तारीख- 13 मई, 1945, जगह- बर्मा का घना जंगल। आज का म्यांमार। हवा में गोलियों की तड़तड़ाहट और बारूद की महक घुली हुई थी। खाइयों में दुबके सैनिकों के बीच एक खाई मोर्चे पर सबसे आगे थी, दुश्मन के सबसे करीब। उसी में तीन गोरखा सैनिक तैनात थे, जिनमें से एक का नाम था लाछिमान गुरुंग, उम्र सिर्फ 27 साल। एक साधारण राइफलमैन। रात के अंधेरे में अचानक हमला हुआ, ज़ोरदार हमला। कम से कम 200 जापानी सैनिकों ने उनकी कंपनी पर धावा बोल दिया था और पहला निशाना वही सबसे आगे वाली खाई बनी। एक चीज हवा में उड़ती हुई आई और सीधा खाई में गिरी। हैंड ग्रेनेड। लाछिमान ने एक पल भी नहीं सोचा, उसे उठाया और वापस दुश्मन की तरफ फेंक दिया। कुछ ही सेकंड बाद एक और ग्रेनेड ठीक उसी जगह पर आ गिरा। लाछिमान ने उसे भी उठाकर पूरी ताकत से वापस फेंक दिया। फिर तीसरा ग्रेनेड आया।
वह उसे उठाने के लिए जैसे ही आगे बढ़े, वह उनके हाथ में ही फट गया। एक ज़ोर का धमाका हुआ। चारों तरफ धुआं और धूल का गुबार छा गया। जब धुआं छंटा तो लाछिमान ने अपने दाहिने हाथ की तरफ देखा। वह वहां नहीं था। उंगलियां उड़ चुकी थीं, बाजू के चिथड़े हो गए थे और पूरा शरीर खून से लथपथ था। उनके दोनों साथी भी बुरी तरह घायल होकर खामोश हो चुके थे। अब वह खाई में अकेले थे। एक हाथ के बिना और सामने 200 जापानी सैनिकों की फौज जो आगे बढ़ रही थी। यह उस अकेले गोरखा सैनिक की कहानी है जिसने एक हाथ से 200 जापानी सैनिकों को रोक दिया था।
यह भी पढ़ें- राजीव गांधी हत्याकांड में आरोपी रहे चंद्रास्वामी की कहानी क्या है?
पहाड़ का बेटा, फौज का जवान
खाई में हुए धमाके के बाद की कहानी जानने से पहले, थोड़ा पीछे चलते हैं। कहानी शुरू होती है 30 दिसंबर, 1917 से। नेपाल के चितवन जिले के दहाखानी गांव में लाछिमान का जन्म हुआ। परिवार बेहद गरीब था। बचपन हिमालय की तलहटी के ऊबड़-खाबड़ इलाकों में बीता, जहां हर दिन गरीबी से संघर्ष करना पड़ता था। इसी संघर्ष से जूझते हुए लाछिमान ने फौज में जाना चुना।
30 दिसंबर, 1940, लाछिमान 23 साल के हुए और इसी दिन उन्होंने ब्रिटिश इंडियन आर्मी ज्वाइन कर ली लेकिन उनकी भर्ती भी अपने आप में एक कहानी है। फौज में भर्ती के लिए न्यूनतम लंबाई का एक नियम था पर लाछिमान का कद था सिर्फ 4 फीट 11 इंच। अगर शांति का समय होता तो उन्हें कभी नहीं चुना जाता लेकिन यह दौर था दूसरे विश्व युद्ध का। ब्रिटेन को सैनिकों की सख्त ज़रूरत थी। दुश्मन दरवाज़े पर खड़ा हो तो नियम-कानून ताक पर रख दिए जाते हैं। लंबाई का नियम हटा और किस्मत ने लाछिमान के लिए 8वीं गोरखा राइफल्स का दरवाज़ा खोल दिया।
यह भी पढ़ें- B-2 स्पिरिट बॉम्बर इतना महंगा क्यों है? इसकी खूबियां जान लीजिए
ट्रेनिंग के बाद लाछिमान को बर्मा के मोर्चे पर भेजा गया। साल था 1945। बर्मा का अभियान, जिसे अक्सर 'भूला हुआ युद्ध' कहा जाता है, अपने आखिरी चरण में था। यहां लड़ना आसान नहीं था। दुश्मन सिर्फ जापानी सैनिक नहीं थे। दुश्मन थी जानलेवा बीमारियां, ज़हरीले सांप-बिच्छू और ऐसा मौसम जो शरीर को निचोड़ लेता था। जापानी सैनिक बुरी तरह थक चुके थे, बीमार थे और उनके पास खाने-पीने की भी कमी थी लेकिन वे अब भी पूरे जोश से लड़ रहे थे। उनकी रणनीति थी- आखिरी आदमी तक लड़ो। इसी माहौल में लाछिमान की 7वीं भारतीय डिवीजन को इरावदी नदी के पश्चिमी किनारे पर पीछे हट रही जापानी टुकड़ियों का रास्ता रोकने का काम सौंपा गया था। वह उस बड़ी जंग की एक छोटी सी लेकिन सबसे अहम कड़ी थे, जिसके टूटने का मतलब पूरी चेन का टूटना हो सकता था और इसी मिशन के तहत उन्हें उस खाई पर तैनात किया गया था।
एक हाथ और चार घंटे की रात
वापस चलते हैं उसी खाई में। 13 मई, 1945 की रात। धमाका हो चुका था। लाछिमान का दाहिना हाथ बेकार हो चुका था, शरीर खून से लथपथ था और दोनों साथी घायल थे। कोई भी साधारण इंसान इस हालत में या तो मर जाता या दर्द से तड़पता रहता या फिर सरेंडर कर देता लेकिन लाछिमान गुरुंग साधारण नहीं थे। वह एक गोरखा थे। उन्होंने दर्द को नज़रअंदाज़ किया। अपनी भारी-भरकम ली-एनफील्ड राइफल को उठाया और अपने बचे हुए बाएं हाथ से उसे लोड किया। यह एक ऐसा काम जो लगभग नामुमकिन था। एक बोल्ट-ऐक्शन राइफल को एक हाथ से, वह भी बाएं हाथ से, चलाना और रीलोड करना अविश्वसनीय रूप से मुश्किल था लेकिन लाछिमान ने यह किया।
यह भी पढ़ें- लीबिया के तानाशाह गद्दाफी को कैसे मार डाला गया? पढ़िए पूरी कहानी
जापानी सैनिक, जो यह सोचकर आगे बढ़ रहे थे कि अब कोई मुकाबला नहीं बचा है, राइफल की गोलियों से चौंक गए। लाछिमान ने एक के बाद एक फायर करना शुरू कर दिया। वह हर हमले का इंतजार करते और जैसे ही दुश्मन पास आता, उस पर अचूक निशाना लगाते। अगले चार घंटों तक यही चलता रहा। वह अकेले, एक हाथ से जापानी सेना के हर हमले को नाकाम करते रहे। इस दौरान वह सिर्फ गोली ही नहीं चला रहे थे, बल्कि पूरी ताकत से चिल्ला भी रहे थे। उनका नारा जंगल में गूंज रहा था: 'आओ, एक गोरखा से लड़कर देखो!' कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक, वह गोरखाओं का युद्धघोष, 'जय महाकाली! आयो गोरखाली!' भी लगा रहे थे।
उनकी इस हिम्मत ने पीछे की खाइयों में मौजूद उनके साथियों में भी नया जोश भर दिया। एक अकेले, बुरी तरह घायल सैनिक को 200 लोगों से लड़ते देखकर उनका हौसला भी आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने भी अपनी पोजीशन नहीं छोड़ी और हर हमले को नाकाम किया। चार घंटे बाद, जब सुबह की पहली किरण आसमान में फैली तो जापानी सेना थक-हारकर पीछे हट गई। लड़ाई खत्म हो चुकी थी। जब गिनती हुई, तो उस इलाके में जापानियों की 87 लाशें पड़ी थीं और उन 87 में से, 31 लाशें ठीक उस खाई के सामने थीं, जिसे लाछिमान गुरुंग ने अकेले दम पर संभाला था।
बाद में आधिकारिक रिपोर्ट में लिखा गया कि अगर दुश्मन उस एक खाई पर कब्ज़ा कर लेता तो पूरी बटालियन की पोजीशन खतरे में पड़ जाती। उस एक सिपाही ने अपनी अटूट हिम्मत से न सिर्फ खुद को बचाया बल्कि अपने सभी साथियों को भी बचाया और दुश्मन की हार तय कर दी।
बदन पर ज़ख्म, सीने पर तमगा
लाछिमान गुरुंग की बदौलत मोर्चा तो बचा लिया गया लेकिन एक और चुनौती अभी बाकी थी। लाछिमान की हालत नाजुक थी। ग्रेनेड के धमाके ने उनके दाहिने हाथ की उंगलियों को उड़ा दिया था और उनकी बांह की हड्डी को चकनाचूर कर दिया था। उनका चेहरा, शरीर और दाईं टांग, छर्रों से छलनी हो चुके थे। चेहरे पर लगे ज़ख्म इतने गहरे थे कि उनकी दाहिनी आंख की रोशनी हमेशा के लिए चली गई।
यह भी पढ़ें- इजरायल ने कैसे बना लिया था परमाणु बम? पढ़िए पूरी कहानी
ऐसे ज़ख्मों के साथ, बर्मा के उस घने जंगल में किसी का भी बच निकलना एक चमत्कार से कम नहीं होता लेकिन यहीं पर पोर्टेबल सर्जिकल हॉस्पिटल काम आए। ये छोटे, मोबाइल अस्पताल होते थे जिन्हें लड़ाई के मोर्चे के बहुत पास बना लिया जाता था। यहां खून रोकने के लिए टॉर्नीकेट बांधा जाता, दर्द कम करने के लिए मॉर्फीन दी जाती और इन्फेक्शन रोकने के लिए सल्फा पाउडर का इस्तेमाल होता था। इसके बाद एयर इवैक्यूएशन के ज़रिए गुरुंग को बाहर निकाला गया और उनकी जान बच पाई।
उनकी वीरता की बदौलत उन्हें 19 दिसंबर, 1945 को दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले में एक भव्य समारोह में लाछिमान को विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया। यह ब्रिटिश और कॉमनवेल्थ सेनाओं को दिया जाने वाला वीरता का सबसे बड़ा और सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार था। भारत के वायसराय, फील्ड मार्शल लॉर्ड वेवेल ने खुद उनके सीने पर ये तमगा सजाया।
युद्ध वीरता सम्मान- एक सैनिक की कहानी अक्सर यहां ख़त्म हो जाती है लेकिन लाछिमान को युद्ध के बाद भी कई चुनौतियों से जूझना पड़ा। 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तो ब्रिटिश सेना की गोरखा ब्रिगेड का बंटवारा हुआ। लाछिमान की 8वीं गोरखा राइफल्स भारतीय सेना का हिस्सा बनी और उन्होंने अपनी रेजिमेंट के साथ ही रहने का फैसला किया। वह भारतीय सेना में सेवा करते रहे और उन्हें हवलदार के पद पर पदोन्नत किया गया, जिसके बाद 1947 में ही वह रिटायर होकर अपने गांव लौट गए।
लंदन में लड़ी आखिरी लड़ाई
साल 1947, हवलदार लाछिमान गुरुंग के सीने पर विक्टोरिया क्रॉस जैसा सबसे बड़ा सम्मान था लेकिन ज़िंदगी की हकीकत बिल्कुल अलग थी। वह वापस नेपाल के अपने गांव लौट आए और उसी ज़मीन पर खेती करने लगे जिसे वह सालों पहले छोड़कर गए थे। उनका गांव बहुत दूर-दराज के इलाके में था। अपनी मामूली सी पेंशन लेने के लिए भी उन्हें हर महीने संघर्ष करना पड़ता था। उन्हें 12 मील तक एक पहाड़ पर चढ़ना और उतरना पड़ता था, सिर्फ इसलिए ताकि वह एक सड़क तक पहुंच सकें जहां से उन्हें बस मिल सके। जब वह बूढ़े हो गए और चलना-फिरना मुश्किल हो गया तो उनका बेटा उन्हें अपनी पीठ पर लादकर पहाड़ से नीचे सड़क तक लाता और फिर वापस ले जाता था।
कई सालों बाद, जब उनकी यह हालत लोगों के सामने आई तो 1995 में गुरखा वेलफेयर ट्रस्ट ने उन्हें एक नया और बेहतर घर बनाने के लिए पैसे दिए। उसी साल, उन्हें लंदन बुलाया गया, जहां ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जॉन मेजर ने उन्हें 100,500 पाउंड का एक चेक भेंट किया।
यह भी पढ़ें- ईरान के खुमैनी का UP से कनेक्शन कैसे है? पूरी कहानी समझिए
इसके बाद भी लाछिमान गुरुंग की लड़ाई अभी भी खत्म नहीं हुई थी। आख़िरी जंग थी इंसाफ के लिए। मुद्दा था ब्रिटेन का अपने गोरखा सैनिकों से भेदभाव। जिन्होंने ब्रिटिश क्राउन के लिए अपनी जान दी, उन्हें न तो ब्रिटेन में बसने का हक़ था और न ही बराबर पेंशन मिलती थी।
इस नाइंसाफी के खिलाफ 2008 में 'गोरखा जस्टिस कैंपेन' शुरू हुआ और 90 साल के लाछिमान इसका चेहरा बने। मशहूर अभिनेत्री जोआना लुमली की आवाज़ और लाछिमान जैसे नायकों की मौजूदगी ने पूरे ब्रिटेन को उनके समर्थन में खड़ा कर दिया। आखिरकार, 21 मई, 2009 को सरकार झुकी और गोरखाओं को ब्रिटेन में बसने का अधिकार मिला।
इसी अधिकार के तहत लाछिमान 2008 में लंदन के हाउंसलो में आकर बस गए, जहां उनकी पोती अमृता ने उनकी देखभाल की। नवंबर 2010 में उन्होंने बकिंघम पैलेस में महारानी एलिजाबेथ द्वितीय की ओर से आयोजित एक स्वागत समारोह में भाग लिया लेकिन उनका स्वास्थ्य अब जवाब दे रहा था। उन्हें निमोनिया के कारण अस्पताल में भर्ती कराया गया और 12 दिसंबर, 2010 को 92 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। एक ऐसे व्यक्ति का जीवन समाप्त हुआ, जिसने जवानी में अपने देश के लिए और बुढ़ापे में अपने लोगों के सम्मान के लिए लड़ाई लड़ी।