जनवरी की वह सर्द सुबह। तारीख 19, साल 1990। पुणे के आश्रम में एक अजीब सी खामोशी पसरी थी। ओशो, अपने कमरे में थे लेकिन बाहर उनके सबसे करीबी शिष्यों के बीच एक बेचैनी थी, एक अफरा-तफरी जो दिखाई नहीं दे रही थी पर महसूस की जा सकती थी। उस सुबह, आश्रम के एक वरिष्ठ शिष्य, स्वामी आनंद कृष्ण, जिन्हें दुनिया डॉ. गोकुल गोकानी के नाम से जानती थी, अपने घर पर थे। वह एक जाने-माने ENT सर्जन थे और ओशो के भक्त भी। अचानक, आश्रम से एक कार उनके घर पहुंची। 

 

संदेश था – जयेश, ओशो के सबसे खास और ताकतवर शिष्य, उन्हें तुरंत आश्रम बुला रहे हैं। डॉ. गोकानी को कहा गया कि वह अपना मेडिकल बैग और प्रेस्क्रिप्शन पैड साथ लेकर आएं। उन्हें लगा शायद आश्रम में कोई खास व्यक्ति बीमार है लेकिन जब वह आश्रम पहुचे, तो उन्हें कृष्णा हाउस में जयेश के दफ्तर ले जाया गया। कुछ देर बाद, ओशो के निजी चिकित्सक स्वामी प्रेम अमृतो (डॉ. जॉन एंड्रयूज) वहां आए। अमृतो ने डॉ. गोकानी को गले लगाया और धीरे से कहा, 'वह शरीर छोड़ रहे हैं।' 

डॉ. गोकानी ने पूछा, 'कौन?' 
अमृतो का जवाब था, 'ओशो।' 


यह सुनकर डॉ. गोकानी की आखों में आसू आ गए लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि आने वाले कुछ घंटों में उनके साथ क्या होने वाला है। उन्हें ओशो के पास ले जाने के बजाय घंटों तक एक कमरे में बंद रखा जाएगा और फिर जब ओशो इस दुनिया से जा चुके होंगे, तब उन्हें सिर्फ एक मृत्यु प्रमाण पत्र पर दस्तखत करने के लिए बुलाया जाएगा। एक ऐसा मृत्यु प्रमाण पत्र, जिस पर मौत का कारण भी उन्हें पूछकर लिखना होगा।

 

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अभय वैद्य अपनी किताब 'हू किल्ड ओशो?' में लिखते हैं कि ओशो की मृत्यु जिन परिस्थितियों में हुई, वह किसी परी कथा की तरह लगती है। खासकर उन लोगों के लिए जो यह नहीं जानते कि 19 जनवरी 1990 को वास्तव में क्या हुआ था। उस दिन पुणे के रजनीशपुरम आश्रम में जो कुछ भी हुआ, वह कई ऐसे सवाल खड़े करता है जिनके जवाब आज तक नहीं मिल पाए हैं। अलिफ लैला में आज हम ओशो की मृत्यु के रहस्य और इससे जुड़े कई अनसुलझे सवालों के बारे में जानेंगे।  

ओशो: एक तिलिस्म, एक विवाद

 

ओशो का जन्म 11 दिसंबर 1931 को मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा गाव में एक जैन परिवार में हुआ था। उनका बचपन का नाम चंद्र मोहन जैन था, घर में उन्हें 'राजा' कहकर पुकारते थे। ओशो बचपन से ही विद्रोही स्वभाव के थे, उन्हें प्रकृति से बेहद लगाव था और उनकी भाषण देने की कला अद्भुत थी। सात साल की उम्र तक वह अपने नाना-नानी के पास कुचवाड़ा में रहे, जो उनकी हर इच्छा पूरी करते थे। वैद्य के अनुसार, ओशो ने खुद अपनी आत्मकथा 'ग्लिम्प्सेस ऑफ ए गोल्डन चाइल्डहुड' में लिखा है कि कुचवाड़ा एक छोटा सा गांव था जहां न कोई रेलवे लाइन थी और न ही पोस्ट ऑफिस, बस कुछ पहाड़िया और एक सुंदर सी झील थी। छोटी उम्र से ही उन्हें मृत्यु को लेकर एक अजीब सा आकर्षण था। गांव में जब भी किसी की मृत्यु होती तो वह शवयात्रा के पीछे जाते और सारे रीति-रिवाजों को ध्यान से देखते।


 
दर्शनशास्त्र में एम. ए. करने के बाद वह जबलपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बने लेकिन उनका मन वहा नहीं रमा। 1960 के दशक में उन्होंने पूरे भारत में घूम-घूमकर सामाजिक मुद्दों, धर्म और आध्यात्म पर लेक्चर देना शुरू किया। तब उन्हें आचार्य रजनीश के नाम से जाना जाता था। वह सफेद लुंगी पहनते थे और उनके पास बहुत कम सामान होता था। उनके शुरुआती फॉलोवर्स मुख्य रूप से गुजरात और उत्तरी भारत के हिंदू थे। उनके हिंदी में दिए गए प्रवचन बेहद प्रभावशाली होते थे। वह पारंपरिक मान्यताओं पर सवाल उठाते थे और लोगों को खुद सोचने के लिए प्रेरित करते थे। यही वजह थी कि पढ़े-लिखे और आर्थिक रूप से स्वतंत्र लोग, जो जीवन में अर्थ और उद्देश्य की तलाश में थे, उनकी ओर खिंचे चले आए। 

 

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ओशो की सबसे विवादित शिक्षाओं में से एक थी यौन ऊर्जा को लेकर उनका दृष्टिकोण। वह कहते थे कि यौन ऊर्जा को दबाने के बजाय समझने और आध्यात्मिक विकास के मार्ग के रूप में इस्तेमाल करने की जरूरत है। उन्होंने 'संभोग से समाधि की ओर' जैसे व्याख्यानों से काफी विवाद खड़ा किया। इसी वजह से उन्हें 'सेक्स गुरु' का नाम भी मिला, हालांकि यह उनके व्यक्तित्व का सिर्फ एक छोटा सा पहलू था।
 
1960 और 70 के दशक में पश्चिम में भी सामाजिक उथल-पुथल का दौर था। वहां के युवा हिप्पी आदोलन, यौन मुक्ति और पूर्वी अध्यात्म की ओर आकर्षित हो रहे थे। कई लोग पारंपरिक धर्मों से निराश थे और जीवन के सवालों के जवाब ढूंढ रहे थे। ओशो ने उन्हें धार्मिक और सामाजिक कंडीशनिंग से मुक्ति का एक नया मार्ग दिखाया। उनकी नव-संन्यास की अवधारणा, जिसमें दुनिया में रहते हुए भी आध्यात्मिक लक्ष्यों का पीछा किया जा सकता था, पश्चिमी लोगों को खूब भाई। 1974 में पुणे के कोरेगांव पार्क में श्री रजनीश आश्रम की स्थापना हुई। शुरुआत में यह सिर्फ ओशो के रहने और प्रवचन देने की जगह थी लेकिन जल्द ही भारत और विदेशों से अनुयायियों का तांता लग गया और यह एक कम्यून यानी समुदाय बन गया।

 

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इस दौरान आश्रम का तेजी से विस्तार हुआ, बुद्ध हॉल नाम का एक विशाल लेक्चर हॉल बना और कई तरह की ध्यान विधियां और थेरेपी शुरू हुईं। यहा यौन प्रयोगों पर आधारित तंत्र ग्रुप भी चलाए जाते थे, जिनमें भारतीयों को शामिल होने की अनुमति नहीं थी। ओशो का कहना था कि पश्चिमी लोग एक दमनकारी दुनिया से आते हैं इसलिए उन्हें सक्रिय थेरेपी की ज्यादा जरूरत है। इस दौरान ओशो के निजी जीवन में मां योग विवेक (बाद में मां प्रेम निर्वाणो) उनकी सबसे करीबी साथी और देखभाल करने वाली थीं। उनकी पहली सेक्रेटरी मां योग लक्ष्मी थीं, जिन्होंने संन्यासियों के लिए गेरुआ वस्त्र और ओशो की तस्वीर वाली माला पहनने की परंपरा शुरू की थी। 

 

1981 में ओशो अचानक अमेरिका चले गए। आधिकारिक तौर पर कहा गया कि वह पीठ दर्द के इलाज के लिए गए हैं लेकिन असल में मकसद कुछ और था। अमेरिका के ओरेगन में 64,000 एकड़ के एक बड़ा रैंच यानी फार्म खरीदा गया, इसे नाम दिया गया रजनीशपुरम। यहां एक भव्य कम्यून बसाने की कोशिश की गई, जहां हजारों संन्यासी आकर रहने लगे। एयर रजनीश नाम की अपनी एयरलाइन भी शुरू की गई और ओशो के लिए 97 रोल्स रॉयस कारों का काफिला भी सुर्खियों में रहा लेकिन यह प्रयोग असफल रहा। स्थानीय लोगों से टकराव, कम्यून के भीतर गुटबाजी और कई ग़ैर कानूनी मामलों के चलते यह परियोजना फेल रही। सितंबर 1985 में ओशो की तत्कालीन सेक्रेटरी शीला आनंद कम्यून छोड़कर जर्मनी भाग गईं। ओशो को भी गिरफ्तार कर लिया गया और इमिग्रेशन फ्रॉड का दोषी पाए जाने के बाद नवंबर 1985 में उन्हें भारत भेज दिया गया। 

आखिरी साल और मंडराता रहस्य

 

अमेरिका से निकाले जाने के बाद ओशो और उनके कुछ करीबी अनुयायी नवंबर 1985 में दिल्ली पहुंचे और फिर कुल्लू-मनाली चले गए। वहां एक नया कम्यून बसाने की योजना थी लेकिन दिसंबर 1985 में ओशो के विदेशी शिष्यों के वीजा रद्द कर दिए गए और उन्हें भारत छोड़ने का आदेश दिया गया। ओशो की निजी स्टाफ सदस्य मां प्रेम शुन्यो ने आरोप लगाया कि इसके पीछे मां योग लक्ष्मी का हाथ था, जो पश्चिमी लोगों के खिलाफ थीं और उन्होंने तत्कालीन गृह सुरक्षा मंत्री अरुण नेहरू को प्रभावित किया था। इसके बाद ओशो ने भारत छोड़ दिया और अगले सात महीने एक 'विश्व यात्रा' पर बिताए, जहां उन्हें एक के बाद एक देशों से निकाला जाता रहा। आखिरकार, जुलाई 1986 में वह बंबई वापस आए और वहां उद्योगपति सूरज प्रकाश मनचंदा के जुहू के बंगले 'सुमीला' में पांच महीने से ज्यादा रहे लेकिन वहां भी स्थानीय लोगों के विरोध के चलते उन्हें जनवरी 1987 में पुणे आश्रम लौटना पड़ा।

 

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ओशो के लौटने के बाद आश्रम की बागडोर कनाडाई संन्यासी जयेश के हाथ में थी। इनका असली नाम माइकल ओ'ब्रायन था।  वह एक शानदार मनी मैनेजर के रूप में उभरे थे और उन्होंने ओशो और सभी बड़े संन्यासियों का विश्वास जीत लिया था। उनके साथ थे ब्रिटिश डॉक्टर अमृतो और ओशो की कानूनी सचिव अनादो (सुसान हेफली)। यह तिकड़ी ही ओशो के इर्द-गिर्द सबसे प्रभावशाली थी। वैद्य लिखते हैं - 1989 का साल, ओशो की ज़िंदगी का एक तरह से आखिरी अहम साल था। मतलब, उस साल के बाद चीज़ें वैसी नहीं रहीं जैसी पहले थीं। और कमाल की बात यह है कि इसी साल, यानी 1989 में ही, इस बात की तैयारी शुरू हो गई थी कि अगर ओशो नहीं भी रहे तब भी उनका आश्रम कैसे चलेगा।
 
उसी साल, ओशो की मृत्यु से ठीक 41 दिन पहले एक और घटना घटी। 9 दिसंबर 1989 को ओशो की करीबी मां प्रेम निर्वाणो की मौत हो गई। यह मौत कैसे हुई, यह भी एक पहेली थी। निर्वाणो, जिनका असली नाम क्रिस्टीना वुल्फ स्मिथ था, सिर्फ 40 साल की थीं। आश्रम ने बताया कि उन्होंने नींद की गोलियों की अधिक मात्रा ली थी क्योंकि वह डिप्रेशन से पीड़ित थीं लेकिन इस थियरी पर कई सवाल उठाते थे।

पुणे पुलिस के रिकॉर्ड में उनका नाम 'एलेक्सा अलेक्जेंडर' और पुणे नगर निगम के रिकॉर्ड में 'अलीशा अलेक्जेंडर' दर्ज किया गया। उनका अंतिम संस्कार भी बेहद जल्दबाजी में और गुपचुप तरीके से रात में ही कर दिया गया, जिसमें बहुत कम लोग शामिल हुए जबकि आश्रम की परंपरा के अनुसार मृत्यु को भी एक उत्सव के रूप में मनाया जाता था। निर्वाणो को अचेत अवस्था में वाडिया अस्पताल ले जाया गया था, जहां शाम को उनकी मृत्यु हो गई। निर्वाणो के अंतिम संस्कार को सादा रखने का निर्णय जयेश और अमृतो ने लिया था। वैद्य अपनी किताब में बताते हैं कि उस समय निर्वाणो जयेश के साथ रोमांटिक रिश्ते में थीं और उनके बीच अक्सर झगड़े होते थे।

 

बहरहाल, इसी दौर में आश्रम के मैनेजमेंट में कुछ बड़े बदलाव हुए। 'इनर सर्किल' नाम की 21 संन्यासियों की एक कमेटी बनाई गई। जिसके चेयरमैन जयेश, वाइस-चेयरमैन अमृतो और सेक्रेटरी अनादो थीं। इस कमेटी का उद्देश्य ओशो के काम को जारी रखना और कम्यून का प्रबंधन करना था। दिलचस्प बात यह कि इसकी जानकारी अन्य संन्यासियों को ओशो की मृत्यु के बाद दी गई। इसी साल 'भगवान' का संबोधन हटाकर पहले 'श्री रजनीश' और फिर सितंबर 1989 में सिर्फ 'ओशो' नाम अपनाया गया।

 

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ओशो की सेहत 1989- मई-जून जुलाई के महीने में बिगड़नी शुरू हुई। अप्रैल 1989 में ओशो ने अपना आखिरी सार्वजनिक प्रवचन दिया था। इसके बाद वह बुद्ध हॉल में शाम को व्हाइट रोब ब्रदरहुड में आते तो थे लेकिन अक्टूबर 1989 तक वह काफी कमजोर हो चुके थे और ज्यादातर समय सोते रहते थे। उनके जीवन के अंतिम तीन महीनों में शुन्यो को उनकी देखभाल के काम से हटा दिया गया और अनादो ने यह जिम्मेदारी संभाल ली जबकि अमृतो दिन-रात ओशो के करीब रहते थे। 

19 जनवरी 1990: मौत का दिन

 

फिर आया वह दिन – 19 जनवरी 1990। आधिकारिक कहानी के अनुसार शाम 5 बजे हार्ट अटैक से ओशो की मौत हुई लेकिन इस कहानी में सबसे बड़ा मोड़ तब आया जब ओशो की मौत के लगभग 25 साल बाद, डॉ. गोकुल गोकानी सामने आए। वही डॉक्टर जिन्होंने ओशो का मृत्यु प्रमाण पत्र जारी किया था। 14 दिसंबर 2015 को उन्होंने एक हलफनामा दिया, जिसमें उन्होंने 19 जनवरी 1990 की घटनाओं का एक बिल्कुल अलग ब्यौरा पेश किया।

 

जैसा कि हमने शुरू में जिक्र किया, डॉ. गोकुल गोकानी को सुबह करीब साढ़े 12 बजे चिटेन आश्रम से उनके घर ले जाने आया। उन्हें आश्रम के मैनेजर जयेश के दफ्तर ले जाया गया, जहां अमृतो ने उन्हें बताया कि ओशो शरीर छोड़ रहे हैं। डॉ. गोकानी को यह बात गुप्त रखने और आश्रम में टूर गाइड के तौर पर अपना सामान्य काम करने को कहा गया। वैद्य के अनुसार, शाम 4 बजे ड्यूटी खत्म होने के बाद, डॉ. गोकानी को चिटेन के कमरे में ले जाकर बाहर से दरवाजा बंद कर दिया गया और फोन भी काट दिया गया।
 
शाम करीब 5 बजे चिटेन वापस आया और डॉ. गोकानी को ओशो के शयनकक्ष में ले गया। वहां अमृतो ने उन्हें बताया कि ओशो ने 'अभी-अभी शरीर छोड़ा है' और उन्हें मृत्यु प्रमाण पत्र लिखना है। डॉ. गोकानी ने इंटरव्यू में बताया कि उन्होंने ओशो के शरीर की जांच की और अमृतो और जयेश के कहने पर मृत्यु का कारण 'मायोकार्डियल इन्फार्क्शन' यानी दिल का दौरा लिख दिया। उन्होंने यह भी बताया कि अमृतो और जयेश ने उनके सामने ही चर्चा की थी कि मृत्यु का ऐसा कारण लिखा जाए जिससे पोस्टमार्टम की नौबत न आए। हैरानी की बात यह है कि मृत्यु प्रमाण पत्र पर डॉ. गोकानी के क्लीनिक का पता वाला हिस्सा काट दिया गया था। 

 

नेटफ्लिक्स की डॉक्यूमेंट्री 'वाइल्ड वाइल्ड कंट्री' में ओशो की पूर्व सेक्रेटरी मां आनंद शीला कहती हैं, 'भगवान (ओशो) की मौत प्राकृतिक नहीं थी। जिस डॉक्टर ने मृत्यु प्रमाण पत्र लिखा था, उसे लगा कि यह ओवरडोज से हुई थी।' बहरहाल, आधिकारिक कहानी के अनुसार लगभग 5:30 बजे, जयेश और अमृतो ने इनर सर्किल की आपातकालीन बैठक बुलाई और ओशो की मृत्यु की घोषणा की। जयेश ने ओशो की इच्छा का हवाला देते हुए उसी शाम अंतिम संस्कार करने का निर्देश दिया, जिसका कुछ सदस्यों ने विरोध भी किया था। बैठक में काम बाटे गए: नीलम को ओशो के परिवार को सूचित करना था, तथागत को अंतिम संस्कार की तैयारी करनी थी और सत्य वेदांत को प्रेस को संभालना था। अमृतो ने शाम 7 बजे बुद्ध हॉल में घोषणा करने की जिम्मेदारी ली।
 
ओशो की मौत किस समय हुई, इसे लेकर भी कई सवाल हैं। अभय वैद्य अपनी किताब में लिखते हैं कि इंग्लैंड और जर्मनी में कुछ संन्यासियों को ओशो की मृत्यु की खबर 19 जनवरी की सुबह यानी भारतीय समयानुसार दोपहर ही मिल गई थी। मां शिवम सुवर्णा, जो डेवहन, इंग्लैंड में थीं, उन्होंने लिखा है कि उन्हें सुबह करीब 10 बजे माने भारतीय समयानुसार दोपहर 3:30 बजे फोन पर ओशो की मृत्यु की सूचना मिली। इसी तरह, कोलोन सेंटर के संन्यासियों ने भी बाद में कहा कि उन्हें नाश्ते के समय ही यह खबर मिल गई थी, जो भारतीय समयानुसार दोपहर 12:30 से 3:30 बजे के बीच का समय होता है। अगर यह सच है तो इसका मतलब है कि ओशो की मृत्यु आधिकारिक रूप से घोषित समय से काफी पहले हो चुकी थी।
 
ओशो का अंतिम संस्कार भी बेहद जल्दबाजी में किया गया। बुद्ध हॉल में उनके शरीर को मुश्किल से 10-15 मिनट के लिए रखा गया। तथागत को श्मशान घाट पर लकड़ियों और अन्य सामग्री की व्यवस्था करने में काफी मशक्कत करनी पड़ी क्योंकि उन्हें बहुत कम समय दिया गया था। वैद्य, वेदांत भारती (जो अंतिम संस्कार की व्यवस्था में मदद कर रहे थे) के हवाले से लिखते हैं कि जयेश बार-बार जल्दी करने के लिए कह रहे थे और तो और चिता को जल्दी जलाने के लिए उस पर मिट्टी का तेल भी डाला गया था, जिसे डॉ. गोकानी समेत कई लोगों ने देखा और वे हैरान रह गए।
 
एक और अजीब घटना उस दिन प्रेस नोट को लेकर हुई। 19 जनवरी को ही कम्यून ने अमेरिकी अभिनेत्री शर्ली मैक्लेन की आलोचना करते हुए एक प्रेस नोट जारी किया। बाद में इसे वापस लेने की कोशिश की गई। सवाल था कि अगर ओशो इतने बीमार थे तो वह इस तरह के बयान कैसे जारी कर सकते थे? या फिर कोई और उनके नाम से बयान जारी कर रहा था? 

 

ओशो की मां, सरस्वती देवी, फ्रांसिस हाउस में ओशो के निवास लाओ जू हाउस से कुछ ही दूरी पर रहती थीं। जब उन्हें ओशो की मृत्यु की सूचना मिली तो वह फूट-फूट कर रो पड़ीं। अभय वैद्य, ओशो की दो केयरटेकर्स के हवाले से लिखते हैं कि जब माताजी को ओशो के पार्थिव शरीर के पास ले जाया गया, तो वह बार-बार यही कह रही थीं, 'बेटा तुझे मार डाला इन्होंने, मार डाला। मेरे बेटे को उन्होंने मार दिया!' नीलम ने वैद्य को बताया कि माताजी को लगता था कि अमृतो ओशो को जो दवाएं दे रहे थे, वह ठीक नहीं थीं। कुछ दिन पहले ही, जब माताजी ने ओशो से मिलने की इच्छा जताई थी तो अनादो ने उन्हें अनुमति देने से इनकार कर दिया था।

 

इन आरोपों पर, स्वामी चैतन्य कीर्ति जो OIF के करीबी माने जाते हैं अलग दावा करते हैं। वह डॉ. गोकानी के आरोपों को खारिज करते हैं। वह कहते हैं कि ओशो का शरीर अमेरिकी जेलों में दिए गए जहर के कारण खराब हो गया था और उन्होंने खुद अपने जाने का समय चुना था। कीर्ति के अनुसार, ओशो ने खुद ही 10 मिनट के दर्शन और जल्दी दाह संस्कार का निर्देश दिया था ताकि पुणे में हजारों अनुयायियों के आने से होने वाली समस्याओं से बचा जा सके।

वसीयत, विरासत और अनगिनत सवाल

 

ओशो की मृत्यु के बाद जो सबसे बड़ा विवाद खड़ा हुआ, वह था उनकी वसीयत को लेकर। ओशो की मृत्यु के 23 साल बाद, जून 2013 में, ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन, ज्यूरिख ने स्पेन की एक अदालत में ओशो की एक वसीयत पेश की। यह वसीयत 15 अक्टूबर 1989 की बताई गई और इस पर ओशो के हस्ताक्षर थे। गवाह के तौर पर माइकल ओ'ब्रायन (जयेश) और डॉ। जॉन एंड्रयूज (अमृतो) के हस्ताक्षर थे और इसे ओशो के तत्कालीन अटॉर्नी फिलिप टोल्केस (प्रेम निरेन) ने तैयार किया था। इस वसीयत के अनुसार, ओशो ने अपनी सारी बौद्धिक संपदा, रॉयल्टी और प्रकाशन अधिकार ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन (OIF) को सौंप दिए थे लेकिन यह वसीयत शुरू से ही विवादों में घिर गई। सबसे बड़ा सवाल यही था कि अगर ऐसी कोई वसीयत थी, तो इसे 23 सालों तक क्यों छिपाकर रखा गया? 1990 में ओशो की मृत्यु के समय OIF के रिप्रेजेंटेटिव्स ने कहा था कि ओशो ने कोई वसीयत नहीं छोड़ी है। जब इस वसीयत की फोरेंसिक जांच करवाई गई, तो इटली की ग्राफोलॉजिस्ट निकोल सिकोलो समेत तीन विशेषज्ञों ने इसे जाली करार दिया। सिकोलो ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि वसीयत पर ओशो के हस्ताक्षर और 1976 में प्रकाशित उनकी एक किताब पर मौजूद हस्ताक्षर इतने मिलते-जुलते हैं कि ऐसा लगता है जैसे उन्हें कॉपी करके बनाया गया हो।
  
इस खुलासे के बाद OIF ने यह वसीयत अदालत से वापस ले ली लेकिन भारत में पुणे स्थित 'ओशो फ्रेंड्स फाउंडेशन' के योगेश ठक्कर (प्रेमगीत) ने इस मामले में पुलिस में एफआईआर दर्ज कराई, जिसमें जयेश, अमृतो, टोल्केस और अन्य पर जालसाजी का आरोप लगाया गया। 

 

यह मामला बॉम्बे हाई कोर्ट तक भी पहुंचा, जिसने पुणे पुलिस को जांच में ढिलाई बरतने के लिए फटकार लगाई और मूल वसीयत को भारत लाने का निर्देश दिया। ओशो के छोटे भाई शैलेन्द्र सरस्वती ने भी इस वसीयत को जाली बताया है। इस मामले में ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन (OIF), खासकर चेयरमैन माइकल बायर्न (जयेश) ने हमेशा यही कहा कि वह ओशो के निर्देशों का पालन कर रहे हैं। बायर्न के अनुसार, ओशो के आखिरी शब्द थे, 'मैं तुम्हें अपना सपना सौंपता हूं।' उनका कहना है कि ओशो ने अपने आखिरी महीनों में उनसे कई बार मुलाकात की और अपने काम को दुनिया भर में फैलाने, किताबों के प्रकाशन और इंटरनेट के इस्तेमाल के बारे में विस्तृत निर्देश दिए। OIF का दावा है कि ओशो ने खुद अपनी सारी बौद्धिक संपदा एक फाउंडेशन को सौंपी थी और जयेश को 'इनर सर्किल' और 'ओशो इंटरनेशनल प्रेसिडियम' का चेयरमैन नियुक्त किया था ताकि उनके काम को "24-कैरेट सोना" बनाए रखा जा सके और उसे धर्म या "गुरु बिजनेस" बनने से बचाया जा सके। 

ओशो की मृत्यु के बाद उनके विशाल साम्राज्य और विरासत का क्या हुआ?


 
जयेश और अमृतो ने ओशो के 'अंतिम निर्देशों' का हवाला देते हुए, कम्यून के संचालन में कई बड़े बदलाव किए। सबसे पहले, पूना-II के दौरान जो इनर सर्किल बनाया गया था, उसमें से धीरे-धीरे उन सदस्यों को हटा दिया गया या वे खुद छोड़कर चले गए जो जयेश की नीतियों से सहमत नहीं थे। वैद्य लिखते हैं कि इन लोगों को यह कहकर बाहर का रास्ता दिखाया गया कि ओशो ने शरीर छोड़ दिया है, अब सबको अपना ख्याल खुद रखना होगा, कम्यून उनकी जिम्मेदारी नहीं लेगा।
 
इसके बाद, ओशो की बौद्धिक संपदा, उनकी बातें, किताबें, ध्यान के तरीके, इन सबका कंट्रोल विदेश में ज्यूरिख और न्यूयॉर्क की संस्थाओं को सौंप दिया गया। OIF ने 'ओशो' नाम और उनकी ध्यान विधियों को ट्रेडमार्क करा लिया और दुनियाभर में ओशो केंद्रों को लाइसेंस फीस और शर्तों का पालन करने के लिए मजबूर किया जाने लगा। फेसबुक और यूट्यूब पर ओशो की तस्वीरें या वीडियो पोस्ट करने वाले लोगों को भी कॉपीराइट उल्लंघन के नोटिस भेजे जाने लगे।। एक यूरोपीय अदालत में तो OIF के वकील ने यहा तक कह दिया कि 'ओशो का ध्यान से कोई लेना-देना नहीं है - यह एक ब्रांड है।'

 

पुणे स्थित आश्रम, जो कभी ओशो कम्यून इंटरनेशनल के नाम से जाना जाता था, उसका नाम बदलकर 'ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिजॉर्ट' कर दिया गया। वहां से धीरे-धीरे ओशो की तस्वीरें हटा दी गईं। अभय वैद्य, डी'आर्सी ओ'ब्रायन (जयेश के भाई) के एक इंटरव्यू का हवाला देते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि आश्रम में आने वाले युवा लोग एक मरे हुए आदमी की हजारों तस्वीरें देखकर असहज महसूस करते हैं। यहां तक कि ओशो की समाधि, जिसे उनके अपने निर्देशों पर बनाने का दावा किया गया था, के अस्तित्व को भी नकारने की कोशिश की गई। 2007 में, कम्यून की प्रवक्ता अमृत साधना ने वैद्य को बताया कि चुआंग जू ऑडिटोरियम को 'समाधि' कहना एक गलती थी।
 
यह विडंबना ही है कि जिस व्यक्ति ने जीवन भर व्यवस्थाओं, पाखंड और अंधविश्वास पर प्रहार किया, उसी की मृत्यु और विरासत इतने गहरे रहस्य और विवादों में घिर गई। शायद कुछ रहस्य कभी नहीं सुलझते या शायद सच सामने आने का अपना एक वक्त होता है।