बिहार में कांग्रेस पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) की बैसाखी के सहारे चल रही है। आखिरी बार कांग्रेस ने यह बैसाखी छोड़ने की कोशिश 2010 में की थी। तब सभी 243 सीटों पर अकेले उतरी कांग्रेस औंधे मुंह गिरी थी और 4 सीटें ही जीत पाई थी। मौजूदा समय में कांग्रेस महागठबंधन का ही हिस्सा है लेकिन धीरे-धीरे वह खुद के पैर मजबूत करने की कोशिश भी करने लगी है। राहुल गांधी ने हाल ही में कहा था कि उनकी पार्टी में कुछ ऐसे नेता हैं जो दूसरी पार्टियों की मदद करते हैं। अब लगता है कि ऐसे नेताओं को किनारे लगाना भी शुरू कर दिया गया है। इसी क्रम में बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष को बदला गया है और दलित समुदाय से आने वाले विधायक राजेश कुमार को कमान सौंपी गई है। दूसरी तरफ तमाम वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी के बावजूद कन्हैया कुमार ने अपनी पदयात्रा शुरू कर दी है। कहा जा रहा है कि कन्हैया को पार्टी हाई कमान का आशीर्वाद प्राप्त है और वह रुकने वाले नहीं हैं।

 

कांग्रेस ने इस यात्रा का नाम 'पलायन रोको, नौकरी दो यात्रा' रखा है। कन्हैया कुमार की अगुवाई में यह यात्रा चंपारण से शुरू की गई है। 16 मार्च को जब यह यात्रा शुरू हुई तब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में अखिलेश प्रसाद सिंह, NSUI के अध्यक्ष वरुण चौधरी, बिहार कांग्रेस प्रभारी कृष्णा अल्लावरु,  भारतीय युवा कांग्रेस के अध्यक्ष उदय भानु और NSUI प्रभारी कन्हैया कुमार मौजूद थे। दो दिन बाद ही एक बदलाव हो चुका है और राजेश कुमार को बिहार कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया है।

 

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भले ही यह NSUI और यूथ कांग्रेस की संयुक्त यात्रा हो लेकिन यह स्पष्ट है कि कन्हैया कुमार इसे लीड कर रहे हैं। हालांकि, इसका औपचारिक ऐलान नहीं किया गया है कि कन्हैया कुमार इसके अगुवा हैं। चर्चाएं हैं कि राहुल गांधी भी इस यात्रा में शामिल हो सकते हैं। 16 मार्च को शुरू हुई यह यात्रा 24 दिन तक चलेगी। रोचक बात यह है कि आरजेडी नेता तेजस्वी यादव भी लंबे समय से रोजगार और पलायन के मुद्दे को उठा रहे हैं। ऐसे में इस यात्रा को तेजस्वी यादव और आरजेडी के लिए भी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। दरअसल, शुरुआत से ही यह माना जाता है कि आरजेडी और लालू परिवार कभी भी कन्हैया कुमार को लेकर सहज नहीं रहा है। 2019 में जब कन्हैया कुमार बिहार के बेगूसराय से लोकसभा का चुनाव लड़े थे तब आरजेडी ने तनवीर हसन को टिकट दिया था। हालांकि, तब कन्हैया कुमार लेफ्ट के नेता थे। 2023 में जब कन्हैया कुमार प्रजापति सम्मेलन में आए तो मुख्य अतिथि होने के बावजूद तेजस्वी यादव इस कार्यक्रम में नहीं गए।

 

'एकला चलो' की राह पकड़ने की हिम्मत दिखाएगी कांग्रेस?

 

दरअसल, कांग्रेस में आमतौर पर यही प्रथा रही है कि जो भी प्रभारी आता है वह शिष्टाचार भेंट करने लालू प्रसाद यादव के यहां जरूर जाता है। कांग्रेस में जारी बदलावों के तहत 14 फरवरी को जब कृष्णा अलावरू को बिहार कांग्रेस का प्रभारी बनाया गया, उसके बाद अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में ही अलावरू ने अपने बयान से खलबली मचा दी। तब उन्होंने कहा, 'घोड़े दो तरह के होते हैं। एक शादी में जाने वाले और दूसरे रेस वाले। कांग्रेस अब रेस वाले घोड़े पर दांव लगाएगी।'

 

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इस साल खुद राहुल गांधी दो बार बिहार जा चुके हैं। महिला कांग्रेस की अध्यक्ष अल्का लांबा फरवरी में बिहार गईं। बिहार प्रभारी बनने के बाद खुद कृ्ष्णा अलावरू अब तक तीन बार बिहार जा चुके हैं लेकिन उन्होंने एक भी बार लालू प्रसाद यादव या आरजेडी के किसी अन्य नेता से मुलाकात नहीं की। एक तरफ बिहार कांग्रेस जोश में दिख रही है तो कृष्णा अलावरू ने 31 मार्च तक सभी बूथों पर बूथ लेवल एजेंट तय करने का लक्ष्य रखा है। ऐसे में अगर कांग्रेस इसी रफ्तार में चलती रही तो वह गठबंधन में भी अपनी स्थिति मजबूत कर सकती है। हालांकि, वह अकेले चुनाव में उतरने का रिस्क लेगी, ऐसा फिलहाल तो नहीं लग रहा है।

चुनावी गणित और रिकॉर्ड से समझिए

 

दरअसल, पिछले 6 विधानसभा चुनावों में दो बार कांग्रेस पार्टी ने अकेले चुनाव लड़ने का रिस्क लिया था। एक चुनाव 2000 का था जब बिहार का विभाजन नहीं हुआ था और झारखंड उसका हिस्सा था। तब कांग्रेस ने कुल 324 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 11.06 पर्सेंट वोट के साथ सिर्फ 23 सीटों पर उसे जीत हासिल हुई थी। कांग्रेस ने दूसरा प्रयास 2010 में किया और बिहार की सभी 243 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ा। सीटों के लिहाज से देखें तो यह कांग्रेस का सबसे बुरा प्रदर्शन था। कांग्रेस को सिर्फ 4 सीटों पर जीत मिली और उसे 6.66 प्रतिशत वोट ही मिले।

 

 

2015 का चुनाव सीटों के लिहाज से कांग्रेस के लिए काफी बेहतर साबित हुआ। कांग्रेस को गठबंधन में 41 सीटें मिली थीं और 27 सीटें जीतने में उसे कामयाबी भी मिली। 2020 में कांग्रेस ने और सीटें मांगीं और 70 सीटों पर चुनाव लड़ी। ज्यादा सीटों पर लड़ने से कांग्रेस का वोट प्रतिशत तो बढ़ा लेकिन उसकी सीटें 27 से घटकर 19 पर आ गईं। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस गठबंधन में चुनाव लड़ी और बिहार की 40 में से सिर्फ एक सीट महागठबंधन को मिली और वह सीट भी कांग्रेस ने ही जीती। 2024 में कांग्रेस कुल 9 लोकसभा सीटों पर लड़ी और 3 सीटों पर जीत हासिल की। पप्पू यादव भी अब कांग्रेस के ही साथ हैं तो उन्हें लेकर यह संख्या 4 हो जाती है।

 

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इन आंकड़ों को देखा जाए तो कांग्रेस फिलहाल तो अकेले लड़ने के लिए तैयार नहीं है और न ही पुराने आंकड़े उसके पक्ष में रहे हैं। हालांकि, अभी भी चुनाव में 6-7 महीने का समय है और अगर कांग्रेस इतने समय में अपने पक्ष में माहौल बनाने में कामयाब होती है तब शायद वह जरूर अपनी स्थिति में कुछ बदलाव ला सके।