बात साल 1903 की है। हिंदुस्तान के सबसे बड़े साहब। वायसरॉय लॉर्ड कर्ज़न। एक आलीशान समुद्री जहाज़ पर सवार। कहां जा रहे थे? इंग्लैंड? नहीं। अरब के रेगिस्तान। फ़ारस की खाड़ी में जब उनके जहाज़ ने लंगर डाला तो वहां स्वागत में खड़े थे- अरब के शेख। कतर, बहरीन, कुवैत, तमाम सुल्तान- सब वायसरॉय को सलाम ठोकते हुए।

 

क्यों? क्योंकि  ये सब के सब, भारत के वायसरॉय के मातहत थे। यहां भारत का रुपया चलता था। भारत के अफसर तैनात थे। भारत के सिपाही पहरा देते थे। यह कहानी है उस अरब की जो कभी हिंदुस्तान का हिस्सा था। यह कहानी है उन नक्शों की, जिन्हें कभी जारी नहीं किया गया। एक ऐसा साम्राज्य जो पूरब में बर्मा से लेकर पश्चिम में लाल सागर तक फैला था। फिर क्या हुआ? यह साम्राज्य जो अरब के दिल तक फैला था, वह नक्शे से ऐसे कैसे गायब हो गया? सबसे बड़ा सवाल। अगर यह गायब न होता तो क्या आज दुबई, कतर और यमन, भारत या पाकिस्तान के शहर होते? आज हम जानेंगे उस भूली-बिसरी कहानी के बारे में जब दुबई, यमन और ओमान जैसे देश भारत का हिस्सा थे और कैसे, अगर कुछ बंटवारे न हुए होते तो आज ये सब हिंदुस्तान या इनमें से कुछ शायद पाकिस्तान का हिस्सा होते।

 

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हिंदुस्तान का अरब

 

विलियम डेलरिंपल का नाम आपने सुना होगा। ब्रिटिश इतिहासकार जिन्होंने भारतीय इतिहास पर कई मशहूर किताबें लिखी हैं। उनके बेटे, सैम डेलरिंपल भी एक स्कॉलर और इतिहासकार हैं। हाल ही में हार्पर कॉलिन्स पब्लिकेशन की तरफ से उनकी एक नई किताब आई है, 'शैटर्ड लैंड्स'। इस किताब में सैम भारतीय इतिहास का एक दिलचस्प पहलू बताते हैं। कहानी उस अरब की जो भारत का हिस्सा था। दरअसल, आज हम और आप जिस हिंदुस्तान का नक्शा देखते हैं, क्या वह हमेशा से ऐसा, नहीं था। एक वक्त था, जब हिंदुस्तान की सरहदें पश्चिम में काबुल से आगे और पूरब में बर्मा के पार तक जाती थीं। यह तो फिर भी बहुत लोग जानते हैं लेकिन एक और हिंदुस्तान था। एक ऐसा हिंदुस्तान जिसकी पहुंच अरब की खाड़ी तक थी।

 

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नाम था इंडियन एम्पायर। हवाई बात नहीं। बाक़ायदा क़ानून था। 1889 का इंटरप्रिटेशन ऐक्ट। जो कहता था कि वायसरॉय के मातहत आने वाली कोई भी रियासत, भारत का हिस्सा है। इस लिस्ट में कौन-कौन थे? आज के ज़माने के यमन, ओमान, संयुक्त अरब अमीरात, क़तर, बहरीन और कुवैत। ये सब के सब 'इंडियन एम्पायर' का हिस्सा थे। इनकी लगाम सीधे दिल्ली में बैठे वायसरॉय के हाथ में थी।

 

 

यहां के अफ़सर जिन्हें इंडियन पॉलिटिकल सर्विस का नुमाइंदा कहते थे, वे भारतीय होते थे। यहां की करेंसी? भारतीय रुपया। यहां के बाशिंदों के पास जो पासपोर्ट होता था, उस पर ठप्पा लगा होता था 'इंडियन एम्पायर' का। इतना ही नहीं, जब वायसरॉय ऑफ़िस से रियासतों की लिस्ट निकलती थी, जिसे 'अल्क़ाबनामा' कहते थे, तो उसमें A से पहला नाम किसका आता था? अजमेर? नहीं। अबू धाबी का।
 
ओमान की राजधानी मस्क़ट को 'बंबई का बाहरी बंदरगाह' कहा जाता था। मस्कट की लगभग आधी आबादी कच्छ और गुजरात से थी। यहां तक कि सुल्तान के महल की सुरक्षा का ज़िम्मा भी बलूच सैनिकों पर था, जिन्हें ब्रिटिश इंडिया की तरफ़ से भेजा जाता था। उस दौर के वायसरॉय, लॉर्ड कर्ज़न ने तो साफ़-साफ़ कहा था कि ओमान भी उसी तरह एक भारतीय रियासत है, जिस तरह बलूचिस्तान या कोई और रियासत। फिर सवाल उठता है। अगर यह सब सच था तो ऐतिहासिक नक्शों से यह 'अरब वाला हिंदुस्तान' गायब क्यों है?

वजह है कि अंग्रेज़ खुद भी इस बात को छिपाते थे। डिप्लोमेसी का खेल था। वह तुर्की के ऑटोमन सुल्तान को नाराज़ नहीं करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने ऐसे नक्शे अक्सर टॉप सीक्रेट रखे। यह एक ऐसा सच था जिसे एक पर्दे के पीछे रखा गया लेकिन यह पर्दा हटा और जब हटा तो सिर्फ़ नक्शे नहीं बदले, तक़दीरें भी बदल गईं और इस बदलाव की पहली आहट सुनाई दी अदन के बंदरगाह पर।

 

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अदन में महात्मा गांधी 

 

साल 1928 में लंदन से एक जहाज़ चला। इस पर सवार थे सात अंग्रेज़। जा कहां रहे थे? हिंदुस्तान। क्यों? हिंदुस्तान का भविष्य तय करने। इनका नाम था साइमन कमीशन। उनका जहाज़ जब पहली बार 'इंडिया' की ज़मीन पर रुका, तो वह जगह थी अदन। आज के यमन का हिस्सा लेकिन तब अदन बॉम्बे प्रेसीडेंसी का हिस्सा था। इंडियन एम्पायर का सबसे पश्चिमी किनारा। साइमन कमीशन के अदन जाने की बड़ी वजह थी कि यहां हिंदुस्तान से रिश्ते कमज़ोर पड़ रहे थे। कुछ अरबों के मन में यह बात घर कर रही थी कि भारतीय व्यापारी उन पर हावी हो रहे हैं। इस आग को हवा दे रहे थे बर्नार्ड रेली जैसे अंग्रेज़ अफ़सर, जो चाहते थे कि अरब, भारत से अलग हो जाए। सैम डेलरिंपल की किताब के अनुसार, बर्नाड रेली अदन में ब्रिटिश सरकार के सबसे बड़े अफ़सर, यानी वहां के 'रेसिडेंट' थे।
  
अदन की चिलचिलाती गर्मी में भी क्रीम-रंग का सूट पहनकर घूमते थे और मानते थे कि अरब और भारतीय लोग बुनियादी तौर पर बिलकुल अलग हैं और उन्हें भारत से अलग कर देना ही प्रशासन के लिए बेहतर होगा। अपनी इसी सोच को आगे  बढ़ाने के लिए उन्होंने अदन के अरबों के बीच भारत-विरोधी भावनाओं को हवा देना शुरू कर दिया। साइमन कमीशन के आने के तीन साल बाद, 1931में अदन के बंदरगाह पर एक और जहाज़ आकर रुका। इस बार इस पर सवार थे महात्मा गांधी।

 

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गांधी लंदन जा रहे थे लेकिन जब अदन में उनका जहाज़ रुका तो लोगों ने उन्हें घेर लिया । डेलरिम्पल लिखते हैं, गांधी के आते ही अदन में 'महात्मा गांधी की जय' के नारे लगने लगे। उनका स्वागत करने वालों में एक नौजवान पत्रकार था, मुहम्मद अली लुक़मान। लुक़मान जैसे कई लोगों के मन में एक सवाल था। भारत की आज़ादी के बाद क्या अरब भी भारत में शामिल होगा? या एक अलग देश बनेगा? लंदन में हुए  गोलमेज़ कॉन्फ्रेंस में इस सवाल पर बहस भी हुई। अंत में फ़ैसला हुआ और 1 अप्रैल, 1937 को इंडियन एम्पायर के पहले बंटवारे के तहत अदन को भारत से अलग कर दिया गया। यह एक बहुत बड़ी सल्तनत के टूटने की पहली आहट थी लेकिन कहानी अभी ख़त्म नहीं हुई थी। अदन तो बस शुरुआत थी। असल खेल तो अभी फ़ारस की खाड़ी में होना बाक़ी था।

एक साम्राज्य, दो देश और तेल का खेल

 

1 अप्रैल, 1947, हिंदुस्तान के बड़े बंटवारे से ठीक साढ़े 4 महीने पहले। एक और बंटवारा हुआ। चुपचाप। बिना किसी शोर-शराबे के। लंदन में बैठे अंग्रेज़ों ने एक कलम चलाई और फ़ारस की खाड़ी की तमाम रियासतों को प्रशासनिक तौर पर भारत से अलग कर दिया। यह ब्रिटिश इंडिया के अरब का दूसरा बंटवारा था। अब आप सोच रहे होंगे, इससे क्या फ़र्क़ पड़ा? फ़र्क़ बहुत बड़ा था क्योंकि अगर यह बंटवारा न हुआ होता तो इस बात की पूरी संभावना थी कि सऊदी अरब को छोड़कर बाक़ी का सारा अरब। यानी आज के कुवैत, बहरीन, दुबई, क़तर, UAE। यह सब भारत या पाकिस्तान का हिस्सा होते। जैसे हैदराबाद, जयपुर या बहावलपुर की रियासतें भारत-पाकिस्तान में शामिल हुईं, वैसे ही ये शेख भी शामिल हो जाते।

 

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इन इलाकों के भारत से रिश्ते की जड़ें बहुत गहरी थीं। मिसाल के तौर पर हैदराबाद के निज़ाम को ही ले लीजिए। दुनिया के सबसे अमीर लोगों में से एक। उनके ख़ास सिपहसालार कहां से आते थे? यमन की सल्तनत से। एक सुल्तान, दूसरे सुल्तान के यहां नौकरी कर रहा था। यह वह दुनिया थी, जिसे अंग्रेज़ तोड़ देना चाहते थे। क्यों? खेल था तेल का और भविष्य का।

दरअसल, उस ज़माने में शेख़ इतने अमीर नहीं थे। तेल का ख़ज़ाना तो अभी ज़मीन के नीचे दबा पड़ा था। छोटी-छोटी, ग़रीब रियासतें थीं। अंग्रेज़ जानते थे कि आज़ाद भारत एक बड़ी ताक़त बनेगा और वे नहीं चाहते थे कि एक आज़ाद भारत, फ़ारस की खाड़ी को चलाए। इसी वजह से एक काग़ज़ी फ़ैसले ने हिंदुस्तान और अरब के हज़ारों साल पुराने रिश्ते को एक झटके में तोड़ दिया। एक नए अरब का जन्म हुआ और हिंदुस्तान का वह नक्शा बना, जिसे आज हम देखते हैं।


आख़िरी सुल्तान 

 

अब तक हमने देखा कि अरब का एक बड़ा इलाका इंडिया का हिस्सा था। जो 1947 में अलग हो गया लेकिन रियासतें बरकरार रही। इन रियासतों के ख़त्म होने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है और इस कहानी का भी भारत से एक कनेक्शन है। 1947 में हिंदुस्तान और पाकिस्तान तो आज़ाद हो गए लेकिन अरब में वायसरॉय का राज एक नए रूप में ज़िंदा रहा। अब बस लगाम दिल्ली के बजाय सीधे लंदन के हाथ में थी। इसे कहा गया 'अरेबियन राज'। इस राज को तोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई  गमाल अब्देल नासिर ने। मिस्र के राष्ट्रपति, नासिर ने अरब राष्ट्रवाद का नारा दिया। एक ऐसा नारा, जिसने पूरे अरब जगत में आग लगा दी।

 

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1956 में नासिर ने स्वेज़ नहर पर क़ब्ज़ा कर लिया। अंग्रेज़ों की पूरी दुनिया में भद्द पिट गई। अदन की गलियों में नासिर की तस्वीरें बिकने लगीं। अब एक ही नारा था- 'अंग्रेज़ों, अरब छोड़ो।' अदन में बग़ावत की आग भड़क उठी। नेशनल लिबरेशन फ्रंट यानी NLF नाम के बाग़ियों ने अंग्रेज़ों की नाक में दम कर दिया। अंग्रेज़ों ने गांवों पर बम बरसाए लेकिन बग़ावत और बढ़ गई। इसी उथल-पुथल के बीच कहानी में एंट्री होती है एक नौजवान शहज़ादे की। ग़ालिब अल-कुऐती। कुऐती सल्तनत के आख़िरी सुल्तान। कुऐती का मतलब आज का कुवैत मत समझिएगा। कुऐती सल्तनत अरब के दक्षिणी छोर पर स्थित एक अलग रियासत थी, जो आज यमन का हिस्सा है। इस सल्तनत का भारत के हैदराबाद से गहरा रिश्ता था। दरअसल, यहां के सुल्तान ग़ालिब अल-कुऐती की मां हैदराबाद के निज़ाम की भतीजी थीं और उनके परदादा, हैदराबाद के निज़ाम, उन्हें चेता चुके थे- 'अंग्रेज़ों पर भरोसा मत करना।’

 

सुल्तान ऐन मौके पर यह सबक भूल गए और हुआ भी यही। साल 1967 अंग्रेज़ों ने सुल्तान ग़ालिब को बातचीत के लिए जिनेवा भेजा। कहा गया कि आप संयुक्त राष्ट्र के सामने अपनी सल्तनत की आज़ादी की मांग रख सकें लेकिन जैसे ही सुल्तान जिनेवा पहुंचे, अंग्रेज़ों ने और उनके पीठ पीछे, उनकी पूरी सल्तनत बाग़ियों के हवाले कर दी। सुल्तान ग़ालिब जब वापस लौटे तो अपने ही मुल्क में नहीं घुस पाए। NLF के लड़ाकों ने उन्हें जहाज़ से ही वापस लौटा दिया। दिलचस्प बात सुनिए, जिस जहाज़ से सुल्तान आए थे, उसमें मवेशी लदे हुए थे।
तो सुल्तान ग़ालिब को अपनी सल्तनत छोड़कर सोमालिया से लाए गए ऊंटों और गायों के साथ वापस जाना पड़ा।

 

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इस तरह एक-एक करके, दक्षिणी अरब की सल्तनतें, जो कभी इंडियन एम्पायर का हिस्सा थीं, ताश के पत्तों की तरह ढह गईं लेकिन इस कहानी की दो आख़िरी कड़ियां अभी भी बाकी थीं। एक का सिरा पाकिस्तान से जुड़ा था और दूसरे का भविष्य फ़ारस की खाड़ी के शेख तय करने वाले थे।

ग्वादर, UAE और एक भूला हुआ इतिहास

 

कहानी की आख़िरी दो कड़ियों में से पहली हमें थोड़ा पीछे, साल 1958 में ले जाती है। यह वह कहानी है जिसने इंडियन एम्पायर के अरब और हिंदुस्तान वाले हिस्सों के बीच की आख़िरी ज़मीनी कड़ी को तोड़ा। एक ज़मीन का टुकड़ा था जो ओमान के सुल्तान का था लेकिन था पाकिस्तान के साहिल पर। नाम था ग्वादर। वही पोर्ट जो आजकल चीन के CPEC का हिस्सा है। देखिए, इतिहास वर्तमान पर कैसे असर डालता है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे फ़िरोज़ ख़ान नून। उन्होंने ओमान के सुल्तान से कहा, 'ग्वादर हमें दे दो।' सुल्तान ने मना कर दिया। नून ने अपनी नेवी को ग्वादर के पास तैनात कर दिया। आख़िरकार, सुल्तान को झुकना पड़ा। 1958 में ओमान ने ग्वादर को पाकिस्तान को बेच दिया। ग्वादर तो पाकिस्तान का हिस्सा बन गया लेकिन यमन की क्रांति ने फ़ारस की खाड़ी के बाकी शेखों की नींद उड़ा दी थी। उन्हें डर था कि कल को यह आग उनके घर भी पहुंच सकती है और इसी डर ने उन्हें एक साथ ला खड़ा किया। नतीजा? 1971 में एक नया देश बना - संयुक्त अरब अमीरात यानी UAE। ये शेख समझ गए थे कि अकेले रहे तो बिखर जाएंगे। साथ रहे, तो बच जाएंगे।

 

इसी के साथ, इंडियन एम्पायर के अरब और हिंदुस्तान वाले हिस्सों के बीच की आख़िरी ज़मीनी कड़ी भी टूट गई। आज जब हम इन देशों को देखते हैं- भारत, पाकिस्तान, यमन, यूएई - तो यकीन करना मुश्किल होता है कि ये सब कभी एक ही प्रशासनिक छतरी के नीचे थे। आज ये सब नक्शे अलग-अलग दिखते हैं। इन्हें बनाने में सिर्फ़ स्याही ही नहीं, सियासत और समय का भी बड़ा रोल रहा है।