साल 2012, फरवरी का महीना। चीन का चेंगदू शहर और शहर में बना अमेरिकी कॉन्सुलेट। यहां एक आदमी दाख़िल होता है। घबराया हुआ। पसीने से तर। वह अमेरिकी अधिकारियों से एक ऐसी चीज़ मांगता है, जो दो मुल्कों के बीच दिक्कतें खड़ी कर सकती है। मांग थी- राजनीतिक शरण और यह मांग करने वाला आदमी चॉन्गक्विंग शहर का पुलिस चीफ़ था। नाम- वांग लिजुन। अब सवाल यह कि चीन का एक टॉप पुलिस अफ़सर, अमेरिका से पनाह क्यों मांग रहा था?
इस सवाल का जवाब एक क़त्ल की कहानी में छिपा था। कुछ महीने पहले, वांग के शहर चॉन्गक्विंग के एक होटल में एक ब्रिटिश व्यापारी, नील हेवुड की लाश मिली थी। बताया गया कि मौत ज़्यादा शराब पीने से हुई लेकिन वांग को शक था। उसने चुपके से जांच की और पाया कि नील को ज़हर दिया गया था। वांग सीधे अपने बॉस के पास पहुंचे। बॉस का नाम, बो शिलाई। वांग ने उसे पूरी कहानी बताई और यह भी कि हत्या के पीछे किसका हाथ हो सकता है। यह सुनते ही बो शिलाई आगबबूला हो गया। उसने वांग को एक जोरदार घूंसा जड़ा और दफ़्तर से बाहर निकाल दिया।
बो शिलाई इतना ग़ुस्सा क्यों हुआ? क्योंकि हत्या की मुख्य आरोपी कोई और नहीं बल्कि ख़ुद उसकी बीवी थी। पहली नज़र में यह कहानी एक नेता और पुलिसवाले के बीच लड़ाई की लग सकती है लेकिन इसके लिए अमेरिका से राजनीतिक शरण की जरूरत क्यों पड़ी?
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दरअसल, मामला इतना सिंपल नहीं था। यह चीन की सर्वोच्च सत्ता का खेल था। जिसे खेल जा रहा था ख़ुफ़िया एजेंसियों के ज़रिए। 2012 में चीन की सबसे बड़ी राजनैतिक जंग की तैयारी चल रही थी। जंग, चीन के अगले राष्ट्रपति पद के लिए। इस जंग के मैदान में दो खिलाड़ी आमने-सामने थे।
एक तरफ थे बो शिलाई, वही घूंसा जड़ने वाले। कम्युनिस्ट पार्टी के एक कद्दावर नेता के बेटे, जिन्हें 'रेड प्रिंस' कहा जाता था और दूसरी तरफ़ थे शी जिनपिंग- तत्कालीन राष्ट्रपति हू जिंताओ के चुने हुए उत्तराधिकारी। नील हेवुड की हत्या का मामला अब सिर्फ़ एक मर्डर केस नहीं रह गया था। यह इस सियासी जंग का सबसे बड़ा हथियार बन चुका था। बो शिलाई और उनके ताक़तवर साथियों के हाथ में गोंगान्बु यानी मिनिस्ट्री ऑफ पब्लिक सिक्योरिटी का कंट्रोल था। इसे आप पुलिस की तरह समझ सकते हैं। वहीं, शी जिनपिंग के गुट ने अपना दांव खेला चीन की सबसे बड़ी और रहस्यमयी जासूस एजेंसी, 'गुओआन्बु' (Guoanbu) यानी मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट सिक्योरिटी पर।
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असल में गुओआन्बु प्रधानमंत्री के आदेश पर नील हेवुड की हत्या से महीनों पहले से ही बो शिलाई की जांच कर रही थी। उन्हें बो की पत्नी और नील हेवुड के बीच चल रहे खेल की पूरी ख़बर थी। वह बस सही मौक़े का इंतज़ार कर रहे थे। पुलिस चीफ़ वांग लिजुन का अमेरिकी कॉन्सुलेट में भागना वही मौका था। वांग के पास बो शिलाई के ख़िलाफ़ वे सारे सबूत थे, जो गुओआन्बु को चाहिए थे। इस एक घटना ने शी जिनपिंग के सबसे बड़े राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी को हमेशा के लिए रास्ते से हटा दिया और यह दिखाया कि कैसे चीन में एक ख़ुफ़िया एजेंसी, एक मर्डर मिस्ट्री के ज़रिए, देश के सबसे ताक़तवर नेता को बनाने और दूसरे को मिटाने में अहम किरदार निभाती है। आज हम पढ़ेंगे चीन की उन खुफिया एजेंसियों की कहानी, जो शंघाई के माफियाओं के साथ पैदा हुईं, मॉस्को में ट्रेनिंग लेकर जवान हुईं और आज दुनियाभर की सरकारों और कंपनियों के राज चुरा रही हैं।
कुत्ते पीटने वाले और पेरिस का जेंटलमैन
चीन की खुफिया एजेंसियों की जड़ें समझनी हों तो हमें चलना होगा 100 साल पीछे। 1920 के दशक के शंघाई में। यह एक ऐसा शहर था जो बंटा हुआ था। एक हिस्सा, जिसे इंटरनेशनल सेटलमेंट कहते थे, अंग्रेजों और अमेरिकियों का था। यहां साढ़े सात लाख चीनी रहते थे लेकिन कानून गोरों का चलता था। दूसरा हिस्सा फ्रांसीसियों का था। फ्रेंच कंसेशन। यहां भी तीन लाख चीनी बसते थे, मगर हुक्म फ्रांस का चलता था और इन सब पर राज कर रहे थे गिनती के 30,000 पश्चिमी लोग। अपनी पुलिस, अपनी फौज, अपने कानून।
शंघाई के दो चेहरे थे। एक चेहरा था पार्टियों का, जैज़ म्यूज़िक का, ऊंची इमारतों और विदेशी व्यापारियों का। इसे 'पूरब का पेरिस' कहते थे लेकिन इसी शहर का एक दूसरा चेहरा भी था। यह चेहरा था अफीम के अड्डों का, जुएखानों का, गैंगवार और राजनीतिक साजिशों का।
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यहां दुनिया की सबसे बड़ी दलाली चलती थी। इंसानों की। फ्रांसीसी लड़कियों को शंघाई लाया जाता और यहां से अफीम की ईंटें फ्रांस के मार्से शहर भेजी जातीं और यह सब हो रहा था एक खतरनाक तिकड़ी की देखरेख में। पहला किरदार- राष्ट्रवादी पार्टी, जिसे कुओमिंतांग कहते थे और उसके नेता थे च्यांग काई-शेक लेकिन शंघाई की सड़कों पर एक दूसरी हुकूमत चलती थी। यह हुकूमत थी माफिया की। ग्रीन गैंग की और उसका सरगना था डू युशेंग। डू युशेंग सिर्फ एक गुंडा नहीं था। वह शंघाई का बेताज बादशाह था। पुलिस, सियासत, बिजनेस, सब उसकी जेब में था।
इसी शहर की गलियों में एक तीसरी ताकत भी सिर उठा रही थी। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना। जुलाई 1921, शंघाई के फ्रेंच कंसेशन में एक घर। नंबर 160, वांट्ज़ रोड। यहां चीन के अलग-अलग प्रांतों से आए 12 लोग खुफिया तौर पर मिले। ये 12 लोग चीन के 57 सबसे शुरुआती कम्युनिस्टों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। मीटिंग में मॉस्को से भेजे गए दो दूत भी थे। बहस चल रही थी। चाय और सिगरेट का दौर चल रहा था। तभी दरवाज़े पर एक दस्तक हुई। एक अजनबी ने दरवाज़ा खटखटाया और किसी आम से नाम वाले आदमी के बारे में पूछा। फिर गलती हो गई कहकर चला गया। वह पुलिस का मुखबिर था। रूसी दूत ने खतरे को भांप लिया। उसने सबको फौरन निकलने को कहा। सब वहां से निकल भागे। 10 मिनट बाद, फ्रांसीसी अफसर की अगुवाई में पुलिस ने उस घर पर छापा मारा लेकिन वहां कोई नहीं मिला।
अगले दिन, इन लोगों ने एक झील में नाव पर अपनी मीटिंग पूरी की और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी यानी CCP की नींव रखी। इन 12 लोगों में एक नौजवान था, जो बहुत चुप रहता था। दुनिया उसे आगे चलकर चेयरमैन माओत्से तुंग के नाम से जानने वाली थी। यह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की शुरुआत थी। कम्युनिस्ट पार्टी उस वक्त एक छोटी सी, कमजोर पार्टी थी। च्यांग काई-शेक इन कम्युनिस्टों को अपनी सत्ता के लिए सबसे बड़ा खतरा मानता था और उन्हें जड़ से खत्म करना चाहता था।
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इसके लिए उसने हाथ मिलाया माफिया से। डू युशेंग से। 12 अप्रैल, 1927। च्यांग काई-शेक ने डू युशेंग के गुंडों को खुली छूट दे दी। उन गुंडों ने, जिनके पास हथियार थे, हजारों कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं और उनके समर्थकों को सड़कों पर घरों में फैक्ट्रियों में घुस-घुसकर मारना शुरू कर दिया। शंघाई की सड़कें लाशों से पट गईं। इस घटना को इतिहास में शंघाई हत्याकांड के नाम से जाना जाता है। जो कुछ कम्युनिस्ट बच गए, वे भागकर छिप गए। उन्होंने एक बहुत बड़ा सबक सीखा। सबक यह कि सिर्फ नारों और जुलूसों से राज नहीं होता। अपने दुश्मनों से लड़ने के लिए, तुम्हें उनसे ज्यादा बेरहम और उनसे ज्यादा चालाक बनना होगा। तुम्हें एक ऐसी एजेंसी बनानी होगी जो तुम्हारे दुश्मनों के हर राज को जान सके और उन्हें खत्म कर सके। इस विचार से जन्म हुआ चीन की पहली खुफिया एजेंसी का।
इस एजेंसी को बनाने वाले किरदार का नाम था- झू एनलाई। लेखक रोजर फैलिगो अपनी किताब 'Chinese Spies' में बताते हैं, झू पढ़े-लिखे थे, यूरोप में पेरिस में रह चुके थे। दिखने में किसी प्रोफेसर या डिप्लोमैट जैसे लेकिन दिमाग किसी शातिर जासूस का। शंघाई हत्याकांड के बाद, झू एनलाई ने कम्युनिस्ट पार्टी की पहली खुफिया और काउंटर-इंटेलिजेंस यूनिट बनाई। इसका नाम रखा गया जोंगयांग टेके- शोर्ट में 'टेके'। यानी स्पेशल सर्विस। टेके का काम था पार्टी के भीतर छिपे गद्दारों को ढूंढना और दुश्मनों को खत्म करना। इसके तरीके बेहद क्रूर थे। 'टेके' ने हत्यारों का एक खास दस्ता बनाया था, जिसे 'कुत्ते पीटने वाला दस्ता' कहा जाता था।
टेके सिर्फ एक खुफिया एजेंसी नहीं थी। वह एक खौफ का दूसरा नाम थी। शंघाई के लोग उसे 'वू हाओ की कटार' के नाम से जानते थे। वू हाओ, चाउ एनलाई का खुफिया नाम था। इस नाम से जुड़ा एक कुख्यात किस्सा है। गु शुनझांग नाम का एक आदमी 'टेके' का ही एक बड़ा अफसर था। उसे राष्ट्रवादी पार्टी ने पकड़ लिया और उसने पार्टी के सारे राज उगल दिए। वह गद्दार बन गया। जैसे ही झू एनलाई को यह पता चला, उन्होंने अपने 'कुत्ते पीटने वाले दस्ते' को एक मिशन दिया। मिशन था- गद्दार को सबक सिखाना।
'टेके' के हत्यारे शंघाई पहुंचे और उन्होंने सिर्फ गु शुनझांग को ही नहीं, बल्कि उसके परिवार के 16 लोगों को, जिनमें बच्चे और औरतें भी शामिल थीं, एक-एक कर खत्म कर दिया। सिर्फ एक बच्चे को जिंदा छोड़ा गया। यह एक संदेश था। पार्टी से गद्दारी की यही सजा होगी।
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शंघाई की खूनी गलियों में माफिया और सियासत के गठजोड़ से पैदा हुई नफरत ने 'टेके' को जन्म दिया। एक छोटी लेकिन बेहद खूंखार एजेंसी। यही वह बीज था, जिससे आगे चलकर चीन की खुफिया सल्तनत का विशाल और कंटीला पेड़ उगने वाला था।
माओ का जल्लाद और खजूरों वाला बाग
शंघाई की गलियों में बनी 'टेके' ने कम्युनिस्ट पार्टी को बाहरी दुश्मनों और गद्दारों से निपटना सिखा दिया था लेकिन अब लड़ाई का मैदान बदल चुका था। च्यांग काई-शेक की फौजों से बचकर, हजारों किलोमीटर का 'लॉन्ग मार्च' पूरा करके, माओत्से तुंग और उसके साथी पहुंचे थे यानआन की गुफाओं में। यहां सबसे बड़ा खतरा बाहर से नहीं, बल्कि पार्टी के अंदर से था। इस अंदरूनी जंग के लिए माओत्से तुंग को एक नए हथियार की जरूरत थी। एक ऐसा इंसान, जो शक को सच और सच को शक बना सके और माओ को वह हथियार मिला- कांग शेंग के रूप में। कांग शेंग को ‘चीन का बेरिया’ के नाम से भी जाना जाता है।
दरअसल, जोसेफ़ स्टालिन के सोवियत रूस में, बेरिया वह नाम था जिसे सुनकर बड़े-बड़े कम्युनिस्ट नेताओं की घिग्घी बंध जाती थी। लावरेंटी बेरिया स्टालिन की ख़ुफ़िया पुलिस NKVD का चीफ़ था। स्टालिन का सबसे वफ़ादार और सबसे ख़ूंख़ार जल्लाद। लाखों लोगों को ग़ायब करवाने, उन्हें मरवाने और गुलाग कैंपों में सड़ाने का ज़िम्मेदार। वह डर का दूसरा नाम था और कांग शेंग की ट्रेनिंग मॉस्को में इसी बेरिया के दौर में हुई थी। इसीलिए उसे चीन का 'बेरिया' कहा गया। जब कांग शेंग चीन लौटा तो माओ ने उसे खुफिया तंत्र का हेड बना दिया। कांग ने पुरानी एजेंसी को नया नाम दिया- 'सोशल अफेयर्स डिपार्टमेंट'। नाम बड़ा सीधा-सादा था लेकिन काम उतना ही खौफनाक। इसका हेडक्वार्टर बना यानआन का 'डेट गार्डन' यानी खजूरों का बाग। नाम में जितनी मिठास थी, यहां के काम में उतनी ही बेरहमी।
कांग शेंग ने इस बाग को एक टॉर्चर सेंटर में बदल दिया था, जहां इंसानी रूह को तोड़ा जाता था। उसने टॉर्चर के नए तरीके इजाद किए, एक था 'बैम्बू कट', जिसमें उंगलियों के नाखूनों के नीचे बांस की नुकीली फांस घुसाई जाती थी।
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एक और तरीका था 'ज़िंदा दफनाना', जिसमें कैदी से खुद उसकी कब्र खुदवाई जाती और फिर उसे उसी में दफन कर दिया जाता लेकिन कांग शेंग का असली हथियार फिजिकल टॉर्चर नहीं, बल्कि दिमागी खेल था। 1942 में माओ ने 'शुद्धीकरण आंदोलन' शुरू किया। मकसद था पार्टी को 'शुद्ध' करना। कांग शेंग ने इसे अपने विरोधियों को खत्म करने का लाइसेंस बना लिया। उसने नारा दिया, 'अगर तुम माओ की बात से सहमत नहीं हो, तो तुम जासूस हो।' बस फिर क्या था। 'डेट गार्डन' के पूछताछ कमरे आबाद हो गए। लोगों को हफ्तों तक सोने नहीं दिया जाता। उनसे बस एक ही सवाल पूछा जाता- 'बताओ, तुम्हारे साथ और कौन-कौन जासूस है?' डर और नींद की कमी से टूटे हुए लोग अपने ही दोस्तों और रिश्तेदारों का नाम लेने लगते।
कांग शेंग सिर्फ एक जल्लाद नहीं, शातिर सियासतदान भी था। उसने माओ के सबसे करीब पहुंचने का एक नायाब तरीका निकाला। उसने लान पिंग नाम की एक एक्ट्रेस को माओ से मिलवाया। माओ उसके प्यार में पड़ गए। यही लान पिंग आगे चलकर दुनिया की सबसे ताकतवर महिलाओं में से एक, यानी मैडम माओ या जियांग किंग बनीं और इस रिश्ते के जरिए कांग शेंग, माओ के बेडरूम तक अपनी पहुंच बना चुका था। कांग शेंग ने माओ के लिए पार्टी के भीतर हर आवाज को दबा दिया। उसने एक ऐसा सिस्टम बना दिया जहां हर कोई दूसरे पर शक करता था। उसने खुफिया एजेंसी को सिर्फ बाहरी नहीं, बल्कि अंदरूनी दुश्मनों से लड़ने वाले एक क्रूर हथियार में बदल दिया था।
हजार रेत के दाने और पांच ज़हर
साल 1976 में चेयरमैन माओ की मौत हुई। और उसके साथ ही कांग शेंग के खौफ का दौर भी खत्म हो गया। चीन की कमान अब एक नए, प्रैक्टिकल सोच वाले नेता देंग शियाओपिंग के हाथ में थी। देंग जानते थे कि चीन को अगर दुनिया की महाशक्ति बनना है तो कांग शेंग के पुराने तरीकों से काम नहीं चलेगा। जंग अब मैदानों में नहीं, बल्कि टेक्नोलॉजी, व्यापार और जानकारी के मोर्चे पर लड़ी जानी थी। इसके लिए चीन को एक नई, आधुनिक और पेशेवर खुफिया एजेंसी की जरूरत थी और इसी सोच के साथ 6 जून, 1983 को जन्म हुआ 'गुओआन्बु' (Guoanbu) का, यानी मिनिस्ट्री ऑफ़ स्टेट सिक्योरिटी (MSS)। यह एजेंसी पुरानी जासूसी और काउंटर-इंटेलिजेंस विंग को मिलाकर बनाई गई थी। इसका मकसद साफ था: देश के अंदर चीन के रहस्यों की हिफाजत करना और देश के बाहर दूसरे मुल्कों के राज चुराना। गुओआन्बु का चेहरा कांग शेंग की SAD से बिलकुल अलग था। इसके जासूस अब सिर्फ़ क्रूर हत्यारे नहीं थे। वह इंजीनियर, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री और अकादमिक थे। उनका काम अब सिर्फ राजनीतिक हत्याएं करना नहीं था। उनका नया मिशन था - आर्थिक और तकनीकी जासूसी।
टेक्नॉलजी और इन्फॉर्मेशन वारफेयर के मामले में आज चीन सबसे ज़्यादा पैरानॉयड और तत्पर दिखाई पड़ता है। ऐसा क्यों है? यह जानने के लिए हमें एक पुरानी घटना को समझना होगा, जिसने चाइनीज़ इंटेलिजेंस के पूरा पैराडाइम को बदल डाला। 7 मई 1999, NATO के अमेरिकी जहाज़ों ने बेलग्रेड में बने चीन के दूतावास पर पांच मिसाइलें दाग दीं। तीन चीनी पत्रकार मारे गए। अमेरिका ने सफ़ाई दी, 'गलती हो गई। हमारे पास पुराने नक्शे थे।'
चीनी खुफिया एजेंसियों की जांच ने एक अलग ही कहानी बयां की। उन्होंने पाया कि दूतावास पर हमला एक सोचा-समझा प्लान था। क्यों? क्योंकि चीन का दूतावास उस वक़्त सर्बिया की सेना की मदद कर रहा था। दूतावास की छत पर लगे एंटेना से सर्बियाई सेना के रेडियो संदेश भेजे जा रहे थे, जिन्हें NATO की फौजें पकड़ नहीं पा रही थीं। जब एक अमेरिकी मिसाइल ने सर्बिया के कम्युनिकेशन सेंटर को उड़ा दिया तो कुछ ही देर बाद उनके संदेश फिर से आने लगे। कहां से? चीन के दूतावास से। अमेरिकी जासूसों ने ये पकड़ लिया और दूतावास को निशाना बना दिया गया।
इस घटना ने चीन को एक बड़ा सबक सिखाया कि इक्कीसवीं सदी की जंग हथियारों से नहीं, बल्कि टेक्नॉलजी और जानकारी से लड़ी जाएगी। यहीं से शुरुआत हुई चीन के दुनिया की सबसे बड़ी साइबर आर्मी बनाने के सफ़र की। गुओआन्बु का नेटवर्क आज दुनिया के 170 से ज़्यादा शहरों में फैला हुआ है, जहां उसके हज़ारों जासूस काम करते हैं। यह जासूस सिर्फ़ दूतावासों में नहीं बैठते। वह पत्रकार, बिजनेसमैन, छात्र और प्रोफेसर बनकर घूमते हैं। चीन का जासूसी नेटवर्क कैसे काम करता है। एक उदाहरण से समझिए- साल 2011, अमेरिका का आयोवा राज्य। यहां एक सुबह पुलिस अफ़सर कैस बॉलमेन अपनी पेट्रोल कार में गश्त पर थे। तभी उनके रेडियो पर एक अजीब सा अलर्ट आया। अलर्ट में कहा गया, 'एक एशियाई आदमी, जिसने सूट पहन रखा है, खेत में पैदल चल रहा है। उसे एक गाड़ी छोड़कर गई है। मामला संदिग्ध है।'
बॉलमेन ने सोचा, हो सकता है कोई मज़दूर हो। खेत के पास पहुंचकर उन्होंने देखा, क़रीब सौ गज अंदर एक पतला सा, सलीके से कपड़े पहने एक आदमी खड़ा था। वह ज़मीन की तरफ़ ऐसे देख रहा था, मानो कुछ ढूंढ रहा हो। बॉलमेन ने खेत के मालिक से बात की। किसान ने जो बताया, वह चौंकाने वाला था। उसने कहा, 'यह कोई मामूली खेत नहीं है। यह मोनसेंटो कंपनी का ख़ुफ़िया रिसर्च प्लॉट है।' यहां पर जेनेटिकली मॉडिफ़ाइड मक्के के वह ख़ास बीज उगाए जाते थे, जिन्हें बेचकर मोनसेंटो जैसी कंपनियां अरबों डॉलर कमाती थीं।
किसान ने बताया कि उसने पहले उस आदमी के एशियाई चेहरे पर ध्यान दिया क्योंकि उनके क़स्बे की 97% आबादी गोरी थी। फिर उसके कपड़ों पर। सबसे अजीब बात यह थी कि उसे एक ग्रे रंग की SUV छोड़कर गई थी। तभी वह ग्रे SUV दोबारा वहां से गुज़री। बॉलमेन फ़ौरन अपनी गाड़ी में बैठे और पीछा करना शुरू कर दिया।
गाड़ी में दो लोग थे। ड्राइवर का नाम था रॉबर्ट मो जो फ्लोरिडा में रहता था। दूसरा था एक चीनी नागरिक, ली शाओमिंग। रॉबर्ट मो ने बड़ी विनम्रता से बताया कि वह चीन से आए एग्रोनॉमिस्ट हैं और यहां फ़सलें देखने आए हैं। बॉलमेन ने उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया लेकिन उस रात उन्होंने पूरी घटना की एक रिपोर्ट फ़ाइल की। डिप्टी बॉलमेन को उस वक़्त अंदाज़ा भी नहीं था कि आयोवा के एक गुमनाम खेत में हुई यह मामूली सी घटना, एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय जासूसी रैकेट का पहला धागा थी। इस रैकेट का मास्टरमाइंड वही शख्स था, जो खुद को एक साधारण रिसर्चर बता रहा था - रॉबर्ट मो।
रॉबर्ट चीन के सिचुआन प्रांत के एक छोटे से पहाड़ी गांव में पैदा हुआ था। बचपन में होशियार था। अमेरिका आकर उसने दो-दो पीएचडी कीं लेकिन एक वैज्ञानिक के तौर पर उसे अच्छी नौकरी नहीं मिली। घर चलाना था, बीवी-बच्चों को पालना था। तब उसने एक चीनी एग्रीकल्चर कंपनी 'दाबेइनोंग' में नौकरी कर ली। यह नौकरी उसे उसके बहनोई की वजह से मिली थी, जो उस कंपनी का अरबपति CEO था। शुरू में रॉबर्ट का काम सीधा-सादा था। जानवरों के चारे का बिजनेस देखना लेकिन जल्द ही उसके बॉस ने उसे एक नया, खतरनाक काम सौंपा। काम था - अमेरिका की टॉप कंपनियों के कीमती बीजों को चुराना और चीन भेजना। क्यों? क्योंकि चीन को अपनी बढ़ती आबादी का पेट भरना था। उसे खेती में आत्मनिर्भर बनना था। और इसके लिए उसे चाहिए थी दुनिया की सबसे बेहतरीन टेक्नोलॉजी और उसे चुराने का यह सबसे सीधा रास्ता था।
FBI के एक पुराने एनालिस्ट, पॉल मूर ने चीनी जासूसी के इसी तरीके को 'थाउजेंड ग्रेन्स ऑफ़ सैंड' यानी 'हजार रेत के दाने' का नाम दिया है। इसे ऐसे समझिए। अगर किसी समंदर के किनारे की रेत की जानकारी चाहिए तो रूस कमांडो भेजेगा, अमेरिका सैटेलाइट से तस्वीर खींचेगा लेकिन चीन क्या करेगा? चीन वहां 10 हजार आम लोगों को घूमने भेज देगा। छात्र, वैज्ञानिक, व्यापारी। दिन भर घूमने के बाद जब ये लोग घर लौटेंगे और अपने तौलिए झाड़ेंगे, तो चीन के पास रेत के लाखों दाने होंगे। हर दाना एक छोटी सी जानकारी और इन दानों को जोड़कर चीन पूरी तस्वीर बना लेगा। यही चीन की Thousand Grains of Sand स्ट्रेटेजी है।
इस काम में उनकी मदद करती हैं चीन की अपनी कंपनियां। चीन का 2017 का राष्ट्रीय खुफिया कानून साफ कहता है कि चीन के हर नागरिक और हर संगठन का यह 'कर्तव्य' है कि वह देश की खुफिया एजेंसियों का सहयोग करे। मतलब, हुवावे जैसी प्राइवेट कंपनी भी, कानूनी तौर पर, सरकार को मदद करने से इनकार नहीं कर सकती। इस तरह, देंग शियाओपिंग के नए चीन ने जासूसी का एक ऐसा मॉडल बनाया जो अंदर अपने 'पांच जहरों' को कुचलता है और बाहर 'हजार रेत के दानों' से दूसरों की तकनीक और राज चुराता है।
जासूसों की आपसी जंग
चीन का ख़ुफ़िया तंत्र दो लेवल पर काम करता है। आंतरिक सुरक्षा और फॉरेन इंटेलिजेंस। आतरिक सुरक्षा के मामले में आज भी गुओआन्बु का एक बड़ा काम उन ताकतों से लड़ना है, जिन्हें कम्युनिस्ट पार्टी 'पांच ज़हर' कहती है।
ये पांच जहर कौन हैं?
पहला ज़हर: फालुन गोंग नाम का एक आध्यात्मिक आंदोलन, जो इतना लोकप्रिय हो गया था कि पार्टी को उससे खतरा महसूस होने लगा।
दूसरा ज़हर: तिब्बती अलगाववादी, जो दलाई लामा के समर्थक हैं।
तीसरा ज़हर: शिनजियांग प्रांत के उइगर मुस्लिम, जिन पर चीन आतंकी होने का आरोप लगाता है।
चौथा ज़हर: चीन के लोकतंत्र समर्थक, जो विदेश में रहकर सरकार की आलोचना करते हैं।
और पांचवां ज़हर: ताइवान की आजादी के समर्थक।
इन 'पांच जहरों' को कुचलने के लिए 1999 में '610 ऑफिस' नाम की एक और खूंखार एजेंसी बनाई गई। इसके अलावा, हमारी कहानी की शुरुआत में हमने पुलिस यानी 'गोंगान्बु' का ज़िक्र किया था। चीन के इंटरनल रेजिस्टेंस को तोड़ने में यह संस्था भी बड़ी भूमिका निभाती है। वह भी चीन के बाहर चीनी लोगों को निशाना बनाकर। 2014 में इसी गोंगान्बु ने एक ऑपरेशन शुरू किया जिसका नाम था 'ऑपरेशन फॉक्स हंट'। दुनिया को बताया गया कि यह विदेश में भागे भ्रष्ट अधिकारियों और आर्थिक अपराधियों को वापस लाने का एक एंटी-करप्शन अभियान है लेकिन FBI जैसी एजेंसियों ने पाया कि इसका असली मकसद कुछ और था। फॉक्स हंट के ज़रिए, गोंगान्बु के एजेंट टूरिस्ट या बिजनेसमैन वीज़ा पर अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में जाते और वहां बसे चीनी आलोचकों, लोकतंत्र समर्थकों को निशाना बनाते। वे उनके चीन में रह रहे परिवार को जेल में डालने की धमकी देते, उन्हें और उनके बच्चों को हर दिन स्टॉक और परेशान करते।
ऊपर से देखने पर चीन का खुफिया तंत्र एक विशाल, बेहद अनुशासित मशीन लगता है लेकिन यह तंत्र भी कई हिस्सों में बंटा है, जो एक-दूसरे से होड़ लगाते हैं। चीन के खुफिया तंत्र की सबसे बड़ी लड़ाई है: सिविलियन खुफिया एजेंसी गुओआन्बु और सेना की खुफिया विंग के बीच। ये दोनों एजेंसियां एक दूसरे की कट्टर प्रतिद्वंद्वी हैं और इस दुश्मनी को समझने के लिए एक किस्सा सुनिए।
लिंग वानचेंग की कहानी
यह किस्सा है लिंग वानचेंग नाम के एक शख्स का, जो 2014 में चीन के सबसे टॉप सीक्रेट दस्तावेज़ों के साथ अमेरिका भाग गया था।
किस्सा कुछ यूं है: लिंग वानचेंग का बड़ा भाई, लिंग जिहुआ चीन के पूर्व राष्ट्रपति हू जिंताओ का सबसे करीबी और ताकतवर सहयोगी था। वह उस विभाग का प्रमुख था जहां कम्युनिस्ट पार्टी के सबसे गोपनीय दस्तावेज़ रखे जाते थे। 2012 में शी जिनपिंग के सत्ता में आने के बाद, उन्होंने अपने विरोधियों को रास्ते से हटाने के लिए एक एंटी-करप्शन अभियान चलाया। उनका सबसे बड़ा निशाना थे हू जिंताओ के वफादार, जिसमें लिंग जिहुआ भी शामिल था।
जब लिंग जिहुआ पर शिकंजा कसा तो उसके भाई लिंग वानचेंग ने एक खतरनाक बीमा पॉलिसी का इस्तेमाल किया। उसने अपने भाई के ऑफिस से लगभग 2700 टॉप सीक्रेट दस्तावेज़ों की कॉपी बना ली थी। इन दस्तावेज़ों में चीन के न्यूक्लियर हथियारों के लॉन्च कोड और खुफिया ऑपरेशन्स की डिटेल्स थीं। इन दस्तावेज़ों के साथ, लिंग वानचेंग चीन से भागकर अमेरिका पहुंच गया। यहीं पर गुओआन्बु और सेना की लड़ाई खुलकर सामने आई। लिंग वानचेंग जैसे हाई-प्रोफाइल व्यक्ति का भाग जाना, गुओआन्बु (MSS) की सबसे बड़ी और शर्मनाक विफलता थी। गुओआन्बु के वाइस-मिनिस्टर मा जियान को उसे वापस लाने या खत्म करने का जिम्मा दिया गया लेकिन वह नाकाम रहा।
इस नाकामी ने सेना (PLA) और शी जिनपिंग के गुट को एक सुनहरा मौका दे दिया। उन्होंने इस विफलता को हथियार बनाकर यह साबित कर दिया कि गुओआन्बु न सिर्फ नाकाबिल है, बल्कि शायद पुराने नेताओं की वफादार भी है। इसके तुरंत बाद, गुओआन्बु के अंदर एक बड़ी 'सफाई' शुरू हुई। वाइस-मिनिस्टर मा जियान को भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और उम्रकैद की सजा दी गई। इस एक घटना ने शी जिनपिंग को गुओआन्बु पर पूरी तरह से अपना नियंत्रण स्थापित करने का मौका दे दिया।
सेना यानी PLA इंटेलिजेंस, Ministry of State Security, Ministry of Public Security, 610 ऑफिस, इनके अलावा चीन में एक और संगठन है जो इंटेलिजेंस अप्रेटस के भीतर काम करता है। इसका नाम है- यूनाइटेड फ्रंट वर्क डिपार्टमेंट। यह सीधे तौर पर जासूसी नहीं करता। इसका काम है दुनिया भर में बसे प्रभावशाली चीनी मूल के लोगों को अपनी तरफ करना। नेता, बिजनेसमैन, प्रोफेसर। यह उन्हें देशभक्ति के नाम पर चीन के हितों के लिए काम करने को राज़ी करते हैं।
चीनी इंटेलिजेंस के ये अलग अलग हिस्सें हैं। यह जाल काफ़ी बड़ा है और फैलता ही जा रहा है शंघाई की गलियों से शुरू हुआ 'टेके' का सफर, कांग शेंग के यानआन के टॉर्चर चैंबर से होता हुआ, आज शी जिनपिंग के गुओआन्बु तक पहुंच चुका है और इसका अगला चरण है AI।
न्यूयॉर्क टाइम्स में 17 जून, 2025 को छपी पत्रकार जूलियन ई. बार्न्स की रिपोर्ट बताती है कि चाइनीज़ इंटेलिजेंस अब AI में भारी निवेश कर रही हैं। यह निवेश क्यों हो रहा है? मकसद साफ़ है। जासूसी की रफ़्तार और सटीकता को बढ़ाना। चीन को उम्मीद है कि AI की मदद से वह और ज़्यादा ख़ुफ़िया जानकारी इकट्ठा कर पाएगा और उसे बहुत तेज़ी से और सस्ते में एनालाइज़ कर पाएगा। एक ऐसा AI सिस्टम जो करोड़ों फ़ोन कॉल्स, सैटेलाइट तस्वीरों और इंटरनेट डेटा को पलक झपकते छानकर काम की चीज़ निकाल ले। एक ऐसा AI जो युद्ध की स्थिति में कमांडरों को ऑपरेशन का प्लान बनाकर दे।
साइबर सुरक्षा पर काम करने वाली रिसर्च संस्था, रिकॉर्डेड फ्यूचर की रिपोर्ट के अनुसार चीन इसंटेलिजेंस में तेज़ी से AI को एसिमिलेट कर रहा है। इनमें अमेरिकी कंपनी OpenAI से लेकर चीन की अपनी कंपनी डीपसीक तक शामिल हैं। चीन की सेना से जुड़ी एक संस्था, (Ordnance Science and Research Academy of China) ने एक ऐसे मिलिट्री AI मॉडल का पेटेंट भी फ़ाइल किया है, जिसे युद्ध के मैदान में दुश्मन और दोस्त की ताक़त का विश्लेषण करने और हमले की योजना बनाने के लिए ट्रेन किया जा सके। बार्न्स इस मामले में चीन के सामने आ रही एक दिलचस्प चुनौती के बारे में बताती है। जो इस पूरी कहानी का लगभग निचोड़ है।
दरअसल, चीन के ख़ुफ़िया दस्तावेज़ और रिपोर्ट्स कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा से भरे होते हैं। अगर AI को इन दस्तावेज़ों पर ट्रेन किया गया तो AI से मिलने वाली जानकारी भी उसी विचारधारा से प्रभावित होगी। यानी चीन का AI जासूस एक कट्टर कम्युनिस्ट जासूस की तरह सोचेगा। इस मामले में चीन को दूसरा डर है कि अगर उन्होंने अमेरिकी AI मॉडल का इस्तेमाल किया तो उनके ख़ुफ़िया तंत्र में 'पूंजीवादी मूल्य' और 'उदारवाद' घुसपैठ कर सकते हैं।
विडंबना देखिए कि यह वही डर है, जिससे निपटने के लिए चीन की पहली ख़ुफ़िया एजेंसी बनी थी। चेहरे बदल गए, तरीके बदल गए लेकिन एक चीज़ नहीं बदली- शक। आज भी इस सिस्टम में सबसे बड़ा खतरा बाहर से नहीं, अंदर से माना जाता है। यह एक ऐसी खुफिया सल्तनत है, जो अपने लोगों को भी नहीं बख्शती और जिसका एकमात्र मकसद है - कम्युनिस्ट पार्टी का राज कायम रखना। हमेशा के लिए।