साल 2000, जॉर्डन का रेगिस्तानी इलाका। 600 गाड़ियों का एक विशाल काफिला धूल उड़ाता हुआ राजधानी अम्मान की तरफ़ बढ़ रहा है। यह काफिला है लीबिया के 'ब्रदर लीडर' कर्नल मुअम्मर गद्दाफ़ी का, जो 20 साल बाद जॉर्डन के दौरे पर आए हैं। सुरक्षा का तामझाम ऐसा कि परिंदा भी पर न मार सके। मिलिट्री के हेलीकॉप्टर ऊपर मंडरा रहे हैं। सब कुछ तयशुदा प्लान के मुताबिक चल रहा था। तभी अचानक गद्दाफ़ी की गाड़ी रुकती है। पूरा काफ़िला थम जाता है। जॉर्डन के सुरक्षा अधिकारी सकते में आ जाते हैं। क्या हुआ? कोई हमला? कोई साज़िश? नहीं। कर्नल की नज़र दूर पहाड़ी पर बने एक अकेले, फटे-पुराने बद्दू टेंट पर पड़ गई थी। हुक्म दिया, ‘गाड़ी मोड़ो, मुझे वहां जाना है।’ अफसरों ने बहुत समझाया कि इससे पूरा शेड्यूल बिगड़ जाएगा, सुरक्षा का ख़तरा है। मगर गद्दाफ़ी कहां किसी की सुनने वाले थे। वह अपनी गाड़ी से उतरे और धूल भरे रास्ते पर उस टेंट की तरफ चल पड़े।
 
अंदर एक बूढ़ी औरत अपने परिवार के साथ रहती थी। उसे पता भी नहीं था कि उसके दरवाज़े पर चलकर आया मेहमान कौन है। उसने अपनी गरीबी और सरकार को लेकर शिकायतें शुरू कर दीं। गद्दाफ़ी सब सुनते रहे फिर उस औरत के सख़्त हो चुके हाथ पकड़े और उन्हें चूम लिया। बोले, ‘तुम्हारे हाथ देखकर मुझे अपनी मां की याद आ गई। उसके हाथ भी ऐसे ही सख़्त थे।’ जाने से पहले उसने उस औरत के तकिए के नीचे अमेरिकी डॉलरों की एक गड्डी रख दी और जॉर्डन के अधिकारियों को हुक्म दिया कि इस परिवार के लिए तुरंत एक पक्के घर का इंतज़ाम किया जाए।
 
यह था गद्दाफ़ी का एक चेहरा। ग़रीबों का हमदर्द, अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ एक बद्दू। यह तस्वीर देखकर कोई भी कह सकता था कि यह आदमी तो फ़कीर है, मसीहा है लेकिन इसी दौरे पर उसकी शख्सियत का एक दूसरा पहलू भी सामने आया। उसी शाम अरब लीग का एक बड़ा सम्मेलन होना था। गद्दाफ़ी को लगा कि जॉर्डन के किंग अब्दुल्ला उन्हें उतनी तवज्जो नहीं दे रहे। बस, कर्नल का पारा चढ़ गया। एक बच्चे की तरह ज़िद पकड़ ली- 'मैं इस सम्मेलन में हिस्सा नहीं लूंगा। मैं अभी वापस लीबिया जा रहा हूं।' पूरा अमला फिर परेशान। किंग अब्दुल्ला को ख़ुद अपने महल से बाहर आकर उन्हें मनाना पड़ा और इस पूरी डिप्लोमैटिक सिरदर्दी के बीच गद्दाफ़ी ने क्या किया? उसने अपना 600 गाड़ियों का काफ़िला एक मामूली सी आइसक्रीम की दुकान पर रुकवा दिया और वहां बैठकर इत्मीनान से आइसक्रीम खाने लगे, जैसे कुछ हुआ ही न हो।

 

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पढ़िए उस तानाशाह की कहानी जो रेगिस्तान के तंबू से उठा, बादशाहों का बादशाह कहलाया लेकिन अंत एक गंदे पाइप में जाकर हुआ। यह है कहानी लीबिया के तानाशाह कर्नल मुअम्मर गद्दाफ़ी की। 

रेगिस्तान का बेटा

 

साल 1942, दुनिया दूसरे विश्व युद्ध की आग में झुलस रही थी। एक तरफ हिटलर, मुसोलिनी। दूसरी तरफ बाकी दुनिया और इस जंग का एक मैदान लीबिया भी था। वही लीबिया, जिसे इटली के तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी ने अपनी चौथी रियासत बनाने का सपना देखा था। मगर अब उसका सपना टूट रहा था। मित्र देशों की सेनाएं इटली और जर्मनी को खदेड़ रही थीं। इसी उथल-पुथल के बीच, जून के महीने में लीबिया के सिर्ते शहर से कुछ दूर, रेगिस्तान के बीचों-बीच एक बद्दू कबीले के टेंट में एक लड़के का जन्म हुआ। पिता का नाम अबू मिनियार, जो ऊंट और बकरियां चराते थे। मां का नाम आइशा बेन निरान। दोनों पढ़े-लिखे नहीं थे। लड़के का नाम रखा गया मुअम्मर। मुअम्मर अबू मिनियार अल-गद्दाफ़ी।


 
गद्दाफ़ी का जन्म गद्दाफ़ा नाम के एक खानाबदोश कबीले में हुआ था। आज यहां, कल वहां। जिंदगी बड़ी कठिन थी। एलिसन पारगेटर अपनी किताब 'Libya: The Rise and Fall of Qaddafi' में लिखती हैं कि गद्दाफ़ी जिस माहौल में पला-बढ़ा, वहां के लोग दूसरे विश्व युद्ध के बाद बचे हुए शेल केसिंग्स और धातु के टुकड़ों से घर का सामान बनाते थे। रेगिस्तान था भी बड़ा बेरहम। सर्दियां ऐसी कि खून जम जाए और गर्मियां ऐसी कि चमड़ी जल जाए और इन सबके ऊपर चलती थी धूल भरी हवा, जिसे कहते थे घिबली। इसी माहौल ने गद्दाफ़ी को गढ़ा। 

 

वह इस्लामी टीचर को बुलाया गया। उसी ने गद्दाफ़ी को कुरान की कुछ आयतें रटाईं। लड़का थोड़ा बड़ा हुआ तो उसे सिर्ते के प्राइमरी स्कूल में दाखिला दिलाया गया। मगर शहर में भी वह अपने मां-बाप का इकलौता बेटा था, तीन बड़ी बहनों के बाद। पिता चाहते थे कि बेटा पढ़े। मगर गांव में स्कूल कहां तो एक घूमने वाले फ़क़ीह यानीगिस्तान का बेटा ही कहलाया। बाकी लड़के उसका मज़ाक उड़ाते। कहते थे, 'यह देखो, देहाती आ गया।' यह गरीबी और यह पहचान का संकट, गद्दाफ़ी के ज़हन में गहरे धंस रहा था। ऊपर से इटली के फासीवादियों का ज़ुल्म। गद्दाफ़ी उन कहानियों को सुनकर बड़ा हुआ था कि कैसे इटली वालों ने उमर अल-मुख्तार जैसे स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी पर लटका दिया था। कैसे लीबिया के लोगों को उनके ही देश में गुलाम बना दिया गया था।

 

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गद्दाफ़ी के अंदर एक आग जल रही थी। बदले की आग। पहचान बनाने की आग और इस आग को हवा मिली मिस्र से। मिस्र में एक नेता उभरा था। गमाल अब्देल नासिर। नासिर अरब राष्ट्रवाद की बात कर रहे थे। वह कहते थे कि सारे अरब एक हैं और हमें पश्चिमी ताकतों के आगे झुकना नहीं है। काहिरा से एक रेडियो स्टेशन चलता था - 'वॉइस ऑफ़ द अरब्स'। सस्ता सा ट्रांजिस्टर रेडियो ही गद्दाफ़ी और उसके जैसे लाखों नौजवानों के लिए दुनिया की खिड़की था। गद्दाफ़ी नासिर का दीवाना हो गया। वह स्कूल में नासिर के भाषण रट-रटकर अपने दोस्तों को सुनाता। वह छोटा-मोटा नेता बन गया था। उसने अपने दोस्तों का एक छोटा सा क्रांतिकारी सेल बना लिया था। ये लड़के रात में खजूर के पेड़ के नीचे, हाथ से बनाई बत्ती की रोशनी में मीटिंग करते और कसमें खाते कि एक दिन वह भी लीबिया से किंग इदरीस के शासन को उखाड़ फेंकेंगे, जो पश्चिम की गुलामी करता था।
 
किंग इदरीस को दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन और अमेरिका ने मिलकर लीबिया की गद्दी पर बिठाया था। क्यों? क्योंकि उन्हें लीबिया में अपने फौजी अड्डे चाहिए थे। किंग इदरीस भले ही लीबिया के थे लेकिन उनकी डोर सीधे लंदन और वॉशिंगटन से बंधी थी। गद्दाफ़ी और उसके दोस्तों को यह गुलामी मंज़ूर नहीं थी। एलिसन पारगेटर बताती हैं कि गद्दाफ़ी ने जानबूझकर फौज का रास्ता चुना क्योंकि उसे पता था कि यही वह रास्ता है जो उसे सत्ता के शिखर तक पहुंचा सकता है। 'फौज ही वह ताकत थी जो जनता की इच्छा को ज़बरदस्ती लागू कर सकती थी,' यह गद्दाफ़ी ने बाद में खुद कहा था। 1964 में उसने बेंगाजी की मिलिट्री अकादमी में दाखिला ले लिया और यहीं से शुरू हुई उस तख्तापलट की तैयारी, जो लीबिया की तारीख हमेशा के लिए बदलने वाली थी।
 

तख्तापलट कैसे हुआ?

 

गद्दाफ़ी और उसके साथी फौजी अकादमी में घुस तो गए। इरादा नेक था लेकिन तैयारी नहीं थी। प्लान यह था कि जब तक हम अफसर न बन जाएं और फौज के अहम ठिकानों पर हमारी पकड़ न हो जाए, तब तक चूं नहीं करनी है। इन लड़कों ने अपने संगठन का नाम मिस्र के नासिर की नकल करते हुए रखा- फ्री यूनियनिस्ट ऑफिसर्स मूवमेंट।

 

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यह संगठन तख्तापलट करना चाहता था। मगर यह काम था मुश्किल। गद्दाफ़ी पर सीनियर अफसरों की खास नज़र थी। उसे कई बार पूछताछ के लिए बुलाया गया। एक बार तो गद्दाफ़ी ने खुद बताया कि जब अफसर उसे डांट रहे थे तो उसका दिमाग बस इसी में लगा था कि जेब में रखे कागज़ों को कैसे ठिकाने लगाया जाए। कहीं कोई लिस्ट, कोई नाम हाथ न लग जाए। मगर किस्मत कहिए या लीबिया की हुकूमत का भोलापन, ये लड़के हर बार बच निकले और इनके बचने के किस्से भी बड़े दिलचस्प हैं। एक बार 1969 में गद्दाफ़ी अपने साथियों के साथ एक सीक्रेट मीटिंग करके अपनी फॉक्सवैगन गाड़ी से बेंगाजी लौट रहा था। रात का वक्त, ताकि कोई देख न ले। मगर रेगिस्तान में रास्ता भटक गए। ऊपर से गाड़ी का टायर पंक्चर हो गया। गाड़ी काबू से बाहर होकर रेत में धंस गई। तभी कुछ गांव वाले मदद के लिए आए। अब गद्दाफ़ी की सिट्टी-पिट्टी गुम। उसकी जेब में हाथ से लिखा एक सीक्रेट पर्चा था। पकड़ा जाता तो खेल खत्म। इन लड़कों ने तुरंत जुगाड़ लगाया।
 
कभी गद्दाफी की सलाहकार रह चुकी दाद शराब अपनी किताब 'द कर्नल एंड आई' में इस घटना का ज़िक्र करती हैं। गद्दाफी के साथियों नेपर्चे को एक कपड़े में लपेटा और उसे एक पुरानी शराब की बोतल का ढक्कन बना दिया। बोतल में कार की बैटरी के लिए डिस्टिल्ड वॉटर भरा था। जब गांव वालों ने बोतल देखी तो उन्हें लगा कि ये लौंडे शराब पीकर टल्ली हैं और गाड़ी ठोक दी। गद्दाफ़ी और उसके दोस्त भी शराबी होने का नाटक करते रहे। उन्हें फौजी कैंप ले जाया गया, मगर किसी को असलियत पता नहीं चली।
 
यह नौटंकी चलती रही और फिर आया साल 1969। गद्दाफ़ी को लगा कि अब वक्त आ गया है। पहला दिन तय हुआ 12 मार्च। मगर पता चला कि उसी दिन मिस्र की महान गायिका उम्म कुलसुम का बेंगाजी में कॉन्सर्ट है। अब भला उम्म कुलसुम के गाने के बीच कौन गोलियां चलाना चाहेगा? तो प्लान कैंसल हो गया। अगली तारीख रखी गई 24 मार्च। मगर इस बार हुकूमत को भनक लग गई। गद्दाफ़ी का यह प्लान भी फुस्स हो गया। उसे लगा कि ज़रूर ग्रुप में कोई मुखबिर है। अब सब डरे हुए थे। ऊपर से गद्दाफ़ी और उसके कुछ खास साथियों को ट्रेनिंग के लिए ब्रिटेन भेजा जाना था। गद्दाफ़ी समझ गया, अब नहीं तो कभी नहीं। उसने तारीख तय की - 1 सितंबर, 1969। ज़ीरो आवर।

 

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अंतिम दिनों की तैयारी भी किसी कॉमेडी फिल्म से कम नहीं थी। उमर अल-मेहिषी जो गद्दाफ़ी के कोर ग्रुप का था, उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि इस बार सच में तख्तापलट होने वाला है। उसे प्लेन का टिकट खरीदने के लिए 30 दीनार दिए गए। उसने पैसे तो ले लिए पर गया नहीं। बोला, 'जब तक मुअम्मर खुद नहीं कहेगा, मैं नहीं जाऊंगा।' गद्दाफ़ी को जब पता चला तो उसने मेहिषी को बुलाया और समझाया, 'भाई, इस बार पक्का है।'
 
खैर, जैसे-तैसे रात के 2:30 बजे। ऑपरेशन शुरू हुआ। मगर यहां भी गड़बड़ियां। एक टुकड़ी को त्रिपोली का रेडियो स्टेशन कब्ज़े में लेना था मगर वह रास्ता ही भूल गए। जब दूसरे सैनिक उन्हें लेकर पहुंचे तो वहां तैनात गार्ड्स ने उन पर गोलियां चलानी शुरू कर दीं। उन्हें लगा कि इज़रायली कमांडो ने हमला कर दिया है।
 
इन तमाम गड़बड़ियों के बावजूद, तख्तापलट कामयाब रहा। क्यों? क्योंकि किंग इदरीस की हुकूमत पूरी तरह सड़ चुकी थी। एलिसन पारगेटर लिखती हैं कि बड़े-बड़े अफसर और मंत्री भ्रष्टाचार में डूबे थे। सेना का मनोबल गिरा हुआ था। जब गद्दाफ़ी के सैनिक त्रिपोली और बेंगाजी की सड़कों पर उतरे तो उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था। आर्मी चीफ कर्नल अब्दुल अज़ीज़ अल-शेल्ही को जब पकड़ने गए तो वह अपने पजामे में ही घर के स्विमिंग पूल में कूद गए और अगली सुबह तक वहीं छिपे रहे।
 
1 सितंबर, 1969 की सुबह 6:30 बजे, लीबिया के लोगों ने रेडियो पर एक अनजान आवाज़ सुनी। यह आवाज़ 27 साल के कर्नल मुअम्मर गद्दाफ़ी की थी। वह ऐलान कर रहा था, 'लीबिया के लोगों! तुम्हारी दिली ख्वाहिशों को पूरा करते हुए। तुम्हारी फौज ने इस सड़ी-गली और भ्रष्ट हुकूमत को उखाड़ फेंका है। आज से लीबिया एक आज़ाद, स्व-शासित गणराज्य है।' एक नए दौर का आगाज़ हो चुका था। 


गद्दाफी की 'हरी किताब'

 

तख्तापलट के बाद मुल्क की कमान 12 नौजवान फौजी अफसरों के हाथ में थी। इनकी एक कमेटी थी- रिवॉल्यूशनरी कमांड काउंसिल यानी RCC। इसका सरदार था 27 साल का कर्नल मुअम्मर गद्दाफ़ी। शुरू-शुरू में तो सब बढ़िया लगा। गद्दाफ़ी ने फौरन अमेरिका और ब्रिटेन के फौजी अड्डे बंद करवा दिए। शराबखानों और नाइटक्लबों पर ताले लग गए। लीबिया के लोगों को लगा, चलो कोई तो आया जो देश की इज्जत के बारे में सोच रहा है। मगर यह तो सिर्फ ट्रेलर था। पिक्चर तो अभी बाकी थी। गद्दाफ़ी सिर्फ एक फौजी तानाशाह बनकर नहीं रहना चाहता था। वह खुद को एक विचारक, एक दार्शनिक समझता था। एक ऐसा पैगंबर जिसे दुनिया को एक नया रास्ता दिखाना था और अगले कुछ साल उसने लीबिया को अपनी प्रयोगशाला बना लिया। 

 

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1975 में गद्दाफी ने एक किताब निकाली। छोटी सी, पतली सी। हरे रंग की। नाम था - ‘द ग्रीन बुक’। इटली की मशहूर पत्रकार ओरियाना फलाची ने जब गद्दाफ़ी का इंटरव्यू लिया तो गद्दाफी ने अपनी हरी किताब का जिक्र किया। फलाची ने जवाब दिया, 'हां, मैंने पढ़ी है आपकी हरी किताब। पंद्रह मिनट लगे बस। मेरा पाउडर कॉम्पैक्ट भी इससे बड़ा है।'

 

क्या था इस किताब में? 

 

इस किताब में गद्दाफी ने लोकतंत्र का अपना ही नुस्खा पेश किया। उसने कहा, संसद बकवास है। राजनीतिक दल तानाशाही का ज़रिया हैं। असली लोकतंत्र है ‘डायरेक्ट डेमोक्रेसी’। यानी जनता खुद राज करेगी और इसी सिस्टम को उसने नाम दिया- जमाहिरिया । यानी ‘स्टेट ऑफ़ द मासेज़’ या जनता का राज।

 

हरी किताब के मुताबिक, अब लीबिया में कोई नौकर या मालिक नहीं होगा। सब ‘पार्टनर’ होंगे। कोई अपना घर किराए पर नहीं देगा क्योंकि ‘ज़रूरत में ही आज़ादी छिपी होती है’, यह उसकी किताब का एक मशहूर वाक्य था। मतलब यह है कि जब हमें किसी चीज़ की बहुत ज़्यादा ज़रूरत महसूस होती है, तभी हम उसे पाने के लिए असली संघर्ष करते हैं और उस संघर्ष से मिली आज़ादी का मोल समझते हैं। इस दर्शन के हिसाब से प्राइवेट दुकानें बंद करवा दी गईं और उनकी जगह सरकारी सुपरमार्केट खुल गए, जहां अलमारियां अकसर खाली रहती थीं।
 
गद्दाफ़ी अपनी इस नई दुनिया को लेकर इतना उत्साहित थे कि उन्हें लगता था कि अब बाकी सब दर्शनशास्त्र कूड़ेदान में फेंक दिए जाने चाहिए। 2 मार्च 1977 को उसने बाकायदा देश का नाम बदलकर ‘ग्रेट सोशलिस्ट पीपुल्स लीबियन अरब जमाहिरिया’ रख दिया और देश का झंडा? वह बदलकर सिर्फ़ एक रंग का हो गया- पूरा हरा। कागज पर तो यह सब बहुत क्रांतिकारी लग रहा था। जनता का राज। मगर असलियत क्या थी? असलियत यह थी कि गद्दाफ़ी को अपनी सत्ता पर किसी और की परछाई तक बर्दाश्त नहीं थी। उन्हें इस बात का जुनून था कि कोई भी उससे ज़्यादा पॉपुलर न हो जाए  जब ‘पीपुल्स कमेटी’ के चुनाव होते थे, तो गद्दाफ़ी खुद पोलिंग स्टेशनों पर पहुंच जाते। वहां जाकर वह भरे मंच से किसी उम्मीदवार की तारीफ करते तो किसी को सरेआम बेइज्जत कर देते। एक बार तो उन्होंने एक प्रतिनिधि को सबके सामने ‘चोर’ कह दिया।

 

गद्दाफी के मन में सत्ता खोने का डर इतना गहरा था कि उन्होंने एक हुक्म जारी किया। टेलीविजन पर किसी भी मशहूर फुटबॉलर को उसके नाम से नहीं, बल्कि सिर्फ उसकी जर्सी के नंबर से बुलाया जाएगा। क्यों? ताकि कोई खिलाड़ी हीरो न बन जाए, कहीं उसकी लोकप्रियता गद्दाफ़ी से ज़्यादा न हो जाए। 

महिला बॉडीगार्ड 

 

गद्दाफ़ी ने अपनी हरी किताब से लीबिया को अपनी जागीर तो बना लिया। मगर दुनिया कैसे देख रही थी? एक सनकी तानाशाह की तरह और इस इमेज को बनाने में गद्दाफ़ी ने खुद भी कोई कसर नहीं छोड़ी। हर चीज़ निराली थी। उनके कपड़े, रेगिस्तानी टेंट जिसे वह न्यूयॉर्क से लेकर पेरिस तक अपने साथ ले जाते थे और इन सबसे बढ़कर, उसकी वह चीज़ जिसने दुनिया को सबसे ज़्यादा हैरान किया। महिला बॉडीगार्ड्स की फौज।

 

क्या नज़ारा होता था। गद्दाफ़ी किसी विदेशी दौरे पर है और उन्हें घेरे हुए हैं मेकअप लगाए, हाई हील्स पहने, कलाश्निकोव राइफलें लिए 30-40 जवान लड़कियां। दुनिया ने इन्हें नाम दिया ‘अमेज़ोनियन गार्ड’ और इनके बारे में किस्से भी खूब चले। कहा गया कि ये सब की सब कुंवारी लड़कियां हैं। गद्दाफ़ी इन्हें खुद चुनता है और ये सिर्फ उसकी बॉडीगार्ड नहीं बल्कि उसका हरम हैं, जिन्हें वह अपनी अय्याशी के लिए इस्तेमाल करता है।

 

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कहानी में थोड़ा तो सच था पर ज़्यादातर झूठ का मसाला था। सच यह था कि गद्दाफ़ी को औरतों पर भरोसा ज़्यादा था। उन्हें लगता था कि मर्द तो धोखा दे सकता है, बिक सकता है लेकिन औरत वफादार रहेगी। औरतों की फौज दिखाकर वह दुनिया को यह भी संदेश देना चाहते थे कि देखो, मेरी क्रांति ने औरतों को कितनी आज़ादी दी है। वह अब घर में नहीं, बल्कि देश के लीडर की हिफाज़त कर रही हैं।

 

हरम वाली बात? यह कोरा झूठ था। इन बॉडीगार्ड्स का असली, आधिकारिक नाम था ‘द रिवॉल्यूशनरी नन्स’ यानी ‘क्रांतिकारी ननें’। इनका चुनाव खूबसूरती देखकर नहीं, बल्कि गद्दाफ़ी के प्रति उनकी वफ़ादारी और भरोसे के आधार पर होता था। उन्हें कड़ी मिलिट्री ट्रेनिंग दी जाती थी। मार्शल आर्ट्स से लेकर हर तरह के हथियार चलाने की ट्रेनिंग और रही बात कुंवारी होने की तो ऐसा कोई नियम नहीं था।

 

उन्हें शादी करने की पूरी इजाज़त थी। बस एक शर्त थी। अगर उनका पति सुरक्षा सेवाओं से बाहर का कोई आम आदमी होगा तो उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ेगी तो फिर अय्याशी वाली बात कहां से आई? असल में गद्दाफ़ी की अय्याशियों के लिए एक अलग ही नेटवर्क था और उसकी ज़िम्मेदार थी एक औरत, जिसका नाम था माबरूका शरीफ। वह एक ‘मैडम’ की तरह काम करती थी और गद्दाफ़ी के लिए लड़कियों का इंतज़ाम करती थी लेकिन ‘रिवॉल्यूशनरी नन्स’ का काम सुरक्षा और दुनिया के लिए गद्दाफ़ी की एक ताकतवर इमेज बनाना था, न कि उसका बिस्तर गर्म करना। ये गद्दाफ़ी के उस ग्रैंड सर्कस का एक और तमाशा था, जो पूरे 42 साल तक चलता रहा।

दुनिया का सबसे बड़ा विलेन?

 

गद्दाफ़ी ने अपने देश को तो अपनी प्रयोगशाला बना ही लिया था। मगर गद्दाफी का मन इतने से कहां भरने वाला था। लीबिया इसके लिए बहुत छोटा था। गद्दाफी को दुनिया के मंच पर खेलना था। वह खुद को सिर्फ एक देश के नेता नहीं, बल्कि पूरी तीसरी दुनिया का, सारे दबे-कुचले लोगों का मसीहा समझते थे और इस खेल का एक ही नियम था - पश्चिम को, खासकर अमेरिका को, चुनौती देना। और चुनौती कैसे दी जाती है? उनके दुश्मनों को अपना दोस्त बनाकर।

 

1970 और 80 के दशक में गद्दाफ़ी ने अपनी तिजोरी के दरवाज़े खोल दिए। किसके लिए? दुनियाभर के उन तमाम गुटों के लिए जो अमेरिका और उसके साथियों के लिए सिरदर्द बने हुए थे। फिलीस्तीन का खूंखार आतंकवादी अबू निदाल हो, जिसे खुद यासिर अराफात ने अपने संगठन से निकाल दिया था, गद्दाफ़ी ने उसे पनाह दी। इटली के रेड ब्रिगेड्स हों या आयरलैंड की आईआरए, सबको लीबिया से पैसा और हथियार मिलने लगे। गद्दाफ़ी दुनिया को दिखाना चाहते थे कि देखो, मैं ही हूं असली मर्द जो अमेरिका की आंखों में आंखें डालकर बात कर सकता है।

 

अमेरिका ये सब देख रहा था और उसका पारा चढ़ रहा था। उस वक्त अमेरिका के राष्ट्रपति थे रोनाल्ड रीगन। वह गद्दाफ़ी को ‘मिडिल ईस्ट का पागल कुत्ता’ कहते थे। रीगन को लगता था कि गद्दाफ़ी सोवियत संघ का मोहरा है और उसे सबक सिखाना ज़रूरी है और सबक सिखाने का मौका मिला 1986 में। 5 अप्रैल की तारीख। पश्चिम बर्लिन में एक नाइट क्लब था- ला बेल। यहां अमेरिकी फौजी खूब आते थे। उसी रात वहां एक ज़ोरदार धमाका हुआ। दो अमेरिकी सैनिक और एक तुर्की महिला मारी गई। 200 से ज़्यादा लोग घायल हुए। अमेरिका ने फौरन इल्जाम लगाया गद्दाफ़ी पर और कहा, 'हमारे पास सबूत हैं। हमने त्रिपोली और यूरोप में बैठे उसके एजेंटों के बीच बातचीत पकड़ी है।'

 

अब रीगन का गुस्सा सातवें आसमान पर था। बदला लेने की ठान ली गई। ठीक दस दिन बाद। 15 अप्रैल, 1986, रात के 2 बजे। ब्रिटेन के ठिकानों से अमेरिका के 18 F-111 फाइटर जेट्स ने उड़ान भरी। उनका निशाना था त्रिपोली और बेंगाजी में गद्दाफ़ी के ठिकाने। इस ऑपरेशन का नाम था ‘एल डोराडो कैन्यन’। विमानों ने गद्दाफ़ी के कंपाउंड पर 60 टन बम गिराए।

 

गद्दाफ़ी उस रात बाल-बाल बच गए। कहते हैं कि इटली के प्रधानमंत्री ने उसे हमले की खबर पहले ही दे दी थी। वह अपने बंकर में छिपे थे। लीबिया ने दावा किया कि इस हमले में गद्दाफ़ी की 4 साल की गोद ली हुई बेटी, हाना (Hana) मारी गई। हालांकि, दाद शराबअपनी किताब ‘द कर्नल एंड आई’ में लिखती हैं कि हाना जिंदा बच गई थी। इस हमले ने गद्दाफ़ी को हिला तो दिया, मगर अकड़ कम ना हुई। उन्होंने अमेरिका के खिलाफ आग उगलनी शुरू कर दी। वह दुनियाभर में घूम-घूमकर खुद को अमेरिकी साम्राज्यवाद के शिकार के तौर पर पेश करने लगे। बाब अल-अज़ीज़िया के खंडहरों में गद्दाफी ने एक बड़ी सी मूर्ति बनवाई - एक सोने का हाथ जो अमेरिकी फाइटर प्लेन को कुचल रहा था और फिर हुआ वह कांड जिसने गद्दाफ़ी को दशकों के लिए दुनिया से अलग-थलग कर दिया।

 

21 दिसंबर, 1988, पैन एम फ्लाइट 103 ने लंदन से न्यूयॉर्क के लिए उड़ान भरी थी। स्कॉटलैंड के लॉकरबी गांव के ऊपर आसमान में विमान में धमाका हो गया। 259 यात्री और चालक दल के सदस्य, साथ ही जमीन पर 11 लोग, कुल 270 लोग मारे गए। जांच शुरू हुई। शक की सुई घूम-फिरकर फिर लीबिया पर आ टिकी। पता चला कि बम एक सूटकेस में रखा था जिसे माल्टा से फ्लाइट में चढ़ाया गया था और इसके पीछे थे लीबिया की खुफिया एजेंसी के दो एजेंट।

 

अमेरिका और ब्रिटेन ने मांग की कि गद्दाफ़ी इन दोनों को उनके हवाले करे। गद्दाफ़ी अड़ गए। बोले, ‘ये मेरे देश के नागरिक हैं। मैं इन्हें भेड़-बकरियों की तरह तुम्हारे हवाले नहीं कर सकता।’ नतीजा? संयुक्त राष्ट्र ने लीबिया पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। हवाई यात्रा पर रोक, हथियारों की बिक्री पर रोक, विदेशों में जमा पैसा फ्रीज। लीबिया दुनिया में एकदम अकेला पड़ गया।


भारी पड़ गया पंगा?

 

गद्दाफ़ी ने अमेरिका और ब्रिटेन से पंगा तो ले लिया। लॉकरबी के मसले पर अकड़ भी दिखा दी। मगर इसका खामियाजा भुगत रहा था लीबिया का आम आदमी। संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों ने देश की कमर तोड़ दी थी। एलिसन पारगेटर अपनी किताब में लिखती हैं कि 1990 के दशक में लीबिया में जीना मुहाल हो गया था। आपके पास पैसा है, मगर खरीदने के लिए सामान नहीं। सरकारी सुपर मार्केट की अलमारियां खाली पड़ी थीं। दवाइयों की किल्लत थी। महंगाई आसमान छू रही थी। आलम यह था कि फौज के बड़े-बड़े अफसर शाम को होटलों के बाहर प्याज बेचने पर मजबूर थे ताकि घर का खर्चा चल सके।

 

बाहर तो दुश्मन थे ही, मगर अब तो घर में ही आग लग रही थी। गद्दाफ़ी ने सोचा था कि वह इस्लाम के सबसे बड़ा झंडाबरदार हैं। मगर अब इस्लाम के नाम पर ही उन्हें सबसे बड़ी चुनौती मिलने वाली थी। हुआ यह कि पड़ोसी देश सूडान आतंकवादियों का अड्डा बन गया था, जहां खुद ओसामा बिन लादेन बैठा था और अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ लड़ने वाले मुजाहिदीन अब हीरो बन चुके थे। इसी माहौल में लीबिया के बहुत से नौजवान लड़के, जो गद्दाफ़ी के खोखले ‘जमाहिरिया’ से तंग आ चुके थे, उन्हें जिहाद का रास्ता आकर्षक लगने लगा। पारगेटर के मुताबिक, 800 से 1000 लीबियाई लड़के 80 के दशक में अफ़ग़ान जिहाद में लड़ने गए थे और जब ये लड़के वापस आए तो उनके इरादे बड़े खतरनाक थे। वे अपने साथ सिर्फ हथियार नहीं, बल्कि एक नई विचारधारा लाए थे। एक ऐसी विचारधारा जो गद्दाफ़ी को काफिर मानती थी। इन्हीं लड़कों ने मिलकर एक संगठन बनाया- यानी LIFG। उनका एक ही मकसद था- गद्दाफ़ी को हटाकर लीबिया में एक इस्लामी हुकूमत कायम करना।

 

अब शुरू हुआ लुका-छिपी का खेल। LIFG के लड़ाके पूर्वी लीबिया के हरे-भरे पहाड़ों में छिप गए और वहीं से गद्दाफ़ी की फौजों और सुरक्षा अधिकारियों पर हमले करने लगे। बात इतनी बढ़ गई कि नवंबर 1996 में गद्दाफ़ी पर जानलेवा हमला भी हुआ। जब वह ब्राक शहर में थे, तब LIFG के एक सदस्य ने उस पर ग्रेनेड फेंका। गद्दाफ़ी बच गए, मगर समझ आ गया कि पानी अब सिर से ऊपर जा रहा है।

 

गद्दाफ़ी ने बदला लेने की ठानी। शक के आधार पर हज़ारों नौजवानों को जेलों में ठूंस दिया गया। खूंखार रिवॉल्यूशनरी कमेटियों को खुली छूट दे दी गई। वे सरेआम लोगों को मारतीं और उनकी लाशें सड़कों पर घुमातीं ताकि दहशत फैले। सबसे भयानक कांड हुआ जून 1996 में। त्रिपोली की अबू सलीम जेल में। यहां बंद कैदियों ने बगावत कर दी। जवाब में गद्दाफ़ी के सुरक्षा बलों ने जेल के आंगन में 1200 से ज़्यादा कैदियों को इकट्ठा करके गोलियों से भून डाला। लाशों को सामूहिक कब्रों में दफना दिया गया। 1998 आते-आते, इस बेरहम दमन के आगे LIFG ने घुटने टेक दिए। बगावत कुचल दी गई थी।

 

दुश्मन का दुश्मन, दोस्त?

 

गद्दाफ़ी ने घर में लगी आग तो बुझा दी। अपनी ही जनता का खून बहाकर, जेलों में लाशों के ढेर लगाकर। LIFG के लड़ाकों को कुचल दिया गया था। मगर यह जीत अधूरी थी क्योंकि देश के बाहर वह पूरी तरह अकेले पड़ चुके थे। लॉकरबी बम धमाके के बाद लगे संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों ने लीबिया को पश्चिमी दुनिया का दुश्मन बना दिया था। न कोई हवाई जहाज़ आता, न कोई जाता। अर्थव्यवस्था ठप थी। इस मुसीबत से बाहर निकलने के लिए गद्दाफी को एक मौके की तलाश थी और ये मौक़ा उन्हें 2001 में मिला।
 
11 सितंबर, 2001। 9/11 का हमला। इस एक दिन ने दुनिया को हमेशा के लिए बदल दिया और इसने गद्दाफ़ी को अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा मौका दे दिया। कहानी में आया एक ज़बरदस्त ट्विस्ट। जिस आतंकवाद को पालने-पोसने का इल्जाम गद्दाफी पर लगता था, अब वही आतंकवाद अमेरिका का सबसे बड़ा दुश्मन बन गया था।

 

गद्दाफ़ी ने फौरन हवा का रुख भांप लिया। वह दुनिया के पहले मुस्लिम नेता थे, जिन्होंने 9/11 हमले की खुलकर निंदा की। गद्दाफी ने पीड़ितों के लिए रक्तदान शिविर लगवाए और अमेरिका को संदेश भिजवाया, ‘अरे भाई, मैं तो सालों से चिल्ला रहा हूं कि ये अल-कायदा वाले, ये ओसामा बिन लादेन वाले बड़े खतरनाक लोग हैं। तुम लोग ही नहीं सुन रहे थे। अब आओ, मिलकर लड़ते हैं।’

 

यह एक मास्टरस्ट्रोक था। अमेरिका, जो कल तक गद्दाफी को ‘पागल कुत्ता’ कह रहा था, अब उसे आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में एक साथी के तौर पर देखने लगा। पर्दे के पीछे बातचीत शुरू हो गई। एलिसन पारगेटर लिखती हैं कि गद्दाफ़ी के खुफिया चीफ़ मूसा कूसा और उसके बेटे सैफ अल-इस्लाम ने ब्रिटिश और अमेरिकी एजेंसियों से सीक्रेट मीटिंग करनी शुरू कर दी।
 
अब सीन बदल चुका था। गद्दाफ़ी, जो कल तक पूरी दुनिया को चुनौती दे रहे थे, अब दुनिया का भरोसा जीतने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। उन्होंने दो सबसे बड़े यू-टर्न लिए। पहला, लॉकरबी मामला। सालों की आनाकानी के बाद, गद्दाफ़ी ने झुकना स्वीकार किया। हमले की सीधे-सीधे जिम्मेदारी तो नहीं ली, मगर एक चिट्ठी में यह माना कि ‘अधिकारियों के कामों’ के लिए वह जिम्मेदार है और फिर पीड़ितों के परिवारों को मुआवज़ा देने के लिए अपनी तिजोरी खोल दी। कुल 2.7 बिलियन डॉलर। यह बहुत बड़ी रकम थी। जैसा कि उसके एक मंत्री ने बाद में कहा, ‘हमने शांति खरीदने के लिए ये कीमत चुकाई।'
 
दूसरा और इससे भी बड़ा यू-टर्न था परमाणु कार्यक्रम। दुनिया को सालों से शक था कि गद्दाफ़ी चोरी-छिपे परमाणु बम बना रहे हैं। 2003 में जब अमेरिका ने इराक पर हमला किया तो गद्दाफ़ी को अपना हश्र सद्दाम हुसैन जैसा दिखने लगा। दाद शराब अपनी किताब ‘द कर्नल एंड आई’ में बताती हैं कि कैसे गद्दाफ़ी ने सद्दाम की गिरफ्तारी और टीवी पर दिखाई गई उसकी बेइज्जती पर टोनी ब्लेयर को फोन करके नाराजगी जताई थी। 

19 दिसंबर, 2003 को गद्दाफी ने दुनिया को हैरान करते हुए ऐलान किया कि लीबिया अपने विनाशकारी हथियारों के सारे कार्यक्रम बंद कर रहा है। लीबिया ने अंतरराष्ट्रीय निरीक्षकों के लिए अपने दरवाज़े खोल दिए। यह पश्चिम के लिए एक बहुत बड़ी जीत थी और इसका इनाम भी गद्दाफ़ी को फौरन मिला। संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध हटा लिए गए। सालों बाद लीबिया के एयरपोर्ट पर विदेशी विमान उतरने लगे और फिर वह नज़ारा दिखा जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर खुद त्रिपोली पहुंचे और एक रेगिस्तानी टेंट में गद्दाफ़ी से हाथ मिलाया। फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी और इटली के सिल्वियो बर्लुस्कोनी जैसे नेता भी लाइन लगाकर उससे मिलने आने लगे। लगा गद्दाफी के दिन फिरने लगे हैं लेकिन फिर शुरू हुई एक क्रांति।

 

पाइप, पिस्तौल और 42 साल का अंत

 

साल 2011, ट्यूनीशिया से एक हवा चली फिर वह मिस्र पहुंची। इसे नाम दिया गया अरब स्प्रिंग। एक ऐसी क्रांति की लहर जो दशकों से जमे तानाशाहों को उखाड़ फेंक रही थी। गद्दाफ़ी त्रिपोली में बैठा सब देख रहे थे। उन्हें लगा, यह हवा लीबिया तक नहीं पहुंचेगी। मगर यह बड़ी गलती थी। 15 फरवरी, 2011। लीबिया के पूर्वी शहर बेंगाजी में एक वकील, फाथी तेरबिल को गिरफ्तार कर लिया गया। तेरबिल अबू सलीम जेल हत्याकांड के पीड़ितों के परिवारों का केस लड़ रहा था। उसकी गिरफ्तारी ने उस चिंगारी को हवा दे दी जो सालों से सुलग रही थी। लोग सड़कों पर उतर आए।

 

गद्दाफ़ी ने इस प्रदर्शन को कुचलने के लिए ताकत का इस्तेमाल किया। निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलवा दीं। मगर इस बार उसका दांव उल्टा पड़ गया। जितना खून बहा, लोगों का गुस्सा उतना ही भड़कता गया। बेंगाजी से शुरू हुई बगावत पूरे देश में फैल गई। जल्द ही फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका की अगुवाई में नाटो (NATO) ने दखल दिया। लीबिया के आसमान में फाइटर जेट्स मंडराने लगे। 

 

गद्दाफ़ी का खेल अब खत्म हो रहा था। अगस्त 2011 में बागियों ने त्रिपोली पर कब्जा कर लिया। गद्दाफ़ी अपने होमटाउन सिर्ते पहुंचे। लगा था कि वहां, अपने कबीले के लोगों के बीच वह महफूज रहेंगे। मगर अब कोई उसे बचाने वाला नहीं था। महीनों तक गद्दाफी सिर्ते में छिपे रहे। एक घर से दूसरे घर। हालत बड़ी दयनीय थी। दाद शराब अपनी किताब में लिखती हैं कि गद्दाफ़ी को यकीन ही नहीं हो रहा था कि उसके साथ ये हो रहा है। वह अपने सलाहकारों से पूछता, ‘बिजली क्यों नहीं है? पानी क्यों नहीं है?’ फिर आया 20 अक्टूबर, 2011 का वह दिन। गद्दाफ़ी और उसके कुछ वफादार एक काफिले में सिर्ते से भागने की कोशिश कर रहे थे। तभी नाटो के विमानों ने काफिले पर हमला कर दिया। गद्दाफ़ी और उसके कुछ साथी पास की एक सड़क के नीचे बने दो बड़े-बड़े कंक्रीट के सीवेज पाइपों में छिप गए। जल्द ही बागी लड़ाके वहां पहुंच गए। उन्होंने गद्दाफ़ी को बालों से पकड़कर बाहर घसीटा। गद्दाफी का शरीर खून से लथपथ था। वह गिड़गिड़ा रहे थे, ‘मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?’

 

जवाब में कोई थप्पड़ मार रहा था, कोई लातें। ये सब कुछ मोबाइल फोन पर रिकॉर्ड हो रहा था। फिर एक गोली चली और 42 साल का एक अध्याय खत्म हो गया।

 

मगर कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। बागियों ने गद्दाफ़ी की लाश को एक ट्रक में फेंका और उसे मिसराता शहर ले गए। वहां गद्दाफी के शव को एक मीट मार्केट के कोल्ड स्टोरेज में नुमाइश के लिए रख दिया गया। हज़ारों लोग अपने उस पूर्व तानाशाह को देखने के लिए लाइन में लगे, जिसके नाम से कभी उनकी रूह कांपती थी। कुछ दिनों बाद, उसके शव को रेगिस्तान में किसी अनजान जगह पर दफना दिया गया। एक लड़का जो रेगिस्तान के टेंट से निकला था, जिसने एक देश पर 42 साल तक अपनी सनक और अपने सपनों को थोपा, उसका अंत एक गंदे पाइप और मीट के फ्रीजर में हुआ। वह खुद को एक क्रांति कहता था। मगर जब क्रांति आई, तो उसे ही बहा ले गई।