साल 680, जगह दमिश्क, उमय्यद सल्तनत की राजधानी। शहर के सबसे शानदार महल में एक बादशाह अपनी आखिरी सांसें गिन रहे थे। यह मुआविया इब्न अबी सुफ़यान थे। इस्लामी दुनिया के पहले बादशाह। वह शख़्स जिन्होंने बिखरे हुए कबीलों को एक सल्तनत में बदला था। राजनीति और कूटनीति के ऐसे माहिर खिलाड़ी कि लोग कहते थे, वह अपनी ज़ुबान से जो काम ले सकते थे, उसके लिए कभी अपनी तलवार म्यान से बाहर नहीं निकालते थे लेकिन अब वही ज़ुबान लड़खड़ा रही थी। उन्होंने अपने बेटे, अपने वारिस, यज़ीद इब्न मुआविया को अपने बिस्तर के पास बुलाया। मुआविया ने अपने बेटे का हाथ पकड़ा और वह बात कही जो तारीख़ में दर्ज हो गई। वह एक पिता की फिक्र भी थी और एक घाघ सियासतदान की वसीयत भी।

 

उन्होंने कहा, 'देखो बेटा, मैंने तुम्हारे रास्ते के सारे कांटे साफ कर दिए हैं। तुम्हारे लिए चीज़ों को आसान बना दिया है लेकिन तीन लोगों से होशियार रहना।' तीन में से तीसरा नाम था- हुसैन इब्न अली। मुआविया एक पल के लिए रुके। फिर बोले, 'हुसैन एक सीधे और सम्मानित आदमी हैं लेकिन इराक़ के लोग उन्हें तुम्हारे खिलाफ बगावत के लिए उकसाएंगे। अगर ऐसा हो और तुम उन पर जीत हासिल कर लो तो उन्हें माफ कर देना। याद रखना, वह पैगंबर के नवासे हैं। वह हमारे करीबी रिश्तेदार हैं और उनका हक़ बहुत बड़ा है।'

 

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यह वह सलाह थी जिसे यज़ीद ने सुना ज़रूर लेकिन याद नहीं रखा और उनकी इस एक भूल ने इस्लामी इतिहास को वह ज़ख्म दिया जो आज 1400 साल बाद भी रिस रहा है। आज हम पढ़ेंगे कहानी इस्लामी इतिहास के सबसे विवादित खलीफ़ा यज़ीद इब्न मुआविया की। वह यज़ीद जिनके नाम के साथ कर्बला का नरसंहार जुड़ा है।

ताजपोशी: खिलाफ़त, सल्तनत बन गई

 

नेता या लीडर की कुर्सी। जब खाली होती है तो कैसे भरती है? चुनाव से? विरासत से? या फिर ताकत से? इस्लाम के शुरुआती दिनों में इसका जवाब बिलकुल साफ था। पैगंबर मुहम्मद के बाद जब उनके उत्तराधिकारी यानी खलीफ़ा को चुनने की बात आई तो एक सिस्टम बना कि सब मिलकर मशवरा करेंगे, अपनी राय देंगे और फिर किसी एक के नाम पर सहमति बनेगी। इसी तरीके से इस्लाम के पहले चार खलीफ़ा चुने गए: अबू बकर, उमर, उस्मान और अली। तारीख़ में इन चारों को ‘राशिदुन’ यानी ‘सही रास्ते पर चलने वाले’ कहा जाता है लेकिन फिर आए मुआविया इब्न अबी सुफ़यान। उमय्यद खानदान के वह संस्थापक, जिनकी सियासत शतरंज के माहिर खिलाड़ी जैसी थी। उन्होंने देखा कि खलीफ़ा चुनने के इस तरीके में एक बड़ी दिक्कत है। हर चुनाव के बाद एक नया झगड़ा शुरू हो जाता है। एक नया ‘फ़ितना’ यानी गृहयुद्ध सिर उठा लेता है। मुआविया को लगा कि इस झगड़े को हमेशा के लिए खत्म करने का एक ही तरीका है: सल्तनत। यानी एक ऐसी व्यवस्था जहां खलीफ़ा चुना न जाए, बल्कि विरासत में अपनी गद्दी वारिस को सौंप दे। ठीक वैसे ही जैसे ईरान और रोम के बादशाह करते थे। उन्होंने तय कर लिया था कि खिलाफ़त अब राजशाही बनेगी।


 
इस सल्तनत के पहले शहज़ादे थे, उनके बेटे यज़ीद। यज़ीद शहज़ादों की तरह ही पले-बढ़े थे। वह मक्का-मदीना की धूल भरी गलियों में नहीं, बल्कि दमिश्क के महलों और बागों में बड़े हुए थे। उन्हें दीन और सियासत से ज़्यादा दिलचस्पी शिकार, संगीत और शायरी में थी। जी. आर. हॉटिंग की किताब 'The First Dynasty of Islam' के अनुसार, इस्लामी परंपरा में यज़ीद पर आरोप लगते हैं कि वह महंगे रेशमी कपड़े पहनते थे, शराब पीते थे और उन्होंने एक पालतू बंदर भी रखा हुआ था, जिसे शाही कपड़े पहनाकर दरबार में लाया जाता था।

 

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मुआविया जानते थे कि अरब के कबीले, जो अपनी आज़ादी को सबसे ऊपर रखते थे, वे आसानी से यज़ीद को अपना अगला खलीफ़ा नहीं मानेंगे। इसलिए उन्होंने एक नया चलन शुरू किया - ‘वली-ए-अहद’ यानी जीते-जी अपना वारिस घोषित करना। यह इस्लाम में बिलकुल नई बात थी। इसके लिए मुआविया ने अपनी कूटनीति का भरपूर इस्तेमाल किया। वह साम्राज्य के हर कोने से कबीलों के सरदारों और डेलिगेशन को दमिश्क बुलाते। उनकी खूब मेहमान-नवाज़ी होती। उन्हें महंगे-महंगे तोहफे दिए जाते। जब वे मेहमान नवाज़ी और तोहफों के बोझ तले दब जाते, तब मुआविया बड़ी होशियारी से उनके सामने यज़ीद का ज़िक्र छेड़ते। वह कहते, 'देखो, मेरे बाद फिर झगड़ा होगा, फिर खून बहेगा। इससे अच्छा नहीं कि हम सब मिलकर किसी एक के नाम पर सहमत हो जाएं? यज़ीद जवान है, काबिल है। अगर तुम सब आज उसके नाम पर हामी भर दो, तो भविष्य में होने वाले खून-खराबे से बच जाओगे।'
 
उनकी यह तरकीब काम कर गई। ज़्यादातर कबीलों के सरदारों ने यज़ीद के नाम पर अपनी सहमति दे दी। किसी ने तोहफों के लालच में तो किसी ने भविष्य की लड़ाइयों के डर से। सिवाय कुछ लोगों के। मदीना में चार लोग ऐसे थे, जिन्होंने यज़ीद को अपना खलीफ़ा मानने से साफ इनकार कर दिया। इनमें सबसे बड़े दो नाम थे: एक, पैगंबर मुहम्मद के नवासे, इमाम हुसैन इब्न अली और दूसरे अब्दुल्लाह इब्न ज़ुबैर। इमाम हुसैन का विरोध सैद्धांतिक था। उनका मानना था कि खिलाफ़त पैगंबर की विरासत है, कोई पारिवारिक जागीर नहीं जिसे एक बाप अपने बेटे को सौंप दे। यह इस्लाम की आत्मा के खिलाफ था।

 

मुआविया ने इन्हें मनाने की बहुत कोशिश की। वह खुद दमिश्क से मदीना गए ताकि इन लोगों से बात कर सकें लेकिन वह नाकाम रहे। ये चारों अपने फैसले पर अड़े रहे। साल 680 में जब मुआविया की मौत हुई तो यज़ीद उस वक़्त दमिश्क में नहीं थे। वह अपने किसी महल में शिकार पर निकले हुए थे। जब उन्हें पिता की मौत की खबर मिली, वह भागे-भागे राजधानी पहुंचे और तख्त संभाला। तख्त पर बैठते ही यज़ीद ने जो पहला काम किया, उसने आने वाले तूफान का रुख तय कर दिया। उन्होंने मदीना के गवर्नर को एक खत भेजा। उन्होंने लिखा, 'हुसैन से मेरे नाम की बैत यानी निष्ठा की शपथ लो। अगर वह न मानें तो उनका सिर कलम करके मेरे पास भेज दो।'

 

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एक तरफ़ मुआविया की आखिरी वसीयत थी, जिसमें उन्होंने हुसैन को माफ करने की बात कही थी। दूसरी तरफ़ यज़ीद का पहला हुक्म था, जिसमें उन्होंने हुसैन का सिर कलम करने का आदेश दिया था। यह साफ था कि यज़ीद अपने पिता के रास्ते पर नहीं चलना चाहते थे।

कर्बला की ज़मीन

 

यज़ीद का हुक्म मदीना पहुंचा तो शहर में बेचैनी फैल गई। गवर्नर ने इमाम हुसैन को अपने महल में बुलाया और यज़ीद का पैगाम सुनाया। हुसैन समझ गए कि मदीना में रहना अब मुमकिन नहीं। अगर वह इनकार करते तो गवर्नर उन्हें कत्ल करने पर मजबूर होता और हुसैन नहीं चाहते थे कि उनके नाना, पैगंबर मुहम्मद के शहर की ज़मीन खून से लाल हो। उन्होंने गवर्नर से सोचने के लिए कुछ वक़्त मांगा और उसी रात अपने परिवार के साथ मक्का के लिए निकल पड़े।
 
मक्का, जो इस्लाम का सबसे पवित्र शहर था, जहां किसी भी तरह का खून-खराबा हराम था। हुसैन को लगा कि वह वहां महफूज़ रहेंगे लेकिन यज़ीद की नज़र वहां भी उन पर थी। हुसैन मक्का में थे, जब उनके पास कूफ़ा शहर से खतों का सैलाब आना शुरू हुआ। हज़ारों खत। सबमें एक ही गुहार थी, 'ऐ पैगंबर के नवासे, हमारे पास कोई इमाम नहीं है। यज़ीद की हुकूमत ज़ालिम है। आप कूफ़ा आइए, हम आपके हाथ पर बयत करेंगे और इस ज़ुल्म के खिलाफ़ आपके झंडे तले जंग लड़ेंगे।'
 
शुरू में हुसैन ने इन खतों पर यकीन नहीं किया। वह जानते थे कि ये वही लोग हैं जो उनके पिता हज़रत अली का साथ भी आखिरी वक़्त पर छोड़ गए थे लेकिन जब खतों का आना बंद नहीं हुआ तो उन्होंने हालात का जायज़ा लेने के लिए अपने चचेरे भाई, मुस्लिम इब्न अकील को कूफ़ा भेजा। मुस्लिम इब्न अकील कूफ़ा पहुंचे तो उनका ऐसा स्वागत हुआ जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। हज़ारों लोग उनसे मिलने आए और देखते ही देखते 12,000 से ज़्यादा लोगों ने उनके हाथ पर इमाम हुसैन के नाम की शपथ ली। यह देखकर मुस्लिम इब्न अकील को यकीन हो गया कि कूफ़ा में क्रांति के लिए ज़मीन तैयार है। उन्होंने फौरन इमाम हुसैन को खत लिखा, 'आप जल्दी आइए। यहां एक पूरी फ़ौज आपका इंतज़ार कर रही है।' यह खत हुसैन के लिए एक उम्मीद की किरण थी लेकिन असल में यह एक धोखा साबित हुआ।

 

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जैसे ही यज़ीद को कूफ़ा में हो रही इस बगावत की खबर मिली, उन्होंने अपने सबसे चालाक गवर्नर, उबैदुल्लाह इब्न ज़ियाद को बसरा से कूफ़ा भेजा। ब्रिटिश पत्रकार लेस्ली हेज़ल्टन अपनी किताब 'After the Prophet' में बताती हैं कि इब्न ज़ियाद भेष बदलकर कूफ़ा में दाखिल हुआ। उसने अपना चेहरा छुपा रखा था। लोगों ने उसे इमाम हुसैन समझा और उसके स्वागत में नारे लगाने लगे। जब इब्न ज़ियाद गवर्नर के महल पहुंचा और अपना चेहरा खोला तो पूरे शहर में सन्नाटा पसर गया। अगले दिन उसने कूफ़ा की मस्जिद से एक भाषण दिया। उसने कहा, 'जो भी हुसैन या उसके दूत की मदद करेगा, उसे बिना मुकदमा चलाए सूली पर चढ़ा दिया जाएगा। उसका घर ज़मींदोज़ कर दिया जाएगा।' उसने शहर में अपने जासूसों का जाल बिछा दिया और कबीलों के सरदारों को दौलत का लालच देकर तोड़ लिया।

 

इसका असर फौरन हुआ। जो शहर कल तक मुस्लिम इब्न अकील के साथ खड़ा था, वह अब उनके खिलाफ़ हो गया। शाम तक हालत यह हो गई कि जब मुस्लिम इब्न अकील ने मस्जिद में नमाज़ शुरू की तो उनके पीछे हज़ारों लोग थे और जब नमाज़ खत्म हुई तो एक भी नहीं। वह कूफ़ा की गलियों में अकेले रह गए। एक रात एक औरत ने उन्हें अपने घर में पनाह दी लेकिन उसके बेटे ने ही सुबह जाकर इब्न ज़ियाद को खबर कर दी। मुस्लिम इब्न अकील को गिरफ्तार कर लिया गया। अपनी मौत से पहले उन्होंने किसी तरह इमाम हुसैन तक अपना आखिरी पैगाम भिजवाया। पैगाम था, 'कूफ़ा मत आना। यहां के लोगों ने तुमसे और मुझसे, दोनों से झूठ बोला है।' इसके बाद इब्न ज़ियाद के हुक्म पर मुस्लिम इब्न अकील का सिर कलम कर दिया गया और उनके बेजान जिस्म को महल की छत से नीचे फेंक दिया गया।
 
उधर, मुस्लिम इब्न अकील का पहला खत मिलते ही हुसैन अपने परिवार और कुछ लोगों के साथ मक्का से कूफ़ा के लिए निकल चुके थे। रास्ते में उन्हें मुस्लिम इब्न अकील की शहादत और कूफ़ा के लोगों की बेवफाई की खबर मिली। उनके साथ जो थोड़े बहुत लोग लालच में शामिल हुए थे, वह सब उन्हें छोड़कर चले गए। अब सिर्फ़ 72 वफादार साथी बचे। उनके साथियों ने उनसे वापस मक्का लौटने की गुजारिश की लेकिन हुसैन ने जवाब दिया, 'अब बहुत देर हो चुकी है। इंसान अंधेरे में सफ़र करता है और उसकी किस्मत भी अंधेरे में उसी की तरफ सफ़र करती है। जो होना है, वह होकर रहेगा।'

 

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हुसैन का छोटा सा काफ़िला आगे बढ़ता रहा। इराक़ की सीमा में दाखिल होते ही सैनिकों की एक टुकड़ी ने उन्हें रोक लिया। इसका कमांडर हुर इब्न यज़ीद था। हुर एक सम्मानित सैनिक था। वह पैगंबर के नवासे पर हाथ नहीं उठाना चाहता था। उसने हुसैन का रास्ता कूफ़ा से मोड़कर एक बंजर मैदान की तरफ कर दिया। यह साल 680 में मोहर्रम दूसरी तारीख थी और हुसैन कर्बला में थे। अगले ही दिन, इब्न ज़ियाद के हुक्म पर 4000 सैनिकों की एक और फ़ौज वहां पहुंच गई। इस फ़ौज का कमांडर था शिम्र इब्न धिल-जवशन। शिम्र ने आते ही सबसे पहला काम यह किया कि हुसैन के खेमे के लिए फ़रात नदी का पानी बंद कर दिया। रेगिस्तान की तपती गर्मी में तीन दिन तक हुसैन के खेमे में बच्चे और औरतें प्यास से तड़पते रहे।
 
मुहर्रम की 10 तारीख की सुबह, जिसे आशूरा का दिन कहते हैं, जंग शुरू हुई। वास्तव में यह जंग थी नहीं। एक तरफ 4000 की फ़ौज थी और दूसरी तरफ़ 72 भूखे-प्यासे लोग। लड़ाई का एक ही नतीजा हो सकता था - नरसंहार। समझौते की गुंजाइश तो तभी खत्म हो गई थी जब हुसैन का सिर कलम करने का हुक्म जारी हुआ था तो हुसैन और साथियों ने तय किया कि वे एक-एक करके लड़ने जाएंगे और शहादत देंगे।
 
सबसे पहले हुसैन के 18 साल के बेटे अली अकबर मैदान में गए। कहा जाता है कि वह अपने परदादा, पैगंबर मुहम्मद के हमशक्ल थे। अली अकबर बहादुरी से लड़े लेकिन अकेले हज़ारों का मुकाबला कैसे करते। उन्हें शहीद कर दिया गया। फिर हुसैन के भाई अब्बास की बारी आई। वह खेमे के बच्चों की प्यास से बेहाल थे। उन्होंने अपनी मश्क (पानी का थैला) लेकर नदी की तरफ कूच किया। नदी तक पहुंचे। मश्क में पानी भरा लेकिन जब वापस लौट रहे थे तो उन पर चारों तरफ से हमला हुआ। उनके दोनों बाजू कलम कर दिए गए। फिर भी उन्होंने मश्क को अपने दांतों से पकड़कर खेमे तक लाने की कोशिश की लेकिन एक तीर आकर मश्क में लगा और सारा पानी रेत पर बह गया। अब्बास भी वहीं शहीद हो गए।

 

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दोपहर होते-होते हुसैन के ज़्यादातर साथी शहीद हो चुके थे। तब हुसैन अपने छह महीने के बेटे अली असगर को हाथों पर उठाकर यज़ीद की फ़ौज के सामने लाए। उन्होंने कहा, 'अगर तुम्हारी नज़र में मैं गुनहगार हूं तो इस बच्चे का क्या कसूर है? इसे तो थोड़ा पानी दे दो।' जवाब में एक तीर आया, जो बच्चे के सूखे गले में जा लगा और बच्चे ने हुसैन के हाथों में ही दम तोड़ गया। अब हुसैन अकेले थे। वह अपनी तलवार ‘ज़ुल्फ़िक़ार’ लेकर मैदान में उतरे। हज़ारों के सामने एक अकेला इंसान कब तक टिकता। उन पर तीरों और पत्थरों की बारिश कर दी गई। जब वह ज़ख्मी होकर ज़मीन पर गिरे तो शिम्र आगे बढ़ा और उसने पैगंबर मुहम्मद के नवासे, हज़रत अली और फ़ातिमा के बेटे, इमाम हुसैन का सिर कलम कर दिया। इसी शहादत की याद में शिया मुसलमान मुहर्रम के मातम में या अली या हुसैन के नारे लगाते हैं। इसके बाद यज़ीद की फ़ौज ने हुसैन के खेमों को लूट लिया, उनमें आग लगा दी और औरतों और बच्चों को कैदी बना लिया। 

3 साल, 3 गुनाह और एक गुमनाम मौत

 

कर्बला में जंग खत्म हो चुकी थी। इमाम हुसैन और उनके साथियों के कटे हुए सिरों को कूफ़ा ले जाया गया। यज़ीद के गवर्नर इब्न ज़ियाद के दरबार में जब हुसैन का सिर लाया गया तो वह अपनी छड़ी से उनके होठों और दांतों को कुरेदने लगा। दरबार में पैगंबर के एक बूढ़े साथी भी मौजूद थे। यह देखकर वह रो पड़े और चिल्लाकर बोले, 'अपनी छड़ी हटा ले! खुदा की कसम, मैंने इन्हीं होठों को पैगंबर मुहम्मद को चूमते हुए देखा है।'
 
जब यह कैदियों का काफ़िला और सिरों का जुलूस दमिश्क में यज़ीद के महल पहुंचा तो यज़ीद ने शायद आने वाले खतरे का अंदाज़ा लगा लिया। उसने लोगों के गुस्से को शांत करने के लिए सारा इल्ज़ाम अपने गवर्नर इब्न ज़ियाद पर डाल दिया। उसने कहा कि वह तो बस हुसैन से शपथ चाहता था, कत्ल का इरादा उसका नहीं था। उसने हुसैन के परिवार को कुछ दिनों तक अपने महल में रखा और फिर इज़्ज़त के साथ मदीना वापस भेज दिया। यज़ीद को लगा कि मामला रफा-दफा हो गया है लेकिन यह उसकी सबसे बड़ी भूल थी।

 

कर्बला में जो हुआ, उसकी कहानी एक चिंगारी की तरह पूरे मुस्लिम जगत में फैल गई और इस चिंगारी ने गुस्से की आग को भड़का दिया। इस आग की पहली लपट मदीना से उठी। पैगंबर के शहर से जब हुसैन का बचा हुआ परिवार मदीना वापस पहुंचा तो वह यज़ीद के ज़ुल्म की जीती-जागती कहानी बन गए। उन्हें देखकर मदीना के लोगों ने यज़ीद की हुकूमत को मानने से इनकार कर दिया। यह यज़ीद के लिए सीधी चुनौती थी। उन्होंने अपनी पूरी ताकत इस बगावत को कुचलने में लगा दी। यज़ीद ने अपने एक कमांडर को 12,000 सीरियाई सैनिकों की फ़ौज देकर मदीना भेजा। उसे हुक्म दिया गया कि अगर मदीना के लोग तीन दिन में सरेंडर न करें तो शहर पर हमला कर देना और तीन दिन तक शहर को अपनी फ़ौज के लिए जायज़ कर देना। मतलब, सैनिक जो चाहें, कर सकते हैं- लूटपाट, कत्लेआम, कुछ भी।

 

मदीना के लोगों ने लड़ने का फैसला किया। शहर के बाहर ‘हर्रा’ के मैदान में एक भयानक जंग हुई। मदीना के लोग बहादुरी से लड़े लेकिन सीरिया की ट्रेंड आर्मी के सामने टिक नहीं पाए। हज़ारों लोग मारे गए और फिर यज़ीद की फ़ौज ने वह किया जिसे इस्लामी इतिहास के सबसे काले पन्नों में गिना जाता है। फ़ौज शहर में घुस गई और तीन दिनों तक पैगंबर के शहर को लूटा गया। यह कर्बला के बाद यज़ीद का दूसरा बड़ा गुनाह था। मदीना को कुचलने के बाद, यज़ीद की फ़ौज मक्का की तरफ बढ़ी। वहां अब्दुल्लाह इब्न ज़ुबैर ने बगावत कर रखी थी। सीरियाई फ़ौज ने मक्का को चारों तरफ से घेर लिया। पहाड़ों पर गुलेलें लगाई गईं और इस्लाम के सबसे पवित्र शहर पर पत्थर बरसाए जाने लगे। यह यज़ीद की हुकूमत का तीसरा बड़ा गुनाह था। इसी घेराबंदी के दौरान, काबा में आग लग गई और उसे भारी नुकसान पहुंचा लेकिन कहानी में अभी एक और मोड़ बाकी था। जब मक्का की घेराबंदी चल रही थी, तभी दमिश्क से एक खबर आई। सन 683 के नवंबर में, यज़ीद इब्न मुआविया की मौत हो गई। किसी जंग या साज़िश में नहीं। बीमारी से। माना जाता है इस समय यजीद की उमर 35 से 40 साल के बीच थी।

 

उनकी मौत की खबर मिलते ही सीरियाई फ़ौज में भगदड़ मच गई। कमांडर ने मक्का की घेराबंदी उठा ली और सीरियाई फ़ौज वापस लौट गई। यजीद की मौत के बाद इस्लामी दुनिया गृहयुद्ध में डूब गई । नतीजा हुआ सत्ता परिवर्तन। जी. आर. हॉटिंग की किताब 'The First Dynasty of Islam' के अनुसार, यज़ीद के बाद उमय्यद परिवार की दूसरी शाखा, यानी मरवानियों ने सत्ता संभाली और लगभग 692 से 750 तक शासन किया। मरवानियों की सत्ता का अंत भी एक गृहयुद्ध के साथ हुआ जिसके बाद अब्बासी खिलाफत की स्थापना हुई।

ज़ालिम बादशाह या बस एक नाकाम शहज़ादा?

 

अंत में एक सवाल कि किसी शासक को इतिहास कैसे याद रखता है? उसके इरादों से या उसके कामों के नतीजों से? यज़ीद इब्न मुआविया की विरासत इन्हीं सवालों में उलझी है। उसकी मौत के बाद तारीख़ और मज़हब ने उसकी तीन अलग-अलग तस्वीरें बनाईं। एक इतिहासकारों की जो उसे एक बादशाह के तौर पर देखते हैं। दूसरी सुन्नी इस्लाम की, जो उसे गुनाहगार खलीफ़ा मानती है और तीसरी शिया इस्लाम की, जिसकी नज़र में वह ज़ुल्म का दूसरा नाम है।

 

ऐतिहासिक नज़रिए से देखें तो यज़ीद का तख्त पर बैठना, उसके पिता मुआविया की एक राजनीतिक चाल थी। मुआविया ने पहले गृहयुद्ध के बाद सल्तनत को स्थिरता दी थी और उन्हें डर था कि उनके बाद चुनाव की प्रक्रिया फिर से खून-खराबा लाएगी। इसलिए उन्होंने वंशवाद की शुरुआत की, ताकि सल्तनत बची रहे। इस लिहाज़ से यज़ीद का शासन मुआविया की नीतियों की निरंतरता था। प्रशासनिक तौर पर भी उसने अपने पिता के सिस्टम को ही जारी रखा लेकिन यज़ीद में अपने पिता जैसी राजनीतिक समझ नहीं थी। वह एक ऐसी सल्तनत का वारिस बना जो अंदर से दुश्मनी और विद्रोह की आग में सुलग रही थी। एक काबिल शासक शायद इसे संभाल लेता लेकिन यज़ीद एक नाकाम शहज़ादा साबित हुआ। उन्होंने विद्रोह को कुचलने के लिए सख्ती का इस्तेमाल किया, जिसने उस आग को और भड़का दिया।

 

जब हम मज़हब की दुनिया में आते हैं तो तस्वीर और भी जटिल हो जाती है। यह जानना ज़रूरी है कि यज़ीद की छवि उसके कट्टर दुश्मनों यानी अब्बासिद दौर के इतिहासकारों ने बनाई। इसलिए, उसके अय्याश जीवन के किस्से राजनीतिक प्रचार का हिस्सा भी हो सकते हैं, जिनका मकसद उसकी हुकूमत के खिलाफ़ बगावत को जायज़ ठहराना था। सुन्नी इस्लाम में यज़ीद को एक वैध खलीफ़ा तो माना जाता है क्योंकि उसे सत्ता पिछले खलीफ़ा से मिली थी लेकिन उसे बड़े गुनहगारों में गिना जाता है।

 

सुन्नी नज़रिए से उसके तीन गुनाह कभी माफ़ नहीं किए जा सकते:
कर्बला: पैगंबर के नवासे का कत्ल करवाना।
हर्रा: पैगंबर के शहर मदीना पर फ़ौजकशी और लूटपाट।
मक्का: काबा पर हमला और उसकी घेराबंदी।

 

हालांकि, कर्बला के मामले में कई सुन्नी आलिम सीधी ज़िम्मेदारी यज़ीद पर डालने से हिचकते हैं। उनका मानना है कि शायद हुक्म सिर्फ़ शपथ लेने का था, कत्ल का नहीं और उसके गवर्नर इब्न ज़ियाद ने ज़्यादा क्रूरता दिखाई। फिर भी, सुन्नियों के लिए यज़ीद एक दुखद अध्याय है, एक चेतावनी कि जब सत्ता गलत हाथों में जाती है तो क्या होता है। इसके ठीक उलट, शिया इस्लाम में यज़ीद के लिए कोई नरमी नहीं है। वहां वह सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ज़ालिम और लानती है। शियाओं के लिए वह कभी खलीफ़ा था ही नहीं, बल्कि एक ग़ासिब था जिसने इमामत पर कब्ज़ा किया था। शिया मान्यता के अनुसार, इमाम हुसैन अल्लाह द्वारा चुने हुए सच्चे नेता थे। इसलिए यज़ीद का उन्हें कत्ल करना सिर्फ़ एक राजनीतिक हत्या नहीं, बल्कि इस्लाम की आत्मा पर हमला था। यही वजह है कि शिया परंपरा में उसके नाम के साथ हमेशा 'लानत हो' कहा जाता है और उसे हर दौर के ज़ुल्म का प्रतीक माना जाता है।

तीन साल, आठ महीने। यज़ीद की हुकूमत बस इतनी ही थी लेकिन उसने जो ज़ख्म दिए, वे चौदह सौ साल बाद भी इस्लामी दुनिया को बांटते हैं। इतिहासकारों की नज़र में वह एक नाकाम बादशाह था; सुन्नियों की नज़र में एक बड़ा गुनाहगार; और शियाओं की नज़र में ज़ुल्म का वह चेहरा, जिसे कभी माफ़ नहीं किया जा सकता।