साल 1186 के आखिर की बात है। अरब के रेगिस्तान से एक कारवां गुज़र रहा था। ऊंटों की पीठों पर कीमती तोहफे और सामान लदा था। औरतें, बच्चे भी साथ थे, तभी, अचानक ईसाई हमलावरों के एक गिरोह ने उन पर धावा बोल दिया। ये लुटेरे रेनल्ड ऑफ़ शैतिलोन (Raynald of Chatillon) के सिपाही थे। रेनल्ड, जो अपने ज़ुल्म और क्रूरता के लिए दूर-दूर तक जाना जाता था। उसने न सिर्फ कारवां लूटा बल्कि कई बेकसूर लोगों को बंदी बना लिया। कहा जाता है कि इस काफिले में मिस्र (Egypt) और सीरिया (Syria) के सुल्तान सलादीन की बहन भी थीं। सलादीन, जो उस वक्त इस्लामी दुनिया का सबसे ताकतवर सुलतान था। जब उस तक ये खबर पहुंची तो उसका चेहरा गुस्से से तमतमा उठा। उसने फौरन रेनल्ड के पास अपने लोग भेजे। मांग सीधी थी– कैदियों को आज़ाद करो और लूटा हुआ माल लौटाओ लेकिन अपनी ताकत के घमंड में चूर रेनल्ड ने सलादीन के दूतों का सरेआम मज़ाक उड़ाया और उनकी मांग ठुकरा दी। 

 

उसने ताना मारते हुए कहा, "जाओ, अपने नबी मुहम्मद से कहो कि वह तुम्हारी मदद करें!" यह बात जब सलादीन ने सुनी तो उसके सीने में बदले की आग भड़क उठी। उसने उसी पल कसम खाई– अगर रेनल्ड कभी उसके हाथ लगा तो वह उसे अपने ही हाथों से मौत देगा। यह सिर्फ कसम नहीं थी। यह शुरुआत थी, उस मुहिम की जिसने जेरुसेलम पर 88 साल के ईसाई शासन का अंत कर दोबारा मुस्लिमों के कब्जे में ला दिया। आज पढ़ेंगे येरुशलम पर सुलतान सलादीन की उस ऐतिहासिक जीत की कहानी, जिसने इतिहास का रुख पलट दिया।

 

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Chapter 1: सलादीन का उदय

 

आज के इराक (Iraq) में एक जगह है तिकरित (Tikrit), साल 1137 में सलादीन का जन्म यहीं हुआ था। उसका परिवार कुर्द कबीले से ताल्लुक रखता था, जो अपनी बहादुरी के लिए जाने जाते थे। सलादीन का बचपन दमिश्क शहर में बीता, जो उस वक्त सीरिया (Syria) का एक अहम शहर था। उसके चाचा का नाम था शिरकुह (Shirkuh)। शिरकुह एक बड़ा फौजी कमांडर था। सलादीन ने लड़ाई के तौर-तरीके अपने चाचा से ही सीखे। एक और शख्स था जिसका सलादीन पर बहुत असर पड़ा – नूर-अल-दीन (Nur-ad-Din)। नूर-अल-दीन उस वक्त सीरिया का सबसे ताकतवर शासक था और सलादीन उसी की फौज में काम करता था। धीरे-धीरे सलादीन ने अपनी काबिलियत और बहादुरी से नूर-अल-दीन का भरोसा जीत लिया। यहां से सलादीन के सुल्तान बनने का सफ़र शुरू होता है।


 
नूर-अल-दीन की नज़र मिस्र पर थी। जहां फातिमिद खिलाफत का शासन था। उसने अपने कमांडर शिरकुह और उसके साथ सलादीन को मिस्र भेजा। मिस्र में कुछ वक्त लड़ाई चली और फिर शिरकुह वहां का सबसे बड़ा मंत्री बन गया लेकिन कुछ ही दिन बाद शिरकुह की मौत हो गई। अब सलादीन के लिए एक बड़ा मौका था। जेफ्री हिंडले (Geoffrey Hindley) अपनी किताब 'Saladin: Hero of Islam' में बताते हैं कि मिस्र के बादशाह ने सोचा कि सलादीन अभी नौजवान है, उसे आसानी से काबू में रखा जा सकता है। इसलिए उसे मिस्र का नया वज़ीर बना दिया लेकिन सलादीन तो कुछ और ही इरादे रखता था। उसने बड़ी होशियारी से मिस्र की पूरी ताकत अपने हाथों में ले ली और वहां अय्यूबी (Ayyubid) खानदान का राज शुरू किया। वह खुद मिस्र का सुल्तान बन गया।

 

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सुल्तान बनने के बाद सलादीन ने मिस्र को मजबूत बनाया। हिंडले के मुताबिक, सलादीन ने मक्का जाने वाले हाजियों के लिए टैक्स भी माफ कर दिया। इस काम से सलादीन आम लोगों में बहुत मशहूर हो गया। उधर सीरिया में नूर-अल-दीन की मौत हो चुकी थी। हम बात कर रहे हैं साल 1174 की। अब सीरिया में कोई बड़ा नेता नहीं बचा था। सलादीन को लगा कि यही सही मौका है मुसलमानों को एक झंडे के नीचे लाने का। उसका सपना था कि सारे मुसलमान मिलकर येरुशलम को क्रूसेडरों (Crusader) से आजाद कराएं। क्रूसेडर कौन?
दरअसल, क्रूसेडर वह ईसाई लड़ाके और आम लोग थे जो यूरोप के अलग-अलग देशों से आते थे। ग्यारहवीं सदी के आखिर में, उस समय के ईसाई धर्मगुरु, यानी पोप ने लोगों से अपील की कि वह हथियार उठाएं और पवित्र भूमि (Holy Land) को मुसलमानों के कब्जे से आज़ाद कराएं। इस पवित्र भूमि में सबसे अहम शहर था येरुशलम जहां ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया था।

 

साल 1099 में, एक लंबी और खूनी लड़ाई के बाद, क्रूसेडरों ने येरुशलम पर कब्ज़ा कर लिया और आसपास के इलाकों में अपने छोटे-छोटे राज कायम कर लिए, जिन्हें क्रूसेडर स्टेट्स कहा जाता था। लगभग 88 सालों तक येरुशलम पर इन्हीं क्रूसेडरों का राज रहा। इस दौरान मुसलमानों और ईसाइयों के बीच लगातार लड़ाइयां होती रहीं। सलादीन के वक्त तक, ये क्रूसेडर राज्य अंदरूनी झगड़ों और मुस्लिम ताकतों के बढ़ते दबाव की वजह से काफी कमज़ोर हो चुके थे। सलादीन का सपना इन्हीं क्रूसेडर राज्यों को खत्म करके येरुशलम को दोबारा इस्लामी हुकूमत के तहत लाना था।

 

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इसलिए वह अपनी फौज लेकर सीरिया की तरफ बढ़ा। रास्ते में कई छोटी-बड़ी लड़ाइयां हुईं लेकिन सलादीन की फौजी ताकत के आगे कोई टिक नहीं पाया। एक-एक करके उसने सीरिया के बड़े शहर जैसे दमिश्क और फिर अलेप्पो (Aleppo) पर अपना कब्जा कर लिया। अब सलादीन मिस्र और सीरिया दोनों का सुल्तान था। इस्लामी दुनिया में उससे ताकतवर कोई नहीं था और उसकी नजरें अब येरुशलम पर थीं।

Chapter 2: क्रूसेडरों की हिमाक़त

 

जिस समय सुल्तान सलादीन की ताकत लगातार बढ़ रही थी। येरुशलम का ईसाई राज्य अंदरूनी कलह से जूझ रहा था। येरुशलम, जिसे क्रूसेडरों ने लगभग नवासी साल पहले मुसलमानों से छीना था, अब कमज़ोर पड़ रहा था। उन दिनों येरुशलम के बादशाह थे बाल्डविन चतुर्थ (Baldwin IV)। बाल्डविन एक बहादुर और काबिल राजा थे लेकिन उन्हें कोढ़ की भयानक बीमारी थी। इस बीमारी ने उन्हें लाचार बना दिया था। उनके दरबार में भी एकता नहीं थी। बड़े-बड़े सरदार और जागीरदार आपस में ही लड़ते रहते थे। खासकर, रेमंड ऑफ़ त्रिपोली (Raymond of Tripoli) और गाय ऑफ़ लुसिगनन (Guy of Lusignan) नाम के दो गुट एक दूसरे के कट्टर दुश्मन बने हुए थे और इसी कमज़ोर होती सल्तनत में एक ऐसा शख्स था जो आग में घी डालने का काम कर रहा था। उसका नाम था रेनल्ड ऑफ़ शैतिलोन (Raynald of Chatillon)। ये वही रेनल्ड है जिसके बारे में हमने अपनी कहानी की शुरुआत में ज़िक्र किया था। रेनल्ड फ्रांस का रहने वाला था और दूसरे क्रूसेड के दौरान Holy Land आया और यहीं बस गया।
 
रेनल्ड अपनी क्रूरता, लालच और वादाखिलाफी के लिए पूरे इलाके में बदनाम था। उसने एक राजकुमारी से शादी की। सोलह साल तक वह मुसलमानों की कैद में रहा। बाहर निकलने के बाद उसने अल-करक (Al-Karak) नाम के एक बेहद मज़बूत किले पर क़ब्ज़ा किया और  मालिक बन बैठा। यह किला एक ऐसी जगह पर था जो दमिश्क से मक्का जाने वाले अहम रास्ते पर पड़ता था। यहां से अक्सर मुसलमान गुज़रते थे। कई संधियों के बाद यह तय हुआ था कि क्रूसेडर इन यात्रियों पर हमला नहीं करेंगे लेकिन रेनल्ड ने सलादीन के साथ हुई संधियों को ताक पर रखकर मुस्लिम काफिलों को लूटना शुरू कर दिया। 

 

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उसने येरुशेलम के ईसाई राजा बाल्डविन की भी नहीं सुनी। साल 1180 में सलादीन और बाल्डविन के बीच दो साल के लिए अमन का समझौता हुआ था लेकिन रेनल्ड को ऐसे समझौतों की कोई परवाह नहीं थी। अगले ही साल, 1181 में उसने मक्का जा रहे एक बड़े कारवां पर हमला कर दिया और बहुत से लोगों को बंदी बना लिया। सलादीन ने बाल्डविन से इसकी शिकायत की और नुकसान की भरपाई करने को कहा लेकिन रेनल्ड काबू से बाहर था। रेनल्ड का दुस्साहस यहीं नहीं रुका। साल 1182 में उसने एक और भयानक काम किया। उसने लाल सागर (Red Sea) में अपने जहाजों का एक बेड़ा भेजा। इन जहाजों ने मक्का और मदीना के पास के बंदरगाहों पर हमला किया और हज यात्रियों से भरे एक जहाज को भी डुबो दिया।

 

इस हरकत से सलादीन को बहुत गुस्सा आया। वह खुद को मुसलमानों के पवित्र स्थानों का रखवाला मानता था और रेनल्ड ने सीधे उसी की इस पहचान को चुनौती दे डाली थी। सलादीन ने फौरन अपनी नौसेना भेजी, जिसने रेनल्ड के कई जहाजों को पकड़ लिया और पकड़े गए डाकुओं को मक्का, काहिरा (Cairo) और अलेक्जेंड्रिया (Alexandria) जैसे शहरों में ले जाकर सरेआम मौत की सजा दी गई। ये घटनाएं छोटी-मोटी झड़पें नहीं थीं। ये उस बड़े तूफान की आहट थीं जो येरुशलम की तरफ बढ़ रहा था। रेनल्ड की हरकतों ने सलादीन के सब्र का बांध तोड़ दिया था और जैसा कि हमने शुरू में बताया, साल 1186 में जब रेनल्ड ने एक और बड़े कारवां को लूटा, जिसमें सलादीन की बहन भी थीं तो सलादीन ने कसम खा ली कि वह रेनल्ड को अपने हाथों से सजा देगा।

Chapter 3: हत्तीन का महासंग्राम

 

रेनल्ड की हरकतों और सलादीन की कसम के बाद, अब फिजाओं में जंग की बू आने लगी थी। दोनों तरफ तलवारें खिंच चुकी थीं। सलादीन ने इस्लामी दुनिया में जिहाद का नारा बुलंद किया। उसकी पुकार पर मिस्र से लेकर सीरिया और मेसोपोटामिया तक, दूर-दूर से फौजें खिंची चली आ रही थीं। देखते ही देखते लगभग तीस हजार सैनिक, जिनमें बारह हजार तो सिर्फ घुड़सवार ही थे, सलादीन के झंडे तले जमा हो गए। यह वह लश्कर था जो येरुशलम की किस्मत का फैसला करने वाला था।

 

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उधर येरुशेलम में क्या हो रहा था। उसके लिए हमें 1185 की एक घटना को समझना होगा। जैसा पहले बताया येरुशेलम के ईसाई राजा बाल्डविन बीमार थे। 1185 में उनकी मौत के बाद  येरुशलम के तख्त पर सीधा कोई वारिस नहीं था। बाल्डविन की कोई अपनी संतान नहीं थी। उन्होंने अपनी बहन के बेटे, यानी अपने भतीजे को अपना वारिस चुना लेकिन कुछ ही महीनों में उसकी भी मौत हो गई। अब येरुशलम के सामने एक बड़ा संकट खड़ा हो गया। तख्त के दो मुख्य दावेदार थे। एक तरफ थी बाल्डविन की बहन सिबिला और दूसरी तरफ थी उनकी सौतेली बहन इसाबेला (Isabella)। ऊपर हमने आपको येरुशेलम के दो ताक़तवर गुटों का नाम बताया था।
 
इसी लड़ाई का का फ़ायदा उठाकर सिबिला के पति ने सत्ता क़ब्ज़ा ली। इस शख्स का नाम था - गाय ऑफ़ लुसिगनन (Guy of Lusignan) था। गाय फ्रांस का एक सामंत था जो कुछ समय पहले ही येरुशलम आया था।  उसने बड़ी चालाकी से येरुशलम शहर और शाही खजाने पर कब्ज़ा कर लिया। सिबिला को येरुशलम की रानी घोषित किया गया और फिर सिबिला ने अपने पति गाय ऑफ़ लुसिगनन को ताज पहनाकर येरुशलम का राजा बना दिया। इस खींचतानी में हार मिली - रेमंड ऑफ़ त्रिपोली (Raymond of Tripoli) गुट को। जो इसाबेला का समर्थन कर रहा था।  रेमंड ऑफ़ त्रिपोली ख़ुद एक ताक़तवर सामंत था और राजा बाल्डविन का चचेरा भाई हुआ करता था। उसने गाय ऑफ़ लुसिगनन को राजा मानने से इनकार कर दिया। जिससे दरबार की गुटबाजी और बढ़ गई थी। इसी अंदरूनी फूट और नेतृत्व की कमजोरी का सलादीन ने बखूबी फायदा उठाया।

 

सलादीन ने जब जंग का बिगुल फूंका, येरुशलम के राजा ने अपने सारे सूरमाओं को सफुरिया नाम की जगह पर इकट्ठा होने का हुक्म दे दिया। सफुरिया आज के इजरायल में पड़ता है। यह एक अहम पड़ाव था, जहां पानी की भी कोई कमी नहीं थी। लगभग बीस हजार ईसाई सैनिक, जिनमें बारह सौ फौलादी इरादों वाले नाइट भी शामिल थे, लड़ाई के लिए तैयार खड़े थे।

 

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सलादीन एक शातिर रणनीतिकार था। वह जानता था कि सीधी लड़ाई में क्रूसेडरों की भारी घुड़सवार फौज खतरनाक साबित हो सकती है। इसलिए उसने एक चाल चली। उसने अपनी फौज का एक हिस्सा तिबरियास नाम के शहर पर हमला करने के लिए भेजा। तिबरियास में रेमंड ऑफ़ त्रिपोली का क़िला हुआ करता था। सलादीन के हमले के वक्त की रेमंड ऑफ त्रिपोली की पत्नी एशिवा क़िले में मौजूद थी। सलादीन का मकसद क्रूसेडरों को सफुरिया के आरामदायक और पानी से भरपूर इलाके से निकालकर तिबरियास की तरफ खींचना था। वह उन्हें एक ऐसे सूखे और बंजर मैदान में फंसाना चाहता था, जहां पानी का नामोनिशान न हो। सलादीन ने तिबरियास शहर पर तो आसानी से कब्जा कर लिया लेकिन एशिवा ने किले के अंदर से मोर्चा संभाले रखा।

 

जैसे ही तिबरियास पर हमले और एशिवा के घिरने की खबर सफुरिया पहुंची, ईसाई खेमे में हड़कंप मच गया। राजा गाय ऑफ़ लुसिगनन ने फौरन अपने सभी बड़े सरदारों की एक सभा बुलाई। सवाल एक ही था– क्या करना चाहिए? रेमंड ऑफ़ त्रिपोली, जिसकी पत्नी तिबरियास में फंसी हुई थी, उसने सलाह दी कि सफुरिया में ही रुका जाए। उसका मानना था कि सलादीन उन्हें फंसाने की कोशिश कर रहा है और तिबरियास की तरफ बढ़ना एक बड़ी गलती होगी लेकिन बाकी सरदार आगबाबूला हो उठे। जिनमें एक रेनल्ड ऑफ़ शैतिलोन भी था। वही क्रूसेडर जिसे मारने की क़सम सलादीन ने खाई थी।
   
रेनल्ड ऑफ़ शैतिलोन और कुछ सरदार फौरन तिबरियास जाकर एशिवा को छुड़ाना चाहते थे। उनकी दलील थी कि एक रानी को मुसीबत में छोड़ना कायरता होगी। दरबार में गरमागरम बहस हुई। आखिर में, राजा गाय ने रेनल्ड की बात मान ली और अपनी फौज को तिबरियास की तरफ कूच करने का हुक्म दे दियाऔर फिर शुरू हुई एक भयानक यात्रा। 3 जुलाई, साल 1187 की सुबह क्रूसेडर सेना ने सफुरिया से तिबरियास की ओर बढ़ना शुरू किया। सूरज आग उगल रहा था और पानी का दूर-दूर तक कोई निशान नहीं था। सलादीन की फौज के छोटे-छोटे दस्ते लगातार उन पर हमले कर रहे थे, उन्हें पानी के जो भी थोड़े-बहुत सोते थे, उनसे दूर रख रहे थे। प्यास से क्रूसेडर सैनिकों का बुरा हाल था। उनके घोड़े और वह खुद गर्मी और थकान से बेदम हो रहे थे।

 

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शाम होते-होते, वह हत्तीन नाम की जगह के पास पहुंचे। यह दो पहाड़ियों के बीच की एक घाटी थी, जिन्हें "हत्तीन के सींग" भी कहा जाता था। यहीं पर सलादीन ने उन्हें घेर लिया। रात घिर आई थी। क्रूसेडर सेना पूरी तरह थक चुकी थी, प्यास से बेहाल थी और उन्हें चारों तरफ से सलादीन की फौज ने घेर रखा था। रात भर मुसलमानों ने सूखी घास में आग लगाकर और ढोल पीट-पीटकर ईसाइयों को और डराया। उनके लिए वह रात कयामत की रात से कम नहीं थी। अगली सुबह, 4 जुलाई का सूरज निकला। यह हत्तीन की लड़ाई का दूसरा और निर्णायक दिन था। सलादीन की फौज ने पूरी ताकत से हमला बोल दिया। मुस्लिम तीरंदाजों ने तीरों की ऐसी बौछार की कि आसमान काला पड़ गया। क्रूसेडर पैदल सेना, जो पहले ही प्यास और थकान से अधमरी हो चुकी थी, अब मैदान छोड़कर भागने लगी। एक-एक करके उनके नाइट भी गिरने लगे।

 

रेमंड ऑफ़ त्रिपोली ने कुछ नाइटों के साथ मिलकर घेरा तोड़ने की एक आखिरी कोशिश की और वह किसी तरह वहां से निकलने में कामयाब हो गया लेकिन राजा गाय और बचे हुए नाइट हत्तीन की एक पहाड़ी पर बुरी तरह घिर चुके थे। उन्होंने बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया, लेकिन कब तक? आखिर में, मुसलमानों के हाथ वह "सलीब" भी लग गया, जिसे ईसाई अपने साथ लड़ाई में लेकर चलते थे और मानते थे कि यह वही सलीब है जिस पर ईसा मसीह को चढ़ाया गया था। इस सलीब का हाथ से जाना क्रूसेडरों के लिए एक बहुत बड़ा झटका था। उनकी हिम्मत अब पूरी तरह टूट चुकी थी।

 

सलादीन के बेटे अल-अफ़दल ने इस लड़ाई को अपनी आंखों से देखा था। उसने बाद में बताया कि जब क्रूसेडर नाइट आखिरी बार हमला करने के लिए पहाड़ी से नीचे उतरे, तो एक पल के लिए सलादीन भी घबरा गया था और उसने अपनी दाढ़ी खींच ली थी लेकिन फिर जब उसने देखा कि क्रूसेडर हार रहे हैं, तो वह घोड़े से उतरा और अल्लाह का शुक्र अदा करने लगा।

लड़ाई खत्म होने के बाद राजा गाय और रेनल्ड ऑफ़ शैतिलोन को पकड़कर सलादीन के खेमे में लाया गया। सलादीन ने राजा गाय को पीने के लिए ठंडा पानी दिया। जब गाय ने प्याला रेनल्ड को देना चाहा, तो सलादीन ने फौरन कहा, "इसको पानी मैंने नहीं दिया।" अरब रवायतों के मुताबिक, अगर कोई मेजबान अपने कैदी को पानी पिला दे, तो उसकी जान बख्श दी जाती थी। सलादीन ने साफ कर दिया था कि रेनल्ड को कोई माफी नहीं मिलने वाली। उसने रेनल्ड को उसकी पुरानी वादाखिलाफियों और गुस्ताखियों की याद दिलाई। फिर अपनी तलवार निकाली और रेनल्ड पर वार कर दिया। इसके बाद एक पहरेदार ने रेनल्ड का सिर धड़ से अलग कर दिया। सलादीन ने अपनी कसम पूरी कर दी थी।

 

दूसरे कैदियों का हश्र भी भयानक हुआ। टेंपलर और हॉस्पिटैलर नाइट, जो अपनी बहादुरी और कट्टरता के लिए जाने जाते थे, उन्हें चुन-चुनकर कत्ल कर दिया गया। कहा जाता है कि सलादीन ने सूफियों और आलिमों को बुलाया और उनसे कहा कि वह इन "धर्म के दुश्मनों" को अपने हाथों से सजा दें। राजा गाय और दूसरे बड़े सरदारों को कैदी बना लिया गया। हत्तीन की लड़ाई खत्म हो चुकी थी। ये सिर्फ एक लड़ाई नहीं थी, ये वह पल था जब येरुशलम की किस्मत का फैसला हो चुका था। 

Chapter 4: येरुशलम पर जीत

 

हत्तीन की लड़ाई सिर्फ एक जंग का खात्मा नहीं थी, बल्कि येरुशलम की तकदीर का नया पन्ना खुलने की शुरुआत थी। सलादीन की इस ज़बरदस्त जीत के बाद क्रूसेडर राज्यों का किला एक-एक करके ढहने लगा। जाफ़ा, बेरूत, जैसे मज़बूत शहर सलादीन की फौज के सामने ज़्यादा देर टिक नहीं पाए। कुछ ने बिना लड़े ही हथियार डाल दिए तो कुछ ने थोड़ी बहुत हिम्मत दिखाई लेकिन नतीजा वही रहा। अगस्त के अंत तक, सिर्फ टायर, एस्केलोन, गाजा और खुद येरुशलम ही ईसाइयों के कब्ज़े में बचे थे। सलादीन का अगला निशाना था – येरुशलम, वह शहर जिसके लिए ये सारा घमासान मचा था।

 

सितंबर 1187 में सलादीन अपनी भारी फौज लेकर येरुशलम के दरवाज़े पर आ धमका लेकिन हमला करने से पहले, उसने शहर के फ्रैंकिश यानी ईसाई नेताओं के पास अपने दूत भेजे। सलादीन का पैगाम साफ था– शहर शांति से हमारे हवाले कर दो, हम किसी को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे लेकिन येरुशलम के नेताओं ने उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उन्हें अब भी उम्मीद थी कि शायद यूरोप से कोई मदद आ जाएगी, या फिर वह अपनी बहादुरी से शहर को बचा लेंगे।

 

शहर की हिफाज़त का ज़िम्मा अब बालियन ऑफ़ इबेलिन (Balian of Ibelin) के कंधों पर था। बालियन एक तजुर्बेकार और इज़्ज़तदार नाइट था। दिलचस्प बात यह है कि बालियन खुद सलादीन की मेहरबानी से ही उस वक्त येरुशलम में मौजूद था। हुआ यूं था कि हत्तीन की लड़ाई के बाद बालियन किसी तरह बचकर दूसरे शहर पहुंच गया था लेकिन उसकी बीवी और बच्चे येरुशलम में ही फंसे हुए थे। बालियन ने सलादीन से गुज़ारिश की कि उसे अपने परिवार को येरुशलम से निकालने की इजाज़त दी जाए। सलादीन मान गया लेकिन एक शर्त पर – बालियन शहर में सिर्फ एक रात रुकेगा और फिर कभी सलादीन के खिलाफ हथियार नहीं उठाएगा। बालियन ने कसम खाई लेकिन जब वह येरुशलम पहुंचा, तो शहर के लोगों ने उसे रोक लिया। उन्होंने बालियन से मिन्नतें कीं कि वह उनकी हिफाज़त के लिए रुक जाए। बालियन के लिए यह एक मुश्किल फैसला था– एक तरफ उसकी कसम थी, दूसरी तरफ उसके लोगों की जान। आखिर में, उसने लोगों की बात मान ली और अपनी कसम तोड़ दी। उसने सलादीन को खबर भिजवाई और अपनी मजबूरी बताई। सलादीन ने न सिर्फ उसे माफ कर दिया, बल्कि उसके परिवार को हिफाज़त के साथ बाहर  निकलने दिया।
 
अब बालियन येरुशलम की हिफाज़त में जुट गया। सलादीन ने पहले शहर की पश्चिमी दीवारों पर हमला किया लेकिन वहां उसे कामयाबी नहीं मिली। फिर उसने अपनी फौज को शहर की उत्तरी और पूर्वी दीवारों की तरफ मोड़ा। मुस्लिम घेराबंदी करने वाली बड़ी-बड़ी मशीनों ने दीवारों पर पत्थर बरसाने शुरू कर दिए और सुरंगें खोदकर दीवारों को गिराने की कोशिशें होने लगीं। शहर के अंदर लोगों में खौफ बढ़ता जा रहा था। आखिरकार, जब बालियन को लगा कि अब और मुकाबला करना मुमकिन नहीं है तो वह खुद सलादीन से बातचीत करने पहुंचा। सलादीन शुरू में बहुत गुस्से में था। उसने कहा कि वह शहर को उसी तरह तबाह कर देगा जैसे क्रूसेडरों ने 1099 में येरुशलम जीतने के बाद मुसलमानों का कत्लेआम किया था लेकिन बालियन भी आसानी से हार मानने वाला नहीं था।

 

उसने सलादीन को एक ऐसी धमकी दी जिसने पूरी बाज़ी पलट दी। बालियन ने कहा, "अगर तुमने बिना शर्त आत्मसमर्पण के लिए मजबूर किया, तो हम ईसाई अपने हाथों से अपनी औरतों और बच्चों को मार डालेंगे, अपनी सारी दौलत जला देंगे, डोम ऑफ़ द रॉक और अल-अक्सा मस्जिद को नेस्तनाबूद कर देंगे और शहर में कैद पांच हज़ार मुस्लिम कैदियों को भी मौत के घाट उतार देंगे। इसके बाद हम सब बाहर निकलकर तुमसे आखिरी दम तक लड़ेंगे और एक भी ईसाई ज़िंदा तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा।"

 

यह सुनकर सलादीन और उसके सेनापति सन्न रह गए। वह जानते थे कि अगर ऐसा हुआ तो येरुशलम की शक्ल हमेशा के लिए बिगड़ जाएगी और बेहिसाब खून-खराबा होगा। काफी सोच-विचार के बाद, सलादीन नरम पड़ गया। 2 अक्टूबर, 1187 का दिन। येरुशलम ने सलादीन के सामने हथियार डाल दिए। शहर के लोगों को अपनी जान और माल की सलामती के लिए एक फिरौती देनी थी– हर मर्द के लिए सोने के 10 सिक्के, हर औरत के लिए पांच और हर बच्चे के लिए एक सोने का सिक्का। हालांकि, शहर के तमाम बूढ़े, बीमार और लाचार लोगों को बिना कोई पैसा लिए आज़ाद कर दिया गया।

 

येरुशलम अब मुसलमानों के कब्ज़े में था। सलादीन ने फौरन शहर के पवित्र इस्लामी स्थलों की सफाई और मरम्मत का काम शुरू करवाया। डोम ऑफ़ द रॉक पर क्रूसेडरों द्वारा लगाया गया विशाल सोने का क्रॉस नीचे उतारा गया। ईसाई चर्चों से उनका फर्नीचर हटाया गया। अल-अक्सा मस्जिद, जिसे नाइट टेंपलर ने अपने अस्तबल और रहने की जगह बना लिया था, उसे पाक-साफ किया गया। कहते हैं, नूर-अल-दीन ने लगभग 20 साल पहले एक बहुत ही खूबसूरत नक्काशीदार पल्पिट यानी एक खास मंच बनवाया था। इस ख्वाहिश के साथ कि जब येरुशलम दोबारा मुसलमानों के पास आएगा तो उसे अल-अक्सा मस्जिद में रखा जाएगा। सलादीन ने अपने उस्ताद नूर-अल-दीन की उस ख्वाहिश को पूरा किया और वह शानदार मिम्बर अल-अक्सा मस्जिद की ज़ीनत बना। येरुशलम एक बार फिर इस्लामी दुनिया का हिस्सा बन चुका था।

 

येरुशलम पर सलादीन की जीत की खबर ने इस्लामी दुनिया में खुशी की लहर दौड़ा दी तो वहीं यूरोप में मातम छा गया। फौरन एक नए धर्मयुद्ध, यानी तीसरे क्रूसेड का ऐलान कर दिया गया, जिसमें इंग्लैंड के राजा रिचर्ड द लायनहार्ट जैसे बड़े नाम शामिल हुए।  रिचर्ड द लायनहार्ट और सलादीन के बीच हुई जंग की कहानी किसी और एपिसोड में सुनाएंगे।