सनातन धर्म-शास्त्रों में भगवान शिव को समर्पित कई मंत्रों का उल्लेख किया गया है। हालांकि, इन सभी मंत्रों में महामृत्युंजय मंत्र को अत्यंत शक्तिशाली और दिव्य मंत्र है। यह मंत्र भगवान शिव को समर्पित है और इसका उपयोग विशेष रूप से काल, रोग, कष्ट और मृत्यु के भय को दूर करने के लिए किया जाता है।

 

इस मंत्र को 'त्र्यम्बक मंत्र' भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें भगवान शिव को 'त्र्यम्बक' यानी तीन नेत्रों वाले के रूप में संबोधित किया गया है। यह मंत्र 'ऋग्वेद' और 'यजुर्वेद' का हिस्सा है और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इसे 'मृत्यु पर विजय प्राप्त करने वाले मंत्र' के रूप में भी जाना जाता है।

महामृत्युंजय मंत्र

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

 

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महामृत्युंजय मंत्र के उत्पत्ति की कथा

महामृत्युंजय मंत्र के उत्पत्ति कब और कैसे हुई इससे जुड़ी कई कथाएं धर्म ग्रंथों में बताई गई हैं। एक कथा के अनुसार महामृत्युंजय मंत्र की उत्पत्ति का संबंध ऋषि मार्कण्डेय और भगवान शिव की कथा से जुड़ा हुआ है। कथा के अनुसार, ऋषि मृकण्डु और उनकी पत्नी मरुद्वती संतानहीन थे। उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए भगवान शिव की घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और वरदान दिया। शिवजी ने कहा कि उन्हें एक तेजस्वी पुत्र प्राप्त होगा लेकिन उसकी आयु सिर्फ 16 साल होगी और इसके बाद उसकी मृत्यु हो जाएगी। मृकण्डु ऋषि और मरुद्वती ने इसे स्वीकार कर लिया और उन्हें मार्कण्डेय नामक पुत्र की प्राप्ति हुई।

 

मार्कण्डेय बचपन से ही शिवभक्त और ज्ञानी बालक थे। उन्होंने वेद-पुराणों का गहन अध्ययन किया और छोटी आयु में ही एक महान ऋषि बन गए। जब उनका 16वां जन्मदिन नजदीक आया, तो उनके माता-पिता बहुत दुखी हो गए। उन्होंने मार्कण्डेय को उनकी अल्पायु के बारे में बताया। यह जानकर मार्कण्डेय ने शिवजी की आराधना करने का निश्चय किया।

 

16वें वर्ष के अंतिम दिन, यमराज उन्हें लेने आए। उस समय मार्कण्डेय शिवलिंग के पास बैठकर भगवान शिव की आराधना में लीन थे। उन्होंने पूरी श्रद्धा और भक्ति से स्वयं द्वारा रचित महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना शुरू किया। यह मंत्र भगवान शिव को समर्पित है और उसमें शिव की कृपा से मृत्यु पर विजय पाने की शक्ति है।

 

जब यमराज ने मार्कण्डेय पर पाश फेंका, तो वह शिवलिंग के चारों ओर लिपट गए। इससे शिवजी अत्यंत क्रोधित हो गए और वहां प्रकट होकर यमराज को रोक दिया। भगवान शिव ने यमराज को चेतावनी दी कि जो भक्त उनके संरक्षण में है, उसे कोई हानि नहीं पहुंचा सकता। इसके बाद शिवजी ने मार्कण्डेय को दीर्घायु और अमरता का वरदान दिया।

एक अन्य कथा

ऋग्वेद के अनुसार, महामृत्युंजय मंत्र का प्रकट होना ब्रह्मांड के अस्तित्व और उसके संरक्षण के लिए हुआ था। यह कथा उस समय की है जब ब्रह्मांड में असुरों का आतंक बढ़ रहा था और मृत्यु का भय हर जीव पर हावी था। ब्रह्मा के मानस पुत्र ऋषि मरीचि ने इस मंत्र की खोज की और इसका पहला उच्चारण किया। उन्होंने इसे तपस्या के दौरान भगवान शिव से प्राप्त किया।

 

कहानी के अनुसार, एक बार राजा चन्द्रकेतु नामक एक धर्मात्मा राजा को असुरों के श्राप से मृत्यु का भय सताने लगा। राजा ने ऋषि मरीचि से सहायता मांगी। ऋषि ने अपने गहन तप और ध्यान के माध्यम से यह दिव्य मंत्र शिवजी से प्राप्त किया और राजा को इसका जाप करने की सलाह दी। मंत्र की शक्ति से न केवल राजा की मृत्यु टली, बल्कि उन्होंने अपने राज्य को असुरों के आतंक से मुक्त भी किया।

 

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एक अन्य कथा के अनुसार, यह मंत्र महर्षि वशिष्ठ ने संसार को प्रदान किया। एक बार चंद्रदेव को ऋषि दक्ष के श्राप से ग्रस्त होकर क्षय रोग हो गया। दक्ष प्रजापति, जो चंद्रमा के ससुर थे, ने चंद्रमा को यह श्राप दिया था कि वह क्षीण होता जाएगा। यह स्थिति समस्त सृष्टि के लिए हानिकारक थी, क्योंकि चंद्रमा के घटने से जीवन के अनेक चक्र प्रभावित हो रहे थे।
चंद्रदेव ने इस समस्या से उबरने के लिए महर्षि वशिष्ठ और अन्य ऋषियों की शरण ली। 

 

महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें महामृत्युंजय मंत्र का उपदेश दिया और इसे भगवान शिव की आराधना के लिए उपयोग करने को कहा। चंद्रदेव ने कठोर तपस्या और मंत्र जाप के माध्यम से भगवान शिव को प्रसन्न किया। भगवान शिव ने प्रसन्न होकर चंद्रमा को उनके श्राप से मुक्ति प्रदान की और उन्हें आकाश में स्थायी स्थान दिया। इस घटना के कारण चंद्रमा को ‘सोम’ और भगवान शिव को ‘सोमेश्वर’ के नाम से भी जाना जाता है।

 

Disclaimer- यहां दी गई सभी जानकारी सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं पर आधारित हैं। Khabargaon इसकी पुष्टि नहीं करता।