तीन तस्वीरें, तीन पोलिटिकल मौके और तीनों में कॉमन एक चीज। पहली तस्वीर में देखिए कि साल 2007, रूस का सोची शहर। जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की मीटिंग चल रही थी। तभी पुतिन का लैब्राडोर कुत्ता, कोनी, कमरे में आ गया और सीधा मर्केल के पास पहुंच गया। मर्केल को कुत्तों से डर लगता था। यह बात पुतिन जानते थे। पुतिन के चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। मर्केल अपने मेमोयर्स में लिखती हैं, उनके डेलिगेशन ने यह बात पहले से बताई थी लेकिन फिर भी कुत्ते को आने दिया गया। यह ताकत दिखाने का खेल था। एक पॉलिटिकल मैसेज। जिसका हथियार एक कुत्ता था।
दूसरी तस्वीर- आयरलैंड के राष्ट्रपति माइकल डी। हिगिंस। कुत्तों के साथ उनकी तस्वीरें वीडियो अक्सर वायरल होते हैं। कुत्ते हमेशा उनके साथ रहते। पब्लिक मीटिंग हो या कोई इंटरव्यू।
 
तीसरी तस्वीर- अमेरिका का व्हाइट हाउस। पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडेन का कुत्ता, कमांडर। इतना मशहूर कि जब उसने स्टाफ़ के लोगों को काटा तो यह इंटरनेशनल न्यूज़ बन गई। इन किस्सों में एक बात कॉमन है, कुत्ता। दुनिया के सबसे ताकतवर दफ्तरों से लेकर हमारी गली-मोहल्लों तक। कहानी में तनाव और प्यार दोनों हैं। कहीं कुत्तों को लेकर सोसाइटियों में झगड़े हो रहे हैं तो कहीं सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश पर बहस छिड़ी है कि सड़कों पर घूमते इन जानवरों का क्या किया जाए।
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इस बहस के जानिब कुछ सवाल दिमाग में आते हैं। कुत्ते और इंसान का रिश्ता शुरू कहां से हुआ? वह कौन सा पल था जब इंसान ने पहली बार किसी भेड़िये को दुश्मन नहीं बल्कि अपने परिवार का हिस्सा माना? अलिफ लैला की इस किश्त में आज जानेंगे कहानी कुत्तों की। आखिर यह जानवर जो कभी एक ख़ूंख़ार भेड़िया था, हमारे इतना करीब आया कैसे? कैसे इस जानवर ने निएंडरथल (Neanderthals) को हराने में हमारी मदद की? वह कौन सा राज है जो सिर्फ कुछ ही पीढ़ियों में किसी जंगली जानवर को पालतू बना सकता है?
हजारों साल पुरानी दोस्ती
आज से लगभग 40,000 साल पहले की दुनिया सोचिए। यह हमारी-आपकी दुनिया जैसी नहीं थी। यह आइस एज यानी हिमयुग था। धरती का बड़ा हिस्सा बर्फ़ की मोटी चादर से ढका था। ज़िंदगी बहुत मुश्किल थी, खाना मिलना आसान नहीं था और हर तरफ खतरा था। इस मुश्किल दुनिया में दो काबिल शिकारी जिंदा रहने के लिए संघर्ष कर रहे थे। पहले थे हमारे पूर्वज, होमो सेपियंस और दूसरे थे ग्रे वुल्फ़ यानी भेड़िए। दोनों झुंड में शिकार करते थे, दोनों होशियार थे और ज्यादातर समय, दोनों एक-दूसरे के दुश्मन थे। एक ही शिकार के लिए उनमें होड़ मची रहती थी।
तो फिर यह दुश्मनी, दोस्ती में कैसे बदली? पहले एक थ्योरी चलती थे कि शायद इंसानों ने भेड़ियों के अनाथ बच्चों को पालना शुरू कर दिया होगा लेकिन यह थ्योरी थोड़ी कमजोर है। सोचिए, जो इंसान खुद खाने के लिए संघर्ष कर रहा है, वह एक जंगली जानवर के बच्चे को क्यों पालेगा? वह भी ऐसा जानवर, जो बड़ा होकर उसी के लिए ख़तरा बन सकता है।
असली कहानी शायद इससे कहीं ज़्यादा दिलचस्प है और वह धीरे-धीरे हज़ारों सालों में पकी। वैज्ञानिक इसे सेल्फ-डोमेस्टिकेशन कहते हैं, यानी भेड़ियों ने खुद को पालतू बनाने की प्रक्रिया में एक अहम भूमिका निभाई। हर भेड़ियों के झुंड में कुछ भेड़िए ज़्यादा दिलेर होते थे और कुछ ज़्यादा डरपोक। जो कम डरपोक और ज़्यादा जिज्ञासु भेड़िए थे, उन्होंने इंसानी बस्तियों के पास आना शुरू किया। मकसद था शिकार के बाद फेंका गया बचा-खुचा मांस। शुरू में इंसानों ने उन्हें भगाया होगा लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने देखा कि ये भेड़िए फ़ायदे का सौदा हैं। वे रात में किसी अनजान ख़तरे पर भौंककर एक अर्ली-वॉर्निंग सिस्टम का काम करते थे। जो भेड़िए ज़्यादा शांत और मिलनसार थे, उन्हें इंसानों के पास ज़्यादा खाना मिलता गया और वह बाकी भेड़ियों से अलग विकसित हुए।
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यह प्रक्रिया एक-दो दिन नहीं, सैकड़ों-हज़ारों साल तक चली। पीढ़ी-दर-पीढ़ी, शांत स्वभाव वाले भेड़ियों का वंश आगे बढ़ा और धीरे-धीरे, उनके शरीर और स्वभाव में बदलाव आने लगा। वह भेड़िए से कुछ और बनने लगे। यह ऐतिहासिक समझौता हुआ कहां? इस पर वैज्ञानिक आज भी बहस करते हैं। एक सबूत बेल्जियम की गोयेट गुफा से मिलता है, जहां 36,000 साल पुरानी एक खोपड़ी मिली है जो किसी भेड़िए से ज़्यादा एक कुत्ते जैसी दिखती है। दूसरा सबूत हज़ारों मील दूर, साइबेरिया के अल्ताई पहाड़ों में मिला, जहां लगभग 33,000 साल पुराने अवशेष मिले हैं।
ये दोनों अवशेष कुत्ते और इंसान की दोस्ती का कुछ इशारा देते हैं। लेकिन सबसे पक्का सबूत जर्मनी में मिला है। जर्मनी के बॉन-ओबरकासेल नाम की जगह पर आर्कियोलॉजिस्ट्स को 14,000 साल पुरानी एक क़ब्र मिली। क़ब्र में एक पुरुष और एक महिला को साथ दफ़नाया गया था और उनके साथ था एक और कंकाल- एक कुत्ते का। इस कुत्ते में वैज्ञानिकों ने एक खास बात पाई। कुत्ते के दांतों की जांच से पता चला कि उस कुत्ते को बचपन में कैनाइन डिस्टेंपर नाम की एक बीमारी हुई थी। यह एक जानलेवा बीमारी है जिसमें जानवर तड़पता है और खा-पी नहीं पाता। वैज्ञानिकों का कहना है कि वह कुत्ता बिना किसी मदद के ज़िंदा रह ही नहीं सकता था। उसे हफ़्तों, शायद महीनों तक किसी ने अपने हाथ से खिलाया था, उसकी देखभाल की थी, एक बीमार बच्चे की तरह। यह इस बात का पहला साफ सबूत था कि 14000 साल पहले भेड़िया या जो अब कुत्ते की नस्ल थी, वह सिर्फ एक काम का जानवर नहीं रहा था। वह परिवार का हिस्सा बन चुका था।
साइबेरिया का सीक्रेट एक्सपेरिमेंट
कुछ देर पहले हमने एक थ्योरी की बात की थी कि कैसे सबसे शांत और मिलनसार भेड़ियों ने इंसानों के करीब आकर खुद को पालतू बनाने की प्रक्रिया शुरू की। यह एक अच्छी थ्योरी है लेकिन क्या इसका कोई पक्का सबूत है? क्या हम इस प्रक्रिया को अपनी आंखों से देख सकते हैं? इसका जवाब हमें सोवियत संघ के दौर के एक सीक्रेट एक्सपेरिमेंट से मिलता है। कहानी के हीरो हैं एक रूसी वैज्ञानिक, दिमित्री बेल्याएव। बेल्याएव, स्टालिन के दौर में काम कर रहे थे। जब सोवियत संघ में जेनेटिक्स को शक की नजर से देखा जाता था जबकि डार्विन और ग्रेगर मेंडल की खोजों से यह साबित हो चुका था कि जींस का किसी प्राणी के एवोल्यूशन में अहम रोल होता है।
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स्टालिन के सोवियत संघ में इन दोनों के विचारों पर सख़्त पाबंदी थी। क्यों? क्योंकि स्टालिन एक नई दुनिया, एक नया सोवियत इंसान बनाना चाहता था और वह भी बहुत जल्दी। डार्विन और मेंडल के सिद्धांत कहते थे कि बदलाव हज़ारों साल लेता है और वह किसी के कंट्रोल में नहीं है। यह बात स्टालिन को पसंद नहीं थी। उस दौर में स्टालिन का एक पसंदीदा वैज्ञानिक था, ट्रोफिम लाइसेन्को। लाइसेन्को ने जेनेटिक्स को "पूंजीवादी विज्ञान" बताकर ख़ारिज कर दिया। उसने एक अलग थ्योरी पेश की। उसका कहना था कि कोई भी जीव अपनी ज़िंदगी में जो गुण सीखता या हासिल करता है, उसे सीधे अपनी अगली पीढ़ी को दे सकता है। जैसे, अगर किसी गेहूं के पौधे को ठंडे माहौल में उगाया जाए, तो वह ठंड सहना सीख लेगा और उसके बीज से पैदा होने वाले नए पौधे भी ठंड सहने की ताक़त के साथ पैदा होंगे।
यह थ्योरी स्टालिन के लिए एक जादुई छड़ी जैसी थी। इसका मतलब था कि वह रातों-रात अपनी मर्ज़ी की फ़सलें और जानवर तैयार कर सकता था। यह कम्युनिस्ट विचारधारा से मेल खाती थी, जो कहती थी कि माहौल बदलकर इंसान को पूरी तरह बदला जा सकता है। लाइसेन्को के विज्ञान को सरकारी समर्थन मिला। इसका नतीजा हुआ जो वैज्ञानिक डार्विन और मेंडल के सिद्धांतों पर यकीन करते थे, उन्हें देश का दुश्मन घोषित कर दिया गया। हजारों वैज्ञानिकों को उनकी नौकरी से निकाल दिया गया, जेलों में डाल दिया गया या मरवा दिया गया। सोवियत जेनेटिक्स का विज्ञान दशकों पीछे चला गया।
इसी खतरनाक माहौल में दिमित्री बेल्याएव काम कर रहे थे। वह मेंडल और डार्विन के विचारों पर यक़ीन करते थे लेकिन खुलकर कह नहीं सकते थे। उन्होंने बड़ी चालाकी से अपने एक्सपेरिमेंट को Physiology पर रिसर्च का नाम दिया, ताकि जासूसों को शक न हो। 1959 में बेल्याएव ने साइबेरिया के एक बर्फीले शहर में अपना ऐतिहासिक एक्सपेरिमेंट शुरू किया।
क्या था यह एक्सपेरिमेंट?
बेल्याएव लोमड़ियों को पालतू बनाने का प्रयोग कर रहे थे। उन्होंने इसके लिए सिल्वर फॉक्स नाम की लोमड़ियों की एक नस्ल को चुना। ऐसा क्यों किया जा रहा था? एक बहुत बेसिक सवाल का जवाब जानने के लिए। सवाल क्या था? इसके लिए हमें कुछ चीजों को समझना होगा। जब कोई जानवर पालतू बनता है, जैसे कुत्ते तो बदलाव पूरे पैकेज के रूप में होता है। जानवर शांत हो जाता है, उसके कान लटक जाते हैं, उसकी पूंछ घूमने लगती है। उसका रंग बदल जाता है। उसका चेहरा प्यारा लगने लगता है। अब बेल्याएव के सामने यह पहेली थी कि हमारे पूर्वजों ने हज़ारों साल पहले यह पूरा पैकेज बनाया कैसे?
इसे बनाने के दो रास्ते हो सकते थे:
पहला और मुश्किल रास्ता: हमारे पूर्वजों ने हर गुण को एक-एक करके चुना हो। यानी, उन्होंने एक ऐसा भेड़िया ढूंढा जो शांत भी हो और उसके कान भी लटके हों और उसकी पूंछ भी घूमती हो। यह बहुत ही ज्यादा मुश्किल काम है।
रास्ता नंबर 2: एक शॉर्टकट, क्या हो अगर ये सारे गुण यानी लटके कान, घूमती पूंछ, प्यारा चेहरा, क्या पता ये सब किसी एक मुख्य गुण से जुड़े हों? जैसे एक चाबी से कई ताले खुल जाते हैं। अगर आप सिर्फ उस एक मुख्य गुण को चुन लें तो बाकी सारे बदलाव अपने आप हो जाएंगे।
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यही इस एक्सपेरिमेंट का मुख्य लक्ष्य था। उस गुण जो ढूंढना जो जानवरों को पालतू बनाने की सीक्रेट चाबी है। उन्होंने सैकड़ों लोमड़ियों के साथ एक्सपेरिमेंट शुरू किया और जानवरों को चुनने का आधार सिर्फ़ एक था—इंसानों के प्रति उनका व्यवहार। हर महीने, बेल्याएव और उनकी टीम हर लोमड़ी के पिंजरे के पास जाते। वह सिर्फ़ देखते कि लोमड़ी क्या करती है। क्या वह गुस्से से गुर्राती है और कोने में छिप जाती है? या वह थोड़ी शांत रहती है? इसी आधार पर जानवरों को अलग-अलग क्लास में बांटा जाता। जो सबसे शांत और सबसे कम आक्रामक 10% लोमड़ियां होतीं, सिर्फ़ उन्हें ही अगली पीढ़ी पैदा करने के लिए चुना जाता। बाकियों को फार्म में बेच दिया जाता ताकि एक्सपेरिमेंट का ख़र्च निकल सके।
एक्सपेरिमेंट के नतीजे जब आए तो वह हैरान करने वाले थे। सिर्फ़ चार पीढ़ियों के बाद ही कुछ लोमड़ियों ने कुत्तों जैसा व्यवहार दिखाना शुरू कर दिया। वह अपनी पूंछ हिलाने लगीं। छठी पीढ़ी तक, वह पिल्लों की तरह इंसानों के हाथ चाटने लगीं। वह ध्यान खींचने के लिए रोने की आवाज़ निकालतीं और इंसानों के साथ खेलना चाहती थीं।
बेल्याएव और ल्यूडमिला ने देखा कि सिर्फ़ लोमड़ियों का व्यवहार ही नहीं बदल रहा था, उनकी शक्ल-सूरत भी बदल रही थी जबकि उन्होंने कभी शक्ल के लिए किसी लोमड़ी को नहीं चुना था। कुछ लोमड़ियों के कान, जो पहले सीधे और खड़े रहते थे, अब कुत्तों की तरह मुड़े हुए और लटके हुए पैदा होने लगे। उनकी सीधी पूंछ, कुत्तों की तरह गोल घूमकर उगने लगी। उनके फ़र का रंग बदलने लगा। कई लोमड़ियों के शरीर पर सफेद धब्बे दिखने लगे, ठीक वैसे ही जैसे कुत्तों में होते हैं। उनकी खोपड़ी का आकार बदलने लगा। वह थोड़ी छोटी और चौड़ी हो गईं।
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यह एक ज़बरदस्त खोज थी। बेल्याएव ने साबित कर दिया था कि जब आप सिर्फ़ एक गुण यानी शांत स्वभाव के लिए किसी जानवर को चुनते हैं, तो उसके साथ दूसरे कई शारीरिक गुण अपने आप बदल जाते हैं। यह एक्सपेरिमेंट डोमेस्टिकेशन की प्रक्रिया का एक लाइव एक्शन रीप्ले था। इसने दिखा दिया कि हज़ारों साल पहले भेड़ियों के साथ क्या हुआ होगा। हमारे पूर्वजों ने जान-बूझकर लटके हुए कान वाले भेड़िए नहीं चुने थे। उन्होंने तो बस उन भेड़ियों को अपने पास रहने दिया जो सबसे कम ख़तरनाक और सबसे ज़्यादा मिलनसार थे। बाक़ी सारे बदलाव प्यारा चेहरा, अलग-अलग रंग, पूंछ हिलाना- ये सब तो उस दोस्ती के बोनस गिफ़्ट थे।
भेड़िये से कुत्ते तक का सफ़र
साइबेरिया की लोमड़ियों ने हमें दिखाया कि जानवर का स्वभाव और शक्ल कितनी जल्दी बदल सकती है लेकिन भेड़िए से कुत्ते बनने का सफ़र इससे कहीं ज़्यादा कॉम्प्लिकेटेड था। यह बदलाव सिर्फ़ बाहर से नहीं आया, यह जानवर के शरीर और दिमाग़ की पूरी वायरिंग को बदलने जैसा था। तो असल में एक भेड़िए और एक कुत्ते के बीच क्या बदला?
इसका एक बड़ा जवाब एक वैज्ञानिक शब्द में छिपा है: नियोटेनी। नियोटेनी का आसान मतलब है, किसी जानवर का वयस्क होने के बाद भी अपने बचपन के गुण और शक्ल-सूरत को बनाए रखना। यानी, एक ऐसा जानवर जो पूरी तरह से कभी 'बड़ा' नहीं होता। एक भेड़िए के बच्चे को देखिए। उसके कान लटके हुए होते हैं, थूथन छोटा होता है और आंखें उसके चेहरे के हिसाब से बड़ी लगती हैं। जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, उसके कान सीधे और नुकीले हो जाते हैं, थूथन लंबा हो जाता है और जबड़े ताकतवर हो जाते हैं लेकिन कुत्तों के साथ ऐसा नहीं हुआ। ज़्यादातर कुत्तों की नस्लें आज भी बड़ी होने पर वैसी ही दिखती हैं, जैसे भेड़िए के बच्चे। उनकी Puppy dog eyes कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं हैं। यह नियोटेनी का ही नतीजा है, जो उन्हें हमेशा प्यारे और कम ख़तरनाक दिखाती है। इंसानों को बच्चों वाली चीज़ों से प्यार और लगाव महसूस होता है और कुत्तों ने इसी का फ़ायदा उठाया।
शारीरिक बदलाव सिर्फ़ यहीं नहीं रुके। कुत्तों के जबड़े और दांत, भेड़ियों के मुक़ाबले छोटे और कमज़ोर हो गए। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अब उन्हें ख़ुद बड़े जानवरों का शिकार नहीं करना था। उन्हें इंसानों का फेंका हुआ, पका हुआ और नरम भोजन खाना था। इसी भोजन ने उनके शरीर के अंदर एक और बड़ा बदलाव किया। वैज्ञानिक पेट शिपमैन अपनी किताब Our Oldest Companions में बताती हैं- कुत्तों ने स्टार्च पचाने की क्षमता विकसित कर ली। भेड़िए पूरी तरह से मांसाहारी होते हैं, उनका शरीर मांस के अलावा कुछ और पचा नहीं सकता लेकिन कुत्तों ने इंसानों के साथ रहकर उनके जैसा खाना सीख लिया- अनाज, चावल, सब्ज़ियां। उनके पेट ने वे एंजाइम बनाने शुरू कर दिए जो स्टार्च को पचा सकें। यह एक क्रांतिकारी बदलाव था, जिसने उन्हें इंसानी बस्तियों में ज़िंदा रहने और फलने-फूलने में मदद की।
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भेड़ियों के कुत्ते बनने के सफ़र में सबसे बड़ा बदलाव उनके दिमाग में आया। एक साधारण सा उदाहरण लीजिए। अगर आप किसी जानवर के सामने उंगली से किसी चीज़ की तरफ़ इशारा करें, तो ज़्यादातर जानवर आपकी उंगली को ही देखेंगे, उस चीज़ को नहीं जहां आप इशारा कर रहे हैं। हमारे सबसे करीबी रिश्तेदार, चिम्पैंज़ी भी इस मामले में बहुत अच्छे नहीं हैं लेकिन कुत्ते इसे तुरंत समझ जाते हैं। वह हमारी आंखों को फॉलो करते हैं। वह हमारे हाव-भाव, हमारी आवाज़ के उतार-चढ़ाव को समझते हैं, जैसा कोई और जानवर नहीं कर सकता। यह कोई सिखाई हुई चीज़ नहीं है, यह हज़ारों साल के विकास का नतीजा है। जो भेड़िए इंसानी इशारों को बेहतर समझते थे, उन्हें ज़्यादा खाना और सुरक्षा मिली। पीढ़ी-दर-पीढ़ी, यह गुण और मज़बूत होता गया। उनका दिमाग़ इंसानों के साथ तालमेल बिठाने के लिए ही विकसित हुआ। यहां तक हम यह समझ गए हैं कि इंसान और कुत्ते साथ कैसे आए लेकिन इससे इंसान पर असर क्या हुआ?
धरती के नए राजा
कुत्तों का दिमाग इंसानों को समझने के लिए बदला और जब यह नया दिमाग, इंसान के दिमाग के साथ जुड़ा, तो धरती पर पहला इंटर स्पेसीज अलायंस तैयार हुआ। इस गठबंधन ने हमारी नस्ल यानी होमो सेपियन के विकास में एक बड़ी भूमिका निभाई और कुत्तों की मदद से ही आदमी अपनी नस्ल के एक कमिपिटीटर से जीत पाया। इस कंपीटीटर का नाम था- निएंडरथल। एक और इंसानी नस्ल जो हमसे ज़्यादा ताक़तवर थे। उनका शरीर यूरोप के ठंडे मौसम के लिए बेहतर बना था। वह भी होशियार थे और हज़ारों सालों से यूरोप में राज कर रहे थे लेकिन उनमें एक कमी थी, वे अकेले थे।
अब कल्पना कीजिए एक शिकार के सीन की। एक तरफ हैं निएंडरथल, जो भाले और अपनी शारीरिक ताकत के दम पर मैमथ जैसे विशाल जानवर का शिकार कर रहे हैं। यह एक खतरनाक और थका देने वाला काम है। दूसरी तरफ है नई टीम: इंसान +कुत्ता। इस टीम में काम बंटा हुआ था। कुत्ते अपनी तेज़ नाक से दूर से ही शिकार को सूंघ लेते। अपनी तेज़ रफ़्तार से वह शिकार को थका देते, उसे झुंड से अलग कर देते और चारों तरफ़ से घेर लेते। वह इंसानों को शिकार की सही लोकेशन बताते।
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अब इंसान का काम आसान हो गया। उन्हें सिर्फ सही मौके पर अपना भाला फेंकना था। खतरा कम और कामयाबी का चांस ज़्यादा। नतीजा हुआ कि इंसानों की आबादी बढ़ने लगी जबकि निएंडरथल धीरे-धीरे कम होने लगे। यह सिर्फ शिकार तक सीमित नहीं था। कुत्तों ने इंसानों के कैंप की रखवाली की। उन्होंने भेड़ियों और दूसरे हमलावरों को दूर रखा, जिससे इंसानी बच्चे ज़्यादा सुरक्षित हुए। उन्होंने शिकार को घर तक ढोने में भी मदद की। यह गठबंधन इतना सफल हुआ कि इसने इंसानों को दुनिया के हर कोने में फैलने में मदद की। जहां-जहां इंसान गए, उनके कुत्ते उनके साथ गए। इस टीम ने मिलकर बर्फ़ीले मैदानों से लेकर घने जंगलों तक, हर माहौल पर कब्जा कर लिया। निएंडरथल इस मुकाबले में टिक नहीं सके और आख़िरकार वे विलुप्त हो गए।
तो अगली बार जब आप किसी कुत्ते को देखें तो यह ज़रूर सोचिएगा कि यह सिर्फ एक प्यारा जानवर नहीं है। यह उस टीम का वंशज है जिसने हमें, यानी होमो सेपियंस को इस धरती की सबसे सफ़ल प्रजाति बनने में मदद की। इस वफ़ादार दोस्त के बिना, शायद आज इंसानों का इतिहास कुछ और होता
इंसान की बनाई नस्लें
हज़ारों सालों तक, कुत्ता एक जनरल-पर्पज साथी था। वह शिकार में मदद करता, कैंप की रखवाली करता और इंसानों के साथ घूमता लेकिन कहानी ने एक नया मोड़ लिया। अब तक कुत्तों को प्रकृति और ज़रूरत चुन रही थी लेकिन अब कमान पूरी तरह से इंसानों के हाथ में आ गई। यहीं से शुरुआत हुई आर्टिफिशियल सेलेक्शन की, यानी अपनी मर्ज़ी की नस्लें बनाने का विज्ञान। यह प्रक्रिया पिछले कुछ हज़ार सालों में शुरू हुई लेकिन इसने असली रफ़्तार पकड़ी पिछली कुछ सदियों में, ख़ासकर विक्टोरियन युग में। इंसानों ने अपनी ज़रूरत, अपनी पसंद और यहां  तक कि अपनी सनक के हिसाब से कुत्तों को डिज़ाइन करना शुरू कर दिया।
 
किसी को ऐसे कुत्तों की ज़रूरत थी जो ज़मीन के अंदर बिलों में घुसकर शिकार कर सकें तो उन्होंने छोटे पैरों और लंबे शरीर वाले कुत्तों को आपस में ब्रीड करना शुरू किया। नतीजा? आज के डैशहुंड जैसे कुत्ते। किसी को तेज़ रफ़्तार वाले शिकारी चाहिए थे, जो अपनी आंखों से देखकर खरगोश जैसे जानवरों का पीछा कर सकें तो उन्होंने सबसे लंबी टांगों और पतले शरीर वाले कुत्तों को चुना। नतीजा? दुनिया के सबसे तेज़ कुत्तों में से एक, ग्रेहाउंड।
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किसानों को अपनी भेड़ों के झुंड को संभालने के लिए होशियार और फुर्तीले कुत्तों की ज़रूरत थी तो उन्होंने सबसे समझदार कुत्तों को ब्रीड किया। नतीजा? बॉर्डर कोली जिसे कुत्तों की सबसे इंटेलिजेंट नस्ल माना जाता है। चीन के शाही महलों में रानियों को गोद में बैठने वाले, छोटे और प्यारे साथी चाहिए थे। तो वहां सबसे छोटे और चपटी नाक वाले कुत्तों को चुना गया। नतीजा- पग।
 
शिकारियों को मज़बूत जबड़े वाले कुत्ते चाहिए थे जो शिकार को पकड़कर रख सकें, तो बुलडॉग जैसी नस्लें बनीं। बर्फीले इलाकों में भारी स्लेज खींचने के लिए ताक़तवर साइबेरियन हस्की को बनाया गया। यह लिस्ट बहुत लंबी है। आज कुत्तों की 400 से ज़्यादा रजिस्टर्ड नस्लें हैं, और हर नस्ल के पीछे इंसान की कोई ख़ास ज़रूरत या पसंद छिपी है। एक छोटे से चिहुआहुआ से लेकर एक विशाल ग्रेट डेन तक, ये सभी कुत्ते जेनेटिकली लगभग 99% एक जैसे हैं। उनका बाहरी फ़र्क सिर्फ़ कुछ जीन का नतीजा है, जिन्हें इंसानों ने हज़ारों बार चुन-चुनकर आगे बढ़ाया है।
तो आज जो कुत्ता हम देखते हैं, वह दो फैसलों का नतीजा है। एक फैसला भेड़ियों का- इंसानों के नज़दीक आने का और दूसरा फैसला इंसानों का- अपनी पसंद की नस्ल बनाने का। एक बर्फीली रात में जलती हुई आग के पास, दो दुश्मनों के बीच हुए एक समझौते से शुरू हुई यह कहानी आज भी जारी है और सबसे अलहदा है क्योंकि कुत्तों और इंसान का रिश्ता किसी और जानवर जैसा नहीं है।
 
इस पूरी कहानी का एक पहलू यह भी है कि भेड़िये को पालतू बनाने की प्रक्रिया में इंसान ने अनजाने में खुद को भी बदल लिया। किसी दूसरी प्रजाति पर भरोसा करना, उसके साथ मिलकर काम करना और उसकी देखभाल करना—इस एक रिश्ते ने हमें कम जंगली और ज़्यादा 'इंसान' बनाया।
तो अगली बार जब कोई कुत्ता सड़क पर अपनी पूंछ हिलाता हुआ आपके पास आए, तो याद कीजिएगा। यह क्यूट सा दिखने वाला जानवर उस लंबी, मुश्किल और शानदार सफ़र का नतीजा है जिसने न सिर्फ़ भेड़िये को बदला, बल्कि इंसानों हमेशा के लिए बदल दिया। यह सिर्फ एक कुत्ते की कहानी नहीं है। यह हमारी भी कहानी है।
