्रोफेशनल मिसकंडक्ट की श्रेणी में आएगा।
- जो लोग हड़ताल में शामिल होंगे, उन पर 1961 के अधिनियम और बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के तहत एक्शन होगा।
- विधेयक का कहना कि वकील अदालती कार्यवाही को बाधित न करें या मुवक्किलों के अधिकारों का उल्लंघन न करें।
हड़ताल रोकने पर क्यों भड़के वकील?
अदालतें हड़ताल विरोधी रही हैं। न्यायपालिका पर 4 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वकीलों को हड़ताल करने का हक नहीं है। केंद्र के कानूनी जामा पहनाने के बाद वकील भड़क गए। उनका तर्क है कि ये कानून वकीलों से उनके विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने का हक छीन लेंगे।
हड़ताल पर सबसे ज्यादा बवाल क्यों?
सिद्धार्थ नगर सिविल बार एसोसिएशन के सदस्य आनंद कुमार मिश्र बताते हैं कि हड़तालें विरोध का प्रतीक रही हैं। वकील सबके हक की लड़ाई लड़ता है, जजों का एक बड़ा धड़ा वकीलों पर ही दबाव बनाना चाहता है, सरकार और स्थानीय प्रशासन भी। वकीलों के सामने कई चुनौतियां होती हैं, अगर उन्हें धरना देने, विरोध प्रदर्शन करने से रोक दिया जाएगा तो सरकारी संस्थाएं तानाशाह बन जाएंगी।
सरकारों के बढ़ते दखल से भी परेशान थे वकील
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता सौरभ शर्मा बताते हैं, 'यह प्रावधान वकीलों के संवैधानिक अधिकार का भी हनन करता है। यह अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करता है। इलाहाबाद हाई कोर्ट के वकील अभिनव झा ने कहा, 'वकील अपनी मांग और समस्याओं को उठाने के लिए हड़ताल और बहिष्कार का सहारा लेते हैं। इसे छीन लेना उनकी आवाज दो दबाने जैसा है। इसका खत्म होना जरूरी था।'
वकीलों पर ही जुर्माना लगाने का था प्रावधान
एडवोकेट आनंद कुमार मिश्र ने कहा कि एडवोकेट एक्ट में वकीलों पर 3 लाख रुपये तक जुर्माना लगाने का प्रावधान तय किया गया था। धारा 35 में ही अगर वकील दोषी पाया जाता है तो उस पर 35 लाख रुपये तक का जुर्माना लग सकता है। यह कानून वकीलों के लिए ही घातक था। अगर बार काउंसिल, जज या मुवक्किल से उनकी अनबन हो जाए तो उनके खिलाफ इस धारा का इस्तेमाल किया जा सकता है।

एडवोकेट पूर्णेंदु त्रिपाठी ने बताया, 'ये संशोधन वकीलों पर गैर जरूरी दबाव बनाने के लिए लाए गए थे। उनकी निजता हनन की जाने की कोशिश की जा रही थी। झूठी शिकायतों पर उन्हें जुर्माना देना पड़ता लेकिन वकीलों को कोई सुरक्षा नहीं मिलती। अगर शिकायत झूठी पाई जाती तो शिकायत कर्ता पर 50 हजार रुपये का जुर्माना लगाया जा सकता था। अगर वकील के खिलाफ झूठी शिकायत दर्ज की जाती है, तो उसके लिए कोई सुरक्षा नहीं है। यह एकतरफा और अन्यायपूर्ण है। इसे हटाना जरूरी था।'
'वकीलों का सस्पेंशन' संशोधन की सबसे विवादित धारा
एडवोकेट शुभम गुप्ता ने कहा, 'पहली बार किसी सरकार ने वकीलों के अधिकारों को खत्म करने की कोशिश की थी। वकीलों को क्लर्क बनाने की साजिश की जा रही थी। धारा 36 इसलिए ही बनाई गई थी कि बार काउंसिल ऑफ इंडिया किसी वकील को निलंबित कर दे। राजनीति की तरह बार काउंसिल में भी पर सत्तारूढ़ व्यक्ति, विपक्षी वकील के खिलाफ इसे हथियार के तौर पर इस्तेमाल करता। यह अन्यायपूर्ण था।'
'वकीलों को निपटाने की थी तैयारी'
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता विशाल अरुण मिश्र ने कहा, 'प्रस्तावित संशोधनों से वकीलों की भूमिका कमजोर हो सकती थी। वकील न्यायपालिका का अहम हिस्सा हैं। उन्हें अगर न्यायिक प्रक्रिया से हटा दिया जाएगा तो फिर उनके होने का मतलब क्या था। वकीलों की कार्यप्रणाली में न सरकारी हस्तक्षेप हो, न उन्हें न्यायपालिका-विधायिका अपने आधीन करने की कोशिश न करे।'
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BCI में बढ़ जाती सरकार की दखल
प्रस्तावित कानून में BCI के सदस्यों के अलावा, 3 अन्य सदस्यों को नामित करने का अधिकार केंद्र के पास होता। अटॉर्नी जनरल, सॉलिसिटर जनरल और हर राज्य के बार काउंसिल की ओर से चुना गया एक प्रतिनिधि। BCI को इस प्रावधान पर भी ऐतराज था। यह बेहद कठोर था। इसे मनमाने ढंग से किया गया था।
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता विशाल अरुण मिश्र बताते हैं, 'विधेयक की धारा 49 बी कहती है कि केंद्र सरकार BCI को बाध्यकारी आदेश दे सकती है, राज्यों की बार परिषद पर नजर रख सकती है। जब सरकार के खिलाफ हम हर अदालत में लड़ाई लड़ते हैं तो सरकार का हम पर दखल क्यों। ऐसे आदेश न्यायपालिका को कमजोर करेंगे। अधिवक्ता न्यायालय के अधिकारी होते हैं। उन पर लगाम, केवल न्यायपालिका को कमजोर ही करेगी।' सरकार अब इस दिशा में सोचे भी न।
बेकार हो जाते राज्य के बार काउंसिल
केंद्र के संशोधन BCI के अधिकारों को बढ़ाने वाले थे, राज्य के बार काउंसिल के आधिकारों को सीमित करते थे। अधिवक्ताओं से बदसलूकी की शिकायतों का निपटारा राज्य बार काउंसिल की अनुशासनात्मक समितियां करती हैं। धारा 45 बी में BCI को अधिकार दिया गया था कि देश भर में किसी भी अधिवक्ता के खिलाफ शिकायतों पर यह संस्था विचार कर सकती है, उन्हें निलंबित कर सकती है। धारा 48B के तहत BCI राज्य बार काउंसिल को भंग करने और इसे एक समिति के साथ बदलने का अधिकार रख सकती है। ऐसे में इन कानूनों के दुरुपयोग होने की आशंका थी। BCI और राज्य बार काउंसिल अलग-अलग प्रावधान के तहत स्थापित हुए हैं, उन्हें खत्म कर देना कानूनी तौर पर भी गलत है।
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विदेशी फर्म पर सबसे ज्यादा है आपत्ति
एडवोकेट अभिषेक सक्सेना ने कहा, 'विदेशी लॉ फर्म और कॉर्पोरेट वकीलों की मान्यता पर भी वकीलों ने सबसे ज्यादा आपत्ति जताई है। विधेयक की धारा 2(I) लीगल प्रैक्टिशनर से जुड़ी थी। विदेशी लॉ फर्मों और कॉर्पोरेट संस्थाओं से जुड़े वकीलों के काम करने पर आपत्ति थी। यह नहीं होना चाहिए। केंद्र भारत में विदेशी लॉ फर्मों और वकीलों की एंट्री कंट्रोल कर सकता है।'