तुर्की जिसका नाम अब तुर्किए हो गया है, इसके पूर्वी भाग में एक शहर पड़ता है - हारपुट। साल 1915 की बात है। हारपुट तब ऑटोमन साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था। यहां एक अमेरिकी दूतावास था। जिसमें तैनात अमेरिकी अफसर लेस्ली डेविस को एक दिन खबर मिली की हारपुट में अर्मेनियाई लोग, जो अल्पसंख्यक थे, उन्हें निशाना बनाया जा रहा है। उन्होंने ख़ुद जाकर तस्दीक करने का फैसला किया। एक सहायक और एक डॉक्टर को लेकर वह ग्योलजुक नाम की एक झील की तरफ़ बढ़े। रास्ते में डेविस ने जो देखा, वह सिहरन पैदा करने वाला था।
एक झरने के पास एक तुर्क सिपाही दो औरतों की लाश दफ़ना रहा था। पास ही एक और औरत अपने बच्चे के साथ आखिरी सांसें गिन रही थी। आगे बढ़ने पर, जो गांव कभी खुशहाल अर्मेनियाई आबादी से भरे थे, वे अब खंडहर और वीरान पड़े थे। ग्योलजुक झील के पास पहुंचकर डेविस ने देखा आसपास का इलाका एक विशाल कत्लगाह में तब्दील हो गया है। डेविस ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, "झील के पानी में और आसपास की घाटियों में सैकड़ों लाशें और अनगिनत हड्डियां बिखरी पड़ी थीं।" उन्होंने देखा कि कैसे सिपाहियों ने ऊंची-नीची पहाड़ियों और घाटियों का फायदा उठाकर लोगों को फंसाया और गोलियों से भून दिया वहां ज़्यादातर लाशें औरतों और बच्चों की थीं, कई तो बिना कपड़ों के और बुरी तरह कटी-फटी। कुछ लाशें आधी-अधूरी दबी थीं, तो कुछ जली हुई थीं। अपनी जान और कीमती सामान बचाने के लिए कुछ अर्मेनियाई लोग सोना निगल जाते थे और हत्यारे बाद में वही सोना निकालने के लिए लाशों को जला देते थे। डेविस ने अंदाज़ा लगाया कि सिर्फ एक घाटी में ही कम से कम दो हज़ार अर्मेनियाई लोगों की लाशें थीं। उस पूरे इलाके का हाल देखकर उन्होंने हारपुट को एक नाम दिया - "कत्लगाह सूबा" (The Slaughterhouse Province)
यह कहानी है बीसवीं सदी के सबसे भयानक नरसंहारों में से एक की। होलोकास्ट में लाखों यहूदियों के नरसंहार के बारे में हमने सुना है लेकिन ऐसा ही कुछ हुआ था ऑटोमन साम्राज्य में। जब ऑटोमन तुर्कों ने अपने ही साम्राज्य में रहने वाले दस लाख से ज़्यादा अर्मेनियाई लोगों को बेरहमी से मार डाला। कहते हैं आज भी सीरिया के रेगिस्तान में उन बदनसीब लोगों की हड्डियां मिलती हैं, जो इस नरसंहार में मारे गए थे।
यह भी पढ़ें- सद्दाम हुसैन आखिर पकड़ा कैसे गया? पढ़िए उसके अंतिम दिनों की कहानी
अर्मेनिया में क्या हुआ?
हिंदी में हम लोग नरसंहार बोल देते हैं लेकिन नरसंहार और जेनोसाइड में एक अंतर है। बहुत बड़ी संख्या में लोगों को मारने को नरसंहार कहा जाता है लेकिन जेनोसाइड एक मामले में अलग है। इसमें उद्देश्य सिर्फ़ मारना ही नहीं, जातीय या धार्मिक पहचान के आधार पर पूरी नस्ल को ख़त्म कर देना होता है। जैसा जर्मनी में यहूदियों के साथ हुआ था। अब चलिए इस घटना की शुरुआत पर चलते हैं।
Chapter 1: नफ़रतें
ऑटोमन साम्राज्य, एक ऐसा नाम जो कभी दुनिया के सबसे ताकतवर साम्राज्यों में गिना जाता था। इसकी सरहदें तीन महाद्वीपों – यूरोप, एशिया और अफ्रीका – तक फैली हुई थीं लेकिन बीसवीं सदी आते-आते, चमक फीकी पड़ने लगी थी। इसे अब "यूरोप का बीमार आदमी" कहा जाने लगा था। साम्राज्य अंदरूनी और बाहरी मुश्किलों से जूझ रहा था और इसकी ज़मीन पर रहने वाले अलग-अलग समुदायों के बीच रिश्ते भी बिगड़ रहे थे। इन्हीं समुदायों में से एक थे अर्मेनियाई लोग, जिनकी कहानी इस नरसंहार के केंद्र में है।
यह भी पढ़ें- पाकिस्तान के न्यूक्लियर पावर बनने और डॉ. अब्दुल कादिर की पूरी कहानी
अर्मेनियाई लोग अनातोलिया, यानी आज के तुर्की के पूर्वी पठारी और पहाड़ी इलाकों में हज़ारों सालों से रहते आ रहे थे। यह उनका ऐतिहासिक वतन था। उनकी अपनी एक अलग और प्राचीन पहचान थी – उनकी अपनी भाषा, उनकी खास संस्कृति और उनका ईसाई धर्म। आर्मेनिया दुनिया का पहला राष्ट्र था जिसने चौथी सदी की शुरुआत में ही ईसाई धर्म को अपने राजधर्म के तौर पर अपना लिया था। ऑटोमन साम्राज्य में उन्हें "मिलेट" नाम की एक व्यवस्था के तहत अपने धार्मिक और सांस्कृतिक मामलों में कुछ हद तक आज़ादी तो मिली हुई थी, लेकिन कानूनी तौर पर उन्हें 'धिम्मी' यानी दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता था। मतलब -उन्हें आम तौर पर ज़्यादा टैक्स देना पड़ता था और कई सामाजिक और कानूनी मामलों में उनके साथ भेदभाव होता था। इसके बावजूद, कई अर्मेनियाई अपनी मेहनत और हुनर से व्यापार, शिल्प और दूसरे कई पेशों में काफी कामयाब थे। कुछ इलाकों में तो वे अपने तुर्क मुस्लिम पड़ोसियों से ज़्यादा पढ़े-लिखे और संपन्न भी थे और शायद यही तरक्की, उनकी अलग पहचान की वजह से -कुछ कट्टरपंथी ताकतों की आंखों में चुभने लगी थी।
उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशकों में, जब ऑटोमन साम्राज्य लगातार अपनी ज़मीन खो रहा था, तब अर्मेनियाई लोगों ने अपने लिए बराबरी के अधिकार की मांग करनी शुरू की। इसी को यूरोप के राजनीतिक गलियारों में "अर्मेनियाई प्रश्न" के नाम से जाना जाने लगा।
इस सवाल के हल के लिए 'तंजीमत' नाम से कुछ सुधार लागू करने की कोशिशें तो हुईं लेकिन अर्मेनियाई लोगों की मुश्किलें कम नहीं हुईं। इसी दौरान, रूस और ऑटोमन साम्राज्य के बीच कई युद्ध हुए, खासकर 1877-78 का युद्ध। इस युद्ध के बाद बर्लिन शहर में एक बड़ी संधि हुई, जिसमें यूरोप की बड़ी ताकतों ने हिस्सा लिया। इस संधि में अर्मेनियाई लोगों की सुरक्षा का मुद्दा तो उठा, लेकिन इसका कोई ठोस और असरदार हल नहीं निकल सका। अर्मेनियाई लोगों को सुरक्षा का सिर्फ खोखला आश्वासन मिला।
यह भी पढ़ें- जब ट्रेन लूटने आए 40 लुटेरों पर भारी पड़ा था एक गोरखा सैनिक
ऑटोमन साम्राज्य के सुल्तान थे अब्दुल हामिद द्वितीय। उन्हें अर्मेनियाई लोगों की ये मांगें और यूरोप की दखलंदाज़ी बिलकुल रास नहीं आ रही थी। पीटर बालाकियन अपनी किताब 'The Burning Tigris' में लिखते हैं, “सुल्तान तो 'अर्मेनिया' शब्द से ही इतनी नफरत करते थे कि उन्होंने इसे अखबारों और सरकारी दस्तावेज़ों में इस्तेमाल करने पर भी पाबंदी लगा दी थी”। सुल्तान को हमेशा यह डर सताता रहता था कि कहीं अर्मेनियाई लोग साम्राज्य के खिलाफ बगावत न कर दें। इसी शक और नफरत का नतीजा था कि 1894 से 1896 के बीच, सुल्तान अब्दुल हामिद द्वितीय के हुक्म पर अर्मेनियाई लोगों का एक बड़ा और भयानक कत्लेआम हुआ। इसे इतिहास में "हामिदियन नरसंहार" के नाम से जाना जाता है। कत्लेआम में अंदाज़न एक लाख से लेकर तीन लाख तक अर्मेनियाई लोग मारे गए थे। ये मार-काट सुल्तान द्वारा बनाए गए खास कुर्द लड़ाकों के गिरोहों, जिन्हें हामिदिये कहा जाता था, उन्होंने स्थानीय भीड़ के साथ की थी। कई इतिहासकार, इसे आने वाले और भी बड़े नरसंहार का एक तरह का "ड्रेस रिहर्सल" यानी पूर्वाभ्यास मानते हैं।
फिर आया साल 1908। ऑटोमन साम्राज्य में एक बड़ा राजनीतिक बदलाव हुआ। "यंग टर्क्स" (Young Turks) – यानी नौजवान तुर्क – नाम का एक समूह, जिसका असली नाम "कमिटी ऑफ़ यूनियन एंड प्रोग्रेस" (CUP) था, उसने एक क्रांति के ज़रिए सुल्तान अब्दुल हामिद द्वितीय की तानाशाही का अंत कर दिया। शुरुआत में यंग टर्क्स ने बड़े-बड़े वादे किए – साम्राज्य में सबके लिए बराबरी होगी, सबको आज़ादी मिलेगी और एक संवैधानिक सरकार बनेगी। इन वादों को सुनकर कई अर्मेनियाई लोगों को एक नई उम्मीद मिली। उन्हें लगा कि शायद अब उनके बुरे दिन सचमुच खत्म हो जाएंगे और उन्हें भी साम्राज्य में बराबरी का दर्जा मिलेगा लेकिन यह उम्मीद, यह सपना ज़्यादा दिनों तक कायम नहीं रह सका। यंग टर्क क्रांति के कुछ ही समय बाद, अप्रैल 1909 में, अडाना शहर और उसके आसपास के इलाकों में अर्मेनियाई लोगों का एक और भयानक नरसंहार हुआ, जिसमें लगभग 15,000 से 30,000 लोग मारे गए। सुनियोजित तरीके से अर्मेनियाई बस्तियों पर हमले हुए, लोगों को ज़िंदा जला दिया गया और उनकी दुकानें और घर लूट लिए गए। यह नरसंहार नई यंग टर्क सरकार के सत्ता में रहते हुए हुआ। इसने यह साफ़ कर दिया था कि सिर्फ हुकूमत बदलने से अर्मेनियाई लोगों के प्रति नफरत या उन पर होने वाले जुल्मों में कोई कमी नहीं आई थी। बल्कि, यह तो आने वाली एक और भी बड़ी तबाही का ख़तरनाक संकेत था।
Chapter 2: मौत का जुलूस
यंग टर्क्स जब सत्ता में आए तो उनकी बातों में बड़े सुधारों का ज़िक्र था लेकिन जल्द ही उनका असली रंग दिखने लगा। पार्टी के अंदर कट्टर राष्ट्रवादी सोच हावी हो गई। इन लोगों का सपना था एक महान तुर्क साम्राज्य बनाना। एक ऐसा साम्राज्य जहां सिर्फ तुर्कों का राज हो। इस सोच को "पैन-तुर्कवाद" भी कहा गया। इसका मतलब था, मध्य एशिया तक फैले सभी तुर्क भाषा बोलने वाले लोगों को एक झंडे के नीचे लाना। इस सपने के रास्ते में उन्हें अर्मेनियाई लोग एक बड़ी रुकावट नज़र आए। अर्मेनियाई लोग अपने ऐतिहासिक इलाकों में बसे थे, जो इस पैन-तुर्क सपने के रास्ते में आते थे। उनकी अपनी अलग पहचान, भाषा और धर्म थे। ज़िया गोकाल्प (Ziya Gökalp) जैसे तुर्क विचारकों ने इस राष्ट्रवादी आग को और हवा दी। उन्होंने कहा कि तुर्की तभी महान बन सकता है जब वह अपने गैर-तुर्क और गैर-मुस्लिम तत्वों से छुटकारा पा ले। अर्मेनियाई लोगों को एक "अंदरूनी दुश्मन" के तौर पर देखा जाने लगा।
यह भी पढ़ें- पाकिस्तान की ISI काम कैसे करती है? भारतीयों के लिए जानना जरूरी है
फिर शुरू हुआ पहला विश्व युद्ध। साल 1914। ऑटोमन साम्राज्य ने जर्मनी का साथ दिया। यह युद्ध यंग टर्क सरकार के लिए एक मौका लेकर आया। उन्हें लगा कि युद्ध की अफरा-तफरी में वे अपनी योजनाओं को अंजाम दे सकते हैं। युद्ध के दौरान जब ऑटोमन सेना रूस के खिलाफ बुरी तरह हारी तो इसका ठीकरा अर्मेनियाई लोगों पर फोड़ा गया। उन पर इल्ज़ाम लगाया गया कि वे रूस से मिले हुए हैं और साम्राज्य को धोखा दे रहे हैं।
नरसंहार की औपचारिक शुरुआत 24 अप्रैल, 1915 को हुई। उस रात, ऑटोमन साम्राज्य की राजधानी कॉन्स्टेंटिनोपल में, जिसे आज इस्तांबुल कहते हैं, सैकड़ों अर्मेनियाई बुद्धिजीवियों, लेखकों, कवियों, वकीलों, डॉक्टरों और पादरियों को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें अनातोलिया के दूर-दराज इलाकों में भेज दिया गया, जहां ज़्यादातर को मार डाला गया। यही सिलसिला साम्राज्य के दूसरे बड़े शहरों में भी दोहराया गया। मकसद साफ़ था। अर्मेनियाई समुदाय का सिर कलम कर दो ताकि वे कोई विरोध न कर सकें, कोई आवाज़ न उठा सकें।
बुद्धिजीवियों के सफाए के बाद, आम अर्मेनियाई आबादी की बारी आई। यंग टर्क सरकार ने, खासकर गृह मंत्री Talaat Pasha के नेतृत्व में, एक योजनाबद्ध तरीके से अर्मेनियाई लोगों को उनके घरों से बेदखल करना शुरू किया। इसे "निर्वासन" कहा गया लेकिन असलियत में ये जेनोसाइड था। पीटर बालाकियन अपनी किताब में बताते हैं कि पहले अर्मेनियाई सैनिकों को उनकी रेजिमेंटों से अलग किया गया, उनसे हथियार छीन लिए गए और उन्हें श्रमिक बटालियनों में भेज दिया गया। वहां उनसे बेइंतहा काम लिया गया और फिर उन्हें समूहों में मार दिया गया। इसके बाद,गांवों और शहरों में, बचे हुए पुरुषों को महिलाओं और बच्चों से अलग किया गया। पुरुषों को पास के किसी सुनसान इलाके में ले जाकर गोलियों से भून दिया जाता या चाकुओं से मार डाला जाता।
फिर शुरू होता था महिलाओं, बच्चों और बूढ़ों का भयानक सफर। उन्हें मीलों लंबे काफिलों में सीरियाई रेगिस्तान की ओर पैदल चलने पर मजबूर किया गया। खासकर देर-एज़-ज़ोर नाम की जगह की तरफ। ये डेथ मार्च थे। रास्ते में उन्हें न खाना दिया जाता, न पानी। जो थककर गिर जाता, उसे वहीं मरने के लिए छोड़ दिया जाता या मार दिया जाता। कई बार इन क़ाफ़िलों पर लुटेरे और स्थानीय कबीलों का हमला होता। वे लूटपाट करते, औरतों का बलात्कार करते और लोगों को मार डालते। ऑटोमन सिपाही, जिन्हें इन काफिलों की "सुरक्षा" के लिए लगाया गया था, वे या तो मूकदर्शक बने रहते या खुद इस कत्लेआम में शामिल हो जाते।
यह भी पढ़ें- लाहौर के दरवाजे तक पहुंच गई थी भारत की सेना तो संघर्ष विराम क्यों हुआ?
इस नरसंहार को अंजाम देने के लिए एक खास ‘तहजीर कानून’ (Tehcir Law) भी बनाया गया। यह कानून सरकार को यह अधिकार देता था कि वह "सुरक्षा कारणों" से किसी भी समुदाय को कहीं भी भेज सकती है लेकिन असल में यह कानून अर्मेनियाई लोगों को उनकी ज़मीनों से बेदखल करने और उन्हें मौत के मुंह में धकेलने का एक कानूनी हथियार था। 'The Burning Tigris' में एक "टेन कमांडमेंट्स" जैसे दस्तावेज़ का ज़िक्र मिलता है, जो दिखाता है कि यह नरसंहार कितनी बारीकी से प्लान किया गया था। इसमें हथियार जमा करने, मुस्लिम आबादी को भड़काने और पुरुषों, पादरियों और शिक्षकों को खत्म करने के निर्देश थे।
लाखों अर्मेनियाई लोग इन मौत के मार्चों में भूख, प्यास, बीमारी और सीधे कत्लेआम का शिकार हुए। कइयों को नदियों में डुबोकर मार दिया गया। औरतों और लड़कियों के साथ बड़े पैमाने पर बलात्कार हुए, उन्हें गुलाम बनाया गया या जबरन मुस्लिम घरों में भेज दिया गया। बच्चों को उनके परिवारों से छीन लिया गया और उनकी पहचान मिटाने की कोशिश की गई। यह सिर्फ लोगों को मारना नहीं था, यह एक पूरी कौम की पहचान, उसकी संस्कृति और उसके भविष्य को मिटाने की एक घिनौनी साजिश थी।
Chapter 3: आख़िरी कोशिश
इतने बड़े पैमाने पर हो रहे अत्याचारों के सामने अर्मेनियाई समुदाय लगभग निहत्था और बेबस था। यंग टर्क सरकार ने बड़ी चालाकी से पहले ही उनके हथियार छीन लिए थे। उनके पुरुषों को या तो मार दिया गया था या श्रमिक बटालियनों में भेज दिया गया था लेकिन फिर भी, कुछ जगहों पर अर्मेनियाई लोगों ने अपने अस्तित्व को बचाने के लिए हथियार उठाए। यह कोई संगठित विद्रोह नहीं था, बल्कि अपनी जान बचाने की आखिरी कोशिश थी।
सबसे जाना माना किस्सा है मूसा दाग (Musa Dagh) का। यह भूमध्य सागर के पास एक पहाड़ था। यहां के लगभग पांच हज़ार अर्मेनियाई लोगों ने सरकारी हुक्म मानने से इनकार कर दिया। वे जानते थे कि निर्वासन का मतलब मौत है इसलिए वे पहाड़ पर चढ़ गए और वहां उन्होंने लगभग चालीस दिनों तक ऑटोमन सेना का मुकाबला किया। उनके पास बहुत कम हथियार थे लेकिन उनका हौसला बुलंद था। आखिरकार, फ्रांसीसी नौसेना के एक जहाज़ ने उन्हें देखा और उनकी जान बचाई। इसी तरह, वान (Van) शहर में भी अर्मेनियाई लोगों ने कई हफ्तों तक तुर्क सेना और कुर्द हमलावरों का बहादुरी से सामना किया। शाबिन कारा हिसार (Shabin Karahisar) और उरफा (Urfa) जैसे कुछ और कस्बों में भी हताश अर्मेनियाई लोगों ने अपनी जान बचाने के लिए लड़ाई की लेकिन ये प्रतिरोध ज़्यादातर जगहों पर सफल नहीं हो सके। ऑटोमन साम्राज्य की विशाल सैन्य ताकत के सामने मुट्ठी भर लोगों का टिक पाना नामुमकिन था।
यह भी पढ़ें- ईसाई क्यों नहीं करवाते खतना, आखिर क्या है इसका इतिहास?
यहां एक सवाल यह है कि इस नरसंहार पर बाकी दुनिया ने कोई एक्शन क्यों नहीं लिया? यूरोप की बड़ी ताकतें, जैसे ब्रिटेन, फ्रांस और रूस, इन घटनाओं से अनजान नहीं थीं। अमेरिका को भी खबर थी। अमेरिकी राजदूत हेनरी मोरगेंथाऊ सीनियर (Henry Morgenthau Sr।) ने कॉन्स्टेंटिनोपल से लगातार अपनी सरकार को रिपोर्टें भेजीं। उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि यह एथनिक क्लींजिंग की एक सोची-समझी कोशिश है। इसके बाद मई 1915 में ब्रिटेन, फ्रांस और रूस ने एक साझा घोषणापत्र जारी किया। इसमें उन्होंने ऑटोमन साम्राज्य द्वारा किए जा रहे अत्याचारों को "मानवता और सभ्यता के खिलाफ अपराध" बताया। उन्होंने चेतावनी दी कि वे इस नरसंहार के लिए ऑटोमन सरकार के सभी सदस्यों और उनके एजेंटों को व्यक्तिगत रूप से ज़िम्मेदार ठहराएंगे। यह पहली बार था कि "मानवता के खिलाफ अपराध" जैसे शब्दों का इस्तेमाल इतने स्पष्ट रूप से किया गया था लेकिन पहला विश्व युद्ध चल रहा था और इन देशों का मुख्य ध्यान युद्ध जीतने पर था। इसलिए, वे अर्मेनियाई लोगों को बचाने के लिए कुछ खास नहीं कर पाए।
नतीजा हुआ - लगभग 10 से 15 लाख अर्मेनियाई लोग इस नरसंहार में मारे गए। यह उस समय ऑटोमन साम्राज्य में रहने वाली कुल अर्मेनियाई आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा था। इसके अलावा, अर्मेनियाई लोगों की हज़ारों साल पुरानी संस्कृति और सभ्यता को उनकी ऐतिहासिक ज़मीन से लगभग पूरी तरह मिटा दिया गया। उनके चर्च, स्कूल, मठ और ऐतिहासिक इमारतें या तो नष्ट कर दी गईं या उन्हें मस्जिदों और दूसरी चीज़ों में बदल दिया गया। उनकी ज़मीनें, घर और व्यापार छीन लिए गए।
Chapter 4: इंसाफ की अधूरी लड़ाई
अर्मेनियाई नरसंहार बीसवीं सदी की वह भयानक त्रासदी थी जिसने दुनिया को हिलाकर रख दिया था। लाखों लोग मारे गए, घर उजाड़ दिए गए और एक पूरी कौम को उसकी ज़मीन से बेदखल कर दिया गया लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती। पहला विश्व युद्ध खत्म होने के बाद, कॉन्स्टेंटिनोपल में, नई ऑटोमन सरकार ने खुद कुछ सैनिक अदालतें बनाईं। कुछ बड़े नेताओं, जिनमें (Talaat Pasha), एनवेर पाशा (Enver Pasha) और जेमाल पाशा (Djemal Pasha) शामिल थे, उन्हें उनकी गैर-मौजूदगी में ही मौत की सज़ा सुनाई गई। वे युद्ध के बाद देश छोड़कर भाग गए थे। कुछ छोटे अधिकारियों को भी सजाएं हुई लेकिन यह इंसाफ अधूरा ही रहा। जल्द ही तुर्की में राजनीतिक हालात बदल गए। मुस्तफा कमाल अतातुर्क (Mustafa Kemal Ataturk) के नेतृत्व में एक नया राष्ट्रवादी आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन ने इन कोर्ट-मार्शल को मानने से इनकार कर दिया। ज़्यादातर सज़ा पाए लोग या तो रिहा कर दिए गए या उनकी सज़ा कम कर दी गई।
हां, इतना जरूर हुआ कि इस घटना के बाद अलग आर्मेनिया राष्ट्र की नींव पड़ी। प्रथम विश्व युद्ध के बाद, कुछ समय के लिए एक स्वतंत्र आर्मेनिया गणराज्य (First Republic of Armenia) बना। यह 1918 से 1920 तक कायम रहा लेकिन यह नया देश चारों तरफ से दुश्मनों से घिरा हुआ था। उसे तुर्की के राष्ट्रवादी बलों और बोल्शेविक रूस, दोनों से खतरा था। आखिरकार, 1920 में, इस छोटे से गणराज्य को सोवियत रूस ने अपने में मिला लिया और यह सोवियत संघ का हिस्सा बन गया। 1991 में, जब सोवियत संघ का विघटन हुआ, तो आर्मेनिया ने एक बार फिर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की। आज, आर्मेनिया एक स्वतंत्र देश है लेकिन उसके सामने आज भी कई चुनौतियां हैं। नरसंहार की यादें और उसके ज़ख्म आज भी ताज़ा हैं। अपने पड़ोसी देशों, खासकर तुर्की और अज़रबैजान के साथ उसके रिश्ते तनावपूर्ण बने हुए हैं।
सबसे दुखद बात यह है तुर्की ने कभी भी इस नरसंहार को आधिकारिक तौर पर स्वीकार नहीं किया। तुर्की सरकार इसे अराजक तत्वों की कार्रवाई कहकर टाल देती है। यह इनकार अर्मेनियाई लोगों के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है लेकिन दुनिया के कई देश और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं अब धीरे-धीरे अर्मेनियाई नरसंहार को मान्यता दे रही हैं। कई देशों की संसदों ने इसे नरसंहार घोषित किया है। इस नरसंहार में बच निकले लोग एक विशाल अर्मेनियाई डायस्पोरा (diaspora) यानी प्रवासी समुदाय हिस्सा है। जिनके वंशज अमेरिका, फ्रांस, रूस, लेबनान और कई दूसरे देशों में रहते हैं।