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444 दिन और 52 बंधक; जब ईरान के आगे गिड़गिड़ाता रहा अमेरिका!

अमेरिका और ईरान कभी दोस्त हुआ करते थे लेकिन आज दुश्मन हैं। अमेरिका और ईरान के रिश्तों में एक वक्त ऐसा भी आया था, जब ईरान के उग्रवादियों ने 444 दिनों तक 52 अमेरिकियों को बंधक बनाकर रखा था। क्या हुआ था? जानते हैं।

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प्रतीकात्मक तस्वीर। (AI Generated Image)

साल 1979 की 4 नवंबर। वह तारीख जब ईरान की राजधानी तेहरान में बने अमेरिकी दूतावास को ईरानी छात्रों ने घेर लिया। तब अमेरिकी दूतावास में 90 लोग थे। इनमें से 66 अमेरिकी थे। ईरानी छात्र रेजा शाह पहलवी को वापस ईरान भेजने की मांग कर रहे थे। 1979 में इस्लामिक क्रांति होने से पहले तक ईरान में रेजा शाह पहलवी का ही शासन था। इस्लामिक क्रांति के दौर में जब पहलवी का विरोध हुआ तो उन्होंने अपने परिवार के साथ ईरान छोड़ दिया और अमेरिका चले गए। ईरानी छात्रों ने इस मांग पर दूतावास को घेरा कि पहलवी को वापस ईरान भेजा जाए, ताकि उन्हें उनके किए की सजा दी जा सके। इन ईरानी छात्रों के ऊपर अयातुल्लाह रुहोल्लाह खुमैनी का हाथ था। 


6 नवंबर 1979 को ईरान के प्रीमियर मेहदी बजरगान ने इस्तीफा दे दिया और रुहोल्लाह खुमैनी और उनकी रिवॉल्यूशनरी काउंसिल को सत्ता सौंप दी। अगले दिन अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने ईरान से बातचीत करने के लिए एक टीम भेजी लेकिन रुहोल्लाह खुमैनी ने बात करने से मना कर दिया।


ईरान में अमेरिकी दूतावास में 444 दिन तक अमेरिकियों को बंधक बनाकर रखा गया था। इसे इतिहास की सबसे बड़ी 'होस्टेज क्राइसिस' में से एक माना जाता है। इस दौरान अमेरिका ने बंधकों की रिहाई के लिए कूटनीति का सहारा लिया, ईरान पर प्रतिबंध भी लगाए लेकिन बात नहीं बन सकी। आखिरकार अल्जीरिया में जाकर 19 जनवरी 1981 को दोनों के बीच समझौता हुआ और बंधक रिहा हुए।


444 दिनों तक चले इस पूरे संकट के दौरान अमेरिका और ईरान में जबरदस्त तनाव बना रहा। आज इसकी बात करना इसलिए जरूरी हो जाता है, क्योंकि एक बार फिर अमेरिका और ईरान में तनाव बढ़ गया है। वजह है कि अमेरिका ने ईरान की तीन न्यूक्लियर साइट- नतांज, फोर्दो और इस्फहान में बमबारी कर दी है। इससे एक बड़े संघर्ष का खतरा बढ़ गया है। आज के दौर में अमेरिका और ईरान एक-दूसरे के दुश्मन भले ही हों लेकिन एक वक्त दोनों में अच्छी दोस्ती हुआ करती थी।

 

 

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जब दोस्त हुआ करते थे अमेरिका-ईरान

ईरान में एक वक्त राजशाही हुआ करती थी। तब ईरान में मोहम्मद रेजा शाह पहलवी का शासन हुआ करता था। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ही ईरान में शाह का शासन शुरू हो गया था। हालांकि, इसके बाद ईरान में लोकतांत्रिक सरकार बनी और प्रधानमंत्री बने मोहम्मद मोसद्दिक। इसने शाह को कमजोर कर दिया। साल 1953 में अमेरिका की मदद से मोसद्दिक का तख्तापलट हो गया और ईरान की सत्ता दोबारा रेजा शाह पहलवी के हाथ में आ गई।


शाह के दौर में अमेरिका और ईरान में दोस्ती का एक कारण यह भी था कि रेजा शाह पहलवी पश्चिमी सभ्यता के पक्षधर थे। उनके दौर में ईरान पश्चिमी सभ्यता के करीब रहा। यहां महिलाओं को बहुत आजादी थी। लोगों को आजादी थी। 


हालांकि, एक धड़ा ऐसा भी था जो इन सबका विरोध करता था। यह धड़ा था अयातुल्लाह रुहोल्लाह खुमैनी का। साल 1964 में रेजा शाह पहलवी ने खुमैनी को देश निकाला दे दिया और वे पेरिस चले गए। इससे एक साल पहले 1963 में ईरान को आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत करने के मकसद से रेजा शाह पहलवी 'व्हाइट रिवॉल्यूशन' लेकर आए। खुमैनी और मौलवियों ने इसे इस्लाम के खिलाफ बताया। 

 


इसी बीच 1973 में जबरदस्त तेल संकट आया। इसने तेल पर निर्भर ईरान की अर्थव्यवस्था को गिरा दिया। इससे जनता में शाह को लेकर गुस्सा और भड़क गया। सितंबर 1978 तक आते-आते जनता का गुस्सा फूट पड़ा। शाह के खिलाफ जनता सड़कों पर उतर आई। देखते ही देखते ईरान में गृह युद्ध के हालात बन गए। हालात संभलने के लिए देश में मार्शल लॉ लगा दिया गया। जनवरी 1979 आते-आते ईरान में आंदोलन और भड़क उठा। हालात बेकाबू होने के बाद 16 जनवरी 1979 को रेजा पहलवी अपने परिवार के साथ मिस्र चले गए। ईरान छोड़ने से पहले रेजा पहलवी ने विपक्षी नेता शापोर बख्तियार को अंतरिम प्रधानमंत्री बना दिया। अक्टूबर 1979 में शाह अपने परिवार के साथ कैंसर के इलाज के लिए अमेरिका आ गए।

 

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दूतावास पर कब्जा और 52 बंधक

4 नवंबर 1979 को सैकड़ों ईरानी छात्रों ने तेहरान में अमेरिकी दूतावास के गेट तोड़ दिए। इन छात्रों ने कुछ ही देर में दूतावास पर कब्जा कर लिया। हथियारों के साथ आए इन छात्रों ने 66 अमेरिकियों को बंधक बना लिया। 


बंधकों में से एक 65 साल के कर्मचारी रॉबर्ट सी ओडे ने अपनी डायरी में लिखा था, 'हमारे हाथों को नायलॉन की रस्सी से इतनी कसकर बांध दिया था कि ब्लड फ्लो भी रुक गया था। हमें अपने साथी बंधकों से बात करने की इजाजत नहीं थी। हमारे हाथ हमेशा बंधे रहते थे। इन्हें तभी खोला जाता था, जब हम खाना खा रहे होते थे या बाथरूम जाते थे। वे छात्र हमसे कहते थे कि हम अमेरिकियों से नफरत नहीं करते हैं, बल्कि उन्हें हमारी जिमी कार्टर की सरकार से नफरत थी।'


6 अमेरिकी राजनयिक इन बंधकों से बचने में कामयाब रहे। इन्होंने कनाडा और स्वीडिश एंबेसी में तीन महीने तक छिपकर खुद को बचाया। ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह रुहोल्लाह खुमैनी ने दूतावास पर कब्जे को 'सही' ठहराया। खुमैनी ने ब्रिटेन से निर्वासित प्रधानमंत्री शापोर बख्तियार को भी सौंपने को कहा। खुमैनी ने यह भी धमकी दी कि शाह की वापसी के लिए जो भी जरूरी होगा, वह किया जाएगा।


दो हफ्ते बाद 19और 20 नवंबर को खुमैनी के आदेश पर महिलाओं और अफ्रीकी-अमेरिकी बंधकों को रिहा कर दिया गया। 11 जुलाई 1980 को एक और बंधक को बीमारी के कारण छोड़ दिया गया। बाकी बचे 52 बंधकों को हथकड़ी लगाकर पूरे दूतावास में घुमाया गया। उन्हें पीटा गया। प्रताड़ित किया गया। 


अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने ईरान पर कई प्रतिबंध लगा दिए। अमेरिका में मौजूद ईरानी संपत्तियों को जब्त कर लिया गया। ईरानी दूतावास से राजनयिकों को निष्कासित कर दिया गया। ईरानी छात्रों को भी वापस जाने को कह दिया गया। 

 

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अमेरिका का एक नाकाम ऑपरेशन

लेकिन इसके बावजूद छात्र बनकर घुसे हथियारबंद उग्रवादियों ने घुटने नहीं टेके। उन्होंने धमकी दी कि अगर अमेरिका ने ईरान के खिलाफ कोई सैन्य कार्रवाई की तो वे दूतावास को जला देंगे और बंधकों को मार डालेंगे। 


बंधकों की रिहाई के लिए जिमी कार्टर ने जो किया, उसका फायदा खुमैनी ने उठाया। क्योंकि इससे उन्हें ईरानियों के मन में अमेरिकियों को लेकर नफरत बढ़ाने में मदद मिली। 


25 अप्रैल 1980  को व्हाइट हाउस ने बताया कि बंधकों को बचाने के लिए एक मिलिट्री ऑपरेशन चलाया गया, जिसे 'ऑपरेशन ईगल क्लॉ' नाम दिया गया था लेकिन यह पूरी तरह फेल हो गया और इसमें 8 अमेरिकी सैनिक मारे गए। अमेरिकी सैनिक दूतावास के करीब भी नहीं पहुंच पाए। जैसे ही अमेरिकी सेना के हेलिकॉप्टर रेगिस्तान पहुंचे, वैसे ही दो हेलिकॉप्टर आपस में टकरा गए। इस टक्कर से दोनों हेलिकॉप्टर में सवार सैनिक मारे गए। उनकी लाशों को तेहरान में अमेरिकी दूतावास लाया गया। यहां उग्रवादियों ने उनकी लाशों के साथ एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की। लगभग एक महीने बाद उन सैनिकों की शवों को लौटाया गया।

 

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ऑपरेशन फेल तो कूटनीति का रास्ता

जिमी कार्टर ने इस ऑपरेशन की नाकामी की जिम्मेदारी ली। उन्होंने साफ किया कि बंधकों की जान दांव पर लगी होने के कारण वे एक और मिलिट्री ऑपरेशन करने का रिस्क नहीं उठा सकते। इसलिए उन्होंने कूटनीति का रास्ता अपनाया। 


अमेरिका और ईरान में जब तनाव चरम पर था, तभी 27 जुलाई 1980 को मिस्र में रेजा शाह पहलवी की मौत हो गई। इसके बाद बंधकों की रिहाई को लेकर अमेरिका और ईरान के बीच बात शुरू हुई। अयातुल्लाह रुहोल्लाह खुमैनी ने 12 सितंबर 1980 को एक नई शर्त रखी, जिसमें शाह पहलवी की संपत्ति लौटाना और ईरानी संपत्तियों की मुक्ति शामिल थी। 


अफ्रीदी देश अल्जीरिया में अमेरिका और ईरान के बीच बातचीत हुई। आखिरकार जिमी कार्टर के व्हाइट हाउस छोड़ने से एक दिन पहले 19 जनवरी 1981 को अमेरिका और ईरान के बीच समझौते पर दस्तखत हुए। जिमी कार्टर नवंबर 1980 में हुए चुनावों में रोनाल्ड रीगन से हार गए थे। 

 


इस समझौते में एक अहम पहलू यह भी था कि बंधकों की रिहाई जिमी कार्टर के व्हाइट हाउस में रहते हुए की जाए। हालांकि, ईरान ने इसकी गारंटी नहीं दी। रोनाल्ड रीगन ने 20 जनवरी को राष्ट्रपति पद की शपथ ली और उसी दिन बंधकों को रिहा किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि रोनाल्ड रीगन को बंधकों की रिहाई करवाने वाले राष्ट्रपति के रूप में याद किया जाता है। हालांकि, 444 दिन बाद रिहा हुए बंधक इसका क्रेडिट जिमी कार्टर को ही देते हैं। 


उग्रवादियों ने जिन्हें बंधक बनाया था, उनमें रॉकी सिकमैन भी थे। उन्होंने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में कहा था, 'चाहे दिन हो या रात, 444 दिनों तक, मैंने अपने जीवन में कभी इतनी प्रार्थना नहीं की, यह उम्मीद करते हुए कि भगवान हमारे साथ हैं लेकिन राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने भी हमें जिंदा रखा।'

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