साल 1900, फरवरी का महीना था। घुप अंधेरी रात थी। सेंतरा के घने जंगलों में कुछ लोग दबे पाव आगे बढ़ रहे थे। उनकी आंखों में उम्मीद की चमक थी। साथ ही डर का साया भी था। उम्मीद इसलिए क्योंकि उन्हें 500 रुपये का इनाम मिलने वाला था और डर इसलिए क्योंकि वह जिसका शिकार करने निकले थे, वह कोई आम इंसान नहीं था। वह थे बिरसा मुंडा।
 
के.एस. सिंह अपनी किताब 'बिरसा मुंडा एंड हिज मूवमेंट 1874-1901' में लिखते हैं कि मनमारु और जारिकेल गाव के सात लोगों ने सेंतरा के पश्चिम में एक अलाव का धुआं देखा। यह धुआ जंगल की गहराई से आ रहा था। वे चुपके से वहां पहुचे, अंदर बिरसा मुंडा सो रहे थे। उनके पास दो तलवारें रखी थीं। पास में ही उनकी दो साथी महिलाएं खाना बना रही थीं। हमलावरों ने सही मौके का इंतजार किया। जैसे ही बिरसा गहरी नीद में डूबे, वे उन पर टूट पड़े। बिरसा अपनी तलवारें इस्तेमाल कर पाते, उससे पहले ही उन्हें दबोच लिया गया। यह थी कहानी उस शख्स की गिरफ्तारी की, जिन्हें आदिवासियों का ‘भगवान’ कहा जाता है। उनके ‘धरती आबा’, वह शख्स, जिसने अंग्रेजी हुकूमत की नीदें उड़ा रखी थीं और जिसकी मौत आज भी कई सवालों के घेरे में है। इस लेख में हम जानेंगे कि आखिर क्या हुआ था उस गिरफ्तारी के बाद और कैसे हुई थी बिरसा मुंडा की मृत्यु।

 
कौन थे बिरसा मुंडा और क्यों कांपती थी अंग्रेजी हुकूमत?

 

बिरसा मुंडा का नाम आज भी एक प्रतीक है। आदिवासी अस्मिता का प्रतीक। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का प्रतीक। उन्होंने सिर्फ 25 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन अपने छोटे से जीवन में ही बिरसा ने एक ऐसी चिंगारी जलाई, जिसकी तपिश ने ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाकर रख दिया था। यह चिंगारी थी शोषण और अन्याय के खिलाफ। उनके लोग उन्हें ‘भगवान बिरसा’ कहकर पूजते थे।  वे उन्हें ‘धरती आबा’ यानी पृथ्वी का पिता भी मानते थे। बिरसा का एक सपना था। वह चाहते थे कि जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों का हक हो। वह एक ऐसा राज चाहते थे जहां कोई बाहरी शोषक न हो। उनका सपना था एक स्वतंत्र मुंडा राज।

 

यह भी पढ़ें- क्या ओशो की हत्या की गई थी? मौत के आखिरी दिनों की कहानी


 
ईसाई धर्म छोड़कर उन्होंने एक नए धर्म की शुरुआत की थी, जिसे बिरसैत कहते थे। ईसाई धर्म परिवर्तन के ख़िलाफ़ लड़ाई के चलते  बिरसा को 1895 में पहली बार गिरफ्तार किया गया। उन्हें दो साल की सजा हुई। नवंबर 1897 में जब वह जेल से रिहा हुए, तब तक उनके इरादे और भी मजबूत हो चुके थे। उस दौरान हालात और भी बदतर हो गए थे। 1896-97 और 1899-1900 में भयानक अकाल पड़ा। इस अकाल ने लोगों की कमर तोड़ दी थी। बिरसा ने अपने लोगों की इन तकलीफों को अपनी आंखों से देखा था।


 
जेल से रिहा होते ही बिरसा ने काम शुरू कर दिया। उन्होंने अपने विश्वस्त साथियों के साथ गुप्त बैठकें करनी शुरू कर दीं। एक अहम बैठक बोड़तोडीह गांव में हुई।  यह बैठक उनके प्रमुख शिष्य डोंका मुंडा के घर पर हुई थी। यहां से आंदोलन की नई रणनीति तय की गई। शिष्यों को दो दलों में बाटा गया। एक दल का काम था धर्म का प्रचार करना। दूसरे दल का काम था विद्रोह का संगठन करना। धार्मिक संगठन का प्रमुख सोमा मुंडा को बनाया गया और राजनीतिक संगठन की जिम्मेदारी डोंका मुंडा को दी गई। 

 

यह भी पढ़ें- 111 एनकाउंटर करने वाले प्रदीप शर्मा खुद कैसे फंस गए? पढ़िए पूरी कहानी

 

उनका प्रचार जोर पकड़ने लगा। लोगों को उनके पुरखों के सुनहरे अतीत की याद दिलाई जाने लगी। वह दौर जब मुंडा समाज में कोई बाहरी दखल नहीं था। उन्हें बताया गया कि कैसे राजाओं और जमींदारों ने उन्हें उनकी ही जमीन पर मजदूर बना दिया। कैसे उनके कपड़े, पगड़ी और जूते तक छीन लिए गए। उन्हें मंदिरों में घुसने तक की इजाजत नहीं थी। वे अच्छे बर्तनों में खाना तक नहीं खा सकते थे। ये सारी बातें अंग्रेजी हुकूमत और उनके पिट्ठुओं के खिलाफ लोगों के दिलों में आग भर रही थीं।

आंदोलन की तैयारी

 

जनवरी 1898 में बिरसा एक यात्रा पर निकले। वह अपने अनुयायियों के साथ चुटिया के प्राचीन मंदिर गए। ऐसा माना जाता था कि वहां मुंडाओं के अधिकारों से जुड़ा एक ताम्रपत्र रखा है। इस यात्रा का मकसद था पुरखों का आशीर्वाद लेना। बिरसा लोगों में यह विश्वास जगाना चाहते थे कि उनका संघर्ष न्यायपूर्ण है। वहां उन्होंने अपने लोगों के साथ रात बिताई। के. एस. सिंह एक किस्सा बताते हैं। बिरसा ने वहां चूल्हे पर रखे मिट्टी के ढेले और पत्थर का उदाहरण दिया। उन्होंने समझाया कि कैसे दिकू यानी बाहरी लोग, उन पर मिट्टी की तरह हावी हो गए हैं लेकिन एक दिन वे पत्थर की तरह ऊपर उठेंगे।
 
इन्हीं दिनों दो पहाड़ियों पर गुप्त सभाएं होने लगीं। डोंबारी पहाड़ी और सिंबुआ पहाड़ी। डोंबारी पहाड़ी बिरसा के बचपन की यादों से जुड़ी थी। अब यही पहाड़ी नए उलगुलान यानी विद्रोह का केंद्र बन रही थी। मार्च 1898 में सिंबुआ पहाड़ी पर एक महत्वपूर्ण बैठक हुई। यहां होली का त्योहार मनाया गया। एक विशाल अलाव जलाया गया। ब्रिटिश साम्राज्य का पुतला जलाया गया। महारानी विक्टोरिया का पुतला भी जलाया गया। बिरसा ने ऐलान किया कि रावण के राज का अंत होगा। यहां रावण का मतलब था अंग्रेज। वहां एक अनुयायी ने केले के पेड़ के तने पर एक ही वार में उसे काट गिराया। इस तने को दुश्मन का प्रतीक माना गया था। इसके बाद बिरसा ने घोषणा की – 'इसी तरह राजा और हाकिम काटे जाएंगे।'

 

यह भी पढ़ें- अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को कैसे मारा था? पढ़िए आखिरी दिनों की कहानी


 
दो साल तक गहन तैयारी चली। इसके बाद, दिसंबर 1899 में बिरसा मुंडा ने उलगुलान का बिगुल फूंक दिया। तारीख थी 24 दिसंबर 1899, क्रिसमस की पूर्व शाम। छोटानागपुर के कई इलाकों में एक साथ विद्रोह भड़क उठा। चक्रधरपुर, खुंटी, कर्रा, तोरपा, तामार, बसिया- इन सभी थाना क्षेत्रों में बिरसाइयों ने तीर चलाए। उन्होंने चर्चों और मिशनरियों के ठिकानों पर हमले किए। कई जगह आगजनी भी की गई। 5 जनवरी 1900 को एक सीधी मुठभेड़ हुई। यह खुंटी के एटकेडीह गाव में विद्रोहियों और पुलिस के बीच हुई। फिर 7 जनवरी को खुंटी थाने पर हमला हुआ। लगभग तीन-चार सौ हथियारबंद विद्रोहियों ने यह हमला किया था। उनका नारा था, 'खुंटी में फसल पक गई है, चलो इसे काटें।'
 
इन घटनाओं से अंग्रेजी हुकूमत बुरी तरह हिल गई। कमिश्नर फोर्ब्स विद्रोह को कुचलने के लिए निकल पड़े। उनके साथ भारी पुलिस और सेना बल था। बांदगाव को इस ऑपरेशन का केंद्र बनाया गया। पोड़ाहाट के जंगलों में बिरसा मुंडा की तलाश में एक सघन अभियान चलाया गया। सरकार ने बिरसा की गिरफ्तारी पर एक बड़ा इनाम रखा। यह इनाम था पांच सौ रुपये का। यही वह पृष्ठभूमि थी, जिसके चलते बिरसा मुंडा पकड़े गए। फरवरी 1900 में, सेंतरा के जंगल में। जैसा कि हमने कहानी की शुरुआत में देखा था। 

जेल की सलाखें और आखिरी दिन

 

गिरफ्तारी के बाद बिरसा मुंडा को रांची जेल लाया गया। उन्हें कड़ी सुरक्षा में रखा गया। टॉर्चर किया गया। कोड़े बरसाए गए।  के.एस. सिंह के अनुसार, इसके बावजूद जेल में भी बिरसा अपने साथियों की चिंता करते थे। वह अपने उन चार सौ अनुयायियों को बचाने की तरकीबें सोचते रहते थे जो जेल में बंद थे। उन्होंने अपने एक साथी भरमी मुंडा से एक योजना साझा की। उन्होंने कहा कि मजिस्ट्रेट के सामने वे सब उन्हें पहचानने से इनकार कर दें। बिरसा ने कहा कि वह खुद भी ऐसा ही करेंगे। शायद यही उनकी जान बचाने का तरीका था। 

 

यह भी पढ़ें- ईद-उल-अजहा: आखिर कैसे हुई बकरीद और कुर्बानी की शुरुआत?


ऐसा लगता है कि उन्हें अपनी मौत का भी आभास हो गया था। के एस सिंह अपनी किताब में बिरसा के कहे शब्दों का जिक्र करते हैं, 'जब तक मैं यह मिट्टी का शरीर नहीं बदलूगा, तुम नहीं बचोगे। निराश मत होना। यह मत सोचना कि मैंने तुम्हें बीच मझधार में छोड़ दिया। मैंने तुम्हें सारे हथियार, सारे औजार दिए हैं। तुम उनसे खुद को बचाओगे।'

 

जेल में होने के बावजूद उनके तेवर जरा भी नरम नहीं पड़े थे। कभी-कभी वह गुस्से में पहरेदारों पर चिल्ला पड़ते थे। वह कहते, 'आज तुम मुझ पर पहरा दे रहे हो। एक दिन तुम देखोगे कि मैं इस धरती का क्या करता हू। जैसे बाजरा चक्की में पिसता है, मैं इस धरती को पीसूंगा। जैसे गोंदली को भूना जाता है, मैं इसे भूनूंगा। अगर यह धरती टुकड़ों में भी बट जाए, तो भी मैं इसे नहीं छोडूगा।'
 
20 मई 1900, सुबह बिरसा को खाना दिया गया लेकिन उन्होंने उसे छुआ तक नहीं। उस वक्त उन्होंने किसी बेचैनी की शिकायत भी नहीं की थी। सुबह करीब पौने 6 बजे, उन्हें उन्नीस अन्य कैदियों के साथ कोर्ट ले जाया गया लेकिन अदालत में ही उनकी तबीयत बिगड़ गई। उन्हें फौरन वापस जेल लाना पड़ा। सुबह पौने 10 बजे जेल के अस्पताल सहायक ने उन्हें कुछ दवा दी। बाद में सुपरिटेंडेंट ने उनकी जाच की। उन्होंने पाया कि बिरसा की नाड़ी बहुत कमजोर है, उनकी आखें धस गई थीं और आवाज भारी हो गई थी। उनकी जीभ सूखी और चिड़चिड़ी थी। उन्हें बहुत ज्यादा प्यास लग रही थी। उन्होंने बताया कि वह सिर्फ एक बार ही पेशाब कर पाए हैं।

 

यह भी पढ़ें- ओसामा बिन लादेन के आखिरी दिनों की पूरी कहानी क्या है?


 
अगले तीन दिनों तक उनकी हालत बहुत खराब रही। फिर 1 जून 1900 को डिप्टी कमिश्नर को एक खबर दी गई। उन्हें बताया गया कि बिरसा को हैजा हो गया है और उनका बचना मुश्किल है। डिप्टी कमिश्नर फौरन जेल गए। उन्होंने बिरसा की हालत देखी जो वाकई बहुत खराब थी। उन्होंने तुरंत जेल सुपरिटेंडेंट कैप्टन ए.आर.एस. एंडरसन को बुलाया। कैप्टन एंडरसन के इलाज से बिरसा की हालत में कुछ सुधार हुआ। 7 जून तक वह धीरे-धीरे बेहतर हो रहे थे लेकिन यह सुधार ज्यादा दिन तक नहीं टिक सका। 8 जून की सुबह उनकी तबीयत फिर से बिगड़ गई। उस रात उन्हें तीन बार दस्त हुए। अगली सुबह, यानी 9 जून को, एक बार और दस्त हुए। अब वह बहुत ज्यादा कमजोर हो गए थे। सुबह करीब 8 बजे का वक्त था। अचानक उन्होंने एक आवाज निकाली। उन्हें खून की उल्टी का दौरा पड़ा और वह बेहोश हो गए और सुबह 9 बजे, उनकी मौत हो गई।  सिर्फ 25 साल की उम्र में आदिवासियों का वह महानायक दुनिया छोड़ गया।

 
मौत पर उठे सवाल

 

बिरसा की मौत की खबर से जेल में हड़कंप मच गया। के.एस. सिंह लिखते हैं कि जब उनके शव को बाहर लाया गया तो एक अजीब घटना हुई। सभी बिरसाइयों को अपने मालिक की पहचान करने के लिए बुलाया गया लेकिन डर के मारे किसी ने भी उन्हें नहीं पहचाना। उसी दिन, 9 जून को दोपहर ढाई बजे, शव का पोस्टमॉर्टम किया गया। यह पोस्टमॉर्टम राची जेल के सुपरिटेंडेंट ने किया था। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में कुछ बाते सामने आईं। पेट के कुछ हिस्सों में खून जमा हुआ था। पेट में खून और दूसरे तरल पदार्थ भी थे और छोटी आंत कमजोर और पतली पड़ गई थी। रिपोर्ट में जहर की जांच भी की गई।

 

आधिकारिक तौर पर, मौत का कारण हैजा बताया गया। डॉक्टर के अनुसार, हैजे की वजह से उनके दिल के बाईं ओर खून के थक्के जम गए थे और इसी के चलते बिरसा मुंडा की मौत हुई लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह था कि उन्हें हैजा हुआ कैसे? यह बात आज भी सवालों के घेरे में है। पूछताछ के दौरान बिरसा ने साफ कहा था कि उन्होंने जेल के बाहर से कुछ भी खाया या पिया नहीं है। हैरानी की बात यह थी कि उनकी कोठरी के आस-पास बंद दूसरे सभी कैदी पूरी तरह स्वस्थ थे। कैप्टन एंडरसन ने काफी जाच-पड़ताल की लेकिन वह भी इस नतीजे पर नहीं पहुच सके कि बिरसा को हैजा आखिर हुआ कैसे। यह एक रहस्य बनकर रह गया।

 

यह भी पढ़ें- इस्लाम vs ईसाइयत: सलादीन ने कैसे जीत लिया था येरुशलम?


 
इस मामले की जांच एक डिप्टी मजिस्ट्रेट को सौंपी गई। उनका नाम था जे.ए. क्रेवन। क्रेवन ने 10 जून 1900 को अपनी रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट में उन्होंने मौत को प्राकृतिक कारणों से हुई बताया। उनका कहना था कि बिरसा का शरीर पेचिश के कारण काफी कमजोर हो गया था। इसी कमजोरी के चलते वह हैजे का हमला नहीं झेल पाए लेकिन हैजे का कारण क्या था? इस सवाल पर वह भी सिविल सर्जन की तरह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके। उन्होंने कहा कि यह मामला हमेशा एक रहस्य ही बना रहेगा। राज्य सरकार ने भी यही बात दोहराई। उन्होंने पुष्टि की कि बिरसा की मौत हैजे से हुई थी। साथ ही यह भी कहा कि अगर वह पहले से बीमार न होते तो शायद हैजा घातक साबित न होता लेकिन क्या सचमुच ऐसा ही था? उस समय के एक अखबार ‘घरबंधु’ ने बिरसा की मौत पर हैरानी जताई थी। अखबार ने एक शक भी जाहिर किया। शक था कि कहीं इसके पीछे उन लोगों का हाथ तो नहीं, जो बिरसा से छुटकारा पाना चाहते थे। के. एस. सिंह भी अपनी किताब में इस संभावना की ओर इशारा करते हैं। वह लिखते हैं, 'बिरसा मुंडा को हटाने के ठोस कारण थे। आजीवन कारावास के बाद भी बिरसा खतरनाक साबित हो सकते थे। इसलिए यह संभव था कि उन्हें ज़हर दे दिया गया हो।' तो क्या बिरसा मुंडा की मौत स्वाभाविक थी? या यह एक सोची समझी साजिश थी? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब आज भी किसी के पास नहीं लेकिन आज भी झारखंड के आदिवासी इलाक़ों में बिरसैत लोग ग़ैर बिरसैतों का बनाया खाना नहीं खाते क्योंकि उनका मानना है कि बिरसा मुंडा को खाने में ज़हर दिया गया था।

  
अंतिम संस्कार और विरासत

 

बिरसा की मौत के बाद, उनके अंतिम संस्कार को लेकर भी कोई नरमी नहीं बरती गई। अधिकारियों को एक डर सता रहा था। उन्हें डर था कि अगर बिरसा के प्रमुख अनुयायियों को अंतिम संस्कार देखने के लिए जेल से बाहर जाने दिया गया तो वे इसे गलत तरीके से पेश कर सकते हैं। कुछ वृत्तांतों के अनुसार, अंग्रेज़ों ने गुप्त रूप से उनका दाह संस्कार इसलिए कर दिया ताकि उनके अनुयायी उन्हें शहीद का दर्जा न दे सकें। या उनकी समाधि स्थल पर विद्रोह की कोई नई चिंगारी न भड़क उठे। इसी डर से अंतिम संस्कार गुपचुप तरीके से किया गया। के. एस. सिंह बताते हैं कि बिरसा का अंतिम संस्कार राची में हरमू नदी के किनारे हुआ। यह काम जेल के एक स्वीपर द्वारा किया गया। शरीर को जलाने के लिए गाय के गोबर के उपलों का इस्तेमाल हुआ। यह एक तरह से मृत शरीर का अपमान था। 

 

बिरसा की मौत एक तरह से उनके आंदोलन के राजनीतिक पहलू का अंत थी। उनके ज्यादातर प्रमुख शिष्य जेल में थे। डोंका मुंडा और मंझिया मुंडा जैसे कुछ लोगों को आजीवन कारावास की सजा मिली। उन्हें हमेशा के लिए दूर भेज दिया गया था। जो लोग पीछे रह गए थे, वे डरकर चुप हो गए और जो बाद में जेल से वापस लौटे, वे इतने टूट चुके थे कि बिरसा के काम को आगे नहीं बढ़ा सके। कोई नेतृत्व नहीं बचा था और न ही कोई मजबूत संगठन बाकी था। बिरसाइत आंदोलन अब सिमट कर रह गया था। यह एक संप्रदाय के रूप में बस कुछ अलग-थलग इलाकों में ही जीवित रहा लेकिन बिरसा का प्रभाव समय के साथ खत्म नहीं हुआ, बल्कि और गहरा होता गया। 

 

बिरसा की मौत और उनके उलगुलान ने अंग्रेजी हुकूमत को अंदर तक झकझोर दिया था। इसका एक सीधा नतीजा निकला। सरकार आदिवासियों के भूमि अधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनाने पर गंभीरता से विचार करने लगी। बिरसा के आंदोलन का ही दबाव था कि सरकार को एक महत्वपूर्ण कानून बनाना पड़ा। यह था छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908। इस कानून ने मुंडारी खुंटकट्टी व्यवस्था को मान्यता दी। इसने आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल करने पर रोक भी लगाई। बेगारी प्रथा को खत्म करने की दिशा में भी कदम उठाए गए। यह बिरसा के संघर्ष की एक बहुत बड़ी जीत थी। भले ही यह जीत उनके दुनिया से जाने के बाद हासिल हुई।
 
बिरसा मुंडा सिर्फ एक व्यक्ति नहीं थे। वह एक विचार बन गए। उन्होंने एक चिंगारी जलाई थी। वहीं चिंगारी आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गई। आज हम उस महान आत्मा को नमन करते हैं। उनका जीवन और उनकी रहस्यमयी मौत, हमें हमेशा याद दिलाती रहेगी। उस दौर के संघर्ष की, अन्याय की और आदिवासी अस्मिता की उस महान लड़ाई की।