भारत के संवैधानिक परिदृश्य में बहुत रोचक घटनाएं हो रही हैं। अगर सोशल मीडिया को देखें तो संविधान के सारे आर्टिकल्स पर कोई ना कोई चर्चा कर रहा है। हर व्यक्ति अपने हिसाब से एक आर्टिकल बदलना चाहता है। किसी को आर्टिकल 326 में बदलाव चाहिए ताकि हर कोई वोट ना करे। किसी को नागरिकता में बदलाव चाहिए, किसी को अधिकारियों को सूली पर चढ़ाना है, किसी को केंद्र और राज्य के रिश्तों में बदलाव चाहिए तो किसी को कुछ, किसी को कुछ। पर यह यूं ही नहीं हो रहा। इसके पीछे एक तगड़ी वजह है- न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच अनजाना टकराव।
इसीलिए संविधान निर्माताओं ने एक बैलेंस बनाने का सोचा था। नतीजतन भारतीय संविधान में सेपरेशन ऑफ पावर्स की थ्योरी रखी गई थी लेकिन प्रैक्टिकल में एनक्रोचमेंट ऑफ पावर्स हो रहा है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में बैलेंस ही नहीं बन पा रहा। विधायिका के निर्णयों को न्यायपालिका चैलेंज कर रही, तो न्यायपालिका को विधायिका चैलेंज कर रही। वहीं कार्यपालिका बोल तो कुछ नहीं रही लेकिन चैलेंज वह सबको कर रही। यह एनक्रोचमेंट ऑफ पावर जनता तक पहुंच रहा। इसलिए हर व्यक्ति सोशल मीडिया पर अपने हिसाब से कुछ संवैधानिक बदलाव चाहता है। वह तय ही नहीं कर पा रहा कि कौन सही है कौन गलत। किसी को सही ठहराये तो रिपोर्ट आ जाती है उसकी गलतियों की। किसी को गलत ठहराए तो वीडियो वायरल हो जाता है गरीबों की मदद करते हुए।
न्यायपालिका और विधायिका
संसद में काफी विवादों के बाद वक्फ बिल पास हुआ। अब सुप्रीम कोर्ट ने संसद से पास हुए वक्फ बिल पर सुनवाई चालू की है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस पर नाराजगी जताते हुए सुप्रीम कोर्ट को सुपर पार्लियामेंट बताया है और साथ ही यह भी कहा है कि संविधान का आर्टिकल 142 सुप्रीम कोर्ट का न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है। इस आर्टिकल के तहत सुप्रीम कोर्ट संसद के निर्णयों का रिव्यू कर सकता है। इसके पहले कानून मंत्रियों ने भी सुप्रीम कोर्ट पर लगातार निशाना साधा है। सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम सिस्टम को लेकर हमेशा घेरे में रहा है। इसके अलावा जुडिशरी में पेंडिंग केसेज और भ्रष्टाचार के आरोपों पर अपारदर्शी रवैये को लेकर भी हाल फिलहाल में सुप्रीम कोर्ट की बहुत आलोचना हुई है।
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गौरतलब है कि उपराष्ट्रपति संवैधानिक पद होते हुए भी नॉमिनल है क्योंकि उपराष्ट्रपति को हटाने के लिए इम्पीचमेंट की आवश्यकता नहीं है, राज्यसभा एक रिजोल्यूशन लाकर उनको हटा सकती है। इसके अलावा उपराष्ट्रपति को हटाने के लिए किसी ग्राउंड की जरूरत नहीं है, ऐसे भी हटा सकते हैं। अगर राज्यसभा ऐसा करती है, तो इसका विवाद सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही सुलझा सकता है। उपराष्ट्रपति के पास सिर्फ एक जिम्मेदारी है- राज्यसभा का चेयरमैन बनना। इसके अलावा संसद से पास होने वाले बिलों पर वह सिर्फ एक नागरिक की हैसियत से बोल सकते हैं। उनकी मुख्य जिम्मेदारी तब शुरू होती है, जब राष्ट्रपति का पद किन्हीं कारणों से खाली हो जाता है। ऐसे में उपराष्ट्रपति से सुप्रीम कोर्ट के बारे में ऐसा सुनना हैरानी भरा है।
वहीं सुप्रीम कोर्ट संसद के निर्णयों की समीक्षा तो कर रहा है लेकिन जस्टिस यशवंत वर्मा के घर बरामद हुए करोड़ों रुपयों पर एक कमिटी बनाने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहा। वहीं, खबर आई है कि यशवंत वर्मा इलाहाबाद हाई कोर्ट ट्रांसफर होने के बाद भी दिल्ली वाला अपना घर खाली नहीं कर रहे। ‘मैं खाली नहीं करूंगा’- यह कैसे संभव है? यहां पर सुप्रीम कोर्ट घेरे में आता है कि आपकी अकाउंटेबिलटी कौन तय करेगा? परंपरागत रूप से यह माना गया है कि न्यायपालिका खुद ही खुद को चेक करेगी। पर सोशल मीडिया पर लोग इस बात को उठा रहे। संभल-संभलकर क्योंकि कॉलर नीचे रखने, शर्ट के बटन खोलने के कारण न्यायालय लोगों को जेल भेज देता है।
न्यायपालिका और कार्यपालिका
पिछले कुछ वर्षों में कार्यपालिका की तरफ से बुलडोजर एक्शन हुआ है। न्यायपालिका ने इसमें आदेश दिए आप सिर्फ आरोप के आधार पर किसी का घर नहीं गिरा सकते लेकिन कार्यपालिका ने सुना ही नहीं या वहां तक न्यायपालिका का लिखित आदेश, मुहर लगाकर नहीं पहुंचा होगा, चाहे वो पूरे देश में पहुंच गया होगा- कार्यपालिका ने कई जगह अपना काम बदस्तूर जारी रखा है।
इसी तरह न्यायपालिका ने सिविल मामलों को क्रिमिनल मामला बनाने को लेकर कार्यपालिका को धमकाया कि ऐसा फैसला देंगे कि जीवन भर याद रखोगे लेकिन जनता ही जानती है कि कार्यपालिका कैसा धमकाती है और लोग कैसे जीवन भर याद रखते हैं। कहने का मतलब यह कि न्यायपालिका कार्यपालिका को कोर्ट रूम में ही धमका पा रही है। उस धमकी का असर जनता के प्रति कार्यपालिका के रवैये में नहीं दिख रहा। आर्टिकल 309 से लेकर 311 तक कार्यपालिका के अधिकारियों के लिए बना है, पर इसको लोग भूल सा गये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह कहीं लागू ही नहीं हो रहा।
कार्यपालिका और विधायिका
यूपी, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ समेत तमाम राज्यों के अफसरों पर आय से कई सौ गुना ज्यादा संपत्ति रखने के सबूत मिले हैं। अगर किसी अधिकारी के पास सौ करोड़ की संपत्ति मिल रही है, तो इसमें कौन सा सबूत चाहिए? लेकिन कार्यपालिका खुद ही इन मामलों की जांच करती है तो कई जगह यह भी पाया गया है कि अधिकारियों को पहले जेल भेजा गया, फिर उन्हें बाहर निकालकर प्रमोशन दिया गया। कहने का मतलब यह कि विधायिका के कंट्रोल में नहीं है कार्यपालिका। वह अपनी मर्जी से चल रही है। भारत के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ था कि अधिकारियों के पास सौ सौ करोड़ की संपत्ति मिले, वह भी खुले में। पर कोई कार्रवाई नहीं हो पा रही। हर राज्य से निरंकुश शासन की खबरें आती हैं, पर कोई नियंत्रण नहीं हो पा रहा। आप एक राज्य को मॉडल बताने का प्रयास करेंगे तब तक उसी राज्य में बवाल शुरू हो जाएगा। जनता लाचार है। जनता को पता है कि विधायिका संसद में कानून बनाती है, पर कानून होता वही है जो कार्यपालिका कहती है। साहब के बोले हुए शब्द कानून हैं। साहब का फैसला सबसे बड़ा फैसला है।