एशियाई देश अफगानिस्तान कभी उतना महत्वपूर्ण नहीं रहा जितना इन दिनों बना हुआ है। अफगानिस्तान में 2021 में हुए सत्ता परिवर्तन और देश में आए नए तालिबानी शासन के बाद से दुनिया के किसी भी देश ने नई सरकार को मान्यता तक नहीं दी है लेकिन हाल के दिनों में अफगानिस्तान एक नहीं बल्कि तीन देशों के लिए जरूरी बन गया है।

 

तीनों देश अफगानिस्तान के पड़ोसी हैं। सभी तालिबान के साथ अपनी नजदीकियां बढ़ा रहे हैं। ये तीनों देश भारत, पाकिस्तान और ईरान हैं। अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी का हाल पिछले एक महीनें में इतने व्यस्त कभी नहीं हुए जितने इन दिनों हुए हैं। आए दिन उनकी किसी ना किसी देश के विदेश मंत्री से मुलाकातों का दौर चल रहा है। 


मुत्ताकी-जयशंकर की बातचीत

 

विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी पाकिस्तान के विदेश मंत्री इशाक डार से 19 अप्रैल को मुलाकात की थी। इसके कुछ दिनों बाद मुत्ताकी ने भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर से फोन पर बात की थी, उससे भी पहले भारत के विदेश सेक्रेटरी विक्रम मिसरी ने दुबई में जाकर विदेश मंत्री मुत्ताकी से बाई लेवल मीटिंग की थी। इन घटनाक्रमों के बीच आमिर खान मुत्ताकी ने ईरान और चीन की आधिकारिक यात्रा की।

 

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मुत्ताकी की पाकिस्तान के विदेश मंत्री से मुलाकात

 

चीन में मुत्ताकी ने एक बार फिर से पाकिस्तान के विदेश मंत्री इशाक डार से मुलाकात की। बीते बुधवार को, उन्होंने पाकिस्तान और चीन के प्रतिनिधिमंडलों के साथ त्रिपक्षीय बातचीत की। यह अभूतपूर्व घटनाक्रम तब हो रहे हैं जब तालिबान के पाकिस्तान और ईरान के साथ तनावपूर्ण संबंध रहे हैं। वर्तमान में में तालिबान शासन पाकिस्तान में आतंकी घटनाओं में शामिल होकर उसकी आर्मी पर हमले करने में शामिल रही है। इसकी वजह से तालिबान के पाकिस्तान के साथ तनावपूर्ण संबंध हैं। 

 

तालिबान को औपचारिक रूप से मान्यता नहीं

 

बताना जरूरी है कि संयुक्त राष्ट्र और इसके किसी भी सदस्य देश ने तालिबान को औपचारिक रूप से मान्यता नहीं दी है। इसके बावजूद अफगानिस्तान के पड़ोसी ये देश औपचारिक मान्यता से बचते हुए तालिबान के साथ कूटनीतिक रूप से जुड़ने के लिए कतार में क्यों खड़े हैं? अचानक से अफगानिस्तान, भारत, पाकिस्तान और ईरान के लिए इतना अहम क्यों बन गया है? आइए समझते हैं...

 

दरअसल, तालिबान आज के अफगानिस्तान की वास्तविकता है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। तालिबान समूचे अफगानिस्तान के ऊपर शासन कर रहा है और सभी फैसलों के लिए जिम्मेदार है। ऐसे में अगर किसी भी देश को अफगानिस्तान से कुटनीतिक संबंध स्थापित करने हैं तो उसे तालिबान से बात करनी ही होगी। 

 

तालिबान के करीब क्यों आ रहा है भारत?

 

भारत के तालिबान के साथ कभी भी अच्छे रिश्ते नहीं रहे हैं लेकिन पूर्व राष्ट्रपति अशरफ गनी के शासन के समय दिल्ली के काबुल के साथ बेहतर संबंध थे। साल 1996 और 2001 के बीच तालिबान के शुरुआती शासन के दौरान भारत सरकार ने तालिबान के साथ संबंध रखने से मना कर दिया था। साथ ही अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता को मान्यता नहीं दी थी। 

 

2001 में अमेरिका ने तालिबान को अफगानिस्तान की सत्ता से उखाड़ फेंका, जिसके बाद भारत ने काबुल अपना दूतावास फिर से खोला। इसके बाद से भारत ने रणनीतिक रूप से लगातार अफगानिस्तान में भारी निवेश किया है। भारत ने अफगानिस्तान में डैम से लेकर सड़क निर्माण, पावर प्लांट्स, बांध निर्माण, संसद भवन के निर्माण, ग्रामीण विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में निवेश किया है। 

भारत ने अभी भी निवेश जारी रखा है। अफगानिस्तान के विदेश मंत्रालय के मुताबिक भारत ने देश के अंदर इन परियोजनाओं में 3 बिलियन डॉलर से भी ज्यादा का निवेश किया है।

 

 
अगस्त 2021 में तालिबान के सत्ता में वापस आने के बाद, भारत ने काबुल में अपना दूतावास खाली कर दिया और एक बार फिर तालिबान को मान्यता देने से इनकार कर दिया। हालांकि, इस बात जब तालिबान सत्ता में आया है तो वह पहले के मुकाबले बदला हुआ है। भारत ने 2021 के बाद से तालिबान के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए हैं। 

 

दरअसल, भारत को यह एहसास हो गया था कि तालिबान के साथ संबंध खराब होने से अफगानिस्तान में दिल्ली का प्रभाव कम हो रहा था, जिससे अफगानिस्तान में पाकिस्तान वहां बातचीत के जरिए अपनी एकतरफा पैठ बना रहा था। इस घटना को देखते हुए भारत ने जून 2022 में राजनयिकों की एक टीम तैनात करके काबुल में अपना दूतावास फिर से खोल दिया। वहीं, 2024 में तालिबान ने मुंबई में अफगान वाणिज्य दूतावास में एक कार्यवाहक वाणिज्यदूत नियुक्त किया।

 

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पाकिस्तान का गणित क्या है?

 

पाकिस्तान 1996 से 2021 के बीच तालिबान के सबसे बड़े समर्थकों में से एक देश रहा है लेकिन हाल के सालों में तालिबान के साथ पाकिस्तान के संबंध सबसे खराब हुए हैं। 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से पाकिस्तान के बलूचिस्तान में हिंसक हमले होने लगे हैं। इन हमलों में बड़ी तादात में पाकिस्तान आर्मी के जवान मारे गए हैं। बलूचिस्तान में हो रहे हिंसक हमलों की ज्यादातर जिम्मेदारी तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) लेता रहा है। 

 

पाकिस्तान भी हमलों के लिए टीटीपी को जिम्मेदार मानते हुए कहता है कि टीटीपी अफगानिस्तान की धरती से काम करता है। साथ ही टीटीपी पर सत्तारूढ़ तालिबान का हाथ होने का आरोप लगाता है। हालांकि, पाकिस्तान के इन आरोपों को तालिबान सरकार नकारती रही है।

 

दरअसल, पहलगाम आतंकवादी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ 'ऑपरेशन सिंदूर' लॉन्च किया। इसके बाद दोनों देशों में घातक संघर्ष देखने के मिला। पाकिस्तान को इसका अंदेशा होने लगा कि 'संघर्ष' के दौरान अफगानिस्तान अपने क्षेत्र का इस्तेमाल भारत को पाकिस्तान के खिलाफ सौंप सकता है। अगर ऐसे होता तो पाकिस्तान की पश्चिमी सीमा पर भी संघर्ष बढ़ सकता था।

इसको देखते हुए पाकिस्तान, अफगानिस्तान के साथ अपनी नजदिकियां बढ़ाने पर जोर दे रहा है।


ईरान तालिबान से क्या चाहता है?


भारत की तरह, ईरान ने भी सत्ता में आने पर तालिबान को मान्यता देने से इनकार कर दिया था। साल 1998 में तालिबान के लड़ाकों ने मजार-ए-शरीफ में ईरान के राजनयिकों की हत्या कर दी थी। इसके बाद ईरान ने अपनी पूर्वी सीमा पर हजारों सैनिकों का डिप्लॉयमेंट कर दिया, जिसके बाद तालिबान के साथ युद्ध की स्थिति बन गई थी।

 

9/11 आंतकी हमले के बाद अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य कार्रवाई बढ़ने के बाद ईरान ने चुपचाप तालिबान के साथ बातचीत शुरू कर दी थी। अफगानिस्तान में अमेरिका के प्रभाव का मुकाबला करने और अपने रणनीतिक हितों की रक्षा करने के लिए ईरान ने तालिबान को समर्थन की पेशकश की। बता दें कि ईरान और अफगानिस्तान दोनों ही अमेरिका को अपना दुश्मन मानते हैं।

 

2021 में अफगानिस्थान के फिर से सत्ता में आने के बाद से ईरान ने फिर से तालिबान के साथ सुरक्षा, मानवीय और व्यापार को लेकर संबंध बनाने की इच्छा दिखाई है। ईरान, अफगानिस्तान के साथ अपने व्यापार संबंधों का विस्तार करने की भी कोशिश कर रहा है क्योंकि काबुल ईरान का एक प्रमुख व्यापारिक साझेदार है।