मजदूर, रेहड़ी-पटरी वालों को रेग्युलेट करने की कोशिश, क्या है चुनौती?
सरकार मजदूर, रेहड़ी-पटरी वालों को असंगठित क्षेत्र से संगठित क्षेत्र में लाने की कोशिश कर रही है, लेकिन इसमें कई चुनौतियां हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo Credit: PTI
भारत के शहरों की भीड़भाड़ वाली गलियों और गांवों के शांत खेत-खलिहानों और बगीचों में अर्थव्यवस्था का एक इंजन चुपके से चल रहा है—बिना टैक्स, बिना रेग्युलेशन, और अक्सर बिना किसी दस्तावेज के। यह है भारत की विशाल असंगठित अर्थव्यवस्था, जो इतनी बड़ी है कि यह देश के कुल लेबर फोर्स का लगभग 90% है और देश के जीडीपी में 45-50% का योगदान देती है। शायद इसीलिए सरकार इसे रूल्स-रेग्युलेशन के तहत लाने और संगठित बनाने की कोशिश कर रही है। हालांकि, यह इतना जटिल है कि इसे नीति निर्माताओं के लिए इसे संगठित क्षेत्र के अंतर्गत लाना बेहद मुश्किल है।
जैसे-जैसे भारत 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की दिशा में बढ़ रहा है, इस विशाल असंगठित क्षेत्र को संगठित क्षेत्र में शामिल करना जरूरी भी है भले ही यह कितना चुनौतीपूर्ण क्यों न हो? असंगठित क्षेत्र के लेबर फोर्स को संगठित क्षेत्र के अंतर्गत लाने से उत्पादकता बढ़ेगी, टैक्स नियमों का पालन बेहतर ढंग से हो सकेगा और श्रमिकों का भी जीवन स्तर सुधारने में आसानी होगी।
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कितना बड़ा है असंगठित क्षेत्र
2022-23 के पीएलएफएस सर्वे के अनुसार, भारत के लगभग 86% श्रमिक असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। इसमें खेती करने वाले, रेहड़ी-पटरी वाले, घरेलू नौकर, निर्माण मजदूर, और गिग इकॉनमी के श्रमिक शामिल हैं।
2021 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने भारत को उन देशों में शामिल किया जहां असंगठित क्षेत्र में रोजगार की दर सबसे ज्यादा है। नीति आयोग के एक पेपर (2022) के अनुसार, असंगठित क्षेत्रों में भी कुल आय का लगभग 50 फीसदी खेती, कॉन्स्ट्रक्शन, और रिटेल जैसे क्षेत्रों से आता है।
सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 47 करोड़ के कुल वर्कफोर्स में से करीब 80 प्रतिशत से ज्यादा लोग असंगठित क्षेत्र में हैं। इनमें से ज्यादातर के पास लिखित में कॉन्ट्रैक्ट, सामाजिक सुरक्षा, या बैंक ऋण की सुविधा नहीं है।
कितना मुश्किल संगठित करना
सरकार ने इसके लिए कई कदम उठाए हैं, जैसे 2017 में जीएसटी, एमएसएमई के लिए उद्यम रजिस्ट्रेशन पोर्टल, असंगठित श्रमिकों के लिए ई-श्रम पोर्टल, और रेहड़ी-पटरी वालों के लिए पीएम स्वनिधि योजना की शुरुआत।
उदाहरण के लिए, अप्रैल 2025 तक ई-श्रम पोर्टल पर 28 करोड़ से ज्यादा श्रमिक रजिस्टर्ड हो चुके हैं। लेकिन एक्सपर्ट्स का मानना है कि सिर्फ रजिस्ट्रेशन से सही मायने में किसी को संगठित क्षेत्र का मान लेना सही नहीं है।
अर्थशास्त्रियों के मुताबिक, ‘किसी श्रमिक या व्यवसाय को डेटाबेस में डालने से उनकी सामाजिक सुरक्षा या उत्पादकता नहीं बढ़ती। इसके लिए नियमों में बदलाव, बाजार तक पहुंच, और वित्तीय समावेशन जरूरी है।’
डिजिटल डिवाइड है समस्या
संगठित क्षेत्र के अंतर्गत लाने के लिए डिजिटल तकनीक पर सरकार का बहुत जोर है। यूपीआई और जन धन-आधार-मोबाइल (JAM) ने लाखों लोगों को बैंकिंग सिस्टम से जोड़ा है। भारत में हर महीने 12 अरब से ज्यादा यूपीआई लेनदेन हो रहे हैं, और छोटे व्यवसाय भी डिजिटल भुगतान स्वीकार कर रहे हैं।
लेकिन डिजिटल डिवाइड इसमें एक बड़ी समस्या है। TRAI के आंकड़ों के अनुसार, भारत में करीब 85 करोड़ इंटरनेट यूजर्स हैं, जिनके इसी साल 90 करोड़ पार कर जाने की संभावना है। जाहिर है कि इंटरनेट यूजर्स की संख्या तेजी से बढ़ रही है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट की पहुंच शहरी क्षेत्रों की तुलना में 30% कम है। वहीं छोटे शहरों और कस्बों के व्यापारियों के अंदर डिजिटल साक्षरता कम है जिसकी वजह से ई-गवर्नेंस या फिनटेक का लाभ उन तक नहीं पहुंच पाता।
हालांकि, एक्सपर्ट्स का मानना है कि डिजिटलीकरण को यह नहीं माना जा सकता कि असंगठित क्षेत्र के श्रमिक संगठित क्षेत्र में आ गए हैं क्योंकि भले ही रेहड़ी-पटरी वाले यूपीआई से पेमेंट लें, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें ऋण, बीमा, या कानूनी सुरक्षा मिल रही है।’
‘मिसिंग मिडिल’ की समस्या
भारत की असंगठित क्षेत्र की अर्थव्यवस्था सिर्फ छोटे व्यवसायों तक सीमित नहीं है। माइक्रो-उद्यमों और बड़े संगठित क्षेत्र के फर्मों के बीच मध्यम आकार वाले फर्म काफी कम हैं। या कहें कि वे टैक्स की नजर से बाहर हैं।
एमएसएमई मंत्रालय के अनुसार, भारत में 6.3 करोड़ से ज्यादा एमएसएमई हैं, लेकिन 2025 तक केवल 1.5 करोड़ ही उद्यम पोर्टल पर पंजीकृत हैं। कई व्यवसाय लागत बचाने के लिए असंगठित क्षेत्र के ही बने रहना चाहते हैंं। जीएसटी रिटर्न दाखिल करना, डिजिटल इनवॉइस रखना इत्यादि इसके खर्च को बढ़ाता है।
श्रम अर्थशास्त्री डॉ. संतोष मेहरोत्रा कहते हैं, ‘भारत में अनौपचारिकता को व्यवस्थित रूप से सामान्य बना दिया गया है। रोजगार देने वाले अनौपचारिक कॉन्ट्रैक्ट पसंद करते हैं, और सरकार श्रम कानून लागू करने में नाकाम रही है।’
सबसे ज्यादा खेती और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में
कृषि क्षेत्र, जो 43% से ज्यादा श्रमिकों को रोजगार देता है, पूरी तरह असंगठित है। ज्यादातर किसान छोटे या सीमांत हैं, जिनके पास न कोई निश्चित आय है, न ही बीमा और न ही अन्य सुरक्षा।
5.5 करोड़ से ज्यादा लोगों को रोजगार देने वाला निर्माण उद्योग भी काफी हद तक असंगठित है। दिहाड़ी मजदूर, जो अक्सर प्रवासी होते हैं, बिना किसी कॉन्ट्रैक्ट के काम करते हैं और शोषण का शिकार होते हैं। भवन और अन्य निर्माण श्रमिक कल्याण कोष (BOCW) में 70,000 करोड़ रुपये होने के बावजूद, 2024 तक केवल 25-30% ही वितरित हुआ।
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बड़ी संख्या में महिलाएं
असंगठित क्षेत्र का असर सबसे ज्यादा महिलाओं पर है। पीएलएफएस 2022-23 के अनुसार, 90% से ज्यादा कामकाजी महिलाएं असंगठित क्षेत्र में हैं, जैसे घरेलू काम, घर-आधारित हस्तशिल्प, और रेहड़ी-पटरी।
सामाजिक नियम, बच्चों की देखभाल की कमी, और सुरक्षा को लेकर चिंताएं महिलाओं को अनौपचारिक काम की ओर धकेलती हैं। एक्सपर्ट्स का कहना है कि महिलाएं अर्थव्यवस्था में छिपी श्रमिक हैं जो संख्या में काफी हैं लेकिन दिखती नहीं।
टैक्स बनाम इन्सेटिव
टैक्स बेस को बढ़ाने के लिए श्रमिकों को संगठित क्षेत्र में लाना जरूरी है, लेकिन विशेषज्ञ इसे सिर्फ राजस्व का साधन मानने के खिलाफ चेतावनी देते हैं। छोटे व्यवसाय डरते हैं कि रजिस्ट्रेशन से ऑडिट, जुर्माना, या ज्यादा खर्च बढ़ेगा।
2023 में एक सर्वे में 48% माइक्रो-उद्यमों ने कहा कि वे ‘टैक्स अधिकारियों के उत्पीड़न के डर’ से संगठित क्षेत्र के अंतर्गत नहीं आना चाहते। 36% ने कहा संगठित क्षेत्र के नियमों का पालन करना उनकी लागत को बढ़ा देगा।
अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज कहते हैं, ‘लोगों को संगठित क्षेत्र के अंतर्गत लाने के लिए उन्हें ऋण, सुरक्षा और प्रशिक्षण जैसे इन्सेंटिव देने की जरूरत है न कि सिर्फ नियम बनाने और टैक्स लगाने की।’
क्या हाइब्रिड मॉडल है फायदेमंद?
कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि पूरी तरह सब कुछ संगठित क्षेत्र में लाने बजाय भारत को एक हाइब्रिड मॉडल अपनाना चाहिए, जो असंगठित क्षेत्र के हकीकत को स्वीकार करे और सामाजिक सुरक्षा व उत्पादकता को बढ़ाए।
उदाहरण के लिए छोटे व्यापारियों के लिए सरल टैक्स व्यवस्था, असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए समूह-आधारित कौशल विकास इत्यादि। सेल्फ-एम्प्लॉयड वीमेन एसोसिएशन (SEWA) जैसे मॉडल दिखाते हैं कि सामूहिक प्रशिक्षण, कानूनी सहायता, और माइक्रोफाइनेंस इत्यादि की व्यवस्था से असंगठित क्षेत्र के लोगों की आजीविका बेहतर हो सकती है।
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