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बिहार का वह नेता, जिसने वोट नहीं मांगा और CM तक बन गया

श्रीकृष्ण सिंह बिहार के पहले मुख्यमंत्री थे। उन्होंने चुनाव हमेशा अपनी शर्तों पर लड़ा। शर्त यह थी कि चुनाव प्रचार नहीं करेंगे। इसके पीछे की वजह भी थी। उनके बेटे से जुड़ा भी एक किस्सा है।

Shrikrishna Singh.

श्रीकृष्ण सिंह (AI generated image)

संजय सिंह, पटना। बिहार केशरी श्रीकृष्ण सिंह ने स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। बेगूसराय के गढ़पुरा में नमक सत्याग्रह के दौरान ब्रिटिश शासकों का जमकर विरोध किया था। वे पेशे से वकील थे। मुंगेर जिला का हवेली खड़गपुर प्रखंड तब स्वतंत्रता सेनानियों का प्रमुख केंद्र था। यहां साहित्य महाविद्यालय और राजकीय बुनियादी विद्यालय जैसे स्कूल खोले गए थे। हवेली खड़गपुर के गौरवडीह गांव के निवासी बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नंदकुमार सिंह श्रीबाबू के परम मित्र थे।

 

स्वतंत्रता मिलने के बाद जब चुनाव की बारी आई तो नंदकुमार बाबू ने श्रीकृष्ण सिंह को हवेली खड़गपुर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने का न्योता दिया। चुनाव प्रचार बैलगाड़ी और टमटम से होता था। श्रीबाबू ने चुनाव लड़ने का आमंत्रण इस शर्त पर स्वीकार किया कि वे अपना चुनाव प्रचार नहीं करेंगे। उन्हें अपने व्यक्तित्व का भरोसा था। 

 

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राजनीति में आने के पूर्व श्रीबाबू का एक अपना व्यक्तित्व और आदर्श था। वे जब तक जीवित रहे परिवार के किसी भी सदस्य को राजनीति में आने नहीं दिया। यही हाल नंदकुमार बाबू का था। एक बार बेतिया में कुछ लोगों ने श्रीबाबू के पुत्र शिवशंकर सिंह को कांग्रेस का सदस्य बना दिया। यह बात पूरे प्रदेश में जंगल में लगी आग की तरह फैल गई। इसकी भनक जब श्रीबाबू को मिली तो उन्होंने मुख्यमंत्री का पद और आवास छोड़ने का मन बना लिया।

1957 में बरबीघा से चुनाव लड़ा

अपने पिता के इस निर्णय से शिवशंकर सिंह परेशान हो गए। वे आनन-फानन पटना पहुंचकर कांग्रेस की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। कांग्रेसी शिशिर सिंह बताते हैं कि श्रीबाबू हवेली खड़गपुर में कम अंतर से चुनाव जीत पाए थे। अगले चुनाव में उन्हें बरबीघा से चुनाव लड़ने का न्योता मिला। बरबीघा के विधायक लाला बाबू ने 1957 में श्रीबाबू के लिए बरबीघा की सीट छोड़ दी। 

 

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प्रचार नहीं करने की शर्त पर लड़े चुनाव

नैतिक मूल्यों के धनी श्रीबाबू ने तब लाला बाबू से पूछा आप कहां से चुनाव लड़ेंगे। लाला बाबू ने जब चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया तब वे चुनाव लड़ने के लिए राजी हुए। बरबीघा का चुनाव भी वे इस शर्त पर लड़े कि चुनाव प्रचार नहीं करेंगे। उनका मानना था कि जिस नेता में ईमानदारी पूर्वक 5 वर्षों तक काम किया उन्हें अपने लिए वोट मांगने की जरूरत क्या है? चुनावी राजनीति में रहने के बावजूद उन्होंने अपने विशिष्ट सिद्धांत के चलते अलग पहचान बनाई।

 

 

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