देवी शक्ति की उपासना में भारत की परंपरा सदियों से समृद्ध रही है। इसी परंपरा में एक विशेष स्थान रखता है शिवकृत दुर्गा स्तोत्र, जिसे स्वयं भगवान शिव ने रचा था। माना जाता है कि इस स्तोत्र का पाठ करने से साधक को अद्भुत शक्ति, साहस और सुरक्षा का आशीर्वाद प्राप्त होता है। पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार, जब असुरों के आतंक से देवता भयभीत हुए और बार-बार पराजित हो रहे थे, तब भगवान शिव ने मां दुर्गा की स्तुति करते हुए यह स्तोत्र गाया था। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर मां दुर्गा प्रकट हुईं और देवताओं को शक्ति प्रदान की, जिससे उन्हें विजय प्राप्त हुई।

 

इस स्तोत्र में देवी को न केवल पार्वती के रूप में, बल्कि लक्ष्मी, सरस्वती, राधा, गंगा और तुलसी के रूप में भी पूजित किया गया है। इसमें देवी को सृष्टि की रचयिता, पालनकर्ता और संहार करने वाली शक्ति कहा गया है। यही वजह है कि इसे पढ़ने से साधक को विद्या, धन, शांति और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। मान्यता के अनुसार, इस स्तोत्र के पाठ से शत्रुओं का नाश होता है और संकट के समय यह सुरक्षा कवच की तरह काम करता है।

 

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शिव कृत दुर्गा स्तोत्र

रक्ष रक्ष महादेवि दुर्गे दुर्गतिनाशिनि।
मां भक्त मनुरक्तं च शत्रुग्रस्तं कृपामयि॥

 

भावार्थ

हे महादेवी दुर्गे! जो दुख और संकट को नष्ट करने वाली हैं, कृपामयी माता अपने भक्त की रक्षा कीजिए, जो आपसे प्रेम करता है और शत्रुओं से घिरा हुआ है।


विष्णुमाये महाभागे नारायणि सनातनि।
ब्रह्मस्वरूपे परमे नित्यानन्दस्वरूपिणी॥

 

भावार्थ

हे विष्णुमाया, हे नारायणी आप सनातन हैं, ब्रह्मस्वरूपा हैं और परम नित्यानंद स्वरूपिणी हैं।


त्वं च ब्रह्मादिदेवानामम्बिके जगदम्बिके।
त्वं साकारे च गुणतो निराकारे च निर्गुणात्॥

 

भावार्थ

हे जगदम्बे आप ब्रह्मा आदि देवताओं की भी माता हैं। आप सगुण रूप में भी विद्यमान हैं और निर्गुण, निराकार रूप में भी।


मायया पुरुषस्त्वं च मायया प्रकृति: स्वयम्।
तयो: परं ब्रह्म परं त्वं बिभर्षि सनातनि॥

 

भावार्थ

आप ही मायाशक्ति से पुरुष और प्रकृति दोनों का रूप धारण करती हैं और उन सबसे ऊपर परम सनातन ब्रह्म का धारण करती हैं।


वेदानां जननी त्वं च सावित्री च परात्परा।
वैकुण्ठे च महालक्ष्मी: सर्वसम्पत्स्वरूपिणी॥

 

भावार्थ

आप वेदों की जननी हैं, सावित्री हैं और सबसे श्रेष्ठ हैं। वैकुण्ठ में आप महालक्ष्मी के रूप में सब संपत्तियों की स्वरूपिणी हैं।


म‌र्त्यलक्ष्मीश्च क्षीरोदे कामिनी शेषशायिन:।
स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीस्त्वं राजलक्ष्मीश्च भूतले॥

 

भावार्थ

आप पृथ्वी पर मर्त्यलक्ष्मी हैं, क्षीरसागर में शेषशायी विष्णु की प्रिया हैं, स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी हैं और पृथ्वी पर राजलक्ष्मी के रूप में प्रतिष्ठित हैं।

 

नागादिलक्ष्मी: पाताले गृहेषु गृहदेवता।
सर्वशस्यस्वरूपा त्वं सर्वैश्वर्यविधायिनी॥

 

भावार्थ

आप पाताल में नागलक्ष्मी हैं, घरों में गृहदेवता हैं, अन्न और शस्य की स्वरूपा हैं और सब ऐश्वर्य देने वाली देवी हैं।

 

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रागाधिष्ठातृदेवी त्वं ब्रह्मणश्च सरस्वती।
प्राणानामधिदेवी त्वं कृष्णस्य परमात्मन:॥

 

भावार्थ

आप राग की अधिष्ठात्री देवी हैं, ब्रह्मा की सरस्वती हैं, प्राणों की अधिदेवी हैं और स्वयं श्रीकृष्ण की परम आत्मशक्ति हैं।

 

गोलोके च स्वयं राधा श्रीकृष्णस्यैव वक्षसि।
गोलोकाधिष्ठिता देवी वृन्दावनवने वने॥

 

भावार्थ

गोलोक में आप राधा हैं, जो सदैव श्रीकृष्ण के हृदय में निवास करती हैं और वृन्दावन की अधिष्ठात्री देवी हैं।

 

श्रीरासमण्डले रम्या वृन्दावनविनोदिनी।
शतश्रृङ्गाधिदेवी त्वं नामन चित्रावलीति च॥

 

भावार्थ

आप रासमंडल में रमणीय हैं, वृन्दावन की विनोदिनी हैं और शतश्रृंग की अधिदेवी चित्रावली नाम से प्रसिद्ध हैं।

 

दक्षकन्या कुत्र कल्पे कुत्र कल्पे च शैलजा।
देवमातादितिस्त्वं च सर्वाधारा वसुन्धरा॥

 

भावार्थ

कभी आप दक्षकन्या सती के रूप में, कभी शैलजा पार्वती के रूप में, कभी देवमाता अदिति के रूप में और कभी धरती वसुंधरा के रूप में प्रकट होती हैं।

 

त्वमेव गङ्गा तुलसी त्वं च स्वाहा स्वधा सती।
त्वदंशांशांशकलया सर्वदेवादियोषित:॥

 

भावार्थ

आप गंगा हैं, तुलसी हैं, स्वाहा, स्वधा और सती हैं। आपके अंश और कलाओं से सब देवियों का प्रादुर्भाव हुआ है।


स्त्रीरूपं चापिपुरुषं देवि त्वं च नपुंसकम्।
वृक्षाणां वृक्षरूपा त्वं सृष्टा चाङ्कुररूपिणी॥

 

भावार्थ

आप स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीनों रूप धारण कर सकती हैं। वृक्षों में आप वृक्षरूपा हैं और अंकुर में अंकुररूपा हैं।

 

वह्नौ च दाहिकाशक्ति र्जले शैत्यस्वरूपिणी।
सूर्ये तेज:स्वरूपा च प्रभारूपा च संततम्॥

 

भावार्थ

अग्नि में आप दाह की शक्ति हैं, जल में शीतलता हैं, सूर्य में तेज हैं और सदैव प्रकाश स्वरूपा हैं।

 

गन्धरूपा च भूमौ च आकाशे शब्दरूपिणी।
शोभास्वरूपा चन्द्रे च पद्मसङ्घे च निश्चितम्॥

 

भावार्थ

पृथ्वी में आप गंध स्वरूपा हैं, आकाश में शब्द हैं, चन्द्रमा में शोभा हैं और कमल समूह में भी आप ही हैं।

 

सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा च पालने परिपालिका।
महामारी च संहारे जले च जलरूपिणी॥

 

भावार्थ

सृष्टि में आप सृष्टि स्वरूपा हैं, पालन में परिपालिका हैं, संहार में महामाया हैं और जल में जलरूपिणी हैं।


क्षुत्त्‍‌वं दया त्वं निद्रा त्वं तृष्णा त्वं बुद्धिरूपिणी।
तुष्टिस्त्वं चापि पुष्टिस्त्वं श्रद्धा त्वं च क्षमा स्वयम्॥

 

भावार्थ

आप ही भूख हैं, दया हैं, निद्रा हैं, प्यास हैं और बुद्धि स्वरूपा हैं। आप ही तुष्टि, पुष्टि, श्रद्धा और क्षमा स्वरूपा हैं।

 

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शान्तिस्त्वं च स्वयं भ्रान्ति: कान्तिस्त्वं कीर्तिरेव च।
लज्जा त्वं च तथा माया भुक्ति मुक्ति स्वरूपिणी॥

 

भावार्थ

आप शांति हैं, भ्रांति हैं, कान्ति हैं, कीर्ति हैं, लज्जा हैं और माया हैं। आप भुक्ति (संसार सुख) और मुक्ति (मोक्ष) दोनों की स्वरूपा हैं।


सर्वशक्ति स्वरूपा त्वं सर्वसम्पत्प्रदायिनी।
वेरेऽनिर्वचनीया त्वं त्वां न जानाति कश्चन॥

 

भावार्थ

आप सर्वशक्ति की स्वरूपा हैं और सभी प्रकार की संपत्तियां प्रदान करने वाली हैं। वेद भी आपको पूर्णतः नहीं वर्णन कर पाते, कोई आपको पूरी तरह नहीं जान सकता।


सहस्त्रवक्त्रस्त्वां स्तोतुं न च शक्त : सुरेश्वरि।
वेदानाशक्ताः को विद्वान् न च शक्ताः सरस्वती॥

 

भावार्थ

हे सुरेश्वरी सहस्र मुखों वाला भी आपका वर्णन करने में असमर्थ है। वेद और सरस्वती जैसी विदुषी भी आपकी महिमा का पूर्ण वर्णन नहीं कर सकतीं।

 

स्वयं विधाता शक्तो न न च विष्णु: सनातन:।
किं स्तौमि पञ्चवक्त्रेण रणत्रस्तो महेश्वरि॥

 

भावार्थ

स्वयं विधाता ब्रह्मा और सनातन विष्णु भी आपकी स्तुति करने में सक्षम नहीं हैं। ऐसे में मैं, पांच मुख वाला भी नहीं, रण में भयभीत भक्त, कैसे आपकी स्तुति करूं, हे महेश्वरी


कृपां कुरु महामाये मम शत्रुक्षयं कुरु॥

 

भावार्थ

हे महामाया कृपा कीजिए और मेरे शत्रुओं का नाश कर दीजिए।